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== व्यावसायिक कुशलताओं के समायोजन (जाति व्यवस्था) के लाभ ==
 
== व्यावसायिक कुशलताओं के समायोजन (जाति व्यवस्था) के लाभ ==
जाति व्यवस्था के अनेकानेक लाभों की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का हम अब विचार करेंगे । परमात्मा ने सृष्टि निर्माण करते समय इसे संतुलन के साथ ही निर्माण किया है । समाज में इस संतुलन के लिये मनुष्य में उस प्रकार की वृत्तियाँ भीं निर्माण कीं । धार्मिक (भारतीय) हो या अधार्मिक (अभारतीय) हर समाज में चार वर्णों के लोग होते ही हैं। समाज को नि:स्वार्थ भाव से समाजहित के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक वर्ग समाज में होता है । जिस समाज में नि:स्पृह, नि:स्वार्थी, समाजहित के लिये समर्पित भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान (बिक्री नहीं) करने वाला एक वर्ग प्रभावी होता है , वह समाज विश्व में श्रेष्ठ बन जाता है। इस वर्ग को ब्राह्मण कहा गया।  
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जाति व्यवस्था के अनेकानेक लाभों की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का हम अब विचार करेंगे । परमात्मा ने सृष्टि निर्माण करते समय इसे संतुलन के साथ ही निर्माण किया है । समाज में इस संतुलन के लिये मनुष्य में उस प्रकार की वृत्तियाँ भीं निर्माण कीं । धार्मिक (भारतीय) हो या अधार्मिक (अधार्मिक) हर समाज में चार वर्णों के लोग होते ही हैं। समाज को नि:स्वार्थ भाव से समाजहित के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक वर्ग समाज में होता है । जिस समाज में नि:स्पृह, नि:स्वार्थी, समाजहित के लिये समर्पित भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान (बिक्री नहीं) करने वाला एक वर्ग प्रभावी होता है , वह समाज विश्व में श्रेष्ठ बन जाता है। इस वर्ग को ब्राह्मण कहा गया।  
    
समाज में जान की बाजी लगाकर भी दुष्टों, दुर्जनों और मूर्खों का नियंत्रण करनेवाला एक क्षत्रिय वर्ग, समाज का पोषण करने हेतु कृषि, गोरक्षण और व्यापार-उद्योग-उत्पादन करनेवाला वैश्य वर्ग और ऐसे सभी लोगों की सेवा करनेवाला शूद्र वर्ग ऐसे नाम दिये गये । इन चार वृत्तियों की हर समाज को आवश्यकता होती ही है । इन का समाज में अनुपात महत्वपूर्ण होता है । इस अनुपात के कारण समाज में संतुलन बना रहता है। यह अनुपात बिगडने से समाज व्याधिग्रस्त हो जाता है।  
 
समाज में जान की बाजी लगाकर भी दुष्टों, दुर्जनों और मूर्खों का नियंत्रण करनेवाला एक क्षत्रिय वर्ग, समाज का पोषण करने हेतु कृषि, गोरक्षण और व्यापार-उद्योग-उत्पादन करनेवाला वैश्य वर्ग और ऐसे सभी लोगों की सेवा करनेवाला शूद्र वर्ग ऐसे नाम दिये गये । इन चार वृत्तियों की हर समाज को आवश्यकता होती ही है । इन का समाज में अनुपात महत्वपूर्ण होता है । इस अनुपात के कारण समाज में संतुलन बना रहता है। यह अनुपात बिगडने से समाज व्याधिग्रस्त हो जाता है।  
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# जाति व्यवस्था आर्थिक विकास नहीं होने देती : भारत में गत दो हजार वर्षो से विदेशी आक्रमण हो रहे थे। ये आक्रमण जाति व्यवस्था के कारण निर्माण हुई भारत की संपदा लूटने के लिये हो रहे थे। गरीबी को लूटने के लिये नहीं।  
 
# जाति व्यवस्था आर्थिक विकास नहीं होने देती : भारत में गत दो हजार वर्षो से विदेशी आक्रमण हो रहे थे। ये आक्रमण जाति व्यवस्था के कारण निर्माण हुई भारत की संपदा लूटने के लिये हो रहे थे। गरीबी को लूटने के लिये नहीं।  
 
