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आजकल अधिकारों का बोलबाला है। यह समाज में सामाजिकता कम होकर व्यक्तिवादिता यानि स्वार्थ की भावना के बढ़ने के कारण है। सर्वप्रथम हमारे राजनेता यूनेस्को से लाये ‘मानवाधिकार’ फिर लाये ‘स्त्रियों के अधिकार’ फिर लाये ‘बच्चों के अधिकार‘। हमारा संविधान भी मुख्यत: (कर्तव्यों की बहुत कम और) अधिकारों की बात करता है। पूरी कानून व्यवस्था ही अधिकारों की रक्षा के लिए बनाई गई है। जब अधिकारों का बोलबाला होता है तो झगड़े, संघर्ष, अशांति, बलावानों द्वारा अत्याचार तो होते ही हैं। जब सामाजिक संबंधों का आधार कर्तव्य होता है समाज में सुख, शांति, समृद्धि निर्माण होती है। लेकिन अपने पूर्वजों से कुछ सीखने के स्थान पर हम पश्चिम का अन्धानुकरण करने को ही प्रगति मानने लगे हैं।
 
आजकल अधिकारों का बोलबाला है। यह समाज में सामाजिकता कम होकर व्यक्तिवादिता यानि स्वार्थ की भावना के बढ़ने के कारण है। सर्वप्रथम हमारे राजनेता यूनेस्को से लाये ‘मानवाधिकार’ फिर लाये ‘स्त्रियों के अधिकार’ फिर लाये ‘बच्चों के अधिकार‘। हमारा संविधान भी मुख्यत: (कर्तव्यों की बहुत कम और) अधिकारों की बात करता है। पूरी कानून व्यवस्था ही अधिकारों की रक्षा के लिए बनाई गई है। जब अधिकारों का बोलबाला होता है तो झगड़े, संघर्ष, अशांति, बलावानों द्वारा अत्याचार तो होते ही हैं। जब सामाजिक संबंधों का आधार कर्तव्य होता है समाज में सुख, शांति, समृद्धि निर्माण होती है। लेकिन अपने पूर्वजों से कुछ सीखने के स्थान पर हम पश्चिम का अन्धानुकरण करने को ही प्रगति मानने लगे हैं।
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मानव की सहज स्वाभाविक सामाजिकता को विघटित कर उसे केवल व्यक्तिवादी बनानेवाले जीवन के अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान (paradigm) को हम अपनाते जा रहे हैं। ये समस्याएँ तथाकथित प्रगत देशों में भी हैं। लेकिन इस प्रकार के अत्याचार उनके लिए नई बात नहीं है। यह बात तो उन समाजों में स्वाभाविक ही मानी जाती है। स्त्रियाँ भी बहुत बवंडर नहीं मचातीं हैं। यौवनावस्थातक जिसका कौमार्य भंग नहीं हुआ ऐसी लड़कियाँ हीन मानी जातीं हैं। लड़की का विवाह के समय कुंवारी होना अपवाद ही होता है। लेकिन हम धार्मिक (भारतीय) तो ऐसे नहीं थे। हमारे यहाँ तो घर घर की गृहिणी अपने कर्तव्यों के प्रति, अपने बच्चे को संस्कारयुक्त बनाने की दृष्टि से जागरुक होती थी। अपनी बेटी अपने से भी श्रेष्ठ बने ऐसे संस्कारों से उसे सिंचित करती थी। अपने बेटों को मातृवत परदारेषु के संस्कार कराती थी। अपने श्रेष्ठ व्यवहार से समाज में सम्मान पाती थी। आवश्यकतानुसार परिवार की मुखिया भी हुआ करती थी। वास्तव में हमारी मान्यता के अनुसार तो घर या गृह गृहिणी से ही बनता है। वसुधैव कुटुम्बकम् का आधार ही घर घर की गृहिणी हुआ करती थी।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड १, अध्याय १३, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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मानव की सहज स्वाभाविक सामाजिकता को विघटित कर उसे केवल व्यक्तिवादी बनानेवाले जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान (paradigm) को हम अपनाते जा रहे हैं। ये समस्याएँ तथाकथित प्रगत देशों में भी हैं। लेकिन इस प्रकार के अत्याचार उनके लिए नई बात नहीं है। यह बात तो उन समाजों में स्वाभाविक ही मानी जाती है। स्त्रियाँ भी बहुत बवंडर नहीं मचातीं हैं। यौवनावस्थातक जिसका कौमार्य भंग नहीं हुआ ऐसी लड़कियाँ हीन मानी जातीं हैं। लड़की का विवाह के समय कुंवारी होना अपवाद ही होता है। लेकिन हम धार्मिक (भारतीय) तो ऐसे नहीं थे। हमारे यहाँ तो घर घर की गृहिणी अपने कर्तव्यों के प्रति, अपने बच्चे को संस्कारयुक्त बनाने की दृष्टि से जागरुक होती थी। अपनी बेटी अपने से भी श्रेष्ठ बने ऐसे संस्कारों से उसे सिंचित करती थी। अपने बेटों को मातृवत परदारेषु के संस्कार कराती थी। अपने श्रेष्ठ व्यवहार से समाज में सम्मान पाती थी। आवश्यकतानुसार परिवार की मुखिया भी हुआ करती थी। वास्तव में हमारी मान्यता के अनुसार तो घर या गृह गृहिणी से ही बनता है। वसुधैव कुटुम्बकम् का आधार ही घर घर की गृहिणी हुआ करती थी।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड १, अध्याय १३, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
    
