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| ॐ श्रीपरमात्मने नमः '''अथ नवमोऽध्यायः''' | | ॐ श्रीपरमात्मने नमः '''अथ नवमोऽध्यायः''' |
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− | '''श्रीभगवानुवाच'''
| + | श्रीभगवानुवाच<blockquote>इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । </blockquote><blockquote>ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥९- १॥</blockquote>śrī-bhagavān uvāca |
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− | इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥९- १॥
| + | idaṁ tu te guhya-tamaṁ pravakṣyāmy anasūyave । |
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− | śrī-bhagavān uvāca idaṁ tu te guhya-tamaṁ pravakṣyāmy anasūyave jñānaṁ vijñāna-sahitaṁ yaj jñātvā mokṣyase ’śubhāt ॥9-1॥
| + | jñānaṁ vijñāna-sahitaṁ yaj jñātvā mokṣyase ’śubhāt ॥9-1॥ |
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− | राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् । प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥९- २॥ | + | राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् । |
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− | rāja-vidyā rāja-guhyaṁ pavitram idam uttamam pratyakṣāvagamaṁ dharmyaṁ su-sukhaṁ kartum avyayam ॥9-2॥
| + | प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥९- २॥ |
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− | अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप । अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥९- ३॥
| + | rāja-vidyā rāja-guhyaṁ pavitram idam uttamam । |
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− | aśraddadhānāḥ puruṣā dharmasyāsya paran-tapa aprāpya māṁ nivartante mṛtyu-saṁsāra-vartmani ॥9-3॥
| + | pratyakṣāvagamaṁ dharmyaṁ su-sukhaṁ kartum avyayam ॥9-2॥ |
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− | मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना । मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥९- ४॥
| + | अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप । |
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− | mayā tatam idaṁ sarvaṁ jagad avyakta-mūrtinā mat-sthāni sarva-bhūtāni na cāhaṁ teṣv avasthitaḥ ॥9-4॥
| + | अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥९- ३॥ |
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− | न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् । भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥९- ५॥
| + | aśraddadhānāḥ puruṣā dharmasyāsya paran-tapa । |
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− | यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् । तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥९- ६॥
| + | aprāpya māṁ nivartante mṛtyu-saṁsāra-vartmani ॥9-3॥ |
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− | सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् । कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥९- ७॥
| + | मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना । |
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− | प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥९- ८॥
| + | मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥९- ४॥ |
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− | न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय । उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥९- ९॥
| + | mayā tatam idaṁ sarvaṁ jagad avyakta-mūrtinā । |
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− | मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् । हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥९- १०॥
| + | mat-sthāni sarva-bhūtāni na cāhaṁ teṣv avasthitaḥ ॥9-4॥ |
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− | अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥९- ११॥
| + | न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् । |
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− | मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः । राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥९- १२॥
| + | भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥९- ५॥ |
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− | महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः । भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥९- १३॥
| + | यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् । |
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− | सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः । नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥९- १४॥
| + | तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥९- ६॥ |
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− | ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते । एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥९- १५॥
| + | सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् । |
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− | अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् । मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥९- १६॥
| + | कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥९- ७॥ |
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− | पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः । वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥९- १७॥
| + | प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । |
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− | गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् । प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥९- १८॥
| + | भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥९- ८॥ |
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− | तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च । अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥९- १९॥
| + | न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय । |
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− | त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते । ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥९- २०॥
| + | उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥९- ९॥ |
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− | ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥९- २१॥
| + | मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् । |
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− | अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥९- २२॥
| + | हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥९- १०॥ |
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− | येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥९- २३॥
| + | अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । |
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− | अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥९- २४॥
| + | परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥९- ११॥ |
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− | यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः । भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥९- २५॥
| + | मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः । |
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− | पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥९- २६॥
| + | राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥९- १२॥ |
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− | यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥९- २७॥
| + | महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः । |
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− | शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः । संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥९- २८॥
| + | भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥९- १३॥ |
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− | समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥९- २९॥
| + | सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः । |
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− | अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥९- ३०॥
| + | नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥९- १४॥ |
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− | क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति । कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥९- ३१॥
| + | ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते । |
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− | मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः । स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥९- ३२॥
| + | एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥९- १५॥ |
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− | किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा । अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥९- ३३॥
| + | अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् । |
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− | मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥९- ३४॥ | + | मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥९- १६॥ |
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| + | पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः । |
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| + | वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥९- १७॥ |
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| + | गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् । |
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| + | प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥९- १८॥ |
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| + | तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च । |
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| + | अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥९- १९॥ |
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| + | त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते । |
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| + | ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥९- २०॥ |
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| + | ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । |
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| + | एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥९- २१॥ |
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| + | अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । |
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| + | तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥९- २२॥ |
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| + | येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । |
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| + | तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥९- २३॥ |
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| + | अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । |
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| + | न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥९- २४॥ |
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| + | यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः । |
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| + | भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥९- २५॥ |
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| + | पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । |
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| + | तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥९- २६॥ |
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| + | यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । |
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| + | यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥९- २७॥ |
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| + | शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः । |
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| + | संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥९- २८॥ |
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| + | समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । |
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| + | ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥९- २९॥ |
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| + | अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । |
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| + | साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥९- ३०॥ |
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| + | क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति । |
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| + | कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥९- ३१॥ |
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| + | मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः । |
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| + | स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥९- ३२॥ |
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| + | किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा । |
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| + | अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥९- ३३॥ |
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| + | मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । |
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| + | मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥९- ३४॥ |
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| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः ॥९॥ | | ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः ॥९॥ |