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=== यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे ===
 
=== यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे ===
जैसी रचना अणु की है वैसी ही रचना सौरमंडल की है। जिस प्रकार से अणु में एक केंद्र्वर्ती पदार्थ होता है उसी तरह सौरमंडल में सूर्य होता है। अणु में ॠणाणू केंद्रक के इर्दगिर्द एक निश्चित कक्षा में घूमते है। सौरमंडल में भी विभिन्न ग्रह सूर्य के इर्दगिर्द अपनी अपनी विशिष्ट कक्षा में घूमते है। चावल से भात बन गया है या कच्चा है यह पकाए गए भात के एक कण को जाँचने से पता चल जाता है। एक चावल जितना पका होगा उतने ही अन्य चावल भी पके होते है। एक जीव में जो विभिन्न प्रणालियाँ काम करती है वैसी ही सभी जीवों में काम करती है। एक मनुष्य की आवश्यकताओं से अन्य मनुष्यों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसी लम्बी सूची बनाई जा सकती है।   
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जैसी रचना अणु की है वैसी ही रचना सौरमंडल की है। जिस प्रकार से अणु में एक केंद्र्वर्ती पदार्थ होता है उसी तरह सौरमंडल में सूर्य होता है। अणु में ॠणाणू केंद्रक के इर्दगिर्द एक निश्चित कक्षा में घूमते है। सौरमंडल में भी विभिन्न ग्रह सूर्य के इर्दगिर्द अपनी अपनी विशिष्ट कक्षा में घूमते है। चावल से भात बन गया है या कच्चा है यह पकाए गए भात के एक कण को जाँचने से पता चल जाता है। एक चावल जितना पका होगा उतने ही अन्य चावल भी पके होते है। एक जीव में जो विभिन्न प्रणालीयाँ काम करती है वैसी ही सभी जीवों में काम करती है। एक मनुष्य की आवश्यकताओं से अन्य मनुष्यों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसी लम्बी सूची बनाई जा सकती है।   
    
किन्तु इस तत्व को महत्व मिलने का कारण है। वह है समाजशास्त्रीय प्रयोग अत्यंत धीमी गति से होते है। एक साथ बड़े प्रमाण में उन्हें करना संभव भी नहीं होता। इसलिये नमूने के तौर पर एक छोटी ईकाई लेकर प्रयोग किये जाते है। अन्य ईकाईयों में जो संभाव्य अंतर है उसे ध्यान में लिया जाता है। अंत में प्रयोग को बड़े स्तर पर किया जाता है। छोटी ईकाई का प्रयोग जितनी गहराई और व्यापकता के साथ किया होगा उसी के प्रमाण में बड़े स्तर पर परिणाम मिलेंगे।  
 
किन्तु इस तत्व को महत्व मिलने का कारण है। वह है समाजशास्त्रीय प्रयोग अत्यंत धीमी गति से होते है। एक साथ बड़े प्रमाण में उन्हें करना संभव भी नहीं होता। इसलिये नमूने के तौर पर एक छोटी ईकाई लेकर प्रयोग किये जाते है। अन्य ईकाईयों में जो संभाव्य अंतर है उसे ध्यान में लिया जाता है। अंत में प्रयोग को बड़े स्तर पर किया जाता है। छोटी ईकाई का प्रयोग जितनी गहराई और व्यापकता के साथ किया होगा उसी के प्रमाण में बड़े स्तर पर परिणाम मिलेंगे।  
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# मानव जीवन का लक्ष्य यदि परमात्मपद प्राप्ति है तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोग का लक्ष्य भी परमात्मपद प्राप्ति ही रहेगा। अन्य नहीं। और मोक्षप्राप्ति का या परमात्मपदप्राप्ति का मार्ग तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही है। कुछ लोग कहेंगे कि मोक्ष मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का लक्ष्य सुख है। फिर भी व्यक्ति समाज का और सृष्टि का अविभाज्य ऐसा हिस्सा होने से जब तक सुख समाजव्याप्त और सृष्टिव्याप्त नहीं होता व्यक्ति भी सुख से नहीं जी सकता। विज्ञान और तन्त्रज्ञान का उपयोग ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये करने से ही व्यक्तिगत सुख की आश्वस्ति मिल सकेगी।      
 
