Line 3: |
Line 3: |
| मनुष्य भी एक प्राणी है। उसके प्राणिक आवेगों के कारण उसे जीने के लिए कई बातों की अनिवार्य रूप में आवश्यकता होती है। जब तक जीवन चलता है आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक होती है। पशु, पक्षी, प्राणियों में बुद्धि का स्तर कम होता है। इस कारण उनके लिए आजीविका की प्राप्ति में अनिश्चितता रहती है। शेर जंगल का राजा होता है। लेकिन उसकी भी स्वाभाविक मृत्यू भुखमरी के कारण ही होती है। यौवनावस्था में अनिश्चितताएं कम होंगी लेकिन होती अवश्य हैं। बुरे समय, शैशव, बाल्य और बुढापे में यह अनिश्चितता बहुत अधिक होती है। इन अनिश्चितताओं से मुक्ति के लिए मनुष्य और मनुष्य समाज भिन्न भिन्न प्रकार की व्यवस्थाएं निर्माण करता है। | | मनुष्य भी एक प्राणी है। उसके प्राणिक आवेगों के कारण उसे जीने के लिए कई बातों की अनिवार्य रूप में आवश्यकता होती है। जब तक जीवन चलता है आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक होती है। पशु, पक्षी, प्राणियों में बुद्धि का स्तर कम होता है। इस कारण उनके लिए आजीविका की प्राप्ति में अनिश्चितता रहती है। शेर जंगल का राजा होता है। लेकिन उसकी भी स्वाभाविक मृत्यू भुखमरी के कारण ही होती है। यौवनावस्था में अनिश्चितताएं कम होंगी लेकिन होती अवश्य हैं। बुरे समय, शैशव, बाल्य और बुढापे में यह अनिश्चितता बहुत अधिक होती है। इन अनिश्चितताओं से मुक्ति के लिए मनुष्य और मनुष्य समाज भिन्न भिन्न प्रकार की व्यवस्थाएं निर्माण करता है। |
| | | |
− | इसी तरह से उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की समाज के प्रत्येक घटक को समुचित उपलब्धता हो और साथ ही में प्रकृति का प्रदूषण न हो इस दृष्टि से भी व्यवस्थाओं की आवश्यकता होती है। मनुष्य में स्वार्थ भावना जन्म से ही होती है। मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता भी होती है। इसलिए वह अन्यों का अहित नहीं करे इस के लिए भी कुछ व्यवस्था आवश्यक होती है।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय २३, लेखक - दिलीप केलकर</ref> | + | इसी तरह से उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की समाज के प्रत्येक घटक को समुचित उपलब्धता हो और साथ ही में प्रकृति का प्रदूषण न हो इस दृष्टि से भी व्यवस्थाओं की आवश्यकता होती है। मनुष्य में स्वार्थ भावना जन्म से ही होती है। मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता भी होती है। इसलिए वह अन्यों का अहित नहीं करे इस के लिए भी कुछ व्यवस्था आवश्यक होती है।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड २, अध्याय २३, लेखक - दिलीप केलकर</ref> |
| | | |
| == व्यवस्था धर्म == | | == व्यवस्था धर्म == |
Line 47: |
Line 47: |
| ## करणीय अकरणीय विवेक : करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानि होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगने पर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगने पर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है। किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगों के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगों के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है। | | ## करणीय अकरणीय विवेक : करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानि होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगने पर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगने पर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है। किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगों के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगों के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है। |
| ## स्वभाव शुद्धि और वृद्धि की शिक्षा : मोटे मोटे तौर पर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुद्धि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन और समायोजन का भी ध्यान रखना। | | ## स्वभाव शुद्धि और वृद्धि की शिक्षा : मोटे मोटे तौर पर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुद्धि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन और समायोजन का भी ध्यान रखना। |
