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| == विद्यालय किसका ? == | | == विद्यालय किसका ? == |
− | प्रबन्धसमिति, शासन, प्रधानाचार्य, आचार्य, अन्य कर्मचारी, छात्र, अभिभावक<ref>भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व ३: अध्याय ११, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> : | + | प्रबन्धसमिति, शासन, प्रधानाचार्य, आचार्य, अन्य कर्मचारी, छात्र, अभिभावक<ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व ३: अध्याय ११, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> : |
| # इन सभी के विद्यालय के साथ के स्वस्थ सम्बन्धोंका व्यवहारिक स्वरूप कैसा होना चाहिये ? | | # इन सभी के विद्यालय के साथ के स्वस्थ सम्बन्धोंका व्यवहारिक स्वरूप कैसा होना चाहिये ? |
| # इन सभी की आपसी सम्बन्ध की व्यावहारिक भूमिका कैसी होनी चाहिये ? | | # इन सभी की आपसी सम्बन्ध की व्यावहारिक भूमिका कैसी होनी चाहिये ? |
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| शिक्षाक्षेत्र में नौकरी की व्यवस्था जब तक समाप्त नहीं होती तब तक परिस्थिति में सुधार नहीं हो सकता । घर में कोई नौकरी नहीं करता, काम सब करते हैं । घर में रहने का घर के सभी सदस्यों को जन्मसिद्ध अधिकार है । घर सबका है और सेवा करना ही सबका धर्म है । एकदूसरे के लिये सब काम करते हैं । घर की प्रतिष्ठा सबकी चिन्ता का विषय है । घर की बदनामी सबकी बदनामी है । मातापिता सन्तानों के लिये और सन्ताने मातापिता के लिये जीते हैं। तभी वह परिवार है । परिवार भावना, व्यवस्था और सम्बन्धों से बनता है। तीनों बातें एक ही स्थान पर केन्द्रित हुई है । | | शिक्षाक्षेत्र में नौकरी की व्यवस्था जब तक समाप्त नहीं होती तब तक परिस्थिति में सुधार नहीं हो सकता । घर में कोई नौकरी नहीं करता, काम सब करते हैं । घर में रहने का घर के सभी सदस्यों को जन्मसिद्ध अधिकार है । घर सबका है और सेवा करना ही सबका धर्म है । एकदूसरे के लिये सब काम करते हैं । घर की प्रतिष्ठा सबकी चिन्ता का विषय है । घर की बदनामी सबकी बदनामी है । मातापिता सन्तानों के लिये और सन्ताने मातापिता के लिये जीते हैं। तभी वह परिवार है । परिवार भावना, व्यवस्था और सम्बन्धों से बनता है। तीनों बातें एक ही स्थान पर केन्द्रित हुई है । |
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− | विद्यालय भी परिवार बनना । चाहिये तभी वह भारतीय संकल्पना का विद्यालय बनेगा। व्यवस्था, नियन्त्रण, कार्य जब भिन्न भिन्न स्थानों पर केन्द्रित होंगे तब वह एकसंध परिवार नहीं बनेगा । वर्तमान व्यवस्था ही ऐसी बनी है जहाँ विद्यालय परिवार बनने की सम्भावना नहीं है। | + | विद्यालय भी परिवार बनना । चाहिये तभी वह धार्मिक संकल्पना का विद्यालय बनेगा। व्यवस्था, नियन्त्रण, कार्य जब भिन्न भिन्न स्थानों पर केन्द्रित होंगे तब वह एकसंध परिवार नहीं बनेगा । वर्तमान व्यवस्था ही ऐसी बनी है जहाँ विद्यालय परिवार बनने की सम्भावना नहीं है। |
