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# कुटुम्ब में शिशु का जन्म होता है और नई पीढी का प्रारम्भ होता है। इस शिशु को चरित्रवान, कर्तृत्ववान और ज्ञानवान बनाकर कुटुम्ब समाज को एक सुयोग्य नागरिक प्रदान करता है । कुटुम्ब की यह श्रेष्ठ समाजसेवा है। समाज के लिये अत्यन्त मूल्यवान यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं नहीं हो सकता।  
 
# कुटुम्ब में शिशु का जन्म होता है और नई पीढी का प्रारम्भ होता है। इस शिशु को चरित्रवान, कर्तृत्ववान और ज्ञानवान बनाकर कुटुम्ब समाज को एक सुयोग्य नागरिक प्रदान करता है । कुटुम्ब की यह श्रेष्ठ समाजसेवा है। समाज के लिये अत्यन्त मूल्यवान यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं नहीं हो सकता।  
 
# कुटुम्ब में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ ये तीनों आश्रमों के सदस्य साथ साथ रहते हैं। तीन, और कहीं कहीं चार पीढियाँ साथ साथ रहती हैं । जीवन के सर्व प्रकार के अनुभव कुटुम्ब में होते हैं। सर्व प्रकार की आयु के सदस्यों के साथ व्यवहार करने की शिक्षा कुटुम्ब में मिलती है।  
 
# कुटुम्ब में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ ये तीनों आश्रमों के सदस्य साथ साथ रहते हैं। तीन, और कहीं कहीं चार पीढियाँ साथ साथ रहती हैं । जीवन के सर्व प्रकार के अनुभव कुटुम्ब में होते हैं। सर्व प्रकार की आयु के सदस्यों के साथ व्यवहार करने की शिक्षा कुटुम्ब में मिलती है।  
# कुटुम्ब जीवन भारतीय जीवनव्यवस्था की अमूल्य निधि है। उसकी प्रतिष्ठा करना भारत के लिये परम आवश्यक है। उसकी प्रतिष्टा करने से भारत का तो अभ्युदय होगा ही, अनेक प्रकार के मानसिक और सांस्कृतिक संकटों से ग्रस्त विश्व के लिये भी वह पथप्रदर्शक बनेगा।
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# कुटुम्ब जीवन धार्मिक जीवनव्यवस्था की अमूल्य निधि है। उसकी प्रतिष्ठा करना भारत के लिये परम आवश्यक है। उसकी प्रतिष्टा करने से भारत का तो अभ्युदय होगा ही, अनेक प्रकार के मानसिक और सांस्कृतिक संकटों से ग्रस्त विश्व के लिये भी वह पथप्रदर्शक बनेगा।
    
==== ४. स्वायत समाज की रचना ====
 
==== ४. स्वायत समाज की रचना ====
 
स्वायत्त समाज भारत की विशिष्ट पहचान है। इसका मूल है स्वतन्त्रता की चाह । स्वतन्त्रता के साथ स्वावलम्बन और जिम्मेदारी के तत्त्व भी जुड़े हुए हैं । जो जिम्मेदार और स्वावलम्बी नहीं वह स्वतन्त्र नहीं हो सकता।
 