# मानव जीवन का लक्ष्य यदि परमात्मपद प्राप्ति है तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोग का लक्ष्य भी परमात्मपद प्राप्ति ही रहेगा। अन्य नहीं। और मोक्षप्राप्ति का या परमात्मपदप्राप्ति का मार्ग तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही है। कुछ लोग कहेंगे कि मोक्ष मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का लक्ष्य सुख है। फिर भी व्यक्ति समाज का और सृष्टि का अविभाज्य ऐसा हिस्सा होने से जब तक सुख समाजव्याप्त और सृष्टिव्याप्त नहीं होता व्यक्ति भी सुख से नहीं जी सकता। विज्ञान और तन्त्रज्ञान का उपयोग ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये करने से ही व्यक्तिगत सुख की आश्वस्ति मिल सकेगी।      
 
# ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान  कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान  नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है।      
 
# ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान  कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान  नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है।      
# विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या असुर प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान असुर स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है।      
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# विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या दुष्ट प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान दुष्ट स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है।      
 
# प्रकृति चक्रीयता से चलती है। इसलिये वर्तमान की एक (सीधी) रेखीय विकास की अवधारणा प्रकृति विरोधी है। सीधी रेखा में जितना कम हो उतना वह अधिक प्रकृति सुसंगत होगा। सामान्यत: सृष्टि में सीधी रेखा में कोई रचना नहीं होती।      
 
# प्रकृति चक्रीयता से चलती है। इसलिये वर्तमान की एक (सीधी) रेखीय विकास की अवधारणा प्रकृति विरोधी है। सीधी रेखा में जितना कम हो उतना वह अधिक प्रकृति सुसंगत होगा। सामान्यत: सृष्टि में सीधी रेखा में कोई रचना नहीं होती।      
 
# मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओं पर नहीं।      
 
# मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओं पर नहीं।      
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# वर्तमान में अभारतीय समाजों ने जो संहारक शस्त्र निर्माण किये हैं उनसे सुरक्षा के लिये तन्त्रज्ञान का निर्माण और उपयोग तो आज हमारी अनिवार्यता है। आक्रमण सुरक्षा का श्रेष्ठ तरीका होता है। इसे ध्यान में रखकर उनसे भी अधिक घातक तंत्रज्ञानों का विकास भी हमें करना ही होगा। लेकिन यह आपद्धर्म है, इसे ध्यान में रखना होगा। साथ ही में संभाव्य शत्रुओं के शस्त्रों का उपशम करने के लिये याने उन शस्त्रों की संहारकता नष्ट करने के लिये हमें तंत्रज्ञानों का विकास करना होगा।      
 
# वर्तमान में अभारतीय समाजों ने जो संहारक शस्त्र निर्माण किये हैं उनसे सुरक्षा के लिये तन्त्रज्ञान का निर्माण और उपयोग तो आज हमारी अनिवार्यता है। आक्रमण सुरक्षा का श्रेष्ठ तरीका होता है। इसे ध्यान में रखकर उनसे भी अधिक घातक तंत्रज्ञानों का विकास भी हमें करना ही होगा। लेकिन यह आपद्धर्म है, इसे ध्यान में रखना होगा। साथ ही में संभाव्य शत्रुओं के शस्त्रों का उपशम करने के लिये याने उन शस्त्रों की संहारकता नष्ट करने के लिये हमें तंत्रज्ञानों का विकास करना होगा।      
 
