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शिक्षा का विषय राज्य सरकार का है इसलिये राज्य तो इसकी व्यवस्था करेगा यह स्वाभाविक है। इन विद्यालयों में साधारण रूप से प्रान्तीय भाषा ही माध्यम रहती है फिर भी अन्य प्रान्तों के निवासियों की संख्या के अनुपात में उन भाषा के माध्यमों के विद्यालय भी चलते हैं । उदाहरण के लिये राज्य की मान्यता वाले अधिकतम विद्यालय गुजराती माध्यम के होंगे परन्तु तमिल, सिंधी, उडिया, उर्दू, मराठी माध्यम के विद्यालय भी चलते हैं।
 
शिक्षा का विषय राज्य सरकार का है इसलिये राज्य तो इसकी व्यवस्था करेगा यह स्वाभाविक है। इन विद्यालयों में साधारण रूप से प्रान्तीय भाषा ही माध्यम रहती है फिर भी अन्य प्रान्तों के निवासियों की संख्या के अनुपात में उन भाषा के माध्यमों के विद्यालय भी चलते हैं । उदाहरण के लिये राज्य की मान्यता वाले अधिकतम विद्यालय गुजराती माध्यम के होंगे परन्तु तमिल, सिंधी, उडिया, उर्दू, मराठी माध्यम के विद्यालय भी चलते हैं।
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कुछ लोग ऐसे होते हैं जो केन्द्र सरकार की नौकरी करते हैं इसलिये उनके स्थानांतरण एक राज्य से दूसरे राज्य में होते हैं । ऐसे लोगों की सुविधा हेतु अखिल भारतीय स्तर की संस्थायें चलती हैं। सीबीएसई (सैण्ट्रल बोर्ड ओफ सैकन्डरी एज्यूकेशन) ऐसा ही बोर्ड है । यह मान्यता पूरे देश में चलती है । इसमें हिन्दी और अंग्रेजी ऐसे दो माध्यम होते हैं । अब एक राज्य से दूसरे राज्यमें जाने में कठिनाई नहीं होती।
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कुछ लोग ऐसे होते हैं जो केन्द्र सरकार की नौकरी करते हैं इसलिये उनके स्थानांतरण एक राज्य से दूसरे राज्य में होते हैं । ऐसे लोगों की सुविधा हेतु अखिल धार्मिक स्तर की संस्थायें चलती हैं। सीबीएसई (सैण्ट्रल बोर्ड ओफ सैकन्डरी एज्यूकेशन) ऐसा ही बोर्ड है । यह मान्यता पूरे देश में चलती है । इसमें हिन्दी और अंग्रेजी ऐसे दो माध्यम होते हैं । अब एक राज्य से दूसरे राज्यमें जाने में कठिनाई नहीं होती।
    
तीसरा आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड होता है जो एक से अधिक देशों में विद्यालयों को मान्यता देता है । इसका उद्देश्य राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की तरह प्रजाजनों की सुविधा देखने का तो नहीं है यह स्पष्ट है । अपना व्यापार कहो तो व्यापार और मिशन कहो तो मिशन विश्व के अन्य देशों में भी फैलाने का उद्देश्य है ।
 
तीसरा आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड होता है जो एक से अधिक देशों में विद्यालयों को मान्यता देता है । इसका उद्देश्य राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की तरह प्रजाजनों की सुविधा देखने का तो नहीं है यह स्पष्ट है । अपना व्यापार कहो तो व्यापार और मिशन कहो तो मिशन विश्व के अन्य देशों में भी फैलाने का उद्देश्य है ।
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==== शिक्षा का माध्यम और भाषा का प्रश्न ====
 
==== शिक्षा का माध्यम और भाषा का प्रश्न ====
भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में भारतीय भाषा का प्रचलन होना चाहिये यह है । भारत में जिस प्रकार शिक्षा भारतीय नहीं है उसी प्रकार भारतीय भाषा की प्रतिष्ठा नहीं है। भारत में जिस प्रकार युरोअमेरिका की शिक्षा चल रही है उसी प्रकार अंग्रेजी सबके मानस को प्रभावित कर रही है।
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भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिये यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में धार्मिक भाषा का प्रचलन होना चाहिये यह है । भारत में जिस प्रकार शिक्षा धार्मिक नहीं है उसी प्रकार धार्मिक भाषा की प्रतिष्ठा नहीं है। भारत में जिस प्रकार युरोअमेरिका की शिक्षा चल रही है उसी प्रकार अंग्रेजी सबके मानस को प्रभावित कर रही है।
    