== वर्तमान की वास्तविकता ==
 
== वर्तमान की वास्तविकता ==
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## इहवादिता की भावना के कारण कर्मसिद्धांत के ऊपर विश्वास नहीं होता। इस जन्म में नहीं तो अगले किसी जन्म में इस अत्याचार के परिणाम मुझे भोगने ही होंगे, ऐसी मान्यता नहीं होती। फलस्वरूप जहाँ कहीं अत्याचार कर छूट जाने की संभावनाएं होंगी वहाँ पुरुष अत्याचार कर गुजरता है।  
 
## इहवादिता की भावना के कारण कर्मसिद्धांत के ऊपर विश्वास नहीं होता। इस जन्म में नहीं तो अगले किसी जन्म में इस अत्याचार के परिणाम मुझे भोगने ही होंगे, ऐसी मान्यता नहीं होती। फलस्वरूप जहाँ कहीं अत्याचार कर छूट जाने की संभावनाएं होंगी वहाँ पुरुष अत्याचार कर गुजरता है।  
 
## जडवादिता में मनुष्य को मात्र एक रासायनिक प्रक्रिया मान लेने से अत्याचार के कारण पीड़ित को होनेवाले क्लेश, दुख:, पीड़ा आदि की सह-अनुभूति होती ही नहीं है। लगभग पूरा समाज ही इस घटिया प्रतिमान में जी रहा होने के कारण समाज के अन्य घटकों की संवेदनशीलता भी कम ही होती है। महिलाएँ भी एक मोमबत्ती मोर्चा निकालकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा हुआ मान लेतीं हैं।
 