# आपद्धर्म के रूप में जैविक, नॅनो, संहारक शस्त्र आदि जैसे तंत्रज्ञानों का उपयोग किया जा सकता है।      
 
# आपद्धर्म के रूप में जैविक, नॅनो, संहारक शस्त्र आदि जैसे तंत्रज्ञानों का उपयोग किया जा सकता है।      
== भारतीय तन्त्रज्ञान नीति के अनुपालन की प्रक्रिया ==
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== वर्तमान स्थिति से भारतीय तन्त्रज्ञान नीति तक जाने की प्रक्रिया ==
वर्तमान की आओ जाओ घर तुम्हारा है जैसी यानी धर्मशाला जैसी मुक्त या दुष्टों के हाथों में भी संहारक तन्त्रज्ञान जाने से न रोकने वाली विकृत तन्त्रज्ञान नीति से सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये उपयुक्त तन्त्रज्ञान नीति तक समाज को ले जाना अत्यंत कठिन बात है। लेकिन करणीय तो यही है। इसलिये हर प्रकार के प्रयत्नों से करना तो ऐसा ही होगा। कई प्रकार के बिंदू इसमें ध्यान में लेने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से कुछ बिन्दू नीचे दे रहे हैं। अपनी मति और अनुभवों के आधारपर स्थल, काल और परिस्थिति का ध्यान रखकर इस परिवर्तन की प्रक्रिया को सुदृढ और तेज किया जा सकता है।
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वर्तमान तन्त्रज्ञान नीति से सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये उपयुक्त तन्त्रज्ञान नीति तक समाज को ले जाना अत्यंत कठिन बात है। लेकिन करणीय तो यही है। इसलिये हर प्रकार के प्रयत्नों से करना तो ऐसा ही होगा। कई प्रकार के बिंदू इसमें ध्यान में लेने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से कुछ बिन्दू नीचे दे रहे हैं। अपनी मति और अनुभवों के आधार पर स्थल, काल और परिस्थिति का ध्यान रखकर इस परिवर्तन की प्रक्रिया को सुदृढ और तेज किया जा सकता है।
# ‘कुटुम्ब और कौटुम्बिक उद्योग’ यह विषय शिक्षा के हर स्तरपर शक्ति के साथ समाविष्ट करना।
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# सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तंत्रज्ञानों के व्यावहारिक उपयोजन आदि के बारे में शिक्षा के माध्यम से बच्चों के मन को आकार देना ।
# कौटुम्बिक उद्योगों की महत्ता, असुर वृत्ति के लोगों को कैसे पहचानना, असुर प्रवृत्तियों के हाथों में घातक तन्त्रज्ञान जाने से होनेवाले सामाजिक दुष्परिणामों के विषय में, सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तंत्रज्ञानों के व्यावहारिक उपयोजन आदि के बारे में शिक्षा के माध्यम से बच्चों के मन को आकार देना। असुरों के हाथ में ऐसा कोई भी घातक तन्त्रज्ञान नहीं जाने देंगे इस बिंदूपर उन्हें संकल्पबध्द करना।
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# माध्यमिक स्तर पर सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तन्त्रज्ञान के निर्माण की संकल्पना को बच्चों के मनों में स्थापित करना।
# पहल करना, प्रोत्साहन देना, प्रायोजित करना ऐसे भिन्न भिन्न मार्गों से ‘संयुक्त कुटुम्बों का सुसंस्कृत, समृध्द और शक्तिशाली समाज बनाने में योगदान’ के ऊपर शोध कार्य करवाना। ऐसा सभी ज्ञान, शिक्षा में और समाज में लाना।
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# दुष्ट वृत्ति के लोगों को कैसे पहचानना, दुष्ट प्रवृत्तियों के हाथों में घातक तन्त्रज्ञान जाने से होने वाले सामाजिक दुष्परिणामों के विषय में जानकारी देना। दुष्टों के हाथ में ऐसा कोई भी घातक तन्त्रज्ञान नहीं जाने देंगे इस बिंदूपर उन्हें संकल्पबद्ध करना।
# वर्तमान में जो कौटुम्बिक उद्योग चल रहे हैं उन्हें हर तरह से बढावा देना।
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# [[Family Run Businesses (कौटुम्बिक उद्योग)|कुटुम्ब और कौटुम्बिक उद्योग]] यह विषय शिक्षा के हर स्तरपर शक्ति के साथ समाविष्ट करना।
# जो भी कौटुम्बिक उद्योग शुरू करना चाहता है उसे भी हर तरह से बढावा देना।
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## पहल करना, प्रोत्साहन देना, प्रायोजित करना ऐसे भिन्न भिन्न मार्गों से ‘संयुक्त कुटुम्बों का सुसंस्कृत, समृध्द और शक्तिशाली समाज बनाने में योगदान’ के ऊपर शोध कार्य करवाना। ऐसा सभी ज्ञान, शिक्षा में और समाज में लाना।
