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सामान्यत: अपने विद्यालयों में पढाए जानेवाले इतिहास की पार्श्वभूमि हमारे इतिहास शिक्षकों को विदित नहीं होती। यह जानकारी केवल आँखें खोलने वाली ही नहीं तो अपने वास्तविक इतिहास के लेखन की अनिवार्यता की प्रेरणा देनेवाली भी है।
 
सामान्यत: अपने विद्यालयों में पढाए जानेवाले इतिहास की पार्श्वभूमि हमारे इतिहास शिक्षकों को विदित नहीं होती। यह जानकारी केवल आँखें खोलने वाली ही नहीं तो अपने वास्तविक इतिहास के लेखन की अनिवार्यता की प्रेरणा देनेवाली भी है।
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अंग्रेजी राज भारत में आने से कुछ समय पहले १८ वीं सदी के उत्तरार्ध तक केवल इंग्लैंड ही नहीं तो योरप के सभी देशों में भारत के प्रति, आर्य संस्कृति के प्रति, धार्मिक (भारतीय) परंपराओं के प्रति, सामान्य धार्मिक (भारतीय) मनुष्य की नीतिमत्ता के प्रति अपार आदर था । भिन्न भिन्न ढंग से अपनी संस्कृति को आर्यों से जोडने की होड़ योरप के फ्रांस, जर्मनी जैसे सभी देशों में लगी थी। इंग्लैण्ड भी पीछे नहीं था। १७५४ में व्हॉल्टेयरने लिखा है कि मानव जाति को प्रगति के लिये भारत से मार्गदर्शन लेना चाहिये ।  
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अंग्रेजी राज भारत में आने से कुछ समय पहले १८ वीं सदी के उत्तरार्ध तक केवल इंग्लैंड ही नहीं तो योरप के सभी देशों में भारत के प्रति, आर्य संस्कृति के प्रति, धार्मिक (भारतीय) परंपराओं के प्रति, सामान्य धार्मिक (भारतीय) मनुष्य की नीतिमत्ता के प्रति अपार आदर था। भिन्न भिन्न ढंग से अपनी संस्कृति को आर्यों से जोडने की होड़ योरप के फ्रांस, जर्मनी जैसे सभी देशों में लगी थी। इंग्लैण्ड भी पीछे नहीं था। १७५४ में व्हॉल्टेयर ने लिखा है कि मानव जाति को प्रगति के लिये भारत से मार्गदर्शन लेना चाहिये ।  
    
फ्रांस के बादशाह नेपोलियन का भारतप्रेम तो सर्वश्रुत ही था। हेगेल ने तो संस्कृत भाषा के योरपीय देशों को हुए परिचय की तुलना एक नये द्वीपकल्प की खोज से की थी। जर्मनी ने जर्मन भाषा के व्याकरण में सुधार कर उसे संस्कृत भाषा के व्याकरण जैसा बनाने का प्रयास किया।  
 
फ्रांस के बादशाह नेपोलियन का भारतप्रेम तो सर्वश्रुत ही था। हेगेल ने तो संस्कृत भाषा के योरपीय देशों को हुए परिचय की तुलना एक नये द्वीपकल्प की खोज से की थी। जर्मनी ने जर्मन भाषा के व्याकरण में सुधार कर उसे संस्कृत भाषा के व्याकरण जैसा बनाने का प्रयास किया।  
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इसी के बीच चार्ल्स् ग्रँट ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स् का चेयरमन बन गया था । आगामी चार्टर्ड डीबेट से पूर्व उसने जेम्स् मिल द्वारा लिखे इतिहास के आधार पर इंग्लैंड में भारत की प्रतिमा बिगाडने के लिये अभियान चलाया था । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में इसी इतिहास में लिखी विकृत और अतिरंजित जानकारी को ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में प्रस्तुत इस गलत भूमिका के लिये लॉर्ड हेस्ंटिग्ज ने विरोध भी जताया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत होने से और भारत की प्रतिमा-हनन के प्रयासों के कारण भारत में ईसाईयत के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव पारित हो गया । भारत का ईसाईकरण शुरू हो गया । सन १८५७ तक यह निर्बाध रूप से चलता रहा । १८५७ की लडाई के बाद इस नीति को बदला गया था। इस की जानकारी १८५७ के स्वातंत्र्य समर का इतिहास जाननेवाले सभी को है।
 
