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महाराज रन्तिदेव, महाराज संकृति के पुत्र, आतिथ्य-धर्म और परदुःखकातरता के मूर्तिमान प्रतीक थे। उन्होंने आगत की इच्छा जानते ही इच्छित वस्तु देने का व्रत धारण किया था। उदार [[Atithi Satkara (अतिथिसत्कारः)|आतिथ्य-सत्कार]] और दानशीलता के कारण राजकोष रिक्त हो गया। एक बार राज्य में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। दीन-दुःखी और आर्तजनों को सब कुछ बाँटकर पूर्णतया अकिंचन बनकर राजा रन्तिदेव अपनी पत्नी और संतान को लेकर वन में चले गये। वन में अड़तालीस दिन भूखे रहने के पश्चात् जब थोड़ा सा भोजन मिला तो वहाँ भी देवता अतिथि रूप धारण कर इनकी परीक्षा लेने आ पहुँचे। अपने सामने प्रस्तुत भोजन आगन्तुकों को देकर वे स्वयं भूख-प्यास से मूर्च्छित होकर गिर पड़े, किन्तु अतिथि-सेवा की कड़ी परीक्षा में खरे उतरे। इनकी एकमात्र अभिलाषा थी-<blockquote>न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुनर्भवम् । कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्। </blockquote><blockquote>''na tvahaṁ kāmaye rājyaṁ na svarga nāpunarbhavam । kāmaye du:khataptānāṁ prāṇināmārtināśanam।''</blockquote>अर्थ: मुझे न तो राज्य चाहिए, न स्वर्ग चाहिए और न ही मोक्ष चाहिए। मेरी एकमात्र कामना यह है कि दुःखों से पीड़ित प्राणियों के कष्ट समाप्त हो जायें।
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