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| विद्यालय को परिवार मानने की, इसके लिये शिक्षकों और विद्यार्थियों का प्रबोधन करने की भावनात्मक बातें बहुत की जाती हैं परन्तु परिणाम दिखाई नहीं देता क्योंकि परिवार बनने के लिये जो एकसंघ व्यवस्था चाहिये उसकी हम बात नहीं करते । व्यवस्था विशृंखलता की और अनेक केन्द्री स्वार्थों की और भावना परिवार की ऐसी दो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। | | विद्यालय को परिवार मानने की, इसके लिये शिक्षकों और विद्यार्थियों का प्रबोधन करने की भावनात्मक बातें बहुत की जाती हैं परन्तु परिणाम दिखाई नहीं देता क्योंकि परिवार बनने के लिये जो एकसंघ व्यवस्था चाहिये उसकी हम बात नहीं करते । व्यवस्था विशृंखलता की और अनेक केन्द्री स्वार्थों की और भावना परिवार की ऐसी दो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। |
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| ==== विमर्श ==== | | ==== विमर्श ==== |
− | जब से भारत में अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व स्थापित हुआ है तब से विचार के क्षेत्र में घालमेल शुरू हो गया है। इसमें बहुत बड़ी भूमिका अनुवाद की है । भारतीय भाषाओं के संकल्पनात्मक शब्दों के अंग्रेजी अनुवाद इसके खास उदाहरण हैं । उदाहरण के लिये 'धर्म' का अनुवाद ‘रिलीजन' और 'संस्कृति' का अनुवाद 'कल्चर' किया जाता है । यदि केवल अनुवाद तक ही बात सीमित रहती है तब बहत चिन्ता की बात नहीं रहती है । यदि अंग्रेजी भाषी लोग ‘संस्कृति' को 'कल्चर' के रूप में और 'धर्म' को ‘रिलीजन' के रूप में समझते हैं तब सीमित समझ उनकी ही समस्या बनेगी । परन्तु हुआ यह है कि हम भारतीय 'धर्म' को 'रिलीजन' और 'संस्कृति' को 'कल्चर' समझने लगे हैं । अंग्रेजी को ही मानक के रूप में प्रतिष्ठित करने का और उसे प्रमाण के रूप में स्वीकार करने का कार्य हमारे देश का बौद्धिक जगत तथा सरकार करती है । परिणाम स्वरूप सामान्यजन को भी उसका स्वीकार करना ही पड़ता है । भले ही हम भारतीय भाषा में संस्कृति' बोले, हमारे मनमस्तिष्क में उसकी समझ 'कल्चर' के रूप में ही होती है । | + | जब से भारत में अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व स्थापित हुआ है तब से विचार के क्षेत्र में घालमेल शुरू हो गया है। इसमें बहुत बड़ी भूमिका अनुवाद की है । धार्मिक भाषाओं के संकल्पनात्मक शब्दों के अंग्रेजी अनुवाद इसके खास उदाहरण हैं । उदाहरण के लिये 'धर्म' का अनुवाद ‘रिलीजन' और 'संस्कृति' का अनुवाद 'कल्चर' किया जाता है । यदि केवल अनुवाद तक ही बात सीमित रहती है तब बहत चिन्ता की बात नहीं रहती है । यदि अंग्रेजी भाषी लोग ‘संस्कृति' को 'कल्चर' के रूप में और 'धर्म' को ‘रिलीजन' के रूप में समझते हैं तब सीमित समझ उनकी ही समस्या बनेगी । परन्तु हुआ यह है कि हम धार्मिक 'धर्म' को 'रिलीजन' और 'संस्कृति' को 'कल्चर' समझने लगे हैं । अंग्रेजी को ही मानक के रूप में प्रतिष्ठित करने का और उसे प्रमाण के रूप में स्वीकार करने का कार्य हमारे देश का बौद्धिक जगत तथा सरकार करती है । परिणाम स्वरूप सामान्यजन को भी उसका स्वीकार करना ही पड़ता है । भले ही हम धार्मिक भाषा में संस्कृति' बोले, हमारे मनमस्तिष्क में उसकी समझ 'कल्चर' के रूप में ही होती है । |