भारत में अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी का प्रवेश हुआ । अंग्रेजों ने शिक्षा को पश्चिमी बनाया उसी प्रकार से समाज के उच्चभ्रू वर्ग को अंग्रेजी बोलना सिखाया । साथ ही अंग्रेज बनना भी सिखाया । खानपान, वेशभूषा,  शिष्टाचार, दृष्टिकोण, मनोरंजन आदि अंग्रेजी पद्धति का हो तभी अंग्रेजी बोलना सार्थक है ऐसा समीकरण बैठ गया । देश से अंग्रेज गये परन्तु अंग्रेजीयत रह गई । भारत के राजकीय मानचित्र में अंग्रेज नहीं हैं परन्तु मनोमस्तिष्क में अंग्रेजीयत का साम्राज्य है ।
 
भारत में अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी का प्रवेश हुआ । अंग्रेजों ने शिक्षा को पश्चिमी बनाया उसी प्रकार से समाज के उच्चभ्रू वर्ग को अंग्रेजी बोलना सिखाया । साथ ही अंग्रेज बनना भी सिखाया । खानपान, वेशभूषा,  शिष्टाचार, दृष्टिकोण, मनोरंजन आदि अंग्रेजी पद्धति का हो तभी अंग्रेजी बोलना सार्थक है ऐसा समीकरण बैठ गया । देश से अंग्रेज गये परन्तु अंग्रेजीयत रह गई । भारत के राजकीय मानचित्र में अंग्रेज नहीं हैं परन्तु मनोमस्तिष्क में अंग्रेजीयत का साम्राज्य है ।
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भूत को भगाने का सबसे कारगर उपाय उसकी उपेक्षा करना है । उपेक्षा के यहाँ बनाये हैं उससे अधिक अशिष्ट अनेक मार्ग हो सकते हैं । जिसे जो उचित लगे वह अपनाना चाहिये । मुद्दा यह है कि स्वाभिमान मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यक्त होना चाहिये, बौद्धिक से काम नहीं चलेगा ।
 
भूत को भगाने का सबसे कारगर उपाय उसकी उपेक्षा करना है । उपेक्षा के यहाँ बनाये हैं उससे अधिक अशिष्ट अनेक मार्ग हो सकते हैं । जिसे जो उचित लगे वह अपनाना चाहिये । मुद्दा यह है कि स्वाभिमान मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यक्त होना चाहिये, बौद्धिक से काम नहीं चलेगा ।
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वस्तुस्थिति यह है कि जिस दिन अमेरिका को पता चल जायेगा कि भारत के लोग अंग्रेजी बोलना नहीं चाहते, अपनी ही भाषा बोलने का आग्रह रखते हैं उसी दिन से अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग शुरू हो जायेंगे । भारतीय भाषा के शत्रु और अंग्रेजी से मोहित भारतीय ही हैं, और कोई नहीं यह समझ लेने की आवश्यकता है ।
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वस्तुस्थिति यह है कि जिस दिन अमेरिका को पता चल जायेगा कि भारत के लोग अंग्रेजी बोलना नहीं चाहते, अपनी ही भाषा बोलने का आग्रह रखते हैं उसी दिन से अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग शुरू हो जायेंगे । धार्मिक भाषा के शत्रु और अंग्रेजी से मोहित धार्मिक ही हैं, और कोई नहीं यह समझ लेने की आवश्यकता है ।
    
सज्जन, बुद्धिमान, समाजाभिमुख लोगों को इतना कठोर होना अच्छा नहीं लगता । वे इस प्रकार के उपायों को अपनाने को सिद्ध भी नहीं होते और उन्हें मान्यता भी नहीं देते । इसलिये भूत अधिक प्रभावी बनता है । ऐसे सज्जनों के समक्ष कठोर उपाय करने वाले हार जाते हैं और भूत मुस्कुराता है परन्तु सज्जन अपनी सज्जनता छोड़ते ही नहीं । यह अंग्रेजी को परास्त करने के रास्ते में बडा अवरोध है |
 
सज्जन, बुद्धिमान, समाजाभिमुख लोगों को इतना कठोर होना अच्छा नहीं लगता । वे इस प्रकार के उपायों को अपनाने को सिद्ध भी नहीं होते और उन्हें मान्यता भी नहीं देते । इसलिये भूत अधिक प्रभावी बनता है । ऐसे सज्जनों के समक्ष कठोर उपाय करने वाले हार जाते हैं और भूत मुस्कुराता है परन्तु सज्जन अपनी सज्जनता छोड़ते ही नहीं । यह अंग्रेजी को परास्त करने के रास्ते में बडा अवरोध है |
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७. जिनको लगता है कि ज्ञानविज्ञान की, कानून और
 