स्वायत्त समाज भारत की विशिष्ट पहचान है। इसका मूल है स्वतन्त्रता की चाह । स्वतन्त्रता के साथ स्वावलम्बन और जिम्मेदारी के तत्त्व भी जुड़े हुए हैं । जो जिम्मेदार और स्वावलम्बी नहीं वह स्वतन्त्र नहीं हो सकता।
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स्वतन्त्रता की मूल परिभाषा परमात्मा के साथ जुडी है। परमात्मा के विषय में कहा गया है कि वह कर्तुमक अन्यथा कर्तुं समर्थ है अर्थात् करने नहीं करने या अलग पद्धति से करने में समर्थ है अर्थात् उसे रोकने टोकनेवाला कोई नहीं है। स्वतन्त्र का अर्थ है अपना तन्त्र अर्थात् अपनी व्यवस्था । अपनी व्यवस्था से रहना भारतीय व्यक्ति का और भारतीय समाज का लक्षण है।
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स्वतन्त्रता की मूल परिभाषा परमात्मा के साथ जुडी है। परमात्मा के विषय में कहा गया है कि वह कर्तुमक अन्यथा कर्तुं समर्थ है अर्थात् करने नहीं करने या अलग पद्धति से करने में समर्थ है अर्थात् उसे रोकने टोकनेवाला कोई नहीं है। स्वतन्त्र का अर्थ है अपना तन्त्र अर्थात् अपनी व्यवस्था । अपनी व्यवस्था से रहना धार्मिक व्यक्ति का और धार्मिक समाज का लक्षण है।
    
स्वायत्त का अर्थ है स्वाधीन । स्वाधीन होने का अर्थ है अपने स्वयं के ही अनुसार जीना, अपनी इच्छा सर्वोपरि होना । समर्थ समाज ही स्वायत्त और स्वतन्त्र होता है।
 
स्वायत्त का अर्थ है स्वाधीन । स्वाधीन होने का अर्थ है अपने स्वयं के ही अनुसार जीना, अपनी इच्छा सर्वोपरि होना । समर्थ समाज ही स्वायत्त और स्वतन्त्र होता है।
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==== ५. स्थिर समाज बनाना ====
 
==== ५. स्थिर समाज बनाना ====
शिक्षा को भारतीय बनाने के लिये स्थिर समाज की आवश्यकता होती है । संगठित समाज ही स्थिर समाज होता है। हमारा इस बात की ओर कदाचित ध्यान नहीं जाता है कि ब्रिटीश शासन के काल में सर्वाधिक क्षति समाज व्यवस्था को पहुँची है । सहस्रों वर्षों से जिन व्यवस्थाओं से समाज का संचालन होता आया था उन सभी व्यवस्थाओं को छिन्न-विच्छिन्न कर नष्ट कर दिया गया । इस हद तक उन व्यवस्थाओं को लेकर जनमानस को कलुषित कर दिया गया कि आज भी हम उन व्यवस्थाओं के लिये आस्थापूर्वक बात भी करना नहीं चाहते । शिक्षा ही इस नाश का प्रमुख माध्यम बनी है। आज भी स्थिति वही है।
