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| शिक्षा व्यक्तिगत जीवन की और राष्ट्रजीवन की समस्यायें दूर करती है परन्तु हम देख रहे हैं कि आज शिक्षा स्वयं समस्या बन गई है। सामान्य जन से विद्व्जन शिक्षा से त्रस्त हैं। अनेक प्रकार के सांस्कृतिक और भौतिक संकटों का व्याप बढ़ रहा है। इसका कारण यह है कि विगत लगभग दो सौ वर्षों से भारत में शिक्षा की गाड़ी उल्टी पटरी पर चढ़ गई है। | | शिक्षा व्यक्तिगत जीवन की और राष्ट्रजीवन की समस्यायें दूर करती है परन्तु हम देख रहे हैं कि आज शिक्षा स्वयं समस्या बन गई है। सामान्य जन से विद्व्जन शिक्षा से त्रस्त हैं। अनेक प्रकार के सांस्कृतिक और भौतिक संकटों का व्याप बढ़ रहा है। इसका कारण यह है कि विगत लगभग दो सौ वर्षों से भारत में शिक्षा की गाड़ी उल्टी पटरी पर चढ़ गई है। |
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− | शिक्षा राष्ट्र की संस्कृति और जीवनशैली को सुदृढ़ बनाने का काम करती है। वह ऐसा कर सके इसलिए वह राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है, उसके साथ समसम्बन्ध बनाये रखती है। आज भारत की शिक्षा का यह सम्बन्ध बिखर गया है। शिक्षा जीवनशैली में, विचारशैली में इस प्रकार से परिवर्तन कर रही है कि हम अपनी ही जीवनशैली को नहीं चाहते। अपनी शैली के विषय में हम हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और जिन्होंने हमारे राष्ट्रजीवन पर बाह्य और आन्तरिक आघात कर उसे छिन्न-विच्छिन्न करने का प्रयास किया, उनकी ही शैली को अपनाने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा जीवन दो विपरीत धाराओं में बह रहा है। इससे ही सांस्कृतिक और भौतिक संकट निर्माण हो रहे हैं। युगों से अखण्ड बहती आई हमारी ज्ञानधारा आज कलुषित हो गई है। ज्ञान के क्षेत्र में भारतीय और अभारतीय ऐसे दो भाग हो गये हैं। भारतीय ज्ञानधारा के सामने आज प्रश्नार्थ खड़े हो गये हैं। भारतीय और अभारतीय का मिश्रण हो गया है। चारों ओर सम्भ्रम निर्माण हुआ है। उचित और अनुचित, सही और गलत, करणीय और अकरणीय का विवेक लुप्त हो गया है। लोग त्रस्त हैं परन्तु त्रास का कारण नहीं जानते हैं, और त्रास के कारण को ही सुख का स्रोत मानते हैं। धर्म और ज्ञान से मार्गदर्शन प्राप्त करना भूलकर सरकार से सहायता की कामना और याचना कर रहे हैं। | + | शिक्षा राष्ट्र की संस्कृति और जीवनशैली को सुदृढ़ बनाने का काम करती है। वह ऐसा कर सके इसलिए वह राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है, उसके साथ समसम्बन्ध बनाये रखती है। आज भारत की शिक्षा का यह सम्बन्ध बिखर गया है। शिक्षा जीवनशैली में, विचारशैली में इस प्रकार से परिवर्तन कर रही है कि हम अपनी ही जीवनशैली को नहीं चाहते। अपनी शैली के विषय में हम हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और जिन्होंने हमारे राष्ट्रजीवन पर बाह्य और आन्तरिक आघात कर उसे छिन्न-विच्छिन्न करने का प्रयास किया, उनकी ही शैली को अपनाने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा जीवन दो विपरीत धाराओं में बह रहा है। इससे ही सांस्कृतिक और भौतिक संकट निर्माण हो रहे हैं। युगों से अखण्ड बहती आई हमारी ज्ञानधारा आज कलुषित हो गई है। ज्ञान के क्षेत्र में भारतीय और अधार्मिक ऐसे दो भाग हो गये हैं। भारतीय ज्ञानधारा के सामने आज प्रश्नार्थ खड़े हो गये हैं। भारतीय और अधार्मिक का मिश्रण हो गया है। चारों ओर सम्भ्रम निर्माण हुआ है। उचित और अनुचित, सही और गलत, करणीय और अकरणीय का विवेक लुप्त हो गया है। लोग त्रस्त हैं परन्तु त्रास का कारण नहीं जानते हैं, और त्रास के कारण को ही सुख का स्रोत मानते हैं। धर्म और ज्ञान से मार्गदर्शन प्राप्त करना भूलकर सरकार से सहायता की कामना और याचना कर रहे हैं। |
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| 'धन से ही सारे सुख प्राप्त होंगे' ऐसा विचार कर येनकेन प्रकारेण धनप्राप्ति करने के इच्छुक हो रहे हैं। इस स्थिति में हम आचार्यों का स्वनिर्धारित दायित्व है कि इस संकट का निराकरण कैसे हो, इसका चिन्तन करें और उपाय योजना भी करें।<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय १, | | 'धन से ही सारे सुख प्राप्त होंगे' ऐसा विचार कर येनकेन प्रकारेण धनप्राप्ति करने के इच्छुक हो रहे हैं। इस स्थिति में हम आचार्यों का स्वनिर्धारित दायित्व है कि इस संकट का निराकरण कैसे हो, इसका चिन्तन करें और उपाय योजना भी करें।<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय १, |