इसी के बीच चार्ल्स् ग्रँट ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स् का चेयरमन बन गया था । आगामी चार्टर्ड डीबेट से पूर्व उसने जेम्स् मिल द्वारा लिखे इतिहास के आधार पर इंग्लैंड में भारत की प्रतिमा बिगाडने के लिये अभियान चलाया था । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में इसी इतिहास में लिखी विकृत और अतिरंजित जानकारी को ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में प्रस्तुत इस गलत भूमिका के लिये लॉर्ड हेस्ंटिग्ज ने विरोध भी जताया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत होने से और भारत की प्रतिमा-हनन के प्रयासों के कारण भारत में ईसाईयत के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव पारित हो गया । भारत का ईसाईकरण शुरू हो गया । सन १८५७ तक यह निर्बाध रूप से चलता रहा । १८५७ की लडाई के बाद इस नीति को बदला गया था। इस की जानकारी १८५७ के स्वातंत्र्य समर का इतिहास जाननेवाले सभी को है।
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सिखों के इतिहास लेखन की कथा तो इस से भी अधिक गहरे षडयंत्र की कथा है। मॅकलिफ नाम का एक अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकारी बनकर पंजाब में आया था। उस ने सिख पंथ का स्वीकार किया। मॅकलिफ सिंग बन गया। जीते हुए समाज का और वह भी गोरी चमडी वाला अंग्रेज सिख बन जाता है, यह बात सिखों के लिये अत्यंत आनंद देनेवाली और अत्यंत गौरवपूर्ण थी । इस के परिणामस्वरूप मॅकलिफसिंग सिखों का सिरमौर बन गया । पूरा सिख समाज मॅकलिफसिंग जिसे पूर्व कहे उसे पूर्व कहने लग गया ।<blockquote>सकल जगत में खालसा पंथ गाजे ।</blockquote><blockquote>जगे धर्म हिंन्दू सकल भंड भाजे ॥</blockquote>सिख्खों के दसवें गुरू गोविद सिंह जी ने खालसा ( सिख ) पंथ की स्थापना ही हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये की थी यह बात उन के उपर्युक्त दोहे से स्पष्ट है। किन्तु सिखों (केशधारी हिन्दू) में और हिन्दुओं में फूट डालने के लिये मॅकलिफसिंग ने सिखों का झूठा इतिहास लिख डाला। १९९० के दशक में पंजाब में चले खलिस्तान की अलगाववादी मांग के बीज मॅकलिफसिंग के लिखे सिखों के इतिहास में ही है। कंपनी की नौकरी का कार्यकाल समाप्त होते ही मॅकलिफसिंग दाढी-मूंछें मुंडवाकर फिर ईसाई बनकर इंग्लैंड चला गया।  किन्तु हमारी गुलामी की मानसिकता इतनी गहरी है कि अब भी हम अंग्रेजों के षडयंत्र को समझ नहीं रहे । मॅकलिफसिंग का लिखा सिखों का इतिहास आज भी सिखों का प्रामाणिक संदर्भ इतिहास माना जाता है। इस इतिहास से भिन्न कुछ लिखने पर हमारी तथाकथित इतिहासज्ञों की फौज लिखा हुआ सत्य है या नहीं इस को जाँचे बगैर ही उस के विरोध में खडी हो जाती है।
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सिखों के इतिहास लेखन की कथा तो इस से भी अधिक गहरे षडयंत्र की कथा है। मॅकलिफ नाम का एक अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकारी बनकर पंजाब में आया था। उस ने सिख पंथ का स्वीकार किया। मॅकलिफ सिंग बन गया। जीते हुए समाज का और वह भी गोरी चमडी वाला अंग्रेज सिख बन जाता है, यह बात सिखों के लिये अत्यंत आनंद देनेवाली और अत्यंत गौरवपूर्ण थी । इस के परिणामस्वरूप मॅकलिफसिंग सिखों का सिरमौर बन गया । पूरा सिख समाज मॅकलिफसिंग जिसे पूर्व कहे उसे पूर्व कहने लग गया ।<blockquote>सकल जगत में खालसा पंथ गाजे ।</blockquote><blockquote>जगे धर्म हिंन्दू सकल भंड भाजे ॥</blockquote>सिक्खों के दसवें गुरू गोविद सिंह जी ने खालसा (सिख) पंथ की स्थापना ही हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये की थी यह बात उन के उपर्युक्त दोहे से स्पष्ट है। किन्तु सिखों (केशधारी हिन्दू) में और हिन्दुओं में फूट डालने के लिये मॅकलिफसिंग ने सिखों का झूठा इतिहास लिख डाला। १९९० के दशक में पंजाब में चले खलिस्तान की अलगाववादी मांग के बीज मॅकलिफसिंग के लिखे सिखों के इतिहास में ही है। कंपनी की नौकरी का कार्यकाल समाप्त होते ही मॅकलिफसिंग दाढी-मूंछें मुंडवाकर फिर ईसाई बनकर इंग्लैंड चला गया।  किन्तु हमारी गुलामी की मानसिकता इतनी गहरी है कि अब भी हम अंग्रेजों के षडयंत्र को समझ नहीं रहे । मॅकलिफसिंग का लिखा सिखों का इतिहास आज भी सिखों का प्रामाणिक संदर्भ इतिहास माना जाता है। इस इतिहास से भिन्न कुछ लिखने पर हमारी तथाकथित इतिहासज्ञों की फौज लिखा हुआ सत्य है या नहीं इस को जाँचे बगैर ही उस के विरोध में खडी हो जाती है।
    
