Changes

Jump to navigation Jump to search
adhyay# moved to refrences
Line 2: Line 2:     
== भारत में दर्शन की संकल्पना है ==
 
== भारत में दर्शन की संकल्पना है ==
समाधि अवस्था में ऋषि को सत्य का दर्शन होता है<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। यह दर्शन परावाणी में अनुदित होता है । परा वाणी वैखरी तक पहुँचकर सबको सुनाई दे इस प्रकार प्रकट होती है। उसे मन्त्र कहा जाता है . इसलिये ऋषि की परिभाषा बताई गई है {{Citation needed}}  <blockquote>ऋष्यय: मन्त्रद्रष्टार:।</blockquote>समाधि अवस्था में ऋषि को दिखाई देता है कि मनुष्य शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं । यह दर्शन किसी भी साधन से नहीं होता, आँख नामक साधन से भी नहीं होता। नाड़ियाँ स्वयं ऋषि की अन्तःप्रज्ञा में प्रकट होती हैं । स्वामी विवेकानन्द कहते हैं {{Citation needed}}, <blockquote>“समस्त ज्ञान मनुष्य के अन्दर स्थित है । उसे केवल अनावृत्त करना होता है । अनावरण होते ही वह प्रकट होता है ।"</blockquote>श्रीमद् भगवदगीता कहती है<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 5.15  </ref>: <blockquote>अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।।</blockquote>अर्थात्‌ "अज्ञान से ज्ञान आवृत्त रहता है इस कारण से मनुष्य मोहित अर्थात्‌ भ्रमित होते हैं"।
+
समाधि अवस्था में ऋषि को सत्य का दर्शन होता है<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १)-अध्याय १७, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। यह दर्शन परावाणी में अनुदित होता है । परा वाणी वैखरी तक पहुँचकर सबको सुनाई दे इस प्रकार प्रकट होती है। उसे मन्त्र कहा जाता है . इसलिये ऋषि की परिभाषा बताई गई है {{Citation needed}}  <blockquote>ऋष्यय: मन्त्रद्रष्टार:।</blockquote>समाधि अवस्था में ऋषि को दिखाई देता है कि मनुष्य शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं । यह दर्शन किसी भी साधन से नहीं होता, आँख नामक साधन से भी नहीं होता। नाड़ियाँ स्वयं ऋषि की अन्तःप्रज्ञा में प्रकट होती हैं । स्वामी विवेकानन्द कहते हैं {{Citation needed}}, <blockquote>“समस्त ज्ञान मनुष्य के अन्दर स्थित है । उसे केवल अनावृत्त करना होता है । अनावरण होते ही वह प्रकट होता है ।"</blockquote>श्रीमद् भगवदगीता कहती है<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 5.15  </ref>: <blockquote>अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।।</blockquote>अर्थात्‌ "अज्ञान से ज्ञान आवृत्त रहता है इस कारण से मनुष्य मोहित अर्थात्‌ भ्रमित होते हैं"।
    
इस कारण से भारत के ज्ञानविश्व में शोध या अनुसन्धान जैसी संकल्पनायें नहीं हैं। यहाँ दर्शन की संकल्पना है, ज्ञान प्रकट होने की संकल्पना है, ज्ञान का आविष्कार होने की संकल्पना है। दर्शन, प्राकट्य या आविष्कार बुद्धि का नहीं, अनुभूति का क्षेत्र है। पश्चिमी ज्ञानक्षेत्र में अनुभूति का अस्तित्व सर्वथा नकारा तो नहीं जाता तथापि उसकी बहुत चर्चा नहीं होती । वह बुद्धि के दायरे में नहीं आता है, इसलिये प्रमाण के रूप में उसका स्वीकार नहीं होता है ।
 
इस कारण से भारत के ज्ञानविश्व में शोध या अनुसन्धान जैसी संकल्पनायें नहीं हैं। यहाँ दर्शन की संकल्पना है, ज्ञान प्रकट होने की संकल्पना है, ज्ञान का आविष्कार होने की संकल्पना है। दर्शन, प्राकट्य या आविष्कार बुद्धि का नहीं, अनुभूति का क्षेत्र है। पश्चिमी ज्ञानक्षेत्र में अनुभूति का अस्तित्व सर्वथा नकारा तो नहीं जाता तथापि उसकी बहुत चर्चा नहीं होती । वह बुद्धि के दायरे में नहीं आता है, इसलिये प्रमाण के रूप में उसका स्वीकार नहीं होता है ।

Navigation menu