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→‎शिक्षा सरकार के अधीन: लेख संपादित किया
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===== शिक्षा सरकार के अधीन =====
 
===== शिक्षा सरकार के अधीन =====
आज शिक्षाक्षेत्र सरकार के अधीन है । विश्वविद्यालय शुरू करना है तो उसका कानून संसद में अथवा राज्य की विधानसभा में पारित होता है। उसमें कानून पारित हुए बिना विश्वविद्यालय बन ही नहीं सकता । उसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से उसे मान्यता प्राप्त करनी पड़ती है । इस आयोग की रचना भी संसद ने पारित किये हुए कानून के तहत हुई है । विश्वविद्यालय आयोग के साथ और भी परिषदें हैं जो विभिन्न प्रकार की शिक्षासंस्थाओं को मान्यता देती है। ये सब सरकारी है।  विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति सर्कार के परामर्श के साथ राज्यपाल या राष्ट्रपति करते है।  राज्यपाल राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के और राष्ट्रपति सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते है। इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी सरकार द्वारा की गई रचना ही होती है। प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति भी वैसी ही है । राज्य और केन्द्र के शिक्षामन्त्री और शिक्षासचिव नीति और प्रशासन के क्षेत्र में सर्वोच्च होते हैं और वे शिक्षक हों यह आवश्यक नहीं होता । इसके अलावा आयुक्त और निदेशक भी सरकारी ही होते हैं । आयुक्त का शिक्षक होना आवश्यक नहीं, निदेशक शिक्षक होता हैं । अर्थात्‌ शिक्षाविषयक नीतियाँ और शिक्षा का प्रशासन शिक्षक नहीं ऐसे लोगों के हाथो में ही है | यह खास ब्रिटिश व्यवस्था है, या कहें कि यह पश्चिम की सोच है।
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आज शिक्षाक्षेत्र सरकार के अधीन है । विश्वविद्यालय शुरू करना है तो उसका कानून संसद में अथवा राज्य की विधानसभा में पारित होता है। उसमें कानून पारित हुए बिना विश्वविद्यालय बन ही नहीं सकता । उसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से उसे मान्यता प्राप्त करनी पड़ती है । इस आयोग की रचना भी संसद ने पारित किये हुए कानून के तहत हुई है । विश्वविद्यालय आयोग के साथ और भी परिषदें हैं जो विभिन्न प्रकार की शिक्षासंस्थाओं को मान्यता देती है। ये सब सरकारी है।  विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति सर्कार के परामर्श के साथ राज्यपाल या राष्ट्रपति करते है।  राज्यपाल राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के और राष्ट्रपति सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते है। इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी सरकार द्वारा की गई रचना ही होती है। प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति भी वैसी ही है । राज्य और केन्द्र के शिक्षामन्त्री और शिक्षासचिव नीति और प्रशासन के क्षेत्र में सर्वोच्च होते हैं और वे शिक्षक हों यह आवश्यक नहीं होता । इसके अलावा आयुक्त और निदेशक भी सरकारी ही होते हैं । आयुक्त का शिक्षक होना आवश्यक नहीं, निदेशक शिक्षक होता हैं । अर्थात्‌ शिक्षाविषयक नीतियाँ और शिक्षा का प्रशासन शिक्षक नहीं ऐसे लोगों के हाथो में ही है यह खास ब्रिटिश व्यवस्था है, या कहें कि यह पश्चिम की सोच है।
    