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शिक्षा को धार्मिक बनाने के लिये स्थिर समाज की आवश्यकता होती है । संगठित समाज ही स्थिर समाज होता है। हमारा इस बात की ओर कदाचित ध्यान नहीं जाता है कि ब्रिटीश शासन के काल में सर्वाधिक क्षति समाज व्यवस्था को पहुँची है । सहस्रों वर्षों से जिन व्यवस्थाओं से समाज का संचालन होता आया था उन सभी व्यवस्थाओं को छिन्न-विच्छिन्न कर नष्ट कर दिया गया । इस हद तक उन व्यवस्थाओं को लेकर जनमानस को कलुषित कर दिया गया कि आज भी हम उन व्यवस्थाओं के लिये आस्थापूर्वक बात भी करना नहीं चाहते । शिक्षा ही इस नाश का प्रमुख माध्यम बनी है। आज भी स्थिति वही है।
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भारतीय समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं वर्ण व्यवस्था, जातिव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था और परिवारव्यवस्था । इनमें परिवारव्यवस्था केन्द्र में थी और सबका आश्रय थी। आज आश्रम व्यवस्था को नाम से भी नई पीढी जानती नहीं है। आश्रम के नाम पर ऋषिमुनियों के आश्रम ही कल्पना में आते हैं, कदाचित वे भी परिचित नहीं हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम की कल्पना ही नहीं रही। वर्ण और जाति बहुत बदनाम हो गये हैं यद्यपि यह कहना चाहिये कि वे बदनामी के जितने लायक थे उससे कई गुना अधिक बदनाम हो गये हैं। परिवारव्यवस्था का अस्तित्व आज है परन्तु उस पर बहुत अधिक पश्चिमी प्रभाव है। समाजव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाने से धर्म और संस्कृति, शिक्षा और अर्थार्जन, दायित्वबोध और देशभक्ति अनाश्रित बन गये हैं। इन आधारों की चिन्ता किये बिना समाज व्यवस्थित नहीं हो सकता और जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, शिक्षा भारतीय नहीं बन सकती।
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धार्मिक समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं वर्ण व्यवस्था, जातिव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था और परिवारव्यवस्था । इनमें परिवारव्यवस्था केन्द्र में थी और सबका आश्रय थी। आज आश्रम व्यवस्था को नाम से भी नई पीढी जानती नहीं है। आश्रम के नाम पर ऋषिमुनियों के आश्रम ही कल्पना में आते हैं, कदाचित वे भी परिचित नहीं हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम की कल्पना ही नहीं रही। वर्ण और जाति बहुत बदनाम हो गये हैं यद्यपि यह कहना चाहिये कि वे बदनामी के जितने लायक थे उससे कई गुना अधिक बदनाम हो गये हैं। परिवारव्यवस्था का अस्तित्व आज है परन्तु उस पर बहुत अधिक पश्चिमी प्रभाव है। समाजव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाने से धर्म और संस्कृति, शिक्षा और अर्थार्जन, दायित्वबोध और देशभक्ति अनाश्रित बन गये हैं। इन आधारों की चिन्ता किये बिना समाज व्यवस्थित नहीं हो सकता और जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, शिक्षा धार्मिक नहीं बन सकती।
    