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| आन्तरिक होने के कारण वह जल्दी समझ में भी नहीं आता है। आन्तरिक होने के कारण से उसे परास्त करना भी अधिक कठिन हो जाता है। इसलिये हमें सावधान रहना है। आक्रमण के स्वरूप को भलीभाँति पहचानना है और कुशलतापूर्वक उपाययोजना बनानी है। | | आन्तरिक होने के कारण वह जल्दी समझ में भी नहीं आता है। आन्तरिक होने के कारण से उसे परास्त करना भी अधिक कठिन हो जाता है। इसलिये हमें सावधान रहना है। आक्रमण के स्वरूप को भलीभाँति पहचानना है और कुशलतापूर्वक उपाययोजना बनानी है। |
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− | क्या हम शिक्षा को केवल शिक्षा नहीं कह सकते ? शिक्षा को 'भारतीय' - ऐसा विशेषण जोड़ने की क्या आवश्यकता है? विश्वविद्यालयों के अनेक प्राध्यापकों के साथ चर्चा होती है। प्राध्यापक नहीं हैं ऐसे भी अनेक उच्चविद्याविभूषित लोगों के साथ बातचीत होती है। तब भी “भारतीय' संज्ञा समझ में नहीं आती है। अच्छे अच्छे विद्वान और प्रतिष्ठित लोग भी “भारतीय' संज्ञा का प्रयोग करना टालते हैं, मौन रहते हैं या उसे अस्वीकृत कर देते हैं। वे कहते हैं कि वर्तमान युग वैश्विक युग है। हमें वैश्विक परिप्रेक्ष्य को अपना कर चर्चा करनी चाहिये। उसी स्तर की व्यवस्थायें भी बनानी चाहिये। आज के जमाने में भारतीयता संकुचित मानस का लक्षण है। हमें उसका त्याग करना चाहिये और आधुनिक बनना चाहिये। दूसरा तर्क भी वे देते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान तो ज्ञान होता है, शिक्षा शिक्षा होती है। उसे “भारतीय' और “अभारतीय' जैसे विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता है? आज दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है। आज ऐसी पुरातनवादी बातें कैसे चलेंगी ? ऐसा कहकर वे प्राय: चर्चा भी नहीं करते हैं, और करते हैं तो उनके कथनों का कोई आधार ही नहीं होता है। इसका स्पष्टीकरण आगे दिया है। | + | क्या हम शिक्षा को केवल शिक्षा नहीं कह सकते ? शिक्षा को 'भारतीय' - ऐसा विशेषण जोड़ने की क्या आवश्यकता है? विश्वविद्यालयों के अनेक प्राध्यापकों के साथ चर्चा होती है। प्राध्यापक नहीं हैं ऐसे भी अनेक उच्चविद्याविभूषित लोगों के साथ बातचीत होती है। तब भी “भारतीय' संज्ञा समझ में नहीं आती है। अच्छे अच्छे विद्वान और प्रतिष्ठित लोग भी “भारतीय' संज्ञा का प्रयोग करना टालते हैं, मौन रहते हैं या उसे अस्वीकृत कर देते हैं। वे कहते हैं कि वर्तमान युग वैश्विक युग है। हमें वैश्विक परिप्रेक्ष्य को अपना कर चर्चा करनी चाहिये। उसी स्तर की व्यवस्थायें भी बनानी चाहिये। आज के जमाने में भारतीयता संकुचित मानस का लक्षण है। हमें उसका त्याग करना चाहिये और आधुनिक बनना चाहिये। दूसरा तर्क भी वे देते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान तो ज्ञान होता है, शिक्षा शिक्षा होती है। उसे “भारतीय' और “अधार्मिक' जैसे विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता है? आज दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है। आज ऐसी पुरातनवादी बातें कैसे चलेंगी ? ऐसा कहकर वे प्राय: चर्चा भी नहीं करते हैं, और करते हैं तो उनके कथनों का कोई आधार ही नहीं होता है। इसका स्पष्टीकरण आगे दिया है। |
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| == राष्ट्र की आत्मा “चिति' == | | == राष्ट्र की आत्मा “चिति' == |
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| हमारी हर व्यवस्था, उसे 'भारतीय' विशेषण जोड़ो या न जोड़ो तो भी भारतीय ही रहेगी। कारण स्पष्ट है। उसे बनाने वाले और अपनाने वाले भारतीय हैं। उन्हें भी यह सब उचित और सही लगता है। अपनाने वाले न तो खुलासा पूछते हैं, बनाने वालों को न खुलासे देने की आवश्यकतालगती है। प्रश्न पूछे भी जाते हैं तो वे जिज्ञासावश होते हैं। | | हमारी हर व्यवस्था, उसे 'भारतीय' विशेषण जोड़ो या न जोड़ो तो भी भारतीय ही रहेगी। कारण स्पष्ट है। उसे बनाने वाले और अपनाने वाले भारतीय हैं। उन्हें भी यह सब उचित और सही लगता है। अपनाने वाले न तो खुलासा पूछते हैं, बनाने वालों को न खुलासे देने की आवश्यकतालगती है। प्रश्न पूछे भी जाते हैं तो वे जिज्ञासावश होते हैं। |
