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उदारवादी सार्वभौमवाद को राष्ट्रीयता के पुनरुदय से कड़ी चुनौती मिल रही है। धर्म, प्रजाति, भाषा आदि के आधार पर अस्मिता/राष्ट्रीयता का मुद्दा एकाएक बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। विडम्बना यह है कि एक ओर जहाँ वैश्वीकरण के प्रतिपादक संचारक्रान्ति, सांस्कृतिक संकरता, राजनीतिक व आर्थिक अन्तर्निर्भरता के प्रबल प्रवाह में राष्ट्र-भाव के विगलित होने का सिंहनाद कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीयता का भाव विभिन्न रूपों में और विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में प्रभावी सिद्ध हो रहा है । बहु-सांस्कृतिक एवं बहु-राष्ट्रीय राज्यों में उपराष्ट्रीयताएँ अपनी अस्मिता को लेकर व्यग्र हैं, तो उपनिवेशवाद के शिकार रहे एशिया व अफ्रीका के देश पश्चिम की वैचारिक छाया से उबरने के लिए आतुर हैं। साम्यवादी रूस का अधि-राष्ट्रीय (Supra-national) राज्य बनाने का उपक्रम बुरी तरह विफल हुआ। यूरोपीय संघ, अफ्रीकी संघ, अरब लीग आदि अधि-राष्ट्रीय संगठनों के निर्माण से राष्ट्रीयता का भाव मन्द नहीं पड़ा है। इंग्लैण्ड का यूरोपीय संघ से अलग होना इसका ताजा उदाहरण है। वेनेजुएला में हूगो चावेज़ ने अमेरिकी-यूरोपीय जीवन-शैली व उपभोक्ता संस्कृति का विरोध कर व्यापक जन-समर्थन प्राप्त किया और राष्ट्र-भाव की शक्ति को प्रमाणित किया। भारत में हिन्दुत्व का उभार, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की 'नव दक्षिणपंथी' राजनीति को मिला जन-समर्थन, जर्मनी की राजनीति में राष्ट्रवादी नीतियों का प्रभाव, मध्यपूर्व में 'राजनीतिक इस्लाम' का बढ़ता प्रभाव राष्ट्रवाद की चिर प्रासंगिकता और प्रभाशीलता को रेखांकित करते हैं।
 
उदारवादी सार्वभौमवाद को राष्ट्रीयता के पुनरुदय से कड़ी चुनौती मिल रही है। धर्म, प्रजाति, भाषा आदि के आधार पर अस्मिता/राष्ट्रीयता का मुद्दा एकाएक बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। विडम्बना यह है कि एक ओर जहाँ वैश्वीकरण के प्रतिपादक संचारक्रान्ति, सांस्कृतिक संकरता, राजनीतिक व आर्थिक अन्तर्निर्भरता के प्रबल प्रवाह में राष्ट्र-भाव के विगलित होने का सिंहनाद कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीयता का भाव विभिन्न रूपों में और विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में प्रभावी सिद्ध हो रहा है । बहु-सांस्कृतिक एवं बहु-राष्ट्रीय राज्यों में उपराष्ट्रीयताएँ अपनी अस्मिता को लेकर व्यग्र हैं, तो उपनिवेशवाद के शिकार रहे एशिया व अफ्रीका के देश पश्चिम की वैचारिक छाया से उबरने के लिए आतुर हैं। साम्यवादी रूस का अधि-राष्ट्रीय (Supra-national) राज्य बनाने का उपक्रम बुरी तरह विफल हुआ। यूरोपीय संघ, अफ्रीकी संघ, अरब लीग आदि अधि-राष्ट्रीय संगठनों के निर्माण से राष्ट्रीयता का भाव मन्द नहीं पड़ा है। इंग्लैण्ड का यूरोपीय संघ से अलग होना इसका ताजा उदाहरण है। वेनेजुएला में हूगो चावेज़ ने अमेरिकी-यूरोपीय जीवन-शैली व उपभोक्ता