वर्ण और जाति व्यवस्था का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और
 
वर्ण और जाति व्यवस्था का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और
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मानसिक पूर्वाग्रहों के कारण वर्ण और जाति का मामला बहुत उलझ गया है। अब हमारे पास दो उपाय हैं । एक तो जनसमाज का प्रबोधन कर पूर्वाग्रह दूर करना और दूसरा पूर्ण रूप से नई शब्दावली के साथ विकल्प देना । विद्वजनों ने और समाजहितचिन्तकों ने दो में से एक की निश्चिति कर व्यवस्था बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। कदाचित पूर्ण रूप से नई वैकल्पिक व्यवस्था देना कम कठिन हो सकता है । सम्भव है कि सौ वर्ष बाद भारतीय समाज पुनः पुरानी शब्दावली और संकल्पनाओं पर लौट आये । जो भी हम तय करें व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र बनानी चाहिये । यह व्यवस्था मुख्य रूप से अर्थार्जन हेतु व्यवसाय निश्चिति की होनी चाहिये । इस रूप में समाजव्यवस्था अर्थव्यवस्था के साथ जुडी हुई है । आज व्यवसाय के क्षेत्र में भी स्वैराचार ही है। स्वतन्त्रता मूल्यवान है परन्तु स्वतन्त्रता के अपने ही कुछ बन्धन होते हैं। उदाहरण के लिये स्वतन्त्रता के साथ स्वदायित्व भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। बिना दायित्व के स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। स्वैराचार कोई बन्धन नहीं मानता । अर्थक्षेत्र में स्वतन्त्रता होनी चाहिये, स्वैराचार नहीं । समाज के लिये व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित करने हेतु स्वतनत्रता और मर्यादा दोनों निश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये । जैसे कि व्यक्ति अपने व्यवसाय का चयन करने के लिये तो स्वतन्त्र है परन्तु मनमर्जी से कभी भी बदलने के लिये नहीं । दूसरों का व्यवसाय छिन जाय या राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हो इस प्रकार का आर्थिक व्यवहार व्यक्ति नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये एक बहुत बडा कारखाना शुरू किया और सैंकड़ों लोगों के व्यवसाय छिन गये और उन्हें गाँव छोडकर नगर में जाकर झोपडी में रहना पडा और नौकरी करनी पड़ी यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध है। स्वतन्त्रता के नामपर इसकी अनुमति नहीं मिल सकती । कभी भी व्यवसाय बदलने से भी अर्थक्षेत्र में हलचल हो ही जाती है।
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मानसिक पूर्वाग्रहों के कारण वर्ण और जाति का मामला बहुत उलझ गया है। अब हमारे पास दो उपाय हैं । एक तो जनसमाज का प्रबोधन कर पूर्वाग्रह दूर करना और दूसरा पूर्ण रूप से नई शब्दावली के साथ विकल्प देना । विद्वजनों ने और समाजहितचिन्तकों ने दो में से एक की निश्चिति कर व्यवस्था बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। कदाचित पूर्ण रूप से नई वैकल्पिक व्यवस्था देना कम कठिन हो सकता है । सम्भव है कि सौ वर्ष बाद धार्मिक समाज पुनः पुरानी शब्दावली और संकल्पनाओं पर लौट आये । जो भी हम तय करें व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र बनानी चाहिये । यह व्यवस्था मुख्य रूप से अर्थार्जन हेतु व्यवसाय निश्चिति की होनी चाहिये । इस रूप में समाजव्यवस्था अर्थव्यवस्था के साथ जुडी हुई है । आज व्यवसाय के क्षेत्र में भी स्वैराचार ही है। स्वतन्त्रता मूल्यवान है परन्तु स्वतन्त्रता के अपने ही कुछ बन्धन होते हैं। उदाहरण के लिये स्वतन्त्रता के साथ स्वदायित्व भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। बिना दायित्व के स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। स्वैराचार कोई बन्धन नहीं मानता । अर्थक्षेत्र में स्वतन्त्रता होनी चाहिये, स्वैराचार नहीं । समाज के लिये व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित करने हेतु स्वतनत्रता और मर्यादा दोनों निश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये । जैसे कि व्यक्ति अपने व्यवसाय का चयन करने के लिये तो स्वतन्त्र है परन्तु मनमर्जी से कभी भी बदलने के लिये नहीं । दूसरों का व्यवसाय छिन जाय या राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हो इस प्रकार का आर्थिक व्यवहार व्यक्ति नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये एक बहुत बडा कारखाना शुरू किया और सैंकड़ों लोगों के व्यवसाय छिन गये और उन्हें गाँव छोडकर नगर में जाकर झोपडी में रहना पडा और नौकरी करनी पड़ी यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध है। स्वतन्त्रता के नामपर इसकी अनुमति नहीं मिल सकती । कभी भी व्यवसाय बदलने से भी अर्थक्षेत्र में हलचल हो ही जाती है।
    
अध्ययन और व्यवसाय का भी परस्पर दायित्वपूर्ण सम्बन्ध होना चाहिये जो आज नहीं है। उदाहरण के लिये व्यक्ति इन्जिनीयरींग का अध्ययन करता है परन्तु व्यवसाय नहीं करता, डॉक्टर बनता है परन्तु व्यवसाय छापखाने का करता है। बाबूगीरी करता है परन्तु उसकी पढाई नहीं करता । ऐसा होने से विद्यार्थियों की पढाई के लिये परिवार का और समाज का जो पैसा खर्च होता है और विद्यार्थी की आयु के जो वर्ष व्यतीत होते हैं वे व्यर्थ जाते हैं। यह भी सही नहीं है। इसलिये सामाजिक स्तर पर अर्थनियोजन होना चाहिये । इसकी व्यवस्था बनानी होगी । उसके अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी।
 