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− | आकलन में गलतियाँ की भी जाती हैं तो वे अज्ञान या अल्पज्ञान के कारण होती हैं, अनास्था या अस्वीकृति के कारण नहीं। परन्तु आज “भारतीय' और “अभारतीय 'ऐसे दो विशेषणों का प्रयोग होने लगा है। इसका एक ऐतिहासिक सन्दर्भ है। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही अंग्रेज़, फ्रेंच, पोर्तुगीज जैसे यूरोपीय देशों के लोग भारत में आने लगे। वे भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर आये थे। कालफ्रम में अंग्रेज़ प्रभावी सिद्ध हुए। उन्होंने भारत में राज्य हस्तगत किया। साथ ही पूर्व में किसी शासक ने नहीं की होगी वैसी बात भी उन्होंने की। उन्होंने समाज की स्वायत्तता और स्वतन्त्रता को ही समाप्त कर दिया और समाज को राज्य के अधीन बनाया। अंग्रेजों से पूर्व के समय में भारत में समाज सर्वोपरि था और राज्यतन्त्र समाजतन्त्र के अनुकूल चलता था। अंग्रेजों ने राज्य को सर्वोपरि बनाया और समाज को राज्य के अधीन बना दिया। यहीं से अभारतीयता का प्रारम्भ हुआ। समाज ही राज्य के अधीन हो गया तब समाज की व्यवस्था में चलने वाली सारी बातें भी राज्य के अधीन हो गईं। व्यापार, कृषि और अन्य उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा आदि सारी बातें राज्य के ही अधीन हो गईं। | + | आकलन में गलतियाँ की भी जाती हैं तो वे अज्ञान या अल्पज्ञान के कारण होती हैं, अनास्था या अस्वीकृति के कारण नहीं। परन्तु आज “भारतीय' और “अधार्मिक 'ऐसे दो विशेषणों का प्रयोग होने लगा है। इसका एक ऐतिहासिक सन्दर्भ है। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही अंग्रेज़, फ्रेंच, पोर्तुगीज जैसे यूरोपीय देशों के लोग भारत में आने लगे। वे भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर आये थे। कालफ्रम में अंग्रेज़ प्रभावी सिद्ध हुए। उन्होंने भारत में राज्य हस्तगत किया। साथ ही पूर्व में किसी शासक ने नहीं की होगी वैसी बात भी उन्होंने की। उन्होंने समाज की स्वायत्तता और स्वतन्त्रता को ही समाप्त कर दिया और समाज को राज्य के अधीन बनाया। अंग्रेजों से पूर्व के समय में भारत में समाज सर्वोपरि था और राज्यतन्त्र समाजतन्त्र के अनुकूल चलता था। अंग्रेजों ने राज्य को सर्वोपरि बनाया और समाज को राज्य के अधीन बना दिया। यहीं से अधार्मिकता का प्रारम्भ हुआ। समाज ही राज्य के अधीन हो गया तब समाज की व्यवस्था में चलने वाली सारी बातें भी राज्य के अधीन हो गईं। व्यापार, कृषि और अन्य उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा आदि सारी बातें राज्य के ही अधीन हो गईं। |
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− | == अभारतीय दृष्टि == | + | == अधार्मिक दृष्टि == |
− | अंग्रेजों का स्वभाव भिन्न था। इसलिये उनके शास्त्र उनका मानस, उनका व्यवहार, उनकी व्यवस्थायें, उनकी सम्पूर्ण जीवनशैली भिन्न थी। वह भारत की नहीं थी इसलिये उसे अभारतीय कहते हैं। अंग्रेजों ने इन सभी बातों को भारतीय प्रजा पर थोपना प्रारम्भ किया। राज्य उनके अधीन होने के कारण उन्हें ऐसा करने में सफलता भी मिली। | + | अंग्रेजों का स्वभाव भिन्न था। इसलिये उनके शास्त्र उनका मानस, उनका व्यवहार, उनकी व्यवस्थायें, उनकी सम्पूर्ण जीवनशैली भिन्न थी। वह भारत की नहीं थी इसलिये उसे अधार्मिक कहते हैं। अंग्रेजों ने इन सभी बातों को भारतीय प्रजा पर थोपना प्रारम्भ किया। राज्य उनके अधीन होने के कारण उन्हें ऐसा करने में सफलता भी मिली। |
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− | शिक्षाव्यवस्था भी इनमें एक थी। शिक्षाव्यवस्था का अंग्रेजीकरण या अभारतीयकरण सर्वाधिक प्रभावी सिद्ध हुआ। इसका कारण भी बहुत स्पष्ट है। शिक्षा ही शेष सारी बातों को समझने और गढ़ने के लिये उपयोगी होती है। जैसी शिक्षा मिलती है वैसा ही तो व्यक्ति करता है। जैसी शिक्षा होती है वैसा ही व्यक्ति बन जाता है। | + | शिक्षाव्यवस्था भी इनमें एक थी। शिक्षाव्यवस्था का अंग्रेजीकरण या अधार्मिककरण सर्वाधिक प्रभावी सिद्ध हुआ। इसका कारण भी बहुत स्पष्ट है। शिक्षा ही शेष सारी बातों को समझने और गढ़ने के लिये उपयोगी होती है। जैसी शिक्षा मिलती है वैसा ही तो व्यक्ति करता है। जैसी शिक्षा होती है वैसा ही व्यक्ति बन जाता है। |