− | ## काम पुरूषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इछाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मन की शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा। काम की याने मन की शिक्षा के विषय में अधिक जानने के लिये कृपया [[Indian Governance Systems (भारतीय शासन दृष्टि)|यहाँ]] देखें। | + | ## काम पुरूषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इछाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मन की शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा। काम की याने मन की शिक्षा के विषय में अधिक जानने के लिये कृपया [[Indian Governance Systems (धार्मिक शासन दृष्टि)|यहाँ]] देखें। |
| ## अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के लिए किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापी है उसी प्रकार अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापनेवाला है। जब लेने के स्थानपर देनेपर बल दिया जाता है तब समृद्धि व्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो। अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी मानसिकतावाले समाज का मनुष्य जो भी करता है वह सर्वश्रेष्ठ बने इसका प्रयास करता है। और ऐसा प्रयास जिस समाज के लोग करेंगे उस समाज का सम्मान तो अन्य समाज करेंगे ही। दान की भी यही संकल्पना है। जो सर्वश्रेष्ठ है उसी का तो दान किया जाता है (नचिकेता की कथा)। अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के कुछ बिंदु निम्न हैं: | | ## अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के लिए किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापी है उसी प्रकार अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापनेवाला है। जब लेने के स्थानपर देनेपर बल दिया जाता है तब समृद्धि व्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो। अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी मानसिकतावाले समाज का मनुष्य जो भी करता है वह सर्वश्रेष्ठ बने इसका प्रयास करता है। और ऐसा प्रयास जिस समाज के लोग करेंगे उस समाज का सम्मान तो अन्य समाज करेंगे ही। दान की भी यही संकल्पना है। जो सर्वश्रेष्ठ है उसी का तो दान किया जाता है (नचिकेता की कथा)। अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के कुछ बिंदु निम्न हैं: |
| ##* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं। | | ##* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं। |
Line 63: |
Line 63: |
| ##* समृद्धि व्यवस्था क्रय विक्रय की नहीं, व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: कुटुम्ब शिक्षा का होता है। विद्या केन्द्र की शिक्षा में इसे दृढ़ किया जाता है। | | ##* समृद्धि व्यवस्था क्रय विक्रय की नहीं, व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: कुटुम्ब शिक्षा का होता है। विद्या केन्द्र की शिक्षा में इसे दृढ़ किया जाता है। |
| ##* संपन्नता और समृध्दि में अन्तर होता है। धन के संस्चय से सम्पन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं होगी तो संपत्ति का उचित वितरण नहीं होगा और समृद्धि नहीं आयेगी। देने की मानसिकता ही व्यक्ति ओर समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। यह लेखक के अपने बचपन में प्रत्यक्ष अनुभव की हुई बात है। | | ##* संपन्नता और समृध्दि में अन्तर होता है। धन के संस्चय से सम्पन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं होगी तो संपत्ति का उचित वितरण नहीं होगा और समृद्धि नहीं आयेगी। देने की मानसिकता ही व्यक्ति ओर समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। यह लेखक के अपने बचपन में प्रत्यक्ष अनुभव की हुई बात है। |
− | ##* जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। इसलिए जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की इष्ट गति, इस संकल्पना को हम विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टि के विषय में जानने का प्रयास करेंगे। अर्थ पुरुषार्थ के धन और आर्थिक समृद्धि से जुड़े महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ज्ञान हम धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि के विषय में प्राप्त करेंगे। | + | ##* जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। इसलिए जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की इष्ट गति, इस संकल्पना को हम विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टि के विषय में जानने का प्रयास करेंगे। अर्थ पुरुषार्थ के धन और आर्थिक समृद्धि से जुड़े महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ज्ञान हम धार्मिक (धार्मिक) समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि के विषय में प्राप्त करेंगे। |
| ## धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं: | | ## धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं: |
| ##* अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म , ऐसी भी धर्म की एक अत्यंत सरल व्याख्या की गई है। | | ##* अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म , ऐसी भी धर्म की एक अत्यंत सरल व्याख्या की गई है। |
Line 72: |
Line 72: |
| ##* करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है। | | ##* करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है। |
| ## मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा : मोक्ष की शिक्षा नहीं होती। साधना होती है। यह व्यक्ति को स्वत: ही करनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रेरणा दी जा सकती है। अष्टांग योग में से बहिरंग योग तक मार्गदर्शन भी किया जा सकता है। लेकिन आगे का मार्ग तो साधना का ही होता है। वैसे धर्माचरण की शिक्षा भी मोक्ष की शिक्षा ही होती है। | | ## मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा : मोक्ष की शिक्षा नहीं होती। साधना होती है। यह व्यक्ति को स्वत: ही करनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रेरणा दी जा सकती है। अष्टांग योग में से बहिरंग योग तक मार्गदर्शन भी किया जा सकता है। लेकिन आगे का मार्ग तो साधना का ही होता है। वैसे धर्माचरण की शिक्षा भी मोक्ष की शिक्षा ही होती है। |
− | ## विवेक की शिक्षा या ‘विचार कैसे करना’ – इस की शिक्षा : सामान्यत: बुद्धि सत्यान्वेषी ही होती है। वह मनुष्य के विवेक को जाग्रत करती है। गलत काम करने से रोकती है। ऐसे समय इन्द्रियों की सुख की लालसा से प्रभावित मन इस बुद्धि को गलत दिशा में ले जाता है। विवेक की शिक्षा या विचार कैसे करना इस की शिक्षा से तात्पर्य मन को बुद्धि पर हावी न होने देने की मन को बुद्धि का अनुगामी बने रहने की शिक्षा से है। विचार कैसे करना चाहिए इस विषय में हमने [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|इस]] अध्याय में सीखा है। | + | ## विवेक की शिक्षा या ‘विचार कैसे करना’ – इस की शिक्षा : सामान्यत: बुद्धि सत्यान्वेषी ही होती है। वह मनुष्य के विवेक को जाग्रत करती है। गलत काम करने से रोकती है। ऐसे समय इन्द्रियों की सुख की लालसा से प्रभावित मन इस बुद्धि को गलत दिशा में ले जाता है। विवेक की शिक्षा या विचार कैसे करना इस की शिक्षा से तात्पर्य मन को बुद्धि पर हावी न होने देने की मन को बुद्धि का अनुगामी बने रहने की शिक्षा से है। विचार कैसे करना चाहिए इस विषय में हमने [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|इस]] अध्याय में सीखा है। |
| # शिक्षक: शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो। धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है। गुरू से शिष्य सवाई-परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये। शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये। | | # शिक्षक: शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो। धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है। गुरू से शिष्य सवाई-परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये। शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये। |
| ## आचार्य की व्याख्या है: आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत । स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥{{Citation needed}} अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं। | | ## आचार्य की व्याख्या है: आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत । स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥{{Citation needed}} अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं। |
Line 134: |
Line 134: |
| # शासन का आधार : शासन के दो आधार हैं। पहला है राजधर्म का पालन (प्रजा को पुत्रवत मानकर व्यवहार करना) और दूसरा है कर-प्रणाली। | | # शासन का आधार : शासन के दो आधार हैं। पहला है राजधर्म का पालन (प्रजा को पुत्रवत मानकर व्यवहार करना) और दूसरा है कर-प्रणाली। |