## जडवादिता में मनुष्य को मात्र एक रासायनिक प्रक्रिया मान लेने से अत्याचार के कारण पीड़ित को होनेवाले क्लेश, दुख:, पीड़ा आदि की सह-अनुभूति होती ही नहीं है। लगभग पूरा समाज ही इस घटिया प्रतिमान में जी रहा होने के कारण समाज के अन्य घटकों की संवेदनशीलता भी कम ही होती है। महिलाएँ भी एक मोमबत्ती मोर्चा निकालकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा हुआ मान लेतीं हैं।
# वर्तमान लोकतंत्र : वर्तमान लोकतंत्र भी सामाजिकता को विघटित कर हर व्यक्ति को एक अलग इन्डिव्हीज्युअल पर्सन (समाज का अन्यों से कटा हुआ घटक) बना देता है। इससे एक ओर तो स्त्री अपने को शारीरिक दृष्टि से बराबर की नहीं होने पर भी पुरुषों के बराबरी की समझने लग जाती है और अपने को खतरनाक स्थिति में झोंक देती है। तो दूसरी ओर अत्याचारी पुरुष को भी अत्याचार का अवसर मिल जाता है। जब अत्याचार का प्रसंग आता है तब कहीं स्त्री को यह भान होता है की वह पुरुष नहीं है, वह एक स्त्री है। वर्तमान लोकतंत्र के कारण और जीवन के अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान के कारण भी समाज में अमर्याद स्वतंत्रता का पुरस्कार होता है। अपने अधिकारों की गुहार लगाई जाती है। अपने लिए तो सभी प्रकार की स्वतंत्रता का अधिकार माना जाता है लेकिन औरों के कर्तव्यों तथा औरों की सुसंस्कृतता के ऊपर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाते हैं। एक बार चुनाव में व्होट डाल दिया कि फिर अपनी अब कोई जिम्मेदारी नहीं है ऐसा सब मानते हैं। परिवारों को, माता पिताओं को, शिक्षकों को अब कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। सरकार ही सब कुछ करेगी ऐसी भावना समाज में व्याप्त हो जाती है। सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक समस्या का हल शासकीय दंड व्यवस्था में ढूंढा जाता है।
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# वर्तमान लोकतंत्र : वर्तमान लोकतंत्र भी सामाजिकता को विघटित कर हर व्यक्ति को एक अलग इन्डिव्हीज्युअल पर्सन (समाज का अन्यों से कटा हुआ घटक) बना देता है। इससे एक ओर तो स्त्री अपने को शारीरिक दृष्टि से बराबर की नहीं होने पर भी पुरुषों के बराबरी की समझने लग जाती है और अपने को खतरनाक स्थिति में झोंक देती है। तो दूसरी ओर अत्याचारी पुरुष को भी अत्याचार का अवसर मिल जाता है। जब अत्याचार का प्रसंग आता है तब कहीं स्त्री को यह भान होता है की वह पुरुष नहीं है, वह एक स्त्री है। वर्तमान लोकतंत्र के कारण और जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के कारण भी समाज में अमर्याद स्वतंत्रता का पुरस्कार होता है। अपने अधिकारों की गुहार लगाई जाती है। अपने लिए तो सभी प्रकार की स्वतंत्रता का अधिकार माना जाता है लेकिन औरों के कर्तव्यों तथा औरों की सुसंस्कृतता के ऊपर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाते हैं। एक बार चुनाव में व्होट डाल दिया कि फिर अपनी अब कोई जिम्मेदारी नहीं है ऐसा सब मानते हैं। परिवारों को, माता पिताओं को, शिक्षकों को अब कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। सरकार ही सब कुछ करेगी ऐसी भावना समाज में व्याप्त हो जाती है। सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक समस्या का हल शासकीय दंड व्यवस्था में ढूंढा जाता है।
# विपरीत शिक्षा : विपरीत शिक्षा भी उपर्युक्त अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान और घटिया लोकतंत्र का पृष्ठपोषण ही करती है। यह शिक्षा मनुष्य को अधिकारों के प्रति एकदम सचेत कर देती है। यह बड़ा सरल होता है। स्वार्थ का व्यवहार सिखाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। यह तो जन्मजात भावना होती है। बच्चा तो जन्म से ही अपने अधिकारों को ही समझता है। अधिकारों के लिए लड़ना, रोना, चिल्लाना उसे सिखाना नहीं पड़ता। लेकिन कर्तव्यों के प्रति सचेत बनने के लिए बहुत श्रेष्ठ शिक्षा की आवश्यकता होती है। वर्तमान शिक्षा इस दृष्टि से केवल अक्षम ही नहीं विपरीत दिशा में ले जानेवाली है।
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# विपरीत शिक्षा : विपरीत शिक्षा भी उपर्युक्त अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान और घटिया लोकतंत्र का पृष्ठपोषण ही करती है। यह शिक्षा मनुष्य को अधिकारों के प्रति एकदम सचेत कर देती है। यह बड़ा सरल होता है। स्वार्थ का व्यवहार सिखाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। यह तो जन्मजात भावना होती है। बच्चा तो जन्म से ही अपने अधिकारों को ही समझता है। अधिकारों के लिए लड़ना, रोना, चिल्लाना उसे सिखाना नहीं पड़ता। लेकिन कर्तव्यों के प्रति सचेत बनने के लिए बहुत श्रेष्ठ शिक्षा की आवश्यकता होती है। वर्तमान शिक्षा इस दृष्टि से केवल अक्षम ही नहीं विपरीत दिशा में ले जानेवाली है।
 
# परिवारों से पारिवारिक भावना और परिवार तत्व का नष्ट हो जाना : वर्तमान में परिवार रचना तेजी से टूट रही है। परिवारों की ‘फैमिली’ बन गई है। माता, पिता और उनके ऊपर निर्भर संतानें इतने सदस्यों तक ही फैमिली मर्यादित होती है। फिर आजकल विवाह भी समझौता (कोन्ट्रेक्ट) होता है। करार होता है। समझौता या करार यह दो लोगों ने अपने अपने स्वार्थ के लिए आपस में किया हुआ शर्तों का सूचीपत्र होता है। अपने अपने स्वार्थों के लिए, मुख्यत: अपनी यौवन सुलभ इच्छाओं की या वासना की पूर्ति के लिए जो स्त्री पुरुष साथ में रहते हें उनसे बच्चों को संस्कारित करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। वे तो बच्चों को स्वार्थ ही सिखाएँगे। अधिकारों के लिए कैसे लड़ना यही सिखाएँगे। परिवार व्यवस्था का निर्माण ही वास्तव में केवल अधिकारों की समझ लेकर जन्म लिए हुए बच्चे को केवल कर्तव्यों के लिये जीने वाला मनुष्य बनाने के लिए किया गया है। घर के मुखिया के केवल कर्तव्य होते हैं। कोई अधिकार नहीं होते। इसी कारण ऐसा कहा जाता है की परिवार यह सामाजिकता की पाठशाला होती है। सामाजिकता का आधार अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारों पर बल देने की मानसिकता यही होता है।
 