अध्ययन और व्यवसाय का भी परस्पर दायित्वपूर्ण सम्बन्ध होना चाहिये जो आज नहीं है। उदाहरण के लिये व्यक्ति इन्जिनीयरींग का अध्ययन करता है परन्तु व्यवसाय नहीं करता, डॉक्टर बनता है परन्तु व्यवसाय छापखाने का करता है। बाबूगीरी करता है परन्तु उसकी पढाई नहीं करता । ऐसा होने से विद्यार्थियों की पढाई के लिये परिवार का और समाज का जो पैसा खर्च होता है और विद्यार्थी की आयु के जो वर्ष व्यतीत होते हैं वे व्यर्थ जाते हैं। यह भी सही नहीं है। इसलिये सामाजिक स्तर पर अर्थनियोजन होना चाहिये । इसकी व्यवस्था बनानी होगी । उसके अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी।
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इस प्रकार स्थिर समाज की रचना के आधार क्या हैं यह बताने के बाद शासन की समाज में और समाज के प्रति क्या भूमिका है इसका भी विचार करना चाहिये । राज्य समाज की स्वायत्तता बनी रहे इस का ध्यान रखने के लिये हैं। सब अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं कि नहीं और करते हैं कि नहीं यह देखना शासक का काम है । इस दृष्टि से न्याय और दण्ड शासक के अधीन है । परराष्ट्र से रक्षा यह भी शासक का कर्तव्य है । परराष्ट्र के साथ यदि युद्ध का अवसर आता है तो शासक के नेतृत्व में समस्त प्रजा उसमें सहभागी होती है । परम्परा से भारत में राजा ही शासक रहा है। स्वाधीनता के बाद हमने डेमोक्रसी अपनाई है । परन्तु राजा और प्रजा का सम्बन्ध शासक और शासित का नहीं अपितु पालक और पाल्य, पिता और पुत्र का रहा है । प्रजा का हित देखना राजा का कर्तव्य है।
 
इस प्रकार स्थिर समाज की रचना के आधार क्या हैं यह बताने के बाद शासन की समाज में और समाज के प्रति क्या भूमिका है इसका भी विचार करना चाहिये । राज्य समाज की स्वायत्तता बनी रहे इस का ध्यान रखने के लिये हैं। सब अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं कि नहीं और करते हैं कि नहीं यह देखना शासक का काम है । इस दृष्टि से न्याय और दण्ड शासक के अधीन है । परराष्ट्र से रक्षा यह भी शासक का कर्तव्य है । परराष्ट्र के साथ यदि युद्ध का अवसर आता है तो शासक के नेतृत्व में समस्त प्रजा उसमें सहभागी होती है । परम्परा से भारत में राजा ही शासक रहा है। स्वाधीनता के बाद हमने डेमोक्रसी अपनाई है । परन्तु राजा और प्रजा का सम्बन्ध शासक और शासित का नहीं अपितु पालक और पाल्य, पिता और पुत्र का रहा है । प्रजा का हित देखना राजा का कर्तव्य है।
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इस प्रकार शिक्षा, अर्थोत्पादन, धर्मपालन, समाजव्यवस्था आदि के आन्तर्सम्बन्धों का सुव्यवस्थित गुम्फन कर राष्ट्र को चिरंजीव बनाने की व्यवस्था भारत में सहस्राब्दियों में विकसित हुई। इस व्यवस्था को छिन्नविच्छिन्न करने का पराक्रम' ब्रिटीशों ने किया । भीषण आक्रमण के बाद भी भारत में बहुत कुछ बचा है। उसके प्रताप से ही भारत अभी चल रहा है । ब्रिटीशों को तो तब भी पता नहीं था और आज भी नहीं है कि उन्होंने किन बातों का नाश किया और आज भी क्या बचा है । भारतीय जीवन के तत्त्वों को समझना उनकी क्षमता के परे था। उनकी शिक्षा के प्रभाव से आज भी एक वर्ग ऐसा है जिसका बोध ब्रिटीशों जैसा है, एक छोटा वर्ग ऐसा है जो जानता है और बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो जानता तो नहीं है परन्तु अन्तःकरण में भारतीयता का अनुभव करता है। इन दो वर्गों के सामर्थ्य पर हमें भारतीय भारत की पुनर्रचना करनी है।
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इस प्रकार शिक्षा, अर्थोत्पादन, धर्मपालन, समाजव्यवस्था आदि के आन्तर्सम्बन्धों का सुव्यवस्थित गुम्फन कर राष्ट्र को चिरंजीव बनाने की व्यवस्था भारत में सहस्राब्दियों में विकसित हुई। इस व्यवस्था को छिन्नविच्छिन्न करने का पराक्रम' ब्रिटीशों ने किया । भीषण आक्रमण के बाद भी भारत में बहुत कुछ बचा है। उसके प्रताप से ही भारत अभी चल रहा है । ब्रिटीशों को तो तब भी पता नहीं था और आज भी नहीं है कि उन्होंने किन बातों का नाश किया और आज भी क्या बचा है । धार्मिक जीवन के तत्त्वों को समझना उनकी क्षमता के परे था। उनकी शिक्षा के प्रभाव से आज भी एक वर्ग ऐसा है जिसका बोध ब्रिटीशों जैसा है, एक छोटा वर्ग ऐसा है जो जानता है और बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो जानता तो नहीं है परन्तु अन्तःकरण में धार्मिकता का अनुभव करता है। इन दो वर्गों के सामर्थ्य पर हमें धार्मिक भारत की पुनर्रचना करनी है।
    
