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| लेकिन पर्यावरण की राजनीति का एक दूसरा पक्ष भी है। इससे जुड़े मनीषियों के प्रेरणास्रोत महात्मा गांधी, जर्मन अर्थशास्त्री शूमाकर और एरिक फ्राम हैं। इस 'गहरे हरित रंग की राजनीति' (Politics of Dark Greens) के प्रतिपादक मानते हैं कि पर्यावरण के संकट का स्रोत भौतिकवाद, उपभोगवाद और आर्थिक विकास का उन्माद है जिसकी सुधारवादी उपेक्षा करते हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि विज्ञान और तकनीक की सीमाएँ हैं और वे सभी मानवीय समस्याओं, विशेषतः जीवन-दृष्टि की विद्रूपता से उपजी समस्याओं, को हल नहीं कर सकतीं । महात्मा गाँधी ने कहा है कि प्रकृति हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने का सामर्थ्य तो रखती है, परन्तु हमारे लोभ, हमारी लिप्सा को वह संतुष्ट नहीं कर सकती । आधुनिकता के पदार्पण ने हमारी जीवन-दृष्टि को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया। हम अपने को स्वयंभू और सर्वश्रेष्ठ मान बैठे और किसी उच्चतर सत्ता व सनातन दैवीय व प्राकृतिक विधान की उपस्थिति को नकारने लगे। फलस्वरूप प्रकृति के प्रति भी हमारा दृष्टिकोण बदला और मनुष्य अपने को प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों का स्वामी (Master and Prossesser of Nature) मान बैठा। अपने भौतिक-आर्थिक सुख की वृद्धि हेतु प्राकृतिक संसाधनों का अनाप-शनाप दोहन होने लगा, और इसी को आर्थिक विकास कहा गया । जीवन व जगत के प्रति साकल्यवादी (Holistic) दृष्टिकोण के अभाव की परिणति गम्भीर असन्तुलन में होनी ही थी । इस प्रकार, पर्यावरण का संकट मूलतः एक नैतिक संकट है और इसका स्थायी समाधान तभी सम्भव है जब हमारी विचार-दृष्टि में एक मौलिक परिवर्तन आए। आज जिस 'पोषणीय' (Sustainable) विकास की चर्चा है, वह तो भौतिकवाद और उपभोगवाद का परित्याग कर आत्मवादी जीवन-दृष्टि को अंगीकार कर ही सम्भव है। 'प्रगति' की आधुनिक अवधारणा न केवल एकांगी, वरन् आत्म-घाती सिद्ध हुई है और इससे पिण्ड छुड़ाए बिना मनुष्य और प्रकृति का योगक्षेम सम्भव नहीं है। | | लेकिन पर्यावरण की राजनीति का एक दूसरा पक्ष भी है। इससे जुड़े मनीषियों के प्रेरणास्रोत महात्मा गांधी, जर्मन अर्थशास्त्री शूमाकर और एरिक फ्राम हैं। इस 'गहरे हरित रंग की राजनीति' (Politics of Dark Greens) के प्रतिपादक मानते हैं कि पर्यावरण के संकट का स्रोत भौतिकवाद, उपभोगवाद और आर्थिक विकास का उन्माद है जिसकी सुधारवादी उपेक्षा करते हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि विज्ञान और तकनीक की सीमाएँ हैं और वे सभी मानवीय समस्याओं, विशेषतः जीवन-दृष्टि की विद्रूपता से उपजी समस्याओं, को हल नहीं कर सकतीं । महात्मा गाँधी ने कहा है कि प्रकृति हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने का सामर्थ्य तो रखती है, परन्तु हमारे लोभ, हमारी लिप्सा को वह संतुष्ट नहीं कर सकती । आधुनिकता के पदार्पण ने हमारी जीवन-दृष्टि को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया। हम अपने को स्वयंभू और सर्वश्रेष्ठ मान बैठे और किसी उच्चतर सत्ता व सनातन दैवीय व प्राकृतिक विधान की उपस्थिति को नकारने लगे। फलस्वरूप प्रकृति के प्रति भी हमारा दृष्टिकोण बदला और मनुष्य अपने को प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों का स्वामी (Master and Prossesser of Nature) मान बैठा। अपने भौतिक-आर्थिक सुख की वृद्धि हेतु प्राकृतिक संसाधनों का अनाप-शनाप दोहन होने लगा, और इसी को आर्थिक विकास कहा गया । जीवन व जगत के प्रति साकल्यवादी (Holistic) दृष्टिकोण के अभाव की परिणति गम्भीर असन्तुलन में होनी ही थी । इस प्रकार, पर्यावरण का संकट मूलतः एक नैतिक संकट है और इसका स्थायी समाधान तभी सम्भव है जब हमारी विचार-दृष्टि में एक मौलिक परिवर्तन आए। आज जिस 'पोषणीय' (Sustainable) विकास की चर्चा है, वह तो भौतिकवाद और उपभोगवाद का परित्याग कर आत्मवादी जीवन-दृष्टि को अंगीकार कर ही सम्भव है। 'प्रगति' की आधुनिक अवधारणा न केवल एकांगी, वरन् आत्म-घाती सिद्ध हुई है और इससे पिण्ड छुड़ाए बिना मनुष्य और प्रकृति का योगक्षेम सम्भव नहीं है। |