संस्कृति का विरोध कर व्यापक जन-समर्थन प्राप्त किया और राष्ट्र-भाव की शक्ति को प्रमाणित किया। भारत में हिन्दुत्व का उभार, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की 'नव दक्षिणपंथी' राजनीति को मिला जन-समर्थन, जर्मनी की राजनीति में राष्ट्रवादी नीतियों का प्रभाव, मध्यपूर्व में 'राजनीतिक इस्लाम' का बढ़ता प्रभाव राष्ट्रवाद की चिर प्रासंगिकता और प्रभाशीलता को रेखांकित करते हैं।
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इस परिप्रेक्ष्य में एरिक हाब्सबाम का तर्क कि राष्ट्र मात्र संरचना (Construct) है, परिस्थिति-जन्य है और इसलिए उसका विखण्डन (Deconstruction) स्वाभाविक व अपरिहार्य है, नितान्त अपरिपक्व और अटकलबाजी है। आज राष्ट्रीयता के अनेक व्याख्याता ऐसी ही भ्रान्ति के शिकार हैं। जॉन ब्रुएली राष्ट्रीयता को' राजनीति का रूप' (Form of Politics) कहते हैं, तो रोजर्स ब्रूबेकर उसे रिवाज की श्रेणी (Category of Practice) में रखते हैं, और बेनेडिक्ट एंडरसन उसके उदय का कारण 'प्रिन्ट कैपिटलिज्म' मानते हैं। इन सभी के लिए राष्ट्रवाद 'हाशिए की विचारधारा' (ideology of Periphery) है। ये सभी विश्लेषक राष्ट्रीयता के आन्तरिक, सनातन स्रोतों को जाने-अनजाने में अनदेखा करते हैं। राष्ट्रीयता एक धर्म है, आत्म-तत्त्व है, सहज है और शाश्वत है। मानव-इतिहास की घटनाओं ने बार-बार प्रमाणित किया है कि राष्ट्रीयता के प्रबल प्रवाह के आगे राजनीति, अर्थनीति, सैन्य-शक्ति आदि बाह्य संरचनाएँ निष्प्रभ हो जाती हैं। यह राष्ट्रीयता का ज्वार ही था जिसने यूरोपीय साम्राज्यवाद को घुटने टेकने को विवश कर दिया।
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इस परिप्रेक्ष्य में एरिक हाब्सबाम का तर्क कि राष्ट्र मात्र संरचना (Construct) है, परिस्थिति-जन्य है और इसलिए उसका विखण्डन (Deconstruction) स्वाभाविक व अपरिहार्य है, नितान्त अपरिपक्व और अटकलबाजी है। आज राष्ट्रीयता के अनेक व्याख्याता ऐसी ही भ्रान्ति के शिकार हैं। जॉन ब्रुएली राष्ट्रीयता को 'राजनीति का रूप' (Form of Politics) कहते हैं, तो रोजर्स ब्रूबेकर उसे रिवाज की श्रेणी (Category of Practice) में रखते हैं, और बेनेडिक्ट एंडरसन उसके उदय का कारण 'प्रिन्ट कैपिटलिज्म' मानते हैं। इन सभी के लिए राष्ट्रवाद 'हाशिए की विचारधारा' (ideology of Periphery) है। ये सभी विश्लेषक राष्ट्रीयता के आन्तरिक, सनातन स्रोतों को जाने-अनजाने में अनदेखा करते हैं। राष्ट्रीयता एक धर्म है, आत्म-तत्त्व है, सहज है और शाश्वत है। मानव-इतिहास की घटनाओं ने बार-बार प्रमाणित किया है कि राष्ट्रीयता के प्रबल प्रवाह के आगे राजनीति, अर्थनीति, सैन्य-शक्ति आदि बाह्य संरचनाएँ निष्प्रभ हो जाती हैं। यह राष्ट्रीयता का ज्वार ही था जिसने यूरोपीय साम्राज्यवाद को घुटने टेकने को विवश कर दिया।
    