==== ६. व्यक्तिगत जीवन को व्यवस्थित करना ====
 
==== ६. व्यक्तिगत जीवन को व्यवस्थित करना ====
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जितने भी प्राकृतिक संकट हैं, वे पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में कम हैं (और कदाचित अमेरिका में सबसे अधिक) क्योंकि आज भी भारत में पर्यावरण का प्रदूषण अन्य देशों की तुलना में कम है।  
 
जितने भी प्राकृतिक संकट हैं, वे पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में कम हैं (और कदाचित अमेरिका में सबसे अधिक) क्योंकि आज भी भारत में पर्यावरण का प्रदूषण अन्य देशों की तुलना में कम है।  
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आज भी भारत में मनोविकारजन्य रोगों का अनुपात कम है। एक भारतीय आपत्ति, कष्ट, तनाव अधिक सह सकता है । परिस्थितियों से हारकर हताश, निराश होकर नशाखोरी करने वाले या आत्महत्या करनेवाले या मारपीट और तोडफोड करने वालों की संख्या भारत में कम है।  
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आज भी भारत में मनोविकारजन्य रोगों का अनुपात कम है। एक धार्मिक आपत्ति, कष्ट, तनाव अधिक सह सकता है । परिस्थितियों से हारकर हताश, निराश होकर नशाखोरी करने वाले या आत्महत्या करनेवाले या मारपीट और तोडफोड करने वालों की संख्या भारत में कम है।  
 
* आज भी भारत में बैंकों का दिवाला कम निकलता है क्योंकि लोग बैंकों से लिया हुआ ऋण प्रामाणिकता से वापस करनेवाली वृत्ति के हैं।  
 
* आज भी भारत में बैंकों का दिवाला कम निकलता है क्योंकि लोग बैंकों से लिया हुआ ऋण प्रामाणिकता से वापस करनेवाली वृत्ति के हैं।  
 
* आज भी अनाथालयों और वृद्धाश्रमों की संख्या कम हैं क्योंकि लोग परिवार में साथ साथ रहते हैं। आज भी विवाहविच्छेद कम हैं। आज भी बच्चे मातापिता के विरुद्ध पुलीस शिकायत क्वचित ही करते हैं।
 
* आज भी अनाथालयों और वृद्धाश्रमों की संख्या कम हैं क्योंकि लोग परिवार में साथ साथ रहते हैं। आज भी विवाहविच्छेद कम हैं। आज भी बच्चे मातापिता के विरुद्ध पुलीस शिकायत क्वचित ही करते हैं।
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==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
[[Category:भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा]]
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[[Category:Education Series]]
 
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