| वैसे तो गणित का सम्बन्ध जीवन के हर विषय से है। विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का तो गणित आधार ही है। वर्तमान में तो प्रत्येक विषय का गणितीय नमूना बनाने की एक विचित्र पद्धति बन गयी है। फिर गणित का विषय खगोल भूगोल के साथ लेने का औचित्य क्या है? वास्तव में गणित की महत्वपूर्ण संकल्पनाओं और प्रक्रियाओं का विकास, खगोल भूगोल के क्षेत्र में हुए अध्ययन के कारण हुआ होगा ऐसा हम कह सकते हैं। गणित की शून्य की संकल्पना, अनंत की संकल्पना, सृष्टि के निर्माण और लय की प्रक्रिया को समझने के लिए १० पर १४२ शून्यवाली ‘असंख्येय’ संख्या तक का मापन, आदि काल के मापन के लिए किये प्रयासों में या विभिन्न ग्रहों में जो अन्तर हैं उन अंतरों के मापन के लिए शायद आवश्यक थे। खगोल शास्त्र के अध्ययन में ग्रहों के बीच के अंतर, ग्रहों की गति का मापन आदि अनेकों पहलू ऐसे हैं जिनका काम गणित के बगैर चल नहीं सकता। भूमिति गणित का ही एक अंग है। इस के गोल, लंबगोल आदि विभिन्न आकार भी खगोल के अध्ययन के लिये आवश्यक होते हैं। विभिन्न ग्रहों के बीच के अन्तर को नापने के लिए त्रिकोण, चतुर्भुज आदि के भिन्न भिन्न आकार और उन की रेखाओं की लम्बाईयों के अनुपात इन प्राक्रियाओं को सरल बनाते हैं। गणित की कलन (इंटीग्रल केलकुलस) और अवकलन (डीफ्रंशियल केलकुलस) जैसी प्रगत प्रक्रियाएं भी खगोल शास्त्र के गेंदाकृति भूमिति (स्फेरिकल ज्योमेट्री) के अध्ययन के लिए अनिवार्य होतीं हैं। वेदों के छ: उपांग हैं। शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छंद, व्याकरण और ज्योतिष। ज्योतिष और कुछ नहीं ग्रह गणित ही है। ग्रहों की आकाश में स्थिति और उनके पृथ्वी पर, मानव जिस भौगोलिक क्षेत्र में है, उस पर परिणाम करने की क्षमताओं के आधार पर यज्ञों के लिए याने शुभ कार्यों के लिए सुमुहूर्त देखने के लिए ज्योतिष विद्या का उपयोग किया जाता है। इस के लिए ग्रहों की अचूक स्थिति, उसका अचूक प्रभाव समझने के लिए ग्रहों का पृथ्वी अन्तर जानना और उनकी प्रभाव डालने की शक्ति को आँकना यह गणित से ही संभव हो पाता है। | | वैसे तो गणित का सम्बन्ध जीवन के हर विषय से है। विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का तो गणित आधार ही है। वर्तमान में तो प्रत्येक विषय का गणितीय नमूना बनाने की एक विचित्र पद्धति बन गयी है। फिर गणित का विषय खगोल भूगोल के साथ लेने का औचित्य क्या है? वास्तव में गणित की महत्वपूर्ण संकल्पनाओं और प्रक्रियाओं का विकास, खगोल भूगोल के क्षेत्र में हुए अध्ययन के कारण हुआ होगा ऐसा हम कह सकते हैं। गणित की शून्य की संकल्पना, अनंत की संकल्पना, सृष्टि के निर्माण और लय की प्रक्रिया को समझने के लिए १० पर १४२ शून्यवाली ‘असंख्येय’ संख्या तक का मापन, आदि काल के मापन के लिए किये प्रयासों में या विभिन्न ग्रहों में जो अन्तर हैं उन अंतरों के मापन के लिए शायद आवश्यक थे। खगोल शास्त्र के अध्ययन में ग्रहों के बीच के अंतर, ग्रहों की गति का मापन आदि अनेकों पहलू ऐसे हैं जिनका काम गणित के बगैर चल नहीं सकता। भूमिति गणित का ही एक अंग है। इस के गोल, लंबगोल आदि विभिन्न आकार भी खगोल के अध्ययन के लिये आवश्यक होते हैं। विभिन्न ग्रहों के बीच के अन्तर को नापने के लिए त्रिकोण, चतुर्भुज आदि के भिन्न भिन्न आकार और उन की रेखाओं की लम्बाईयों के अनुपात इन प्राक्रियाओं को सरल बनाते हैं। गणित की कलन (इंटीग्रल केलकुलस) और अवकलन (डीफ्रंशियल केलकुलस) जैसी प्रगत प्रक्रियाएं भी खगोल शास्त्र के गेंदाकृति भूमिति (स्फेरिकल ज्योमेट्री) के अध्ययन के लिए अनिवार्य होतीं हैं। वेदों के छ: उपांग हैं। शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छंद, व्याकरण और ज्योतिष। ज्योतिष और कुछ नहीं ग्रह गणित ही है। ग्रहों की आकाश में स्थिति और उनके पृथ्वी पर, मानव जिस भौगोलिक क्षेत्र में है, उस पर परिणाम करने की क्षमताओं के आधार पर यज्ञों के लिए याने शुभ कार्यों के लिए सुमुहूर्त देखने के लिए ज्योतिष विद्या का उपयोग किया जाता है। इस के लिए ग्रहों की अचूक स्थिति, उसका अचूक प्रभाव समझने के लिए ग्रहों का पृथ्वी अन्तर जानना और उनकी प्रभाव डालने की शक्ति को आँकना यह गणित से ही संभव हो पाता है। |
− | अब धार्मिक (भारतीय) खगोल / भूगोल / गणित दृष्टि के कुछ महत्वपूर्ण पहलूओं का हम विचार करेंगे। भूगोल यह हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं, जिस के बिना हमारी एक भी आवश्यकता पूर्ण नहीं हो सकती उसकी जानकारी का विषय है। इस के साथ ही ज्योतिष विद्या के लिए भी मनुष्य की भौगोलिक स्थिति जानने के लिए भी पृथ्वी के भूगोल को जानना आवश्यक है। | + | अब धार्मिक (भारतीय) खगोल / भूगोल / गणित दृष्टि के कुछ महत्वपूर्ण पहलूओं का हम विचार करेंगे। भूगोल यह हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं, जिस के बिना हमारी एक भी आवश्यकता पूर्ण नहीं हो सकती उसकी जानकारी का विषय है। इस के साथ ही ज्योतिष विद्या के लिए भी मनुष्य की भौगोलिक स्थिति जानने के लिए भी पृथ्वी के भूगोल को जानना आवश्यक है।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ४०, लेखक - दिलीप केलकर</ref> |