| ## लोकानुरंजन और धर्माचरण : शासन का आधार केवल भौतिक सत्ता नहीं तो धर्माचरण और लोकानुरंजन का आचरण होना चाहिये। सज्जन आश्वस्त रहें और दुर्जन दण्ड से नियंत्रित रहें यही शासन से अपेक्षा होती है। शिक्षा, धर्म (रिलीजन/मजहब/पंथों के नहीं)के काम जैसे धर्मशाला, अन्नछत्र, सड़कें बनाना आदि जो भी बातें समाज को धर्माचरण सिखानेवाली या करवानेवाली होंगी शासन का काम सरल करेंगी। इसलिये शासनने ऐसे सभी कामों को संरक्षण, समर्थन और आवश्यकतानुसार सहायता भी देनी चाहिये। जिस प्रकार से धर्माचरण करनेवाले लोगों को शासन की ओर से समर्थन, सहायता और संरक्षण मिलना चाहिये उसी प्रकार जो अधर्माचरणी हैं, अधर्मयुक्त कामनाएँ करनेवाले और/या अधर्मयुक्त धन, साधन संसाधनों का प्रयोग करनेवाले हैं, उन के लिये दण्डविधान की व्यवस्था चलाना भी शासन की जिम्मेदारी है। | | ## लोकानुरंजन और धर्माचरण : शासन का आधार केवल भौतिक सत्ता नहीं तो धर्माचरण और लोकानुरंजन का आचरण होना चाहिये। सज्जन आश्वस्त रहें और दुर्जन दण्ड से नियंत्रित रहें यही शासन से अपेक्षा होती है। शिक्षा, धर्म (रिलीजन/मजहब/पंथों के नहीं)के काम जैसे धर्मशाला, अन्नछत्र, सड़कें बनाना आदि जो भी बातें समाज को धर्माचरण सिखानेवाली या करवानेवाली होंगी शासन का काम सरल करेंगी। इसलिये शासनने ऐसे सभी कामों को संरक्षण, समर्थन और आवश्यकतानुसार सहायता भी देनी चाहिये। जिस प्रकार से धर्माचरण करनेवाले लोगों को शासन की ओर से समर्थन, सहायता और संरक्षण मिलना चाहिये उसी प्रकार जो अधर्माचरणी हैं, अधर्मयुक्त कामनाएँ करनेवाले और/या अधर्मयुक्त धन, साधन संसाधनों का प्रयोग करनेवाले हैं, उन के लिये दण्डविधान की व्यवस्था चलाना भी शासन की जिम्मेदारी है। |
− | ## करप्राप्ति : शासकीय व्यय के लिये शासन को जनता से कर लेना चाहिये। कर के विषय में धार्मिक (भारतीय) विचार स्पष्ट हैं। जिस प्रकार से और प्रमाण में भूमीपर के जल के बाष्पीभवन से मेघ बनते हैं उसी प्रमाण में ‘कर’ लेना चाहिये। मेघ बनने के बाद जिस प्रकार से वह मेघ पूरी धरती को वह पानी फिर से लौटा देते हैं, उसी प्रकार से शासन अपने लिये उस कर से न्यूनतम व्यय कर बाकी सब जनता के हित के लिये व्यय करे यह अपेक्षा है। यह करते समय वह जनता में कोई भेदभाव नहीं करे। कर के संबंध में भ्रमर की भी उपमा दी गई है। भ्रमर फूल से उतना ही रस लेता है कि जिससे वह फूल मुरझा नहीं जाए। शासन भी जनता से इतना ही कर ले जिससे जनता को कर देने में कठिनाई अनुभव न हो। शासकों के अभोगी होने से शासन तंत्र पर होनेवाला व्यय कम होता है। शेष धन को शासन समाज हित के कार्यों में व्यय करे। | + | ## करप्राप्ति : शासकीय व्यय के लिये शासन को जनता से कर लेना चाहिये। कर के विषय में धार्मिक (धार्मिक) विचार स्पष्ट हैं। जिस प्रकार से और प्रमाण में भूमीपर के जल के बाष्पीभवन से मेघ बनते हैं उसी प्रमाण में ‘कर’ लेना चाहिये। मेघ बनने के बाद जिस प्रकार से वह मेघ पूरी धरती को वह पानी फिर से लौटा देते हैं, उसी प्रकार से शासन अपने लिये उस कर से न्यूनतम व्यय कर बाकी सब जनता के हित के लिये व्यय करे यह अपेक्षा है। यह करते समय वह जनता में कोई भेदभाव नहीं करे। कर के संबंध में भ्रमर की भी उपमा दी गई है। भ्रमर फूल से उतना ही रस लेता है कि जिससे वह फूल मुरझा नहीं जाए। शासन भी जनता से इतना ही कर ले जिससे जनता को कर देने में कठिनाई अनुभव न हो। शासकों के अभोगी होने से शासन तंत्र पर होनेवाला व्यय कम होता है। शेष धन को शासन समाज हित के कार्यों में व्यय करे। |
| # सत्ता सन्तुलन: सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्मव्यवस्था के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। सत्ता का इस प्रकार से विभाजन करने से शासन बिगडने से बचता है। इसमें भी धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज देता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है। | | # सत्ता सन्तुलन: सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्मव्यवस्था के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। सत्ता का इस प्रकार से विभाजन करने से शासन बिगडने से बचता है। इसमें भी धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज देता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है। |
| | | |
Line 189: |
Line 189: |
| <references />अन्य स्रोत: | | <references />अन्य स्रोत: |
| | | |
− | [[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान - भाग २)]] | + | [[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग २)]] |
− | [[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान)]] | + | [[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]] |