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लोकमान्यो बालगंगाधर तिलकः (23 जुलाई 1856 - अगस्त 1920 ई.)

यो विद्वान्‌ प्रतिभान्वितः शुभगुणैः सवर्त्र पूज्यो भवत्‌,

स्वातन्त्र्यं समवाप्तुमेव सततं, यो यत्नशीलोऽभवत्‌।

त्यागी देशहितार्थमत्र विविधाः सेहे हि यो यातना-

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स्तं सिंहं नृषु लोकमान्यतिलक, श्रद्धान्वितो नौम्यहम्‌।।4।।

जो प्रतिभाशाली विद्वान्‌ अपने उत्तम गुणों से सब जगह पूजनीय

बने, जो देश को स्वतन्त्र कराने के लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहे, जिन

त्यागी महानुभाव ने देशहित के लिये अनेक कष्टों को सहन किया, ऐसे

पुरुषों में सिंह के समान लोकमान्य तिलक को मैं श्रद्धापूर्वक नमस्कार

करता हूँ।

गीताया विदधे प्रमोदजनक' भाष्यं विपश्चिद्वरो,

यो नित्यं शुभकर्मयोगनिरतः, सद्देशभक्ताग्रणीः।

आसीद्‌ यो जनताहृदामविरतं, सम्राड्‌ बुधः सेवया,

त॑ सिंहं नृषु लोकमान्यतिलक, श्रद्धान्वितो नौम्यहम्‌।।5।।

जिन उत्तम कर्मयोग में तत्पर, देशभक्तों के नेता महाविद्वान्‌ तिलक

जी ने गीता का अत्यन्त प्रसन्नता जनक भाष्य “गीता रहस्य' के नाम से

किया, जो अपनी सेवाओं के कारण जनता के हृदयों के निरन्तर सम्राट्‌ थे,

उन पुरुषसिंह लोकमान्य तिलक जी को मैं श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता हूँ।

विद्रोहस्य विनायको गणपतियों मन्यते मानवैः,

चैतन्यं नवमेव साहसमयं, यद्‌ यत्नतो विस्तृतम्‌।

अस्पृश्यत्वनिवारणार्थमपि यो यत्नं चकोरप्सितं,

तं सिंहं नृषृ लोकमान्यतिलक श्रद्धान्वितो नौम्यहम्‌।।6॥।

जिन्हें लोक में विद्रोह का सवोच्च नेता, गणेश के समान माना

जाता है, जिन के यत्न से साहसपूर्ण नई जागृति सब जगह फैल गई,

अस्पृश्यत्व के निवारण के लिये भी जिन्होंने इष्ट यत्न किया, ऐसे

नरकेसरी लोकमान्य तिलक को मैं श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता हूं।

स्वराज्यं हि मे जन्मसिद्धोऽधिकारः,अवश्यं मया लप्यस्यते तद्‌ यथार्थम्‌।

इतीमां गिरं घोषयन्तं विभीक', सुधीरं मुदा लोकमान्यं नमामि॥7॥

'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और में इसे अवश्य प्राप्त

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करुंगा, इस बात की स्पष्ट घोषणा करते हुये निर्भय, अत्यन्त धीर

लोकमान्य तिलक जी को मैं प्रसन्नता पूर्वक नमस्कार करता हूँ।

सम्पाद्य चारु शुभ ' केसरिं’ नाम पत्रं, यश्चेतनां जनमनस्सु समानिनाय।

आसक्तिहीनमनसा च चकार सेवां,तं लोकमान्यतिलक' विनयेन नौमि।।8।।

जिन्होंने 'केसरी' नामक उत्तम पत्रिका के सम्पादन से लोगों के

मन में नये चैतन्य का संचार कर दिया और आसक्ति-रहित मन से सदा

सेवा की, ऐसे लोकमान्य तिलक को मैं श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता हूँ।

यत्‌ किञ्चिदत्र कथयेयुरिमे समेताः,नाहं मनागपि बुधा विहितापराधः।

इत्यादिकां विभयवाचमुदाहरन्तं, तं लोकमान्यतिलक विनयेन नौमि।।9।।

ये जूरी (न्याय सभा) के लोग कुछ भी कहें, मैंने जरा भी अपराध

नहीं किया, निर्भय होकर ऐसी वाणी बोलने वाले लोकमान्य तिलक को मैं

विनयपूर्वक नमस्कार करता हूँ।

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