देश के लिये आवश्यक मात्रा में शिक्षा की व्यवस्था करना किसी भी सरकार के बस की बात नहीं है इसलिये दो प्रकार की व्यवस्था है। समाज के कुछ सेवाभावी सज्जन विद्यालय शुरू करने के इच्छुक होते  हैं । भारत में तो शिक्षा की सेवा करना पुण्य का काम माना गया है। इन सज्जनों को संस्था बनानी होती है जो सोसायटी अथवा ट्रस्ट कहा जाता है, उसे सोसायटी और ट्रस्ट के लिये कानून के अन्तर्गत पंजीकृत करवाना होता है,  उसकी शर्तों के अनुसार भवन तथा अन्य भौतिक सुविधायें जुटानी होती हैं । सरकार शिक्षकों का वेतन अनुदान के रूप में देती है, शेष व्यय ट्रस्ट को करनी पड़ती है । सरकार और ट्रस्टी मिलकर शिक्षकों का चयन और नियुक्ति करते हैं । दूसरा एक प्रकार होता है जिसमें सरकार शिक्षकों के वेतन के लिये भी अनुदान नहीं देती । विद्यार्थियों से शुल्क लिया जाता है, उसमें से शिक्षकों को वेतन दिया जाता है । भवन आदि अन्य आवश्यकताओं के लिये समाज का सहयोग लिया जाता है । ट्रस्टियों की सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर और शिक्षा के लिये दान देना चाहिये ऐसी मानसिकता.के कारण विद्यालय हेतु दान मिलता है।   
 
देश के लिये आवश्यक मात्रा में शिक्षा की व्यवस्था करना किसी भी सरकार के बस की बात नहीं है इसलिये दो प्रकार की व्यवस्था है। समाज के कुछ सेवाभावी सज्जन विद्यालय शुरू करने के इच्छुक होते  हैं । भारत में तो शिक्षा की सेवा करना पुण्य का काम माना गया है। इन सज्जनों को संस्था बनानी होती है जो सोसायटी अथवा ट्रस्ट कहा जाता है, उसे सोसायटी और ट्रस्ट के लिये कानून के अन्तर्गत पंजीकृत करवाना होता है,  उसकी शर्तों के अनुसार भवन तथा अन्य भौतिक सुविधायें जुटानी होती हैं । सरकार शिक्षकों का वेतन अनुदान के रूप में देती है, शेष व्यय ट्रस्ट को करनी पड़ती है । सरकार और ट्रस्टी मिलकर शिक्षकों का चयन और नियुक्ति करते हैं । दूसरा एक प्रकार होता है जिसमें सरकार शिक्षकों के वेतन के लिये भी अनुदान नहीं देती । विद्यार्थियों से शुल्क लिया जाता है, उसमें से शिक्षकों को वेतन दिया जाता है । भवन आदि अन्य आवश्यकताओं के लिये समाज का सहयोग लिया जाता है । ट्रस्टियों की सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर और शिक्षा के लिये दान देना चाहिये ऐसी मानसिकता.के कारण विद्यालय हेतु दान मिलता है।   
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===== शिक्षा अर्थ के अधीन =====
 
===== शिक्षा अर्थ के अधीन =====
अंग्रेजों की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ थी । अर्थनिष्ठता के कारन प्रजाजीवन की सारी व्यवस्था को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ। आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है। अतः  शासन की नीतियां, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का नियमन कर रहे है। शासन मालिक है, प्रशासन नियंत्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है
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अंग्रेजों की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ थी। अर्थनिष्ठता के कारन प्रजाजीवन की सारी व्यवस्था को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ। आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है। अतः  शासन की नीतियां, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का नियमन कर रहे है। शासन मालिक है, प्रशासन नियंत्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है।
    
भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी कारण प्रजाजीवन की सारी व्यवस्थाओं को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ । आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है । अतः शासन की नीतियाँ, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का.नियमन कर रहे हैं । शासन मालिक है, प्रशासन नियन्त्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है तो उसके मातापिता और वयस्क है तो विद्यार्थी स्वयं ग्राहक है । इस तन्त्र में शिक्षक का स्थान कहाँ  है? वह शासक का नौकर है और विद्यार्थी के लिए विक्रयिक (सेल्समेन ) दूसरे का माल दूसरे को बेचने वाला है। इसका उसे वेतन मिलता है।  
 
भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी कारण प्रजाजीवन की सारी व्यवस्थाओं को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ । आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है । अतः शासन की नीतियाँ, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का.नियमन कर रहे हैं । शासन मालिक है, प्रशासन नियन्त्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है तो उसके मातापिता और वयस्क है तो विद्यार्थी स्वयं ग्राहक है । इस तन्त्र में शिक्षक का स्थान कहाँ  है? वह शासक का नौकर है और विद्यार्थी के लिए विक्रयिक (सेल्समेन ) दूसरे का माल दूसरे को बेचने वाला है। इसका उसे वेतन मिलता है।  
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विडम्बना यह भी है कि ऐसी स्थिति में भी हम शिक्षकों को आचार्य बनने की, गुरु बनने की, राष्ट्रनिर्माता बनने की, विद्यार्थियों का चरित्रगठन  करने की शिक्षा देते हैं, उनका प्रबोधन करते हैं। ऐसी स्थिति में भी हम “ज्ञान पवित्र है', “विद्या मुक्ति दिलाती है', “गुरु देवता है' आदि बातें करते हैं । विद्या की देवी सरस्वती को लक्ष्मी की दासी बनाकर अब सरस्वती की स्तुति करते हैं ।
 
विडम्बना यह भी है कि ऐसी स्थिति में भी हम शिक्षकों को आचार्य बनने की, गुरु बनने की, राष्ट्रनिर्माता बनने की, विद्यार्थियों का चरित्रगठन  करने की शिक्षा देते हैं, उनका प्रबोधन करते हैं। ऐसी स्थिति में भी हम “ज्ञान पवित्र है', “विद्या मुक्ति दिलाती है', “गुरु देवता है' आदि बातें करते हैं । विद्या की देवी सरस्वती को लक्ष्मी की दासी बनाकर अब सरस्वती की स्तुति करते हैं ।
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भारतीयता का तत्त्व कितना भी श्रेष्ठ हो उसका वर्तमान व्यावहारिक स्वरूप तो ऐसा ही है। यह एक अनर्थकारी व्यवस्था है। हम शिक्षा को भारतीय बनाना चाहते हैं । तब हम क्या करना चाहते हैं। हम शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिये ऐसा कहते हैं । तब क्या चाहते हैं ?
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भारतीयता का तत्व कितना भी श्रेष्ठ हो उसका वर्तमान व्यावहारिक स्वरूप तो ऐसा ही है। यह एक अनर्थकारी व्यवस्था है। हम शिक्षा को भारतीय बनाना चाहते हैं । तब हम क्या करना चाहते हैं। हम शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिये ऐसा कहते हैं । तब क्या चाहते हैं ?
    
===== शिक्षा में भारतीय करण के उपाय =====
 
===== शिक्षा में भारतीय करण के उपाय =====
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यान्त्रिकता और भौतिकता साथ साथ चलते हैं। भौतिकता का यह दृष्टिकोण विषयों के आकलन तक पहुँचता है।
 