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− | अंग्रेजों ने देश की सारी व्यवस्थायें बदल दीं। भारतीय व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया और अभारतीय व्यवस्थाओं को प्रस्थापित किया। इस कारण से भारतीय और अभारतीय ऐसे दो शब्दुप्रयोग व्यवहार में आने लगे। ये दोनों शब्द भारत के ही सन्दर्भ में व्यवहार में लाये जाते हैं। अंग्रेजों का राज्य लगभग ढाई सौ से तीन सौ वर्ष रहा। इस अवधि में अंग्रेजी शिक्षा का कालखण्ड लगभग पौने दो सौ वर्षों का है। इस अवधि में लगभग दस पीढ़ियाँ अंग्रेजी शिक्षाव्यवस्था में पढ़ चुकी हैं। इस दौरान चार बातें हुई हैं। एक, भारतीय शास्त्रों का अध्ययन बन्द हो गया और भारतीय ज्ञानपरम्परा खण्डित हो गई। दूसरा, भारतीय शास्त्रों का जो कुछ भी अध्ययन होता रहा वह यूरोपीय दृष्टि से होने लगा और हमारे ही शास्त्रों को हम अस्वाभाविक पद्धति से पढ़ने लगे। तीसरा, हमारे ज्ञान और हमारी व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था और अश्रद्धा निर्माण करने का भारी प्रयास अंग्रेजों ने किया और हम भी अनास्था और अश्रद्धा से ग्रस्त हो गये। चौथा, यूरोपीय ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा और अंग्रेजी शास्त्रों को जानने वाले और मानने वाले विद्वानों को ही विद्वानों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगी। देश अंग्रेजी ज्ञान के अनुसार अंग्रेजी व्यवस्थाओं में चलने लगा। परिणामस्वरूप बौद्धिक और मानसिक क्षेत्र भारी मात्रा में प्रभावित हुआ है। इसका ही सीधा परिणाम है कि स्वाधीन होने के बाद भी हमने शिक्षाव्यवस्था में या अन्य किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया है। देश अभी भी अंग्रेजी व्यवस्था में ही चलता है। हम स्वाधीन होने पर भी स्वतन्त्र नहीं हैं। तंत्र अंग्रेजों का ही चलता है, हम उसे चलाते हैं। | + | अंग्रेजों ने देश की सारी व्यवस्थायें बदल दीं। भारतीय व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया और अधार्मिक व्यवस्थाओं को प्रस्थापित किया। इस कारण से भारतीय और अधार्मिक ऐसे दो शब्दुप्रयोग व्यवहार में आने लगे। ये दोनों शब्द भारत के ही सन्दर्भ में व्यवहार में लाये जाते हैं। अंग्रेजों का राज्य लगभग ढाई सौ से तीन सौ वर्ष रहा। इस अवधि में अंग्रेजी शिक्षा का कालखण्ड लगभग पौने दो सौ वर्षों का है। इस अवधि में लगभग दस पीढ़ियाँ अंग्रेजी शिक्षाव्यवस्था में पढ़ चुकी हैं। इस दौरान चार बातें हुई हैं। एक, भारतीय शास्त्रों का अध्ययन बन्द हो गया और भारतीय ज्ञानपरम्परा खण्डित हो गई। दूसरा, भारतीय शास्त्रों का जो कुछ भी अध्ययन होता रहा वह यूरोपीय दृष्टि से होने लगा और हमारे ही शास्त्रों को हम अस्वाभाविक पद्धति से पढ़ने लगे। तीसरा, हमारे ज्ञान और हमारी व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था और अश्रद्धा निर्माण करने का भारी प्रयास अंग्रेजों ने किया और हम भी अनास्था और अश्रद्धा से ग्रस्त हो गये। चौथा, यूरोपीय ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा और अंग्रेजी शास्त्रों को जानने वाले और मानने वाले विद्वानों को ही विद्वानों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगी। देश अंग्रेजी ज्ञान के अनुसार अंग्रेजी व्यवस्थाओं में चलने लगा। परिणामस्वरूप बौद्धिक और मानसिक क्षेत्र भारी मात्रा में प्रभावित हुआ है। इसका ही सीधा परिणाम है कि स्वाधीन होने के बाद भी हमने शिक्षाव्यवस्था में या अन्य किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया है। देश अभी भी अंग्रेजी व्यवस्था में ही चलता है। हम स्वाधीन होने पर भी स्वतन्त्र नहीं हैं। तंत्र अंग्रेजों का ही चलता है, हम उसे चलाते हैं। |
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− | फिर भी सुदैव से अनेक लोगों के हृदय और बुद्धि में इस बात की चुभन है। स्वाधीन भारत परतन्त्र है यह उन्हें स्वीकार नहीं है। इनके ही प्रयासों के कारण से “भारतीय' और “अभारतीय' संज्ञाओं का प्रचलन है। ये लोग भारतीयता की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। इनके प्रयास बौद्धिक क्षेत्र में और भौतिक क्षेत्रों में चल रहे हैं। शिक्षा के तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को भारतीय बनाना यह मूल बात है क्योकि शिक्षा को भारतीय बनायेंगे तो शेष व्यवस्थायें भारतीय बनाने में सरलता होगी। | + | फिर भी सुदैव से अनेक लोगों के हृदय और बुद्धि में इस बात की चुभन है। स्वाधीन भारत परतन्त्र है यह उन्हें स्वीकार नहीं है। इनके ही प्रयासों के कारण से “भारतीय' और “अधार्मिक' संज्ञाओं का प्रचलन है। ये लोग भारतीयता की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। इनके प्रयास बौद्धिक क्षेत्र में और भौतिक क्षेत्रों में चल रहे हैं। शिक्षा के तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को भारतीय बनाना यह मूल बात है क्योकि शिक्षा को भारतीय बनायेंगे तो शेष व्यवस्थायें भारतीय बनाने में सरलता होगी। |