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| इसलिये प्रथम आवश्यकता ‘संस्कृति' को 'कल्चर' से मुक्त कर संस्कृति' के ही अर्थ में समझने की है। | | इसलिये प्रथम आवश्यकता ‘संस्कृति' को 'कल्चर' से मुक्त कर संस्कृति' के ही अर्थ में समझने की है। |
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| संस्कृति के दो आयाम हैं । एक तो वह धर्म का कृतिरूप है । वह धर्म की प्रणाली है । तभी वह सबका भला करने वाली, सबका कल्याण करनेवाली बनती है । दूसरी ओर वह सुन्दर है । अतः संस्कृति में कल्याणकारी और सुन्दर ऐसे दोनों रूप प्रकट होते हैं। | | संस्कृति के दो आयाम हैं । एक तो वह धर्म का कृतिरूप है । वह धर्म की प्रणाली है । तभी वह सबका भला करने वाली, सबका कल्याण करनेवाली बनती है । दूसरी ओर वह सुन्दर है । अतः संस्कृति में कल्याणकारी और सुन्दर ऐसे दोनों रूप प्रकट होते हैं। |
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− | जीवन के हर व्यावहारिक आविष्कार में यह स्वरूप प्रकट होता है । भोजन स्वादिष्ट, हृद्य, सात्त्विक और पौष्टिक होता है. अकेला स्वादिष्ट या अकेला सात्त्विक नहीं, वस्त्र और अलंकार शरीर का रक्षण और पोषण करते हैं साथ ही शोभा भी बढाते हैं और दृष्टि को आनन्द का अनुभव भी करवाते हैं; नृत्य, गीत-संगीत, आनन्द भी देते हैं और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं । श्रेय और प्रेय को एकदूसरे में ओतप्रोत बनाने की यह भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि है जो बर्तन साफ करने के, पानी भरने के, मिट्टी कूटने के, भूमि जोतने के, कपडा बुनने के, लकडी काटने के कामों में सुन्दरता, आनन्द, मुक्ति की साधना और लोककल्याण के सभी आयामों को एकत्र गूंथती है । यह समग्रता का दर्शन है । | + | जीवन के हर व्यावहारिक आविष्कार में यह स्वरूप प्रकट होता है । भोजन स्वादिष्ट, हृद्य, सात्त्विक और पौष्टिक होता है. अकेला स्वादिष्ट या अकेला सात्त्विक नहीं, वस्त्र और अलंकार शरीर का रक्षण और पोषण करते हैं साथ ही शोभा भी बढाते हैं और दृष्टि को आनन्द का अनुभव भी करवाते हैं; नृत्य, गीत-संगीत, आनन्द भी देते हैं और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं । श्रेय और प्रेय को एकदूसरे में ओतप्रोत बनाने की यह धार्मिक सांस्कृतिक दृष्टि है जो बर्तन साफ करने के, पानी भरने के, मिट्टी कूटने के, भूमि जोतने के, कपडा बुनने के, लकडी काटने के कामों में सुन्दरता, आनन्द, मुक्ति की साधना और लोककल्याण के सभी आयामों को एकत्र गूंथती है । यह समग्रता का दर्शन है । |
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| अतः विद्यालयों में केवल रंगमंच कार्यक्रम अर्थात् नृत्य, गीत, नाटक और रंगोली, चित्र, सुशोभन ही सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं है । ये सब भी अपने आपमें सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं हैं । उनके साथ जब शुभ और पवित्र भाव, शुद्ध आनन्द और मुक्ति की भावना जुडती हैं तब वे सांस्कृतिक कार्यक्रम कहे जाने योग्य होते