यान्त्रिकता और भौतिकता साथ साथ चलते हैं। भौतिकता का यह दृष्टिकोण विषयों के आकलन तक पहुँचता है।
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उदाहरण के लिये आज विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में योग शारीरिक शिक्षा के अन्तर्गत रखा गया है। योग की परिभाषा पातंजलयोगसूत्र में इस प्रकार दी गई है, 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात् चित्तवृत्यिों के निरोध को योग कहते हैं । यहाँ 'चित्त' अन्तःकरण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसका अर्थ यह है कि योग का सम्बन्ध शरीर से नहीं, अन्तःकरण से है। अर्थात् योग को या तो मनोविज्ञान के अथवा इसे योगदर्शन कहें तो तत्त्वज्ञान के विभाग में समावेश होना चाहिये । परन्तु आज योग को व्यायाम अथवा चिकित्सा मानकर उसे शरीर से जोडते हैं । मनोविज्ञान को भारत में आत्मविज्ञान के प्रकाश में देखा जाता है, वर्तमान व्यवस्था में उसे भौतिक स्तर पर उतार दिया गया है । ये तो गम्भीर बातें हैं । ये सम्पूर्ण जीवन की दृष्टि ही बदल देती हैं ।
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उदाहरण के लिये आज विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में योग शारीरिक शिक्षा के अन्तर्गत रखा गया है। योग की परिभाषा पातंजलयोगसूत्र में इस प्रकार दी गई है, 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात् चित्तवृत्यिों के निरोध को योग कहते हैं । यहाँ 'चित्त' अन्तःकरण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसका अर्थ यह है कि योग का सम्बन्ध शरीर से नहीं, अन्तःकरण से है। अर्थात् योग को या तो मनोविज्ञान के अथवा इसे योगदर्शन कहें तो तत्वज्ञान के विभाग में समावेश होना चाहिये । परन्तु आज योग को व्यायाम अथवा चिकित्सा मानकर उसे शरीर से जोडते हैं । मनोविज्ञान को भारत में आत्मविज्ञान के प्रकाश में देखा जाता है, वर्तमान व्यवस्था में उसे भौतिक स्तर पर उतार दिया गया है । ये तो गम्भीर बातें हैं । ये सम्पूर्ण जीवन की दृष्टि ही बदल देती हैं ।
    
===== उपाय योजना =====
 
===== उपाय योजना =====
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यह केवल एक विद्यालय का विषय नहीं है। केवल प्राथमिक या उच्च शिक्षा का विषय नहीं है। देखा जाय तो सम्पूर्ण जीवन का विषय है। यह भारतीय और अभारतीय जीवनदृष्टि का विषय है।
 
यह केवल एक विद्यालय का विषय नहीं है। केवल प्राथमिक या उच्च शिक्षा का विषय नहीं है। देखा जाय तो सम्पूर्ण जीवन का विषय है। यह भारतीय और अभारतीय जीवनदृष्टि का विषय है।
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परन्तु परिवर्तन का प्रारम्भ मूल से और बहुत छोटी बातों से किया जाता है । केवल चिन्तन के स्तर पर परिवर्तन होने से काम नहीं चलता, व्यवहार में होने की आवश्यकता होती है । तत्त्व कितना भी श्रेष्ठ हो, जब तक वह व्यवहार का रूप धारण नहीं करता, परिणामकारी नहीं होता ।
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परन्तु परिवर्तन का प्रारम्भ मूल से और बहुत छोटी बातों से किया जाता है । केवल चिन्तन के स्तर पर परिवर्तन होने से काम नहीं चलता, व्यवहार में होने की आवश्यकता होती है । तत्व कितना भी श्रेष्ठ हो, जब तक वह व्यवहार का रूप धारण नहीं करता, परिणामकारी नहीं होता ।
    
इस मुद्दे को ध्यान में रखकर विद्यालय में परिवर्तन करने का प्रारम्भ करना चाहिये ।
 
इस मुद्दे को ध्यान में रखकर विद्यालय में परिवर्तन करने का प्रारम्भ करना चाहिये ।
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== विद्यालीन शिष्टाचार ==
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== विद्यालयीन शिष्टाचार ==
    
===== व्यव्हार कैसे होना चाहिए =====
 
===== व्यव्हार कैसे होना चाहिए =====
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विद्यालय भी सज्जनों जैसे व्यवहार की अपेक्षा करता है। शिक्षकों का शिक्षकों, मुख्याध्यापक, संचालकों, अभिभावकों के साथ, विद्यार्थियों का विद्यार्थियों और शिक्षकों के साथ, अभिभावकों का शिक्षकों के साथ, संचालकों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिये ?
 