# तन्त्रज्ञान महाविद्यालयों में कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान विषय उसकी भिन्न भिन्न विधाओं के साथ शुरू करना। जैसे जैसे कौटुम्बिक उद्योग बढते जाएँगे बाजारू तन्त्रज्ञान  विद्यालय/महाविद्यालय, उनकी आवश्यकताही नहीं होने से अपने आप बंद हो जाएँगे।
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## वर्तमान में जो कौटुम्बिक उद्योग चल रहे हैं उन्हें हर तरह से बढावा देना।
# इस दृष्टि से उद्योग मंत्रालय में ‘कौटुम्बिक उद्योग प्रोत्साहन विभाग’ शुरू करना। इस विभाग को हर प्रकार की प्राथमिकता देना।
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## जो भी कौटुम्बिक उद्योग शुरू करना चाहता है उसे भी हर तरह से बढावा देना।
# कौटुम्बिक उद्योगों में काम करनेवाले छोटे बच्चों को बाल मजदूरी के कानून से छुटकारा देना।
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## तन्त्रज्ञान महाविद्यालयों में कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान विषय उसकी भिन्न भिन्न विधाओं के साथ शुरू करना। जैसे जैसे कौटुम्बिक उद्योग बढते जाएँगे बाजारू तन्त्रज्ञान  विद्यालय/महाविद्यालय, उनकी आवश्यकताही नहीं होने से अपने आप बंद हो जाएँगे।
# माध्यमिक स्तरपर सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तन्त्रज्ञान  के निर्माणकी संकल्पना को बच्चों के मनों में स्थापित करना।
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## इस दृष्टि से उद्योग मंत्रालय में ‘कौटुम्बिक उद्योग प्रोत्साहन विभाग’ शुरू करना। इस विभाग को हर प्रकार की प्राथमिकता देना।
# तन्त्रज्ञान विषय के वर्तमान प्राध्यापकों को कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान के अध्ययन और अनुसंधान में लगाना। न्यूनतम एक नये कौटुम्बिक तन्त्रज्ञान के विकास की शर्त पदोन्नति की अनिवार्य शर्त बनाना। इसके अभाव में वेतन में वृद्धि रोकने जैसे उपायों का भी उचित ढँग से उपयोग करना।
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## कौटुम्बिक उद्योगों में काम करनेवाले छोटे बच्चों को बाल मजदूरी के कानून से छुटकारा देना।
# जिनकी कौटुम्बिक उद्योगों में निष्ठा नहीं है उन्हें शासकीय तन्त्रज्ञान विद्यालयों में नौकरी नहीं देना। वर्तमान नौकरों को हतोत्साहित करना।
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## तन्त्रज्ञान विषय के वर्तमान प्राध्यापकों को कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान के अध्ययन और अनुसंधान में लगाना। न्यूनतम एक नये कौटुम्बिक तन्त्रज्ञान के विकास की शर्त पदोन्नति की अनिवार्य शर्त बनाना। इसके अभाव में वेतन में वृद्धि रोकने जैसे उपायों का भी उचित ढँग से उपयोग करना।
# तंत्रशास्त्र के प्राध्यापकों के विकास के लिये बारबार ‘कौटुम्बिक उद्योग-आमुखीकरण’ की कार्यशालाएँ, पाठयक्रमों का आयोजन करना। इन में उपस्थिति की अनिवार्यता रखना। हर ५ वर्ष में एक बार प्राध्यापकोंने और शिक्षकोंने कौटुम्बिक उद्योगों का विषय कितना आत्मसात किया है इस का परिक्षण करना। परीक्षण के आधारपर योग्य बदलाव के लिये सकारात्मक और नकारात्मक कार्यवाही करना।
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## जिनकी कौटुम्बिक उद्योगों में निष्ठा नहीं है उन्हें शासकीय तन्त्रज्ञान विद्यालयों में नौकरी नहीं देना। वर्तमान नौकरों को हतोत्साहित करना।
# पात्रता और कुपात्रता की परीक्षा प्रणालि को कौटुम्बिक पार्श्वभूमि, सामान्य व्यवहार, स्वभाव की विशेषताएँ आदि के आधारपर मूल्यांकन करने की पक्की प्रक्रिया का विकास करना। वैसे कोई सुसंस्कृत है, धर्माचरणी है इसे जानना बहुत कठिन नहीं होता। इस दृष्टि से परीक्षक की निष्पक्षता, सर्वभूतहितेरत: वृत्ति या स्वभाव और परीक्षा की विधा का ज्ञान इन तीन कसौटियोंको लगाकर परीक्षक का चयन किया जा सकता है।
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# तंत्रशास्त्र के प्राध्यापकों के विकास के लिये बारबार ‘कौटुम्बिक उद्योग-आमुखीकरण’ की कार्यशालाएँ, पाठयक्रमों का आयोजन करना। इन में उपस्थिति की अनिवार्यता रखना। हर ५ वर्ष में एक बार प्राध्यापकों ने और शिक्षकों ने कौटुम्बिक उद्योगों का विषय कितना आत्मसात किया है इस का परिक्षण करना। परीक्षण के आधार पर योग्य बदलाव के लिये सकारात्मक और नकारात्मक कार्यवाही करना।