हैं, अन्यथा वे केवल मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं । संस्कृति के मूल तत्वों के अभाव में तो वे भडकाऊ, उत्तेजक और निकृष्ट मनोवृत्तियों का ही प्रकटीकरण बन जाते हैं । अतः पहली बात तो जिन्हें हम एक रूढि के तहत सांस्कृतिक कार्यक्रम कहते हैं उन्हें परिष्कृत करने की अवश्यकता है । इसके लिये कुल मिलाकर रुचि परिष्कृत करने की आवश्यकता होती है। | | अतः विद्यालयों में केवल रंगमंच कार्यक्रम अर्थात् नृत्य, गीत, नाटक और रंगोली, चित्र, सुशोभन ही सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं है । ये सब भी अपने आपमें सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं हैं । उनके साथ जब शुभ और पवित्र भाव, शुद्ध आनन्द और मुक्ति की भावना जुडती हैं तब वे सांस्कृतिक कार्यक्रम कहे जाने योग्य होते हैं, अन्यथा वे केवल मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं । संस्कृति के मूल तत्वों के अभाव में तो वे भडकाऊ, उत्तेजक और निकृष्ट मनोवृत्तियों का ही प्रकटीकरण बन जाते हैं । अतः पहली बात तो जिन्हें हम एक रूढि के तहत सांस्कृतिक कार्यक्रम कहते हैं उन्हें परिष्कृत करने की अवश्यकता है । इसके लिये कुल मिलाकर रुचि परिष्कृत करने की आवश्यकता होती है। |
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| विद्यालय शिक्षक एवं छात्रो की साधनास्थली है । तपस्थली है । अतः वह पवित्र स्थान है । जहाँ छात्र का शारीरिक, मानसिक, प्राणिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास होता है वह गौरवप्राप्त विद्यालय होता है । पर्यावरण, स्वच्छता, अन्याय का प्रतिकार करना इस प्रकार समाज को सुल्यवस्थित रखनेवाले सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में जिसका सक्रीय सहयोग हो वह प्रतिष्ठित विद्यालय है । विद्यालय सामाजिक चेतना का केन्द्र है इसलिए समाज को मार्गदर्शन करना उसका दायित्व बनता है । हिन्दुत्व का दूष्टीकोन एवं हिन्दुत्वनिष्ठ व्यवहार का आग्रह रखनेवाला विद्यालय प्रतिष्ठा प्राप्त होता है । | | विद्यालय शिक्षक एवं छात्रो की साधनास्थली है । तपस्थली है । अतः वह पवित्र स्थान है । जहाँ छात्र का शारीरिक, मानसिक, प्राणिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास होता है वह गौरवप्राप्त विद्यालय होता है । पर्यावरण, स्वच्छता, अन्याय का प्रतिकार करना इस प्रकार समाज को सुल्यवस्थित रखनेवाले सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में जिसका सक्रीय सहयोग हो वह प्रतिष्ठित विद्यालय है । विद्यालय सामाजिक चेतना का केन्द्र है इसलिए समाज को मार्गदर्शन करना उसका दायित्व बनता है । हिन्दुत्व का दूष्टीकोन एवं हिन्दुत्वनिष्ठ व्यवहार का आग्रह रखनेवाला विद्यालय प्रतिष्ठा प्राप्त होता है । |