७. जिनको लगता है कि ज्ञानविज्ञान की, कानून और
कोपोरेट की, तन्त्रज्ञान और मेनेजमेन्ट की भाषा अंग्रेजी है और इन क्षेत्रों में यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी है तो अंग्रेजी अनिवार्य है उन लोगों को सावधान होने की आवश्यकता है । और इनसे भी सावधान होने की आवश्यकता है । इन मार्गों से अंग्रेजीयत हमारे ज्ञानक्षेत्र को, समाऊक्षेत्र को, अर्थक्षेत्र को ग्रस्त कर रही है। हम ज्ञानक्षेत्र को भारतीय बनाना चाहते हैं तो इन क्षेत्रों को भी तो भारतीय बनाना पडेगा । क्या हमें अभी भी समझना बाकी है कि कोपोरेट क्षेत्र ने देश के अर्थतन्त्र को, विश्वविद्यालयों ने देश के ज्ञानक्षेत्र को और मनेनेजमेन्ट क्षेत्र ने मनुष्य को संसाधन बनाकर सांस्कृतिक क्षेत्र को तहसनहस कर दिया है ? इन क्षेत्रों में अंग्रेजी की प्रतिष्ठा है । बडी बडी यन्त्रस्चना ने मनुष्यों को मजदूर बना दिया, पर्यावरण का नाश कर दिया, उस तन्त्रविज्ञान के लिये हम अंग्रेजी का ज्ञान चाहते हैं । अर्थात्‌ राक्षसों की दुनिया में प्रवेश करने के लिये हम उनकी भाषा चाहते हैं । हम बहाना बनाते हैं कि हम उनके ही शख्र से उन्हें समझाकर, उन्हें जीत कर अपना बना लेंगे । उन्हें जीतकर उन्हें अपना लेने का उद्देश्य तो ठीक है
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कोपोरेट की, तन्त्रज्ञान और मेनेजमेन्ट की भाषा अंग्रेजी है और इन क्षेत्रों में यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी है तो अंग्रेजी अनिवार्य है उन लोगों को सावधान होने की आवश्यकता है । और इनसे भी सावधान होने की आवश्यकता है । इन मार्गों से अंग्रेजीयत हमारे ज्ञानक्षेत्र को, समाऊक्षेत्र को, अर्थक्षेत्र को ग्रस्त कर रही है। हम ज्ञानक्षेत्र को धार्मिक बनाना चाहते हैं तो इन क्षेत्रों को भी तो धार्मिक बनाना पडेगा । क्या हमें अभी भी समझना बाकी है कि कोपोरेट क्षेत्र ने देश के अर्थतन्त्र को, विश्वविद्यालयों ने देश के ज्ञानक्षेत्र को और मनेनेजमेन्ट क्षेत्र ने मनुष्य को संसाधन बनाकर सांस्कृतिक क्षेत्र को तहसनहस कर दिया है ? इन क्षेत्रों में अंग्रेजी की प्रतिष्ठा है । बडी बडी यन्त्रस्चना ने मनुष्यों को मजदूर बना दिया, पर्यावरण का नाश कर दिया, उस तन्त्रविज्ञान के लिये हम अंग्रेजी का ज्ञान चाहते हैं । अर्थात्‌ राक्षसों की दुनिया में प्रवेश करने के लिये हम उनकी भाषा चाहते हैं । हम बहाना बनाते हैं कि हम उनके ही शख्र से उन्हें समझाकर, उन्हें जीत कर अपना बना लेंगे । उन्हें जीतकर उन्हें अपना लेने का उद्देश्य तो ठीक है
 
क्योंकि वे अपने हैं, परन्तु उन्हें जीतने का मार्ग
 
क्योंकि वे अपने हैं, परन्तु उन्हें जीतने का मार्ग
 
ठीक नहीं है यह इतने वर्षों के अनुभव ने सिद्ध कर
 
ठीक नहीं है यह इतने वर्षों के अनुभव ने सिद्ध कर
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नये अधिक प्रभावी, अधिक सही मार्ग अपनाने की आवश्यकता है । इनमें से एक यहाँ बताया गया है यह मनोवैज्ञानिक उपाय है ।
 