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− | इस विनाशकारी विकास से चिन्तित अनेक पाश्चात्य विद्वान हिन्दू और बौद्ध धर्मों में प्रतिपादित सनातन सिद्धान्तों की ओर आकृष्ट हुए हैं। फ्रिथजॉफ कापरा जैसे भौतिकशास्त्री डेकार्ट और न्यूटन के वैज्ञानिक बुद्धिवाद में पर्यावरण-संकट के बीज देखते हैं और ब्रह्माण्ड की भारतीय दृष्टि की ओर प्रत्यावर्तन का आग्रह करते है। एरिक फ्राम पर्यावरण-संकट का मूल कारण 'आत्म-बोध' (Being) की अपेक्षा प्राप्ति/उपलब्धि (Having) को वरीयता देने की आधुनिक प्रवृत्ति को मानते हैं। शूमाकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'स्माल इज ब्यूटीफुल' में बौद्ध परम्परा में प्रतिपादित 'सम्यक् आजीव' (Right Livelihood) की महत्ता व प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। आधुनिक अर्थशास्त्र व्यक्ति को आर्थिक प्राणी (Economic Man) और उपयोगिता का संवर्धन करने वाला प्राणी (Utility Maximizer) मानता है। परन्तु शूमाकर इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हैं और योगमूलक भोग में मनुष्य व समाज का कल्याण मानते हैं। धन नहीं, धन की आसक्ति त्याज्य है। भौतिक सुखों का परिसीमन अपेक्षित है, और यह तभी सम्भव है जब आत्मिक-नैतिक आनन्द को श्रेष्ठतर व श्रेयस्कर माना जाए। सम्यक् अर्थशास्त्र मनुष्य का चतुर्दिक कल्याण करता है, उसे धनपिशाच नहीं बनाता। | + | इस विनाशकारी विकास से चिन्तित अनेक पाश्चात्य विद्वान हिन्दू और बौद्ध धर्मों में प्रतिपादित सनातन सिद्धान्तों की ओर आकृष्ट हुए हैं। फ्रिथजॉफ कापरा जैसे भौतिकशास्त्री डेकार्ट और न्यूटन के वैज्ञानिक बुद्धिवाद में पर्यावरण-संकट के बीज देखते हैं और ब्रह्माण्ड की धार्मिक दृष्टि की ओर प्रत्यावर्तन का आग्रह करते है। एरिक फ्राम पर्यावरण-संकट का मूल कारण 'आत्म-बोध' (Being) की अपेक्षा प्राप्ति/उपलब्धि (Having) को वरीयता देने की आधुनिक प्रवृत्ति को मानते हैं। शूमाकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'स्माल इज ब्यूटीफुल' में बौद्ध परम्परा में प्रतिपादित 'सम्यक् आजीव' (Right Livelihood) की महत्ता व प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। आधुनिक अर्थशास्त्र व्यक्ति को आर्थिक प्राणी (Economic Man) और उपयोगिता का संवर्धन करने वाला प्राणी (Utility Maximizer) मानता है। परन्तु शूमाकर इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हैं और योगमूलक भोग में मनुष्य व समाज का कल्याण मानते हैं। धन नहीं, धन की आसक्ति त्याज्य है। भौतिक सुखों का परिसीमन अपेक्षित है, और यह तभी सम्भव है जब आत्मिक-नैतिक आनन्द को श्रेष्ठतर व श्रेयस्कर माना जाए। सम्यक् अर्थशास्त्र मनुष्य का चतुर्दिक कल्याण करता है, उसे धनपिशाच नहीं बनाता। |
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| पूर्व के विवेचन में राष्ट्रीयता के उभार की चर्चा की गई। लेकिन आधुनिक विश्व में राष्ट्रवाद का आक्रमक और विध्वंसक रूप भी बार-बार प्रकट हुआ है। ऐसा उग्र राष्ट्रवाद, चाहे उसका आधार धर्म हो, प्रजातीयता हो अथवा भाषा हो, मानवता के लिए एक खतरा बनकर ही उभरा है। इसी उग्र/अंध राष्ट्रवाद ने २०वीं सदी में दो भयावह महायुद्धों को जन्म दिया और यही छद्म राष्ट्रवाद समकालीन विश्व में आतंकवाद के रूप में विनाश का कारण बना हुआ है। शीत-युद्धोत्तर काल में कतिपय राज्येतर संगठन (Non-State Actors) अशान्ति व अस्थिरता के नए स्रोतों के रूप में उभरे, और आतंक उनका नया हथियार बन गया । राज्यों द्वारा आतंक को एक प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के अनेक उदाहरण