# जाति व्यवस्था से जातिवाद पैदा होता है : जातिवाद अंग्रेजों का निर्माण किया हुआ दोष है। धर्मपाल कहते हैं कि हिंदुओं के ईसाईकरण में जाति व्यवस्था रोडा थी इसलिये अंग्रेजों ने इसे बदनाम किया। जातियों में दुश्मनी निर्माण की। ऐसे सुधारकों को समर्थन और प्रोत्साहन दिया।  
 
# जाति व्यवस्था से जातिवाद पैदा होता है : जातिवाद अंग्रेजों का निर्माण किया हुआ दोष है। धर्मपाल कहते हैं कि हिंदुओं के ईसाईकरण में जाति व्यवस्था रोडा थी इसलिये अंग्रेजों ने इसे बदनाम किया। जातियों में दुश्मनी निर्माण की। ऐसे सुधारकों को समर्थन और प्रोत्साहन दिया।  
# जाति व्यवस्था गतिशीलता की विरोधी है : समाज में परिवर्तन की एक गति होती है। आज तकनीकी की गति के पीछे समाज घसीटा जा रहा है। समाज स्वास्थ्य नष्ट हो रहा है। समाज जीवन का साध्य गति है या सामाजिक सुख, स्वास्थ्य यह हम पहले तय करें। तब उसका स्वाभाविक उत्तर आएगा की यह ठीक नहीं हो रहा। एक जाति से दूसरी जाति में विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे भी समाज की गतिशीलता में रोडा माना जा रहा है। किंतु आज आर्थिक दृष्टि से, सैनिक पार्श्वभूमि के, व्यापारी, सरकारी अधिकारी आदि ऐसे वर्ग बन गये हैं जिन्हें बिरादरी कहते हैं। उन के बाहर विवाह नहीं हो ऐसा आग्रह होता है, उसका तो विरोध कोई करता दिखाई नहीं देता। लेकिन जो अत्यंत शास्त्रीय है ऐसे सवर्ण, सजातीय विवाह को गालियाँ दीं जातीं हैं। इसका कारण तो यही समझ में आता है कि वर्तमान समान वर्ग के विवाह यह पश्चिमी समाज का रिवाज है। ये तथाकथित गुलामी की मानसिकता वाले सुधारकों से या समाजशास्त्रियों से इसके विरोध की अपेक्षा करना भी ठीक नहीं है। सवर्ण, सजातीय और भिन्न गोत्र में विवाह यह तो शास्त्रों का कथन है। आधुनिक मानव वंशशास्त्र भी इस का समर्थन करता है। लेकिन विपरीत शिक्षा, विपरीत (अभारतीय) प्रतिमानीय सोच और वर्तमान में बन रहे चित्रपटों के कारण अत्यंत हानिकारक ऐसे प्रेम विवाह की प्रतिष्ठा हो रही है। पुरा चित्रपट क्षेत्र मानो प्रेमविवाह को प्रतिष्ठित करने के लिये ही निर्माण हुआ है।  
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# जाति व्यवस्था गतिशीलता की विरोधी है : समाज में परिवर्तन की एक गति होती है। आज तकनीकी की गति के पीछे समाज घसीटा जा रहा है। समाज स्वास्थ्य नष्ट हो रहा है। समाज जीवन का साध्य गति है या सामाजिक सुख, स्वास्थ्य यह हम पहले तय करें। तब उसका स्वाभाविक उत्तर आएगा की यह ठीक नहीं हो रहा। एक जाति से दूसरी जाति में विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे भी समाज की गतिशीलता में रोडा माना जा रहा है। किंतु आज आर्थिक दृष्टि से, सैनिक पार्श्वभूमि के, व्यापारी, सरकारी अधिकारी आदि ऐसे वर्ग बन गये हैं जिन्हें बिरादरी कहते हैं। उन के बाहर विवाह नहीं हो ऐसा आग्रह होता है, उसका तो विरोध कोई करता दिखाई नहीं देता। लेकिन जो अत्यंत शास्त्रीय है ऐसे सवर्ण, सजातीय विवाह को गालियाँ दीं जातीं हैं। इसका कारण तो यही समझ में आता है कि वर्तमान समान वर्ग के विवाह यह पश्चिमी समाज का रिवाज है। ये तथाकथित गुलामी की मानसिकता वाले सुधारकों से या समाजशास्त्रियों से इसके विरोध की अपेक्षा करना भी ठीक नहीं है। सवर्ण, सजातीय और भिन्न गोत्र में विवाह यह तो शास्त्रों का कथन है। आधुनिक मानव वंशशास्त्र भी इस का समर्थन करता है। लेकिन विपरीत शिक्षा, विपरीत (अधार्मिक) प्रतिमानीय सोच और वर्तमान में बन रहे चित्रपटों के कारण अत्यंत हानिकारक ऐसे प्रेम विवाह की प्रतिष्ठा हो रही है। पुरा चित्रपट क्षेत्र मानो प्रेमविवाह को प्रतिष्ठित करने के लिये ही निर्माण हुआ है।  
 