# दुष्ट समाजों से संरक्षण हेतु कुछ कालतक तो संहारक शस्त्रों के तन्त्रज्ञान  का विकास और उपयोग करना हमारे लिये आपध्दर्म ही है। यह कालखण्ड शायद ३ -४ पीढीयोंतक का भी हो सकता है। इसलिये कुछ कालतक तो एक ओर कौटुम्बिक उद्योग आधारित तन्त्रज्ञान  युग और दूसरी ओर कुछ अनिवार्य प्रमाण में बडे उद्योगों का युग ऐसे दोनों युग साथ में चलेंगे। क्रमश: दूसरा युग विश्वभर में क्षीण होता जाए ऐसे प्रयास करने होंगे। इसके लिये हमें दुनियाँ की क्रमांक एक की भौतिक शक्ति तो बनना ही होगा।
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# पात्रता और कुपात्रता की परीक्षा प्रणाली को कौटुम्बिक पार्श्वभूमि, सामान्य व्यवहार, स्वभाव की विशेषताएँ आदि के आधार पर मूल्यांकन करने की पक्की प्रक्रिया का विकास करना। वैसे कोई सुसंस्कृत है, धर्माचरणी है इसे जानना बहुत कठिन नहीं होता। इस दृष्टि से परीक्षक की निष्पक्षता, सर्वभूतहितेरत: वृत्ति या स्वभाव और परीक्षा की विधा का ज्ञान इन तीन कसौटियों को लगाकर परीक्षक का चयन किया जा सकता है।
# बडे उद्योग इसे सहजता से नहीं लेंगे। इसलिये एक ओर तो समाज में कौटुम्बिक उद्योगों के संबंध में जागरूकता निर्माण करना और साथ में बडे उद्योगों को दी जानेवाली सुविधाएँ कम करते जाना और दूसरी ओर बडे उद्योग कौटुम्बिक उद्योगों को हानी न पहुँचा पाए इसकी आश्वस्ति जागरूक और सक्षम कानून और सुरक्षा व्यवस्था के माध्यम से करना।
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# दुष्ट समाजों से संरक्षण हेतु कुछ काल तक तो संहारक शस्त्रों के तन्त्रज्ञान  का विकास और उपयोग करना हमारे लिये आपद्धर्म ही है। यह कालखण्ड शायद ३ -४ पीढीयों तक का भी हो सकता है। इसलिये कुछ काल तक तो एक ओर कौटुम्बिक उद्योग आधारित तन्त्रज्ञान  युग और दूसरी ओर कुछ अनिवार्य प्रमाण में बडे उद्योगों का युग ऐसे दोनों युग साथ में चलेंगे। क्रमश: दूसरा युग विश्वभर में क्षीण होता जाए ऐसे प्रयास करने होंगे। इसके लिये हमें दुनिया की क्रमांक एक की भौतिक शक्ति तो बनना ही होगा।
# पुराने और नये तंत्रज्ञानों के सार्वत्रिकीकरण के लिये नियामक व्यवस्था निर्माण करना। जो वर्तमान तन्त्रज्ञान इन नियमों के विपरीत समझ में आएँ उन्हें न्यूनतम हानी हो इस ढँग से कालबध्द तरीके से बंद करना। नियामक व्यवस्था के दो स्तर होंगे। पहले स्तरपर तन्त्रज्ञान को ‘पर्यावरण सुरक्षा’ की कसौटिपर परखा जाएगा। इस में अनुत्तीर्ण तन्त्रज्ञान को सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। पर्यावरण सुरक्षा की कसौटी में उत्तीर्ण हुए तन्त्रज्ञान को दूसरे स्तरपर ‘सामाजिकता की सुरक्षा’ की कसौटी लगाई जाएगी। जो तन्त्रज्ञान सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाले होंगे वे अनुत्तीर्ण होंगे। उन के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। जो तन्त्रज्ञान दोनों ही कसौटियो में उत्तीर्ण होंगे उन्हीं के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति दी जाएगी। मनुष्य और समाज मनुष्य समाज का एक घटक होता है। किसी एक मनुष्य के नहीं होने से समाज जीवन में सामान्यत: कुछ कमी नहीं आती। किंतु समाज नहीं होने से मनुष्य तो पशु जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाएगा। इसलिये मनुष्य और समाज का संबंध अंगांगी संबंध होता है। मनुष्य अंग होता है और समाज अंगी होता है। अंग का धर्म होता है अंगी के धर्म के अविरोधी रहना। अर्थात् मनुष्य ऐसा कुछ नहीं करे जो सामाजिक हित का विरोधी हो। सामाजिक सुख का विरोधी हो। इस दृष्टि से सामाजिकता का तकाजा