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− | आज भी जो लोग आधुनिकता, वैश्विकता, परिवर्तन आदि की बात करते हैं उनकी बात भी समझ लेनी चाहिये ऐसा लगता है। हम अनुभव करते हैं कि व्यक्तियों के स्वभाव में परिवर्तन आता है। हम देखते हैं कि परिस्थितियाँ बदलती हैं। हम हवामान और तापमान में बदल होते भी अनुभव कर ही रहे हैं। तब विचारों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक मानना चाहिये। अभारतीय होना क्या इतनी बुरी बात है ? दूसरे देशों की शैली अपनाना भी अस्वाभाविक क्यों मानना चाहिये ? | + | आज भी जो लोग आधुनिकता, वैश्विकता, परिवर्तन आदि की बात करते हैं उनकी बात भी समझ लेनी चाहिये ऐसा लगता है। हम अनुभव करते हैं कि व्यक्तियों के स्वभाव में परिवर्तन आता है। हम देखते हैं कि परिस्थितियाँ बदलती हैं। हम हवामान और तापमान में बदल होते भी अनुभव कर ही रहे हैं। तब विचारों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक मानना चाहिये। अधार्मिक होना क्या इतनी बुरी बात है ? दूसरे देशों की शैली अपनाना भी अस्वाभाविक क्यों मानना चाहिये ? |
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| एक अन्य तर्क भी लोग देते हैं जिसमें कुछ दम लगता है। वे कहते हैं कि आज संचार माध्यम बहुत प्रभावी हो गये हैं। सम्पर्क के सूत्र भी बहुत सुलभ हो गये हैं। विश्व के किसी भी कोने से कहीं पर भी हम चौबीस घण्टों के भीतर जा सकते हैं। किसीसे भी बात कर सकते हैं। कोई भी वस्तु पहुँचा सकते हैं। कहाँ कया हो रहा है वह देख सकते हैं। | | एक अन्य तर्क भी लोग देते हैं जिसमें कुछ दम लगता है। वे कहते हैं कि आज संचार माध्यम बहुत प्रभावी हो गये हैं। सम्पर्क के सूत्र भी बहुत सुलभ हो गये हैं। विश्व के किसी भी कोने से कहीं पर भी हम चौबीस घण्टों के भीतर जा सकते हैं। किसीसे भी बात कर सकते हैं। कोई भी वस्तु पहुँचा सकते हैं। कहाँ कया हो रहा है वह देख सकते हैं। |
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| यही बात सभी पंचमहाभूतों को लागू है। सृष्टि का गुरुत्वाकर्षण का नियम कभी भी बदलता नहीं है। उसी प्रकार से मन का विचार करने का, बुद्धि का आकलन करने का स्वभाव कभी बदलता नहीं है। इसी प्रकार जीवन को देखने की और समझने की, अनुभूति की प्रवृत्ति भी बदलती नहीं है। अल्प मात्रा में तो हरेक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न होता है परन्तु मूल बातों में वह प्रजाओं का स्वभाव बन जाता है और अपरिवर्तनीय हो जाता है। और भी उदाहरण देखें। हमारा अनुभव है कि प्रत्येक व्यक्ति रूप रंग में एक दूसरे से भिन्न ही होता है। परन्तु एक देश के अन्तर्गत भी गुजरात, केरल, बंगाल, पंजाब और असम के लोग अपने रूप रंग के कारण ही अलग दिखते हैं। देशों के आगे राज्यों के भेद मिट जाते हैं। जैसे चीन, भारत, अफ्रीका और यूरोप के लोग रूप रंग में एक दूसरे से भिन्न ही होते हैं। उसी प्रकार खानपान से लेकर विचारों, अनुभूतियों, बौद्धिक क्षमताओं और दृष्टिकोण में प्रजाओं प्रजाओं में भिन्नता रहती है। मनीषी इस स्वभाव को पहचानने का, समझने का प्रयास करते हैं और अनेक प्रकार के व्यवहारशास्त्रों की रचना करते हैं। प्रजा इन शास्त्रों को समझने का प्रयास करती है और अपना व्यवहार उसके अनुसार ढालती है। इससे संस्कृति विकसित होती है। इसीसे आज जिन्हें जीवनमूल्य कहते हैं वे विकसित होते हैं। संस्कृति फिर पीढ़ी दर पीढ़ी उस प्रजा को सहज प्राप्त होती है। यही उस राष्ट्र का स्वभाव होता है। इसमें ऊपरी परिवर्तन भले ही होते हों, या होते दिखाई देते हों तो भी मूलगत परिवर्तन नहीं होते हैं। बाहरी प्रभावों से जो परिवर्तन होता है वह बाहरी ही होता है। वह कभी क्षणिक सुख का और कभी व्यापक दुःख का भी कारण बनता है। इन दुःखदायक प्रभावों से बचना ही प्रजा का पुरुषार्थ होता है। संक्षेप में कहें तो स्वभाव में मूलतः परिवर्तन होता नहीं है। | | यही बात सभी पंचमहाभूतों को लागू है। सृष्टि का गुरुत्वाकर्षण का नियम कभी भी बदलता नहीं है। उसी प्रकार से मन का विचार करने का, बुद्धि का आकलन करने का स्वभाव कभी बदलता नहीं है। इसी प्रकार जीवन को देखने की और समझने की, अनुभूति की प्रवृत्ति भी बदलती नहीं है। अल्प मात्रा में तो