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− | परंतु आज हमारी भ्रमित सोच एवं शिक्षा के व्यवसायीकरण से प्रतिष्ठा के मापदंड उल्टे पड़े दिखाई देते है । अंग्रेजी माध्यम, सी.बी.एस.सी., इ.सी.एस.ई बोर्ड के मान्यता प्राप्त विद्यालय क्रमशः समाज मे प्रतिष्ठित बने है । प्रतिष्ठित होने के नाते प्रवेश अधिक अतः छात्रसंख्या अधिक यह भी प्रतिष्ठा का लक्षण माना जाता है । प्रतिष्ठा प्राप्त है तो लाखों रुपया शुल्क लेना प्रतिष्ठा बन गई है । बडा, भव्य एवं वातानुकुलित कॉम्प्यूटराइड विद्यालय प्रतिष्ठा के मापदृण्ड बने है । अनेक प्रतियोगिताओं में सहभागी होना एवं उसमे प्रथम क्रमांक प्राप्त करने हेतु अनुचित मार्ग अपनाना यह बात स्वाभाविक लगती है । ऐसी अनिष्ट बातों को हटाकर ज्ञान की प्रतिष्ठा हो वह विद्यालय प्रतिष्ठा प्राप्त होगा यह समझ विकसित करना भारतीय शिक्षा का व्यावहारिक आयाम है । | + | परंतु आज हमारी भ्रमित सोच एवं शिक्षा के व्यवसायीकरण से प्रतिष्ठा के मापदंड उल्टे पड़े दिखाई देते है । अंग्रेजी माध्यम, सी.बी.एस.सी., इ.सी.एस.ई बोर्ड के मान्यता प्राप्त विद्यालय क्रमशः समाज मे प्रतिष्ठित बने है । प्रतिष्ठित होने के नाते प्रवेश अधिक अतः छात्रसंख्या अधिक यह भी प्रतिष्ठा का लक्षण माना जाता है । प्रतिष्ठा प्राप्त है तो लाखों रुपया शुल्क लेना प्रतिष्ठा बन गई है । बडा, भव्य एवं वातानुकुलित कॉम्प्यूटराइड विद्यालय प्रतिष्ठा के मापदृण्ड बने है । अनेक प्रतियोगिताओं में सहभागी होना एवं उसमे प्रथम क्रमांक प्राप्त करने हेतु अनुचित मार्ग अपनाना यह बात स्वाभाविक लगती है । ऐसी अनिष्ट बातों को हटाकर ज्ञान की प्रतिष्ठा हो वह विद्यालय प्रतिष्ठा प्राप्त होगा यह समझ विकसित करना धार्मिक शिक्षा का व्यावहारिक आयाम है । |
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| ==== तक्षशिला विद्यापीठ ==== | | ==== तक्षशिला विद्यापीठ ==== |
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| ==== श्रेष्ठ शिक्षक विद्यालय की प्रतिष्ठा है । ==== | | ==== श्रेष्ठ शिक्षक विद्यालय की प्रतिष्ठा है । ==== |
− | विद्यालय की प्रतिष्ठा इसमें है कि श्रेष्ठ शिक्षकों का आदर होता है, जहाँ शिक्षकों का सम्मान नहीं, स्वतन्त्रता नहीं वह विद्यालय अच्छा नहीं माना जाता । जो शिक्षक नौकरी करने के लिये तैयार हो जाते हैं वे शिक्षक शिक्षक नहीं और जो शिक्षकों को नौकर बनने के लिये मजबूर करती है वह व्यवस्था श्रेष्ठ व्यवस्था नहीं । ऐसी व्यवस्था में शिक्षकों का सम्मान भी नौकरों के सम्मान की तरह किया जाता है। ऐसे विद्यालय की भारतीय मानकों के अनुसार कोई प्रतिष्ठा नहीं, पाश्चात्य मानकों के अनुसार भले ही हो । | + | विद्यालय की प्रतिष्ठा इसमें है कि श्रेष्ठ शिक्षकों का आदर होता है, जहाँ शिक्षकों का सम्मान नहीं, स्वतन्त्रता नहीं वह विद्यालय अच्छा नहीं माना जाता । जो शिक्षक नौकरी करने के लिये तैयार हो जाते हैं वे शिक्षक शिक्षक नहीं और जो शिक्षकों को नौकर बनने के लिये मजबूर करती है वह व्यवस्था श्रेष्ठ व्यवस्था नहीं । ऐसी व्यवस्था में शिक्षकों का सम्मान भी नौकरों के सम्मान की तरह किया जाता है। ऐसे विद्यालय की धार्मिक मानकों के अनुसार कोई प्रतिष्ठा नहीं, पाश्चात्य मानकों के अनुसार भले ही हो । |