# परिवारों से पारिवारिक भावना और परिवार तत्व का नष्ट हो जाना : वर्तमान में परिवार रचना तेजी से टूट रही है। परिवारों की ‘फैमिली’ बन गई है। माता, पिता और उनके ऊपर निर्भर संतानें इतने सदस्यों तक ही फैमिली मर्यादित होती है। फिर आजकल विवाह भी समझौता (कोन्ट्रेक्ट) होता है। करार होता है। समझौता या करार यह दो लोगों ने अपने अपने स्वार्थ के लिए आपस में किया हुआ शर्तों का सूचीपत्र होता है। अपने अपने स्वार्थों के लिए, मुख्यत: अपनी यौवन सुलभ इच्छाओं की या वासना की पूर्ति के लिए जो स्त्री पुरुष साथ में रहते हें उनसे बच्चों को संस्कारित करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। वे तो बच्चों को स्वार्थ ही सिखाएँगे। अधिकारों के लिए कैसे लड़ना यही सिखाएँगे। परिवार व्यवस्था का निर्माण ही वास्तव में केवल अधिकारों की समझ लेकर जन्म लिए हुए बच्चे को केवल कर्तव्यों के लिये जीने वाला मनुष्य बनाने के लिए किया गया है। घर के मुखिया के केवल कर्तव्य होते हैं। कोई अधिकार नहीं होते। इसी कारण ऐसा कहा जाता है की परिवार यह सामाजिकता की पाठशाला होती है। सामाजिकता का आधार अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारों पर बल देने की मानसिकता यही होता है।
# माताओं में गुरुत्व का अभाव : माँ के जने बिना कोई बच्चा जन्म नहीं लेता। बच्चे का पोषण माता ही करती है। जिसने जन्म दिया है और जो पोषण करती है उसके प्रति कृतज्ञता की भावना होना मानवता का लक्षण है। ऐसा होने के उपरांत भी बच्चे बिगड़ रहे हैं। स्त्रियों पर अत्याचार कर रहे हैं। अधार्मिक (अभारतीय) समाजों में शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालयीन शिक्षा होता है। धार्मिक (भारतीय) माताएं भी ऐसा ही मानने लगीं हैं। वास्तव में बच्चे की ७५ – ८० % घडन तो घर-परिवार में ही होती है।  
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# माताओं में गुरुत्व का अभाव : माँ के जने बिना कोई बच्चा जन्म नहीं लेता। बच्चे का पोषण माता ही करती है। जिसने जन्म दिया है और जो पोषण करती है उसके प्रति कृतज्ञता की भावना होना मानवता का लक्षण है। ऐसा होने के उपरांत भी बच्चे बिगड़ रहे हैं। स्त्रियों पर अत्याचार कर रहे हैं। अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालयीन शिक्षा होता है। धार्मिक (भारतीय) माताएं भी ऐसा ही मानने लगीं हैं। वास्तव में बच्चे की ७५ – ८० % घडन तो घर-परिवार में ही होती है।  
 
श्रेष्ठ मानव निर्माण के लिए दो बातें आवश्यक होतीं हैं। पहली बात है बीज का शुद्ध होना। दूसरी बात है संस्कार और शिक्षा। बीज में खोट होने से संस्कार और शिक्षा कितने भी श्रेष्ठ हों मायने नहीं रखते। संस्कार और शिक्षा भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। बीज को बंजर जमींन में फ़ेंक देने से कितना भी श्रेष्ठ बीज हो वह नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ बीज को जन्म देने का ५० % और श्रेष्ठ संस्कार देने का २५ % काम भी परिवार में ही होता है। शिक्षा की जिम्मेदारी तो बचे हुए महज २५ % की होती है। इसका अर्थ है कि श्रेष्ठ मानव निर्माण की मुख्य जिम्मेदारी परिवार की यानि माता और पिता की होती है।  
 