आधुनिक विश्व की आर्थिक संरचना पूँजीवाद के आधार पर हुई है जो उदारवादी सार्वभौमवाद का आर्थिक पक्ष है। मनुष्य को मूलतः आर्थिक प्राणी मान कर उसकी भौतिक-आर्थिक आवश्यकताओं की निरन्तर वृद्धि, इसके लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन, वितरण व उपभोग के विशाल विश्वव्यापी तंत्र का निर्माण, औद्योगिकीकरण व मशीनीकरण, विश्व के प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व की होड़, बाजारों पर नियंत्रण करने की प्रतिस्पर्धा- इन मूल प्रतिस्थापनाओं पर आधारित उदारवादी/नव-उदारवादी परिप्रेक्ष्य ने मनुष्य-मनुष्य और मनुष्य-प्रकृति के सम्बन्धों को दूषित व विरूपित कर दिया है। पर्यावरणवाद (Environmentalism) इसी की उपज है। सम्भवतः विश्व-इतिहास में पहली बार पर्यावरण एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न बन गया है। पर्यावरण का संकट एक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय चिन्ता का विषय है। जल, थल और नभ- सभी गम्भीर प्रदूषण की चपेट में हैं। प्रकृति का संतुलन बिगड़ चुका है। विकास की आधुनिक अवधारणा की परिणति विनाश में होती दिखाई पड़ रही है। विकास और पर्यावरण का सम्बन्ध वैज्ञानिकों एवं विचारकों के लिए गम्भीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन गया है। इस सम्बन्ध में चल रहे विमर्श में दो विचार-प्रवाह उभर कर सामने आए हैं- प्रथम, वे चिन्तक हैं जो विकास और पर्यावरण में कोई विरोधाभास नहीं देखते और, द्वितीय, वे चिन्तक हैं जो विकास और पर्यावरण में परस्पर विरोधी सम्बन्ध मानते हैं।
 
आधुनिक विश्व की आर्थिक संरचना पूँजीवाद के आधार पर हुई है जो उदारवादी सार्वभौमवाद का आर्थिक पक्ष है। मनुष्य को मूलतः आर्थिक प्राणी मान कर उसकी भौतिक-आर्थिक आवश्यकताओं की निरन्तर वृद्धि, इसके लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन, वितरण व उपभोग के विशाल विश्वव्यापी तंत्र का निर्माण, औद्योगिकीकरण व मशीनीकरण, विश्व के प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व की होड़, बाजारों पर नियंत्रण करने की प्रतिस्पर्धा- इन मूल प्रतिस्थापनाओं पर आधारित उदारवादी/नव-उदारवादी परिप्रेक्ष्य ने मनुष्य-मनुष्य और मनुष्य-प्रकृति के सम्बन्धों को दूषित व विरूपित कर दिया है। पर्यावरणवाद (Environmentalism) इसी की उपज है। सम्भवतः विश्व-इतिहास में पहली बार पर्यावरण एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न बन गया है। पर्यावरण का संकट एक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय चिन्ता का विषय है। जल, थल और नभ- सभी गम्भीर प्रदूषण की चपेट में हैं। प्रकृति का संतुलन बिगड़ चुका है। विकास की आधुनिक अवधारणा की परिणति विनाश में होती दिखाई पड़ रही है। विकास और पर्यावरण का सम्बन्ध वैज्ञानिकों एवं विचारकों के लिए गम्भीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन गया है। इस सम्बन्ध में चल रहे विमर्श में दो विचार-प्रवाह उभर कर सामने आए हैं- प्रथम, वे चिन्तक हैं जो विकास और पर्यावरण में कोई विरोधाभास नहीं देखते और, द्वितीय, वे चिन्तक हैं जो विकास और पर्यावरण में परस्पर विरोधी सम्बन्ध मानते हैं।

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