विद्यालय भी सज्जनों जैसे व्यवहार की अपेक्षा करता है। शिक्षकों का शिक्षकों, मुख्याध्यापक, संचालकों, अभिभावकों के साथ, विद्यार्थियों का विद्यार्थियों और शिक्षकों के साथ, अभिभावकों का शिक्षकों के साथ, संचालकों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिये ?
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कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं...
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कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं:
 
# संचालक, मुख्यध्यापक, शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक मिलकर विद्यालय परिवार बनता है । इस परिवार का मखिया मख्याध्यापक है यह बात सर्वस्वीकृत बनने की आवश्यकता है। वर्तमान में संचालक अपने आपको बडे मानते हैं, संचालक मंडल का अध्यक्ष सबसे बड़ा माना जाता है और शिक्षकवृन्द, स्वयं मुख्याध्यापक भी इस व्यवस्था का स्वीकार कर लेते हैं।परन्तु यह मामला ठीक तो कर ही लेना चाहिये । भारतीय शिक्षा संकल्पना तो यह स्पष्ट कहती है कि शिक्षा शिक्षकाधीन होती है। यह केवल सिद्धान्त नहीं है, केवल प्राचीन व्यवस्था नहीं है, उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी व्यवस्था में हमारे विद्यालय चलते आये हैं ।
 
# संचालक, मुख्यध्यापक, शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक मिलकर विद्यालय परिवार बनता है । इस परिवार का मखिया मख्याध्यापक है यह बात सर्वस्वीकृत बनने की आवश्यकता है। वर्तमान में संचालक अपने आपको बडे मानते हैं, संचालक मंडल का अध्यक्ष सबसे बड़ा माना जाता है और शिक्षकवृन्द, स्वयं मुख्याध्यापक भी इस व्यवस्था का स्वीकार कर लेते हैं।परन्तु यह मामला ठीक तो कर ही लेना चाहिये । भारतीय शिक्षा संकल्पना तो यह स्पष्ट कहती है कि शिक्षा शिक्षकाधीन होती है। यह केवल सिद्धान्त नहीं है, केवल प्राचीन व्यवस्था नहीं है, उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी व्यवस्था में हमारे विद्यालय चलते आये हैं ।
 
# अतः यह अभी अभी तक चलती रही हमारी दीर्घ परम्परा भी है। ब्रिटिशों ने इसे उल्टापुल्टा कर दिया । उसे अभी दो सौ वर्ष ही हुए हैं । हम बीच के दो सौ वर्ष लाँघकर अपनी परम्परा से चलें यह आवश्यक है । थोडा विचारशील बनने से यह हमारे लिये स्वाभाविक बन सकता है । अतः समस्त विद्यालय परिवार मुख्याध्यापक का आदर करे और आदरपूर्वक अभिवादन करे यह आवश्यक है। आदर दर्शाने का सम्बोधन क्या हो और अभिवादन के शब्द क्या हों यह विद्यालय अपनी पद्धति से निश्चित कर सकते हैं। अभिवादन की पद्धति क्या हो यह भी विद्यालय स्वतः निश्चित कर सकता है । परन्तु अंग्रेजी के सर या मैडम, गुड मोर्निंग, हलो, हस्तधूनन आदि न हों यही उचित है।
 
# अतः यह अभी अभी तक चलती रही हमारी दीर्घ परम्परा भी है। ब्रिटिशों ने इसे उल्टापुल्टा कर दिया । उसे अभी दो सौ वर्ष ही हुए हैं । हम बीच के दो सौ वर्ष लाँघकर अपनी परम्परा से चलें यह आवश्यक है । थोडा विचारशील बनने से यह हमारे लिये स्वाभाविक बन सकता है । अतः समस्त विद्यालय परिवार मुख्याध्यापक का आदर करे और आदरपूर्वक अभिवादन करे यह आवश्यक है। आदर दर्शाने का सम्बोधन क्या हो और अभिवादन के शब्द क्या हों यह विद्यालय अपनी पद्धति से निश्चित कर सकते हैं। अभिवादन की पद्धति क्या हो यह भी विद्यालय स्वतः निश्चित कर सकता है । परन्तु अंग्रेजी के सर या मैडम, गुड मोर्निंग, हलो, हस्तधूनन आदि न हों यही उचित है।
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विद्यालय परिसर के बाहर भी विद्यार्थी शिक्षक के प्रति विनयशील रहे यह अपेक्षित ही है। यदि नहीं रहता है तो उसके संस्कार और अध्ययन में ही कहीं कमी है ऐसा मान सकते हैं।
 