हरेक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न होता है परन्तु मूल बातों में वह प्रजाओं का स्वभाव बन जाता है और अपरिवर्तनीय हो जाता है। और भी उदाहरण देखें। हमारा अनुभव है कि प्रत्येक व्यक्ति रूप रंग में एक दूसरे से भिन्न ही होता है। परन्तु एक देश के अन्तर्गत भी गुजरात, केरल, बंगाल, पंजाब और असम के लोग अपने रूप रंग के कारण ही अलग दिखते हैं। देशों के आगे राज्यों के भेद मिट जाते हैं। जैसे चीन, भारत, अफ्रीका और यूरोप के लोग रूप रंग में एक दूसरे से भिन्न ही होते हैं। उसी प्रकार खानपान से लेकर विचारों, अनुभूतियों, बौद्धिक क्षमताओं और दृष्टिकोण में प्रजाओं प्रजाओं में भिन्नता रहती है। मनीषी इस स्वभाव को पहचानने का, समझने का प्रयास करते हैं और अनेक प्रकार के व्यवहारशास्त्रों की रचना करते हैं। प्रजा इन शास्त्रों को समझने का प्रयास करती है और अपना व्यवहार उसके अनुसार ढालती है। इससे संस्कृति विकसित होती है। इसीसे आज जिन्हें जीवनमूल्य कहते हैं वे विकसित होते हैं। संस्कृति फिर पीढ़ी दर पीढ़ी उस प्रजा को सहज प्राप्त होती है। यही उस राष्ट्र का स्वभाव होता है। इसमें ऊपरी परिवर्तन भले ही होते हों, या होते दिखाई देते हों तो भी मूलगत परिवर्तन नहीं होते हैं। बाहरी प्रभावों से जो परिवर्तन होता है वह बाहरी ही होता है। वह कभी क्षणिक सुख का और कभी व्यापक दुःख का भी कारण बनता है। इन दुःखदायक प्रभावों से बचना ही प्रजा का पुरुषार्थ होता है। संक्षेप में कहें तो स्वभाव में मूलतः परिवर्तन होता नहीं है। |
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− | == अभारतीय दृष्टि अनात्मवादी (आसुरी) == | + | == अधार्मिक दृष्टि अनात्मवादी (आसुरी) == |
− | परन्तु भारतीय और अभारतीय का मुद्दा एक अन्य प्रकार से विचारणीय अवश्य है। भारतीयतावादी लोग जब अभारतीय जीवनशैली या जीवनदृष्टि की बात करते हैं तब अनात्मवादी विचार, पंचमहाभूतों के शोषण की प्रवृत्ति, व्यक्तिकेन्द्री और स्वार्थपरक व्यवहार, भौतिकता का अधिष्ठान आदि की चर्चा करते हैं। आज विश्व पर अमेरीका और यूरोप का प्रभाव छा गया है और वहाँ इस विचारधारा को मान्यता प्राप्त है इसलिये इसे पाश्चात्य या अभारतीय जीवनदृष्टि कहा जाता है। जो लोग भारतीय हैं परन्तु इस विचारधारा को मान्यता देते हैं और उसे अपनाते हैं वे अभारतीय विचारधारा से प्रभावित हैं ऐसा माना जाता है। परन्तु भारत में भी ऐसे लोगों का होना स्वाभाविक माना गया है। श्रीमद भगवदगीता में दैवी और आसुरी सम्पद् की चर्चा की गई है<ref>श्रीमद भगवदगीता 16.4</ref>। वहाँ आसुरी सम्पद् वाले लोगों का वर्णन ठीक वही है जिसे अभारतीय या पाश्चात्य कहा जाता है। वे भी भौतिकतावादी हैं, वे भी व्यक्ति केंद्री हैं, वे भी जीवन और जगत का विचार समग्रता में नहीं अपितु खण्ड खण्ड में करते हैं।<blockquote>दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।</blockquote><blockquote>अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।</blockquote>ऐसी आसुरी सम्पद् बन्धन और विनाश का कारण बनती है ऐसा भी श्री भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद भगवदगीता 16.9</ref>।<blockquote>एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।</blockquote><blockquote>प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।।</blockquote>हमारे यहाँ चार्वाक दर्शन की भी चर्चा होती है। इस दर्शन में भी इंद्रियों के सुखों को प्रधानता दी गई है और पापपुण्य या संयम की आवश्यकता नहीं है ऐसा कहा गया | + | परन्तु भारतीय और अधार्मिक का मुद्दा एक अन्य प्रकार से विचारणीय अवश्य है। भारतीयतावादी लोग जब अधार्मिक जीवनशैली या जीवनदृष्टि की बात करते हैं तब अनात्मवादी विचार, पंचमहाभूतों के शोषण की प्रवृत्ति, व्यक्तिकेन्द्री और स्वार्थपरक व्यवहार, भौतिकता का अधिष्ठान आदि की चर्चा करते हैं। आज विश्व पर अमेरीका और यूरोप का प्रभाव छा गया है और वहाँ इस विचारधारा को मान्यता प्राप्त है इसलिये इसे पाश्चात्य या अधार्मिक जीवनदृष्टि कहा जाता है। जो लोग भारतीय हैं परन्तु इस विचारधारा को मान्यता देते हैं और उसे अपनाते हैं वे अधार्मिक विचारधारा से प्रभावित हैं ऐसा माना जाता है। परन्तु भारत में भी ऐसे लोगों का होना स्वाभाविक माना गया है। श्रीमद भगवदगीता में दैवी और आसुरी सम्पद् की चर्चा की गई है<ref>श्रीमद भगवदगीता 16.4</ref>। वहाँ आसुरी सम्पद् वाले लोगों का वर्णन ठीक वही है जिसे अधार्मिक या पाश्चात्य कहा जाता है। वे भी भौतिकतावादी हैं, वे भी व्यक्ति केंद्री हैं, वे भी जीवन और जगत का विचार समग्रता में नहीं अपितु खण्ड खण्ड में करते हैं।