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| शिक्षकों और विद्यार्थियों का चरित्र विद्यालय की प्रतिष्ठा का विषय है । शिक्षकों में शराब, जुआ, भ्रष्टाचार जैसे व्यसन न हों, अध्यापन कार्य में अप्रामाणिकता न हो और आचारविचार श्रेष्ठ हों यह शिक्षकों का चरित्र है और शिक्षकों के प्रति आदर और श्रद्धा हो, अध्ययन में तत्परता और परिश्रमशीलता हों तथा सद्गुण और सदाचार हों यह विद्यार्थियों का चरित्र है । इस विद्यालय में परीक्षा में कभी नकल नहीं होती, परीक्षा विषयक कोई भ्रष्टाचार नहीं होता, जिस विद्यालय के विद्यार्थियों को ट्यूशन या कोचिंग क्लास की आवश्यकता नहीं होती, जिस विद्यालय में विद्यार्थियों के प्रवेश या शिक्षकों की नियुक्ति हेतु डोनेशन नहीं लिया जाता, जिस विद्यालय में अधिक वेतन पर हस्ताक्षर करवाकर कम वेतन नहीं दिया जाता आदि बातें जब सुनिश्चित होती हैं तब वह विद्यालय समाज में प्रतिष्ठित होता है । | | शिक्षकों और विद्यार्थियों का चरित्र विद्यालय की प्रतिष्ठा का विषय है । शिक्षकों में शराब, जुआ, भ्रष्टाचार जैसे व्यसन न हों, अध्यापन कार्य में अप्रामाणिकता न हो और आचारविचार श्रेष्ठ हों यह शिक्षकों का चरित्र है और शिक्षकों के प्रति आदर और श्रद्धा हो, अध्ययन में तत्परता और परिश्रमशीलता हों तथा सद्गुण और सदाचार हों यह विद्यार्थियों का चरित्र है । इस विद्यालय में परीक्षा में कभी नकल नहीं होती, परीक्षा विषयक कोई भ्रष्टाचार नहीं होता, जिस विद्यालय के विद्यार्थियों को ट्यूशन या कोचिंग क्लास की आवश्यकता नहीं होती, जिस विद्यालय में विद्यार्थियों के प्रवेश या शिक्षकों की नियुक्ति हेतु डोनेशन नहीं लिया जाता, जिस विद्यालय में अधिक वेतन पर हस्ताक्षर करवाकर कम वेतन नहीं दिया जाता आदि बातें जब सुनिश्चित होती हैं तब वह विद्यालय समाज में प्रतिष्ठित होता है । |
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| # परीक्षा केन्द्रों को विद्यालय में लाना होगा। शिक्षक ही अपने विद्यार्थियों को प्रमाणपत्र दे सकें ऐसा विश्वसनीय बनना होगा। | | # परीक्षा केन्द्रों को विद्यालय में लाना होगा। शिक्षक ही अपने विद्यार्थियों को प्रमाणपत्र दे सकें ऐसा विश्वसनीय बनना होगा। |
| # विद्यालय भवन और सुविधाओं से नहीं अपितु ज्ञान और चरित्र से जाना जाय इसे बार बार लोगों के समक्ष बताना होगा। | | # विद्यालय भवन और सुविधाओं से नहीं अपितु ज्ञान और चरित्र से जाना जाय इसे बार बार लोगों के समक्ष बताना होगा। |
− | # भारतीय ज्ञानधारा को युगानुकूल प्रवाहित करने हेतु अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य को भारतीय जीवनदृष्टि में केन्द्रित करना होगा। | + | # धार्मिक ज्ञानधारा को युगानुकूल प्रवाहित करने हेतु अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य को धार्मिक जीवनदृष्टि में केन्द्रित करना होगा। |
| यह एक आन्तरिक परिवर्तन है और धैर्यपूर्वक निरन्तर प्रयास की अपेक्षा करता है । चाणक्य और तक्षशिला यदि आदर्श हैं तो इन आदर्शों को मूर्त करना कोई सरल काम नहीं है। | | यह एक आन्तरिक परिवर्तन है और धैर्यपूर्वक निरन्तर प्रयास की अपेक्षा करता है । चाणक्य और तक्षशिला यदि आदर्श हैं तो इन आदर्शों को मूर्त करना कोई सरल काम नहीं है। |
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