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# वर्तमान समाजशास्त्रीय लेखन सामाजिक समस्याओं को हल करने में असमर्थ है।
# वर्तमान समाजशास्त्रीय लेखन सामाजिक समस्याओं को हल करने में असमर्थ है।
# वर्तमान की प्रस्तुतियों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: का विचार नहीं है।
# वर्तमान की प्रस्तुतियों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: का विचार नहीं है।
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# वर्तमान में उपलब्ध सभी स्मृतियाँ कालबाह्य हो गयी हैं।
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# वर्तमान में उपलब्ध सभी स्मृतियाँ कालबाह्य हो गयी हैं।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय २७, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
== समाज की प्रधान आवश्यकताएँ ==
== समाज की प्रधान आवश्यकताएँ ==