<blockquote>दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।</blockquote><blockquote>अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।</blockquote>ऐसी आसुरी सम्पद् बन्धन और विनाश का कारण बनती है ऐसा भी श्री भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद भगवदगीता 16.9</ref>।<blockquote>एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।</blockquote><blockquote>प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।।</blockquote>हमारे यहाँ चार्वाक दर्शन की भी चर्चा होती है। इस दर्शन में भी इंद्रियों के सुखों को प्रधानता दी गई है और पापपुण्य या संयम की आवश्यकता नहीं है ऐसा कहा गया |
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− | है।<blockquote>यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।</blockquote><blockquote>भस्मिभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।</blockquote>चार्वाक भारतीय ही है, असुर भारतीय ही हैं, खण्ड खण्ड में विचार करने वाले और उसके अनुसार व्यवहार करने वाले भी भारतीय ही हैं। केवल उन्हें मान्यता नहीं है। हम जब इसे अभारतीय की संज्ञा देते हैं तब हमारा तात्पर्य उसे मान्यता देने वाले देशों के साथ उसे जोड़ने का ही होता है। | + | है।<blockquote>यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।</blockquote><blockquote>भस्मिभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।</blockquote>चार्वाक भारतीय ही है, असुर भारतीय ही हैं, खण्ड खण्ड में विचार करने वाले और उसके अनुसार व्यवहार करने वाले भी भारतीय ही हैं। केवल उन्हें मान्यता नहीं है। हम जब इसे अधार्मिक की संज्ञा देते हैं तब हमारा तात्पर्य उसे मान्यता देने वाले देशों के साथ उसे जोड़ने का ही होता है। |
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− | परन्तु कभी ऐसा भी विचार कर सकते हैं कि इस द्वंद्व का स्वरूप भारतीय और अभारतीय का न होकर दैवी और आसुरी विचारधारा के विरोध का ही है। अभारतीय को हम पाश्चात्य केवल इसलिये कहते हैं क्योकि पाश्चात्य देशों में इसे मान्यता है और वे इस मान्यता को पूरे विश्व पर थोपना चाहते हैं। | + | परन्तु कभी ऐसा भी विचार कर सकते हैं कि इस द्वंद्व का स्वरूप भारतीय और अधार्मिक का न होकर दैवी और आसुरी विचारधारा के विरोध का ही है। अधार्मिक को हम पाश्चात्य केवल इसलिये कहते हैं क्योकि पाश्चात्य देशों में इसे मान्यता है और वे इस मान्यता को पूरे विश्व पर थोपना चाहते हैं। |
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| जो लोग इसे आधुनिक कहते हैं या वैश्विक कहते हैं वे केवल अज्ञान के कारण ही ऐसा करते हैं। इस अज्ञान को कैसे दूर करना इसका विचार हम अलग से करेंगे। | | जो लोग इसे आधुनिक कहते हैं या वैश्विक कहते हैं वे केवल अज्ञान के कारण ही ऐसा करते हैं। इस अज्ञान को कैसे दूर करना इसका विचार हम अलग से करेंगे। |
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− | इस सन्दर्भ में एक और मुद्दा विचारणीय है। भारत में या विश्व में जीवनविषयक जो चर्चा चलती है उसमें किसी एक देश के साथ उसे नहीं जोड़ा जाता है। वह ठीक है कि नहीं इसका ही विचार किया जाता है। आज अमेरिका और यूरोप जिस विचारधारा की बात करते हैं वे भी उसे अमरीकी या यूरोपीय नहीं कहते हैं। वे उसे मानवीय ही कहते हैं। भारतीय दर्शनों में भी भारतीय या हिन्दू के नाम से चर्चा नहीं की गई है। मानवीय दृष्टि से ही की गई है। दोनों ही स्थानों पर एक अर्थ में तो वैश्विकता की ही बात की गई है। भारत भी जब विचार करता है तब केवल भारत के सन्दर्भ में ही नहीं करता है। वह सम्पूर्ण सचराचर सृष्टि के सन्दर्भ में ही विचार करता है। पाश्चत्य जगत विचार करता है तब भी सचराचर सृष्टि के सन्दर्भ में ही विचार करता है। केवल दोनों विचारधाराओं में अन्तर है। भारत इस अन्तर को मूल रूप से दैवी और आसुरी सम्पद का अन्तर कहता है, पाश्चात्य जगत इसे आधुनिक और रूढ़िवादी अथवा प्रगत और पिछड़े का अन्तर कहता है। वास्तव में हम जिसे अभारतीय कहते हैं वह सही अर्थों में आसुरी विचारधारा है। इस प्रकार समझने से हम उसके सन्दर्भ में कैसा रुख अपनाना इस विषय में भी अधिक स्पष्ट हो सकते हैं। | + | इस