नये अधिक प्रभावी, अधिक सही मार्ग अपनाने की आवश्यकता है । इनमें से एक यहाँ बताया गया है यह मनोवैज्ञानिक उपाय है ।
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८. जिन बातों के लिये हमें अंग्रेजी की आवश्यकता लगती है उन बातों के भारतीय पर्याय निर्माण करना अधिक प्रभावी और अधिक सही उपाय है ।
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८. जिन बातों के लिये हमें अंग्रेजी की आवश्यकता लगती है उन बातों के धार्मिक पर्याय निर्माण करना अधिक प्रभावी और अधिक सही उपाय है ।
सामर्थ्य के बिना विजय प्राप्त नहीं होती । क्या चिकित्साविज्ञान, तन्त्रविज्ञान, उद्योगतन्त्र, प्रबन्धन भारतीय भाषा में नहीं सीखा जायेगा । लोग तर्क देते हैं कि इन विषयों की पुस्तकें भारतीय भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। तो इन्हें भारतीय भाषाओं में लिखने से कौन रोकता है ? क्‍या इतने बडे देश में ऐसे विद्वान नहीं मिलेंगे ? अवश्य मिलेंगे । फिर क्यों नहीं लिखते ? अंग्रेजी में उपलब्ध है फिर कया आवश्यकता है ऐसा हम कहते हैं। भारतीय भाषाओं में इन विषयों की पारिभाषिक शब्दावलि उपलब्ध नहीं है ऐसा कहते हैं । यह भी मिथ्या तर्क है क्योंकि शब्दावलि रची जा सकती है । भारतीय भाषाओं की शब्दावलि अतिशय जटिल और कठिन
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सामर्थ्य के बिना विजय प्राप्त नहीं होती । क्या चिकित्साविज्ञान, तन्त्रविज्ञान, उद्योगतन्त्र, प्रबन्धन धार्मिक भाषा में नहीं सीखा जायेगा । लोग तर्क देते हैं कि इन विषयों की पुस्तकें धार्मिक भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। तो इन्हें धार्मिक भाषाओं में लिखने से कौन रोकता है ? क्‍या इतने बडे देश में ऐसे विद्वान नहीं मिलेंगे ? अवश्य मिलेंगे । फिर क्यों नहीं लिखते ? अंग्रेजी में उपलब्ध है फिर कया आवश्यकता है ऐसा हम कहते हैं। धार्मिक भाषाओं में इन विषयों की पारिभाषिक शब्दावलि उपलब्ध नहीं है ऐसा कहते हैं । यह भी मिथ्या तर्क है क्योंकि शब्दावलि रची जा सकती है । धार्मिक भाषाओं की शब्दावलि अतिशय जटिल और कठिन
 
होती है ऐसा कहते हैं । ऐसा कैसे हो सकता है ? यह तो परिचय का प्रश्न है । परिचय बढ़ता जायेगा तो वह सरल और सहज होती जायेगी । हम अनुवाद भी तो कर सकते हैं ।
 
होती है ऐसा कहते हैं । ऐसा कैसे हो सकता है ? यह तो परिचय का प्रश्न है । परिचय बढ़ता जायेगा तो वह सरल और सहज होती जायेगी । हम अनुवाद भी तो कर सकते हैं ।
    
बात तो यह है कि
 
बात तो यह है कि
जिस वर्ग के साथ हम अंग्रेजी में संवाद करना चाहते हैं वह वर्ग अंग्रेजी व्यवस्था तन्त्र और अंग्रेजी  जीवनदृष्टि में फसा हुआ है। उस व्यवस्थातन्त्र से उन्हें मुक्त करने का मार्ग उनके साथ अंग्रेजी में संवाद करने का नहीं है, सम्पूर्ण ज्ञानक्षेत्र का भारतीय विकल्प प्रस्थापित करने का है ।
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जिस वर्ग के साथ हम अंग्रेजी में संवाद करना चाहते हैं वह वर्ग अंग्रेजी व्यवस्था तन्त्र और अंग्रेजी  जीवनदृष्टि में फसा हुआ है। उस व्यवस्थातन्त्र से उन्हें मुक्त करने का मार्ग उनके साथ अंग्रेजी में संवाद करने का नहीं है, सम्पूर्ण ज्ञानक्षेत्र का धार्मिक विकल्प प्रस्थापित करने का है ।
    