आधुनिक यूरोप के इतिहास में उपलब्ध हैं। १७८९ की फ्रांस की क्रान्ति के उपरान्त राब्सपीयरे ने 'आतंक का राज्य' स्थापित कर क्रान्ति-विरोधी शक्तियों का मुकाबला किया, १९१७ की रूसी क्रान्ति के उपरान्त स्टालिन ने भी यही किया और जर्मनी में हिटलर, इटली में मुसोलिनी व स्पेन में जनरल फ्रांको ने भी आतंक के बलबूते अपने सर्वाधिकारवादी शासन का संचालन किया। परन्तु राज्येतर संगठनों द्वारा अपने राजनीतिक, प्रजातीय अथवा धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आतंक का इस्तेमाल एक भिन्न परिदृश्य उपस्थित करता है। समकालीन वैश्विक राजनीति धार्मिक आतंकवाद से त्रस्त है। इस्लाम के नाम पर अल-कायदा, तालिबान, हिजबुल्लाह, आईएसआईएस आदि संगठन गैर-इस्लामी व्यवस्थाओं के लिए गम्भीर चुनौती बन चुके हैं। वे इस्लाम की अपनी व्याख्या को आधिकारिक और प्रामाणिक मानते हैं और ऐसे इस्लामी देशों को भी नेस्तनाबूद करना चाहते हैं जो उनकी व्याख्या से असहमत हैं। यदि वैश्विकरण अमेरिका द्वारा प्रायोजित नव-साम्राज्यवाद है तो ये राज्येतर आतंकवादी संगठन इस्लामी साम्राज्यवाद के प्रवर्तक बन चुके हैं और सम्पूर्ण विश्व-व्यवस्था को अपनी छवि में गढ़ना चाहते हैं। | | पूर्व के विवेचन में राष्ट्रीयता के उभार की चर्चा की गई। लेकिन आधुनिक विश्व में राष्ट्रवाद का आक्रमक और विध्वंसक रूप भी बार-बार प्रकट हुआ है। ऐसा उग्र राष्ट्रवाद, चाहे उसका आधार धर्म हो, प्रजातीयता हो अथवा भाषा हो, मानवता के लिए एक खतरा बनकर ही उभरा है। इसी उग्र/अंध राष्ट्रवाद ने २०वीं सदी में दो भयावह महायुद्धों को जन्म दिया और यही छद्म राष्ट्रवाद समकालीन विश्व में आतंकवाद के रूप में विनाश का कारण बना हुआ है। शीत-युद्धोत्तर काल में कतिपय राज्येतर संगठन (Non-State Actors) अशान्ति व अस्थिरता के नए स्रोतों के रूप में उभरे, और आतंक उनका नया हथियार बन गया । राज्यों द्वारा आतंक को एक प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के अनेक उदाहरण आधुनिक यूरोप के इतिहास में उपलब्ध हैं। १७८९ की फ्रांस की क्रान्ति के उपरान्त राब्सपीयरे ने 'आतंक का राज्य' स्थापित कर क्रान्ति-विरोधी शक्तियों का मुकाबला किया, १९१७ की रूसी क्रान्ति के उपरान्त स्टालिन ने भी यही किया और जर्मनी में हिटलर, इटली में मुसोलिनी व स्पेन में जनरल फ्रांको ने भी आतंक के बलबूते अपने सर्वाधिकारवादी शासन का संचालन किया। परन्तु राज्येतर संगठनों द्वारा अपने राजनीतिक, प्रजातीय अथवा धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आतंक का इस्तेमाल एक भिन्न परिदृश्य उपस्थित करता है। समकालीन वैश्विक राजनीति धार्मिक आतंकवाद से त्रस्त है। इस्लाम के नाम पर अल-कायदा, तालिबान, हिजबुल्लाह, आईएसआईएस आदि संगठन गैर-इस्लामी व्यवस्थाओं के लिए गम्भीर चुनौती बन चुके हैं। वे इस्लाम की अपनी व्याख्या को आधिकारिक और प्रामाणिक मानते हैं और ऐसे इस्लामी देशों को भी नेस्तनाबूद करना चाहते हैं जो उनकी व्याख्या से असहमत हैं। यदि वैश्विकरण अमेरिका द्वारा प्रायोजित नव-साम्राज्यवाद है तो ये राज्येतर आतंकवादी संगठन इस्लामी साम्राज्यवाद के प्रवर्तक बन चुके हैं और सम्पूर्ण विश्व-व्यवस्था को अपनी छवि में गढ़ना चाहते हैं। |
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| ==References== | | ==References== |
− | भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व २: अध्याय १८, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
| + | धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व २: अध्याय १८, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |
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− | [[Category:भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 2: विश्वस्थिति का आकलन]] | + | [[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 2: विश्वस्थिति का आकलन]] |