स्वाधीनता के बाद इस में परिवर्तन होगा ऐसी आशा थी। किन्तु जवाहरलाल नेहरूजी का नेतृत्व हमें मिला। वह योरपीय सोच से अत्यधिक प्रभावित थे। भारतीयता के संबंध में उन की समझ बहुत कम और गलत थी। इसीलिये भारत के राष्ट्रपुरूष शिवाजी को उन्होंने 'राह भटका देशभक्त (मिसगायडेड पॅट्रियट)' कहा। गांधीजी की भारतीयता के नेहरूजी कट्टर विरोधी थे। काँग्रेस में घुसे कम्युनिस्टों के कारनामों को वह समझ नहीं सकते थे। इतिहास लेखन की जिम्मेदारी स्वाधीन भारत में नेहरूजी ने जिन्हें सौंपी वे सब छद्म किन्तु कट्टर कम्युनिस्ट थे। कम्युनिस्टों का इतिहास भारत के साथ गद्दारी का ही रहा है। उन्हें देश के सत्य इतिहास के लेखन में और धार्मिक (भारतीय) आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा में कोई रस नहीं था, न आज है। इस कम्युनिस्ट गुट ने जितना भी इतिहास लेखन में योगदान दिया है, उस के कारण हमारे बच्चों की इतिहास पढने में रुचि खतम हो गई है। पूरा इतिहास हिन्दू समाज के बच्चों के मन में हीनताबोध निर्माण करनेवाला लिखा गया है। इतिहास लेखन, अध्ययन और अध्यापन की इन की दृष्टि तो जेम्स् स्टुअर्ट मिल की ही रही है।
 
स्वाधीनता के बाद इस में परिवर्तन होगा ऐसी आशा थी। किन्तु जवाहरलाल नेहरूजी का नेतृत्व हमें मिला। वह योरपीय सोच से अत्यधिक प्रभावित थे। भारतीयता के संबंध में उन की समझ बहुत कम और गलत थी। इसीलिये भारत के राष्ट्रपुरूष शिवाजी को उन्होंने 'राह भटका देशभक्त (मिसगायडेड पॅट्रियट)' कहा। गांधीजी की भारतीयता के नेहरूजी कट्टर विरोधी थे। काँग्रेस में घुसे कम्युनिस्टों के कारनामों को वह समझ नहीं सकते थे। इतिहास लेखन की जिम्मेदारी स्वाधीन भारत में नेहरूजी ने जिन्हें सौंपी वे सब छद्म किन्तु कट्टर कम्युनिस्ट थे। कम्युनिस्टों का इतिहास भारत के साथ गद्दारी का ही रहा है। उन्हें देश के सत्य इतिहास के लेखन में और धार्मिक (भारतीय) आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा में कोई रस नहीं था, न आज है। इस कम्युनिस्ट गुट ने जितना भी इतिहास लेखन में योगदान दिया है, उस के कारण हमारे बच्चों की इतिहास पढने में रुचि खतम हो गई है। पूरा इतिहास हिन्दू समाज के बच्चों के मन में हीनताबोध निर्माण करनेवाला लिखा गया है। इतिहास लेखन, अध्ययन और अध्यापन की इन की दृष्टि तो जेम्स् स्टुअर्ट मिल की ही रही है।

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