इस दृष्टि से देखेंगे तो अंग्रेजी का प्रश्न गौण है, शिक्षा का. महत्त्वपूर्ण है। उसी प्रकार से अर्थव्यवस्था और जीवनशैली बदलने का है ।
 
इस दृष्टि से देखेंगे तो अंग्रेजी का प्रश्न गौण है, शिक्षा का. महत्त्वपूर्ण है। उसी प्रकार से अर्थव्यवस्था और जीवनशैली बदलने का है ।
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अतः हम जीवनव्यवस्था और जीवनशैली, पद्धति और प्रक्रिया, जीवनदृष्टि को भारतीय बनाने का प्रयास करेंगे तभी हम अंग्रेजी के प्रश्न को ठीक से हल कर पायेंगे, किंबहुना तब अंग्रेजी का प्रश्न ही नहीं रहेगा । अंग्रेजी से पैसा, प्रतिष्ठा, संस्कार या ज्ञान नहीं मिलेंगे तो अंग्रेजी की आवश्यकता किसे रहेगी ?  
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अतः हम जीवनव्यवस्था और जीवनशैली, पद्धति और प्रक्रिया, जीवनदृष्टि को धार्मिक बनाने का प्रयास करेंगे तभी हम अंग्रेजी के प्रश्न को ठीक से हल कर पायेंगे, किंबहुना तब अंग्रेजी का प्रश्न ही नहीं रहेगा । अंग्रेजी से पैसा, प्रतिष्ठा, संस्कार या ज्ञान नहीं मिलेंगे तो अंग्रेजी की आवश्यकता किसे रहेगी ?  
    
९. एक ओर तो जीवन व्यवस्थाओं को बदलने का प्रयास करना, दूसरी और अंग्रेजी माध्यम को रोकने का जितना हो सके उतना प्रयास जारी रखना चाहिये । अंग्रेजी के प्रश्न को पूर्ण रूप से छोड़ना
 
९. एक ओर तो जीवन व्यवस्थाओं को बदलने का प्रयास करना, दूसरी और अंग्रेजी माध्यम को रोकने का जितना हो सके उतना प्रयास जारी रखना चाहिये । अंग्रेजी के प्रश्न को पूर्ण रूप से छोड़ना
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१०. अंग्रेजी जानने वालों और नहीं जानने वालों की संख्या का अनुपात दस और नब्बे प्रतिशत है। अधिक से अधिक बीस और अस्सी प्रतिशत है । विडम्बना यह है कि ये बीस प्रतिशत लोग ज्ञानक्षेत्र और अन्नक्षेत्र पर पकड जमाये हुए हैं और देश को चलाते हैं । अस्सी प्रतिशत लोग इनके जैसा बनना
 