# राष्ट्रीय एकता में बाधक : इतिहास गवाह है कि जाति व्यवस्था कभी भी राष्ट्रीय एकता में बाधक नहीं बनीं। उलटे आज के लोकतंत्रीय राजनीति में ही ऐसे गुट (कम्यूनिस्टों जैसे, या नक्सलियों जैसे या मजहबों जैसे) निर्माण हुए हैं जिन्होने राष्ट्रीय एकता में सेंध लगाई है। विडम्बना तो यह है कि इस वर्तमान लोकतंत्र के कारण ‘राष्ट्र’ क्या होता है, यह स्पष्टता से कहने की कोई हिम्मत नहीं करता।  
 
# राष्ट्रीय एकता में बाधक : इतिहास गवाह है कि जाति व्यवस्था कभी भी राष्ट्रीय एकता में बाधक नहीं बनीं। उलटे आज के लोकतंत्रीय राजनीति में ही ऐसे गुट (कम्यूनिस्टों जैसे, या नक्सलियों जैसे या मजहबों जैसे) निर्माण हुए हैं जिन्होने राष्ट्रीय एकता में सेंध लगाई है। विडम्बना तो यह है कि इस वर्तमान लोकतंत्र के कारण ‘राष्ट्र’ क्या होता है, यह स्पष्टता से कहने की कोई हिम्मत नहीं करता।  
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कुछ लोगों की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुए इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिति में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुए उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे।  
 
कुछ लोगों की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुए इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिति में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुए उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे।  
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जिन्हें शास्त्र के अनुसार व्यवहार नही करना है उन का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में दिया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 16-23 </ref>: <blockquote>य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ॥</blockquote><blockquote>न स सिध्दिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ 16-23॥  </blockquote><blockquote>अर्थात् ऐसे लोगों को न सुख मिलता है न कोई सिध्दी प्राप्त होती है अर्थात् कोई ना तो ऐहिक लाभ मिलते हैं और ना ही कोई पारलौकिक ही । </blockquote>ऐसे लोगों को उन के हाल पर छोड देना ही ठीक रहेगा । किन्तु जहाँ तत्वबोध की संभावनाएँ हैं वाद-संवाद तो करना होगा । विवाद और वितंडा वाद को टालकर ही आगे बढना होगा। एक और अत्यंत महत्व की बात की ओर भी ध्यान देना होगा। वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ  कितनी भी उपयुक्त  समझमें आती होगी, जबतक जीवन का वर्तमान प्रतिमान (Paradigm), जो पूरी तरह से अधार्मिक (अभारतीय) बन गया है, इसे जडसे बदलकर जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान के एक अंग की तरह वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं करते तब तक अलग से वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं कर सकते।  
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जिन्हें शास्त्र के अनुसार व्यवहार नही करना है उन का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में दिया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 16-23 </ref>: <blockquote>य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ॥</blockquote><blockquote>न स सिध्दिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ 16-23॥  </blockquote><blockquote>अर्थात् ऐसे लोगों को न सुख मिलता है न कोई सिध्दी प्राप्त होती है अर्थात् कोई ना तो ऐहिक लाभ मिलते हैं और ना ही कोई पारलौकिक ही । </blockquote>ऐसे लोगों को उन के हाल पर छोड देना ही ठीक रहेगा । किन्तु जहाँ तत्वबोध की संभावनाएँ हैं वाद-संवाद तो करना होगा । विवाद और वितंडा वाद को टालकर ही आगे बढना होगा। एक और अत्यंत महत्व की बात की ओर भी ध्यान देना होगा। वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ  कितनी भी उपयुक्त  समझमें आती होगी, जबतक जीवन का वर्तमान प्रतिमान (Paradigm), जो पूरी तरह से अधार्मिक (अधार्मिक) बन गया है, इसे जडसे बदलकर जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान के एक अंग की तरह वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं करते तब तक अलग से वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं कर सकते।  
    
==References==
 
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