है कि कोई भी मनुष्य, समाज जीवन की इष्ट गति के विरोध में व्यवहार नहीं करे। किसी की मति अन्यों की तुलना में बहुत पैनी हो सकती है। लेकिन वह इस पैनी मति का याने मति की तेज गति का उपयोग जिससे समाज की इष्ट गति में बडी मात्रा में वृद्धि होती हो इस तरह से नहीं करे। हमने ऊपर देखा है कि सुख ही इष्ट गति का नियामक तत्व है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिए मनुष्य को चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, शांति, स्वतन्त्रता और पुरूषार्थ। इन चार घटकों के आधारपर हम अब इष्ट गति के लिए समाज जीवन के लिए आवश्यक मानव की दिनचर्या का मोटा मोटा विचार करेंगे।
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# बडे उद्योग इसे सहजता से नहीं लेंगे। इसलिये एक ओर तो समाज में कौटुम्बिक उद्योगों के संबंध में जागरूकता निर्माण करना और साथ में बडे उद्योगों को दी जानेवाली सुविधाएँ कम करते जाना और दूसरी ओर बडे उद्योग कौटुम्बिक उद्योगों को हानि न पहुँचा पाए इसकी आश्वस्ति जागरूक और सक्षम कानून और सुरक्षा व्यवस्था के माध्यम से करना।
## सुसाध्य आजीविका:जीने के लिए आवश्यक पदाथों की प्राप्ति सहज हो। इन पदाथों की प्राप्ति के लिए किए गये परिश्रम से मनुष्य का स्वास्थ्य नहीं बिगडे। साथ ही में दिन में ८ घंटे से अधिक उसे आजीविका के लिए व्यय नहीं करना पडे।
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# पुराने और नये तंत्रज्ञानों के सार्वत्रिकीकरण के लिये नियामक व्यवस्था निर्माण करना। जो वर्तमान तन्त्रज्ञान इन नियमों के विपरीत समझ में आएँ उन्हें न्यूनतम हानि हो इस ढँग से कालबद्ध तरीके से बंद करना। नियामक व्यवस्था के दो स्तर होंगे। पहले स्तरपर तन्त्रज्ञान को ‘पर्यावरण सुरक्षा’ की कसौटि पर परखा जाएगा। इस में अनुत्तीर्ण तन्त्रज्ञान को सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। पर्यावरण सुरक्षा की कसौटी में उत्तीर्ण हुए तन्त्रज्ञान को दूसरे स्तर पर ‘सामाजिकता की सुरक्षा’ की कसौटी लगाई जाएगी। जो तन्त्रज्ञान सामाजिकता को हानि पहुँचाने वाले होंगे, वे अनुत्तीर्ण होंगे। उन के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। जो तन्त्रज्ञान दोनों ही कसौटियो में उत्तीर्ण होंगे उन्हीं के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति दी जाएगी।
## शांति : शांति से तात्पर्य मनुष्य को जो विश्राम की आवश्यकता होती है उससे है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किए गए प्रयासों के कारण थकान आना स्वाभाविक होता है। कुछ भी नहीं करने के उपरांत भी कुछ समय के बाद थकान तो आती ही है। इस थकान को मिटाने के लिए भी उसे विश्राम की, आराम की आवश्यकता तो होती ही है। दिन में ८ घंटे मनुष्य को यदि चिंतामुक्त आराम/विश्राम /नींद के लिए समय मिलता है तो हम कह सकते हैं कि मनुष्य के जीवन में शांति है।
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## स्वतन्त्रता : आजीविका का संबंध समाज से होता है। इस लिए आजीविका के अर्जन में मनुष्य पूर्णत: स्वतंत्र नहीं होता। मनुष्य की स्वतन्त्रता से यहाँ तात्पर्य है जिन बातों में मनुष्य रुचि रखता है उन बातों के लिए किसी के भी अवरोध या विरोध के बिना वह कुछ समय व्यतीत कर सके। सामान्यत: दिन में यह समय ४ घंटे का होता है तो यह उचित होगा।
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## पुरूषार्थ : आजीविका का अर्जन वास्तव में पुरूषार्थ ही होता है। लेकिन यहाँ पुरूषार्थ से तात्पर्य है अन्यों के लिए किए गये प्रयासों से। अन्यों के हित के लिए दिए गए समय से। जब समाज का हर मनुष्य अपनी आजीविका अर्जन के काम के साथ ही दिन में ४ घंटे समाज के हित के अन्य कोई काम करता है तब सुख समष्टिगत बनता है। सुख जब समष्टिगत होता है तब मनुष्य भी सुखी होता है। सुख जितना समष्टिगत होता है उस के प्रमाण में ही मनुष्य भी सुख प्राप्त करता है।
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== वर्तमान तन्त्रज्ञान के  कुछ दुष्परिणाम  ==
 