१०. अंग्रेजी जानने वालों और नहीं जानने वालों की संख्या का अनुपात दस और नब्बे प्रतिशत है। अधिक से अधिक बीस और अस्सी प्रतिशत है । विडम्बना यह है कि ये बीस प्रतिशत लोग ज्ञानक्षेत्र और अन्नक्षेत्र पर पकड जमाये हुए हैं और देश को चलाते हैं । अस्सी प्रतिशत लोग इनके जैसा बनना
चाहते हैं परन्तु बन नहींपाते । उनके जैसा बनने में एक दृयनीय प्रयास अंग्रेजी माध्यम में पढने का है । यह प्रास्भ से ही अंग्रेजों की चाल रही है। वे समाज के एक वर्ग को अंग्रेजी और अंग्रेजीयत का ज्ञान देकर उनके और भारत के सामान्य जन के मध्य एक सम्पर्क क्षेत्र बनाना चाहते थे। वह सम्पर्क क्षेत्र अब अधिकारी क्षेत्र बन गया है। ये बीस प्रतिशत अंग्रेजी ही नहीं अंग्रेजीयत को भी अपना चुके हैं। अब हमारे सामने प्रश्न है इन अस्सी प्रतिशत सामान्य जन के साथ खड़ा होकर उन्हें देश चलाने के लिये सक्षम बनाना या बीस प्रतिशत देश चलाने वालों को भारतीय बनाकर उन्हें देश चलाने देना। कदाचित अस्सी प्रतिशत को सक्षम बनाना कुल मिलाकर सरल होगा। बीस प्रतिशत को अस्सी प्रतिशत के साथ मिलाना अधिक उचित होगा।
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चाहते हैं परन्तु बन नहींपाते । उनके जैसा बनने में एक दृयनीय प्रयास अंग्रेजी माध्यम में पढने का है । यह प्रास्भ से ही अंग्रेजों की चाल रही है। वे समाज के एक वर्ग को अंग्रेजी और अंग्रेजीयत का ज्ञान देकर उनके और भारत के सामान्य जन के मध्य एक सम्पर्क क्षेत्र बनाना चाहते थे। वह सम्पर्क क्षेत्र अब अधिकारी क्षेत्र बन गया है। ये बीस प्रतिशत अंग्रेजी ही नहीं अंग्रेजीयत को भी अपना चुके हैं। अब हमारे सामने प्रश्न है इन अस्सी प्रतिशत सामान्य जन के साथ खड़ा होकर उन्हें देश चलाने के लिये सक्षम बनाना या बीस प्रतिशत देश चलाने वालों को धार्मिक बनाकर उन्हें देश चलाने देना। कदाचित अस्सी प्रतिशत को सक्षम बनाना कुल मिलाकर सरल होगा। बीस प्रतिशत को अस्सी प्रतिशत के साथ मिलाना अधिक उचित होगा।
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किसी भी स्थिति में भारतीयता के पक्ष में जो लोग काम करते हैं उन्हें अधिक समर्थ बनना होगा। सामर्थ्य के बिना प्रभाव निर्माण नहीं होगा और बिना प्रभाव के किसी भी प्रकार का परिवर्तन होना सम्भव नहीं।
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किसी भी स्थिति में धार्मिकता के पक्ष में जो लोग काम करते हैं उन्हें अधिक समर्थ बनना होगा। सामर्थ्य के बिना प्रभाव निर्माण नहीं होगा और बिना प्रभाव के किसी भी प्रकार का परिवर्तन होना सम्भव नहीं।
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११. ज्ञानक्षेत्र को और अर्थक्षेत्र को केवल भारतीय भाषा में प्रस्तुत करना पर्याप्त नहीं है, भारतीय दृष्टि और पद्धति से पर्याय देना अधिक आवश्यक है। उदाहरण के लिये बडे यन्त्रों वाला कारखाना भारतीय अर्थव्यवस्था में बैठ ही नहीं सकता । दूध की डेअरी भारतीय अर्थव्यवस्था में बैठ ही नहीं सकती, फिर डेअरी उद्योग और डेअरी विज्ञान की बात ही कहाँ रहेगी ? प्लास्टिक उद्योग सांस्कृतिक क्षेत्र और अर्थक्षेत्र दोनों में निषिद्ध है। मिक्सर, ग्राइण्डर, माइक्रोवेव को आहार और आरोग्य शास्त्र अमान्य करता है, फिर इनके कारखाने और इनको बनाने की विद्या कैसे चलेगी ? मैनेजमेण्ट के वर्तमान को मानवधर्मशास्त्र अमान्य करता है, या तो उन्हें भारतीय बनना होगा या तो बन्द करना होगा । हममें भारतीय पर्याय बनाने का सामर्थ्य होना चाहिये।  
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११. ज्ञानक्षेत्र को और अर्थक्षेत्र को केवल धार्मिक भाषा में प्रस्तुत करना पर्याप्त नहीं है, धार्मिक दृष्टि और पद्धति से पर्याय देना अधिक आवश्यक है। उदाहरण के लिये बडे यन्त्रों वाला कारखाना धार्मिक अर्थव्यवस्था में बैठ ही नहीं सकता । दूध की डेअरी धार्मिक अर्थव्यवस्था में बैठ ही नहीं सकती, फिर डेअरी उद्योग और डेअरी विज्ञान की बात ही कहाँ रहेगी ? प्लास्टिक उद्योग सांस्कृतिक क्षेत्र और अर्थक्षेत्र दोनों में निषिद्ध है। मिक्सर, ग्राइण्डर, माइक्रोवेव को आहार और आरोग्य शास्त्र अमान्य करता है, फिर इनके कारखाने और इनको बनाने की विद्या कैसे चलेगी ? मैनेजमेण्ट के वर्तमान को मानवधर्मशास्त्र अमान्य करता है, या तो उन्हें धार्मिक बनना होगा या तो बन्द करना होगा । हममें धार्मिक पर्याय बनाने का सामर्थ्य होना चाहिये।  
    
अंग्रेजी के प्रश्न का दायरा बहुत व्यापक है। विचार उस दायरे का करना होगा।
 
अंग्रेजी के प्रश्न का दायरा बहुत व्यापक है। विचार उस दायरे का करना होगा।
    
==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
[[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
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[[Category:Education Series]]
 
[[Category:Education Series]]
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