श्रेष्ठ मानव निर्माण के लिए दो बातें आवश्यक होतीं हैं। पहली बात है बीज का शुद्ध होना। दूसरी बात है संस्कार और शिक्षा। बीज में खोट होने से संस्कार और शिक्षा कितने भी श्रेष्ठ हों मायने नहीं रखते। संस्कार और शिक्षा भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। बीज को बंजर जमींन में फ़ेंक देने से कितना भी श्रेष्ठ बीज हो वह नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ बीज को जन्म देने का ५० % और श्रेष्ठ संस्कार देने का २५ % काम भी परिवार में ही होता है। शिक्षा की जिम्मेदारी तो बचे हुए महज २५ % की होती है। इसका अर्थ है कि श्रेष्ठ मानव निर्माण की मुख्य जिम्मेदारी परिवार की यानि माता और पिता की होती है।  
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== माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो ==
 
== माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो ==
बर्बर आक्रमण, गुलामी और वर्तमान जीवन के अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान के कारण तथा गत १० पीढ़ियों से चल रही विपरीत शिक्षा के कारण श्रेष्ठ संतान कैसे निर्माण की जाती है यह बात वर्तमान में स्त्री भूल गई है। वर्तमान में स्त्रियों की स्थिति को सुधारने कि दृष्टि से स्त्रियों के लिए माता प्रथमो गुरु: का अर्थ समझ लेना हितकारी है :
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बर्बर आक्रमण, गुलामी और वर्तमान जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के कारण तथा गत १० पीढ़ियों से चल रही विपरीत शिक्षा के कारण श्रेष्ठ संतान कैसे निर्माण की जाती है यह बात वर्तमान में स्त्री भूल गई है। वर्तमान में स्त्रियों की स्थिति को सुधारने कि दृष्टि से स्त्रियों के लिए माता प्रथमो गुरु: का अर्थ समझ लेना हितकारी है :
 
# गर्भपूर्व संस्कार : माता प्रथमो गुरु: बनने की तैयारी तो गर्भ धारणा से बहुत पहले से शुरू करनी होती है। वैसे तो यह तैयारी बाल्यावस्था में और कौमार्यावस्था में माँ कराए यह आवश्यक है। लेकिन जिन लड़कियों के बारे में उनकी माँ ने ऐसी तैयारी नहीं कराई है उन्हें अपने से ही और वह विवाहपूर्व जिस भी आयु की अवस्था में है उस  अवस्था से इसे करना होगा। संयुक्त परिवारों में ज्येष्ठ और अनुभवी महिला इसमें बालिकाओं और युवतियों का मार्गदर्शन किया करती थीं। विभक्त परिवारों में तो यह जिम्मेदारी माता की ही है। इसमें निम्न बिन्दुओं का समावेश होगा। ये सभी बातें होनेवाले पिता (द्वितीयो गुरु:) के लिए भी आवश्यक है :
 
# गर्भपूर्व संस्कार : माता प्रथमो गुरु: बनने की तैयारी तो गर्भ धारणा से बहुत पहले से शुरू करनी होती है। वैसे तो यह तैयारी बाल्यावस्था में और कौमार्यावस्था में माँ कराए यह आवश्यक है। लेकिन जिन लड़कियों के बारे में उनकी माँ ने ऐसी तैयारी नहीं कराई है उन्हें अपने से ही और वह विवाहपूर्व जिस भी आयु की अवस्था में है उस  अवस्था से इसे करना होगा। संयुक्त परिवारों में ज्येष्ठ और अनुभवी महिला इसमें बालिकाओं और युवतियों का मार्गदर्शन किया करती थीं। विभक्त परिवारों में तो यह जिम्मेदारी माता की ही है। इसमें निम्न बिन्दुओं का समावेश होगा। ये सभी बातें होनेवाले पिता (द्वितीयो गुरु:) के लिए भी आवश्यक है :
 
## ब्रह्मचर्य का पालन करना। अर्थात् मनपर संयम रखना। पति के रूप में पुरुष का चिन्तन नहीं करना। यह बहुत कठिन है  लेकिन करना तो आवश्यक ही है। शायद इसीलिए बाल विवाह की प्रथा चली होगी? इससे मन श्रेष्ठ बनता है।
 
## ब्रह्मचर्य का पालन करना। अर्थात् मनपर संयम रखना। पति के रूप में पुरुष का चिन्तन नहीं करना। यह बहुत कठिन है  लेकिन करना तो आवश्यक ही है। शायद इसीलिए बाल विवाह की प्रथा चली होगी? इससे मन श्रेष्ठ बनता है।

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