== वर्तमान तन्त्रज्ञान के  कुछ दुष्परिणाम  ==
 
वर्तमान तंत्रज्ञान दृष्टि ने कई प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया है। जैसे:
 
वर्तमान तंत्रज्ञान दृष्टि ने कई प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया है। जैसे:
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===== प्रस्थान त्रयी =====
 
===== प्रस्थान त्रयी =====
भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण है। वेद की ऋचाएं तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है। लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त अनुभूति की उन ऋषियों की अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। यह मानव की बुद्धि के स्तर की रचनाएं नहीं है। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। और स्वत: प्रमाण भी माना जाता है। महर्षी व्यास ने इन ऋचाओं को चार वेदों में सूत्रबध्द किया। वेदों के सार की सूत्र रूप में प्रस्तुति ही वेदान्त दर्शन याने ब्रह्मसूत्र है। वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष। दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता।  
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भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण है। वेद की ऋचाएं तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है। लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त अनुभूति की उन ऋषियों की अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। यह मानव की बुद्धि के स्तर की रचनाएं नहीं है। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। और स्वत: प्रमाण भी माना जाता है। महर्षी व्यास ने इन ऋचाओं को चार वेदों में सूत्रबद्ध किया। वेदों के सार की सूत्र रूप में प्रस्तुति ही वेदान्त दर्शन याने ब्रह्मसूत्र है। वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष। दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता।  
    
'''वेदों के सार के रूप में ब्रह्मसूत्र, वेद ज्ञान के विषदीकरण की दृष्टि से उपनिषद और उपनिषदों के सार के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता ऐसे तीन को मिला कर 'प्रस्थान त्रयी' कहा जाता है।'''
 
'''वेदों के सार के रूप में ब्रह्मसूत्र, वेद ज्ञान के विषदीकरण की दृष्टि से उपनिषद और उपनिषदों के सार के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता ऐसे तीन को मिला कर 'प्रस्थान त्रयी' कहा जाता है।'''

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