सन्दर्भ में एक और मुद्दा विचारणीय है। भारत में या विश्व में जीवनविषयक जो चर्चा चलती है उसमें किसी एक देश के साथ उसे नहीं जोड़ा जाता है। वह ठीक है कि नहीं इसका ही विचार किया जाता है। आज अमेरिका और यूरोप जिस विचारधारा की बात करते हैं वे भी उसे अमरीकी या यूरोपीय नहीं कहते हैं। वे उसे मानवीय ही कहते हैं। भारतीय दर्शनों में भी भारतीय या हिन्दू के नाम से चर्चा नहीं की गई है। मानवीय दृष्टि से ही की गई है। दोनों ही स्थानों पर एक अर्थ में तो वैश्विकता की ही बात की गई है। भारत भी जब विचार करता है तब केवल भारत के सन्दर्भ में ही नहीं करता है। वह सम्पूर्ण सचराचर सृष्टि के सन्दर्भ में ही विचार करता है। पाश्चत्य जगत विचार करता है तब भी सचराचर सृष्टि के सन्दर्भ में ही विचार करता है। केवल दोनों विचारधाराओं में अन्तर है। भारत इस अन्तर को मूल रूप से दैवी और आसुरी सम्पद का अन्तर कहता है, पाश्चात्य जगत इसे आधुनिक और रूढ़िवादी अथवा प्रगत और पिछड़े का अन्तर कहता है। वास्तव में हम जिसे अधार्मिक कहते हैं वह सही अर्थों में आसुरी विचारधारा है। इस प्रकार समझने से हम उसके सन्दर्भ में कैसा रुख अपनाना इस विषय में भी अधिक स्पष्ट हो सकते हैं। |
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| == भारतीय दृष्टि आत्मवादी (दैवी ) == | | == भारतीय दृष्टि आत्मवादी (दैवी ) == |
− | पुन: एक बार कहें तो अभारतीय विचारधारा वही है जो भारत में आसुरी के नाम से जानी जाती है परन्तु यूरोप और अमेरिका में जिसे समर्थन प्राप्त है। ऐसी विचारधारा का प्रभाव भारत में बढ़ रहा है और उसे समर्थन प्राप्त हो रहा है यही हमारी चिन्ता का विषय है। | + | पुन: एक बार कहें तो अधार्मिक विचारधारा वही है जो भारत में आसुरी के नाम से जानी जाती है परन्तु यूरोप और अमेरिका में जिसे समर्थन प्राप्त है। ऐसी विचारधारा का प्रभाव भारत में बढ़ रहा है और उसे समर्थन प्राप्त हो रहा है यही हमारी चिन्ता का विषय है। |
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− | और भी स्पष्ट करना है तो आज के सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि अभारतीय का अर्थ है आसुरी और भारतीय का अर्थ है दैवी। आसुरी का अर्थ है विनाशक और दैवी का अर्थ है उद्घारक। विनाशक का अर्थ है त्याज्य और दैवी का अर्थ है स्वीकार्य। आसुरी का त्याग करने के लिये और दैवी को अपनाने के लिये हरेक को साधना करनी होती है। इसे प्राप्त करना ही जीवन विकास है। भारत के सम्बन्ध में जो भी बातें हैं वे भारतीय हैं। भारत का स्वभाव जिसमें झलकता है वह भारतीय है। | + | और भी स्पष्ट करना है तो आज के सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि अधार्मिक का अर्थ है आसुरी और भारतीय का अर्थ है दैवी। आसुरी का अर्थ है विनाशक और दैवी का अर्थ है उद्घारक। विनाशक का अर्थ है त्याज्य और दैवी का अर्थ है स्वीकार्य। आसुरी का त्याग करने के लिये और दैवी को अपनाने के लिये हरेक को साधना करनी होती है। इसे प्राप्त करना ही जीवन विकास है। भारत के सम्बन्ध में जो भी बातें हैं वे भारतीय हैं। भारत का स्वभाव जिसमें झलकता है वह भारतीय है। |
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| उदाहरण के लिये भारतीय मानस ऐसा एक शब्द है। भारत के लोग किसी भी घटना या पदार्थ को जिस प्रकार देखते हैं उसे भारतीय मानस कहा जाता है। हम छोटे बच्चों को चन्दामामा, बिछिमौसी, चिडियारानी कहकर पशुपक्षियों का परिचय करवाते हैं और सबके प्रति आत्मीयता और प्रेम के संस्कार देते हैं यह भारतीय मानस का लक्षण है। आचार्य और छात्र का सम्बन्ध पिता पुत्र जैसा है ऐसा कहते हैं तब वह भारतीयता का लक्षण है। अर्थात भारत जिस विशिष्ट पद्धति से पेश आता है वह भारतीय पद्धति है। इस दृष्टि से भारतीय शिक्षा का अर्थ क्या है इसे भी हम स्पष्ट कर लें। | | उदाहरण के लिये भारतीय मानस ऐसा एक शब्द है। भारत के लोग किसी भी घटना या पदार्थ को जिस प्रकार देखते हैं उसे भारतीय मानस कहा जाता है। हम छोटे बच्चों को चन्दामामा, बिछिमौसी, चिडियारानी कहकर पशुपक्षियों का परिचय करवाते हैं और सबके प्रति आत्मीयता और प्रेम के संस्कार देते हैं यह भारतीय मानस का लक्षण है। आचार्य और छात्र का सम्बन्ध पिता पुत्र जैसा है ऐसा कहते हैं तब वह भारतीयता का लक्षण है। अर्थात भारत जिस विशिष्ट पद्धति से पेश आता है वह भारतीय पद्धति है। इस दृष्टि से भारतीय शिक्षा का अर्थ क्या है इसे भी हम स्पष्ट कर लें। |