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| विश्व के विभिन्न राष्ट्र अपने अपने तरीके से अपने समाज के विकास की प्रक्रिया में संलग्न हैं। हर राष्ट्र का अपना इतिहास है, जो कि कुछ सदियों से लेकर हज़ारों वर्षों से भी ज्यादा तक का है। उदाहरण के लिए आज जिसे हम युनायटेड इस्टेट्स ऑफ अमेरिका (USA) के रूप में जानते है, उसका प्रारंभ मात्र ४००-५०० वर्ष ही पुराना है। यूरोप से कोलम्बस के जाने के पहले से भी वहां जो सभ्यता विकसित हुई थी वह भी अधिक पुरानी नहीं रही। दूसरी तरफ देखें तो भारत व चीन हैं, जिनका अस्तित्व सर्वाधिक पुराना है । ये देश तबसे हैं जब न तो यूरोप था और न ही अमेरिका। | | विश्व के विभिन्न राष्ट्र अपने अपने तरीके से अपने समाज के विकास की प्रक्रिया में संलग्न हैं। हर राष्ट्र का अपना इतिहास है, जो कि कुछ सदियों से लेकर हज़ारों वर्षों से भी ज्यादा तक का है। उदाहरण के लिए आज जिसे हम युनायटेड इस्टेट्स ऑफ अमेरिका (USA) के रूप में जानते है, उसका प्रारंभ मात्र ४००-५०० वर्ष ही पुराना है। यूरोप से कोलम्बस के जाने के पहले से भी वहां जो सभ्यता विकसित हुई थी वह भी अधिक पुरानी नहीं रही। दूसरी तरफ देखें तो भारत व चीन हैं, जिनका अस्तित्व सर्वाधिक पुराना है । ये देश तबसे हैं जब न तो यूरोप था और न ही अमेरिका। |
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− | इन सबको देखने व समझने हेतु हमारे इस प्रयास के केंद्र में जो विचार लेकर हम चल रहे हैं, वह है भारतीयता, यानी एक ऐसा विचार - जहाँ अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष को एक सूत्र में गूंथ कर समस्त समाज की सर्वांगीण उन्नति करने का मार्ग निहित है, जिसकी जड़ें भारत के प्राचीन मनीषियों द्वारा प्रतिपादित इतिहास में आज भी सुरक्षित हैं। आज जब विश्व के कुछ देश, आर्थिक समृद्धि की पराकाष्ठा पर पहुंचकर भी अपने आप को कई दृष्टियों में विफल पा रहे हैं; और भारत के राज नेता व चिन्तक भी बिना समझे ही उसी मार्ग की नकल कर चलना चाह रहे हैं, तो हमारा प्रयास है कि हम वैश्विक परिप्रेक्ष्य में सब कुछ परखें, व जो कुछ भी विश्व में अच्छा या सही हुआ है, उसे भी समझकर भारतीयता के अनमोल तत्व को आधुनिक परिवेश में उतारें ताकि भारतीय चिंतन से ही उपजा यह मंत्र - वसुधैव कुटुम्बकम् - विश्व को नयी दिशा व आने वाली पीढ़ियों को एक सार्थक भविष्य दे सके। | + | इन सबको देखने व समझने हेतु हमारे इस प्रयास के केंद्र में जो विचार लेकर हम चल रहे हैं, वह है धार्मिकता, यानी एक ऐसा विचार - जहाँ अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष को एक सूत्र में गूंथ कर समस्त समाज की सर्वांगीण उन्नति करने का मार्ग निहित है, जिसकी जड़ें भारत के प्राचीन मनीषियों द्वारा प्रतिपादित इतिहास में आज भी सुरक्षित हैं। आज जब विश्व के कुछ देश, आर्थिक समृद्धि की पराकाष्ठा पर पहुंचकर भी अपने आप को कई दृष्टियों में विफल पा रहे हैं; और भारत के राज नेता व चिन्तक भी बिना समझे ही उसी मार्ग की नकल कर चलना चाह रहे हैं, तो हमारा प्रयास है कि हम वैश्विक परिप्रेक्ष्य में सब कुछ परखें, व जो कुछ भी विश्व में अच्छा या सही हुआ है, उसे भी समझकर धार्मिकता के अनमोल तत्व को आधुनिक परिवेश में उतारें ताकि धार्मिक चिंतन से ही उपजा यह मंत्र - वसुधैव कुटुम्बकम् - विश्व को नयी दिशा व आने वाली पीढ़ियों को एक सार्थक भविष्य दे सके। |
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| हम यदि आज की वैश्विक समस्याओं पर नज़र डालें, तो पायेंगे कि इन समस्याओं को हम दो स्वरूपों में बाँट कर देख सकते हैं: | | हम यदि आज की वैश्विक समस्याओं पर नज़र डालें, तो पायेंगे कि इन समस्याओं को हम दो स्वरूपों में बाँट कर देख सकते हैं: |
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| === भारत के सात दशकः एक केस-स्टडी === | | === भारत के सात दशकः एक केस-स्टडी === |
− | भारत में बहुत से लोग गरीब हैं, मगर भारत राष्ट्र कभी भी गरीब नहीं रहा है। भारत की ५०% भूमि कृषियोग्य है (जबकि जापान में मात्र १०.७% व यू.एस.ए. में मात्र १८.९%) । यह एक कटु सत्य है कि १९४७ में ब्रिटिशराज से स्वतन्त्रता के पश्चात का इतिहास देखें तो भारतीय अर्थ-व्यवस्था रोजी-रोटी की जद्दोजहद से बहुत आगे नहीं बढ़ पाई है। भारत एक अच्छा उदाहरण है इस बात का कि कैसे प्राकृतिक संपदा भरपूर होने पर भी एक राष्ट्र केअधिकतम लोगों को गरीब बनाए रखा जा सकता है। हम भारत के इन सात दशकों को निम्न काल-खण्डों में बाँट कर देखें: | + | भारत में बहुत से लोग गरीब हैं, मगर भारत राष्ट्र कभी भी गरीब नहीं रहा है। भारत की ५०% भूमि कृषियोग्य है (जबकि जापान में मात्र १०.७% व यू.एस.ए. में मात्र १८.९%) । यह एक कटु सत्य है कि १९४७ में ब्रिटिशराज से स्वतन्त्रता के पश्चात का इतिहास देखें तो धार्मिक अर्थ-व्यवस्था रोजी-रोटी की जद्दोजहद से बहुत आगे नहीं बढ़ पाई है। भारत एक अच्छा उदाहरण है इस बात का कि कैसे प्राकृतिक संपदा भरपूर होने पर भी एक राष्ट्र केअधिकतम लोगों को गरीब बनाए रखा जा सकता है। हम भारत के इन सात दशकों को निम्न काल-खण्डों में बाँट कर देखें: |
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| === काल-खंड १ :- १९४७-६७ (लगभग २० वर्ष) : मेहनतकश ईमानदार नागरिक, मगर रोजी-रोटी की जद्दोजहद === | | === काल-खंड १ :- १९४७-६७ (लगभग २० वर्ष) : मेहनतकश ईमानदार नागरिक, मगर रोजी-रोटी की जद्दोजहद === |
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| ==References== | | ==References== |
− | भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व २: अध्याय १९, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
| + | धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व २: अध्याय १९, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |
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− | [[Category:भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 2: विश्वस्थिति का आकलन]] | + | [[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 2: विश्वस्थिति का आकलन]] |