विद्यालय परिसर के बाहर भी विद्यार्थी शिक्षक के प्रति विनयशील रहे यह अपेक्षित ही है। यदि नहीं रहता है तो उसके संस्कार और अध्ययन में ही कहीं कमी है ऐसा मान सकते हैं।
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अपना पुत्र या पुत्री अपने शिक्षक का सम्मान करे इसके संस्कार घर में मिलने चाहिये । अभिभावकों में भी शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिये । विनयशील व्यवहार तो होना ही चाहिये । आजकल अखबारों में अनेक प्रकार से शिक्षकों को उपालम्भ और उपदेश दिये जाते हैं, अधिकारी विद्यार्थियों के सामने ही शिक्षकों के साथ अविनयशील व्यवहार करते हैं, मातापिता घर में शिक्षक के सन्दर्भ में अविनयशील सम्भाषण करते हैं, सरकार विद्यार्थियों के पक्ष में होती है, न्यायालय में शिक्षक और विद्यार्थी समान माने जाते हैं - ऐसे अनेक कारणों से विद्यार्थी विनय छोडकर उद्दण्ड बन जाते हैं। वास्तव में पढने के लिये पात्रता प्राप्त करना और जब तक वह पात्रता प्राप्त नहीं करता तब तक उसे नहीं पढाना विद्यार्थी और शिक्षक का धर्म है। शिक्षक और विद्यार्थी के बीच अन्य अनेक व्यवस्थायें आ गई हैं इसलिये इस धर्म की भी अवज्ञा होने लगी है । परन्तु शिक्षाक्षेत्र में चिन्ता करने योग्य ये भी बातें हैं और पर्याप्त महत्त्व रखती हैं यह मानकर कुछ उपाय किये जाने चाहिये।
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अपना पुत्र या पुत्री अपने शिक्षक का सम्मान करे इसके संस्कार घर में मिलने चाहिये । अभिभावकों में भी शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिये । विनयशील व्यवहार तो होना ही चाहिये । आजकल अखबारों में अनेक प्रकार से शिक्षकों को उपालम्भ और उपदेश दिये जाते हैं, अधिकारी विद्यार्थियों के सामने ही शिक्षकों के साथ अविनयशील व्यवहार करते हैं, मातापिता घर में शिक्षक के सन्दर्भ में अविनयशील सम्भाषण करते हैं, सरकार विद्यार्थियों के पक्ष में होती है, न्यायालय में शिक्षक और विद्यार्थी समान माने जाते हैं - ऐसे अनेक कारणों से विद्यार्थी विनय छोडकर उद्दण्ड बन जाते हैं। वास्तव में पढने के लिये पात्रता प्राप्त करना और जब तक वह पात्रता प्राप्त नहीं करता तब तक उसे नहीं पढाना विद्यार्थी और शिक्षक का धर्म है। शिक्षक और विद्यार्थी के बीच अन्य अनेक व्यवस्थायें आ गई हैं इसलिये इस धर्म की भी अवज्ञा होने लगी है । परन्तु शिक्षाक्षेत्र में चिन्ता करने योग्य ये भी बातें हैं और पर्याप्त महत्व  रखती हैं यह मानकर कुछ उपाय किये जाने चाहिये।
    
====== शिक्षक और मुख्याध्यापक के आपसी व्यवहार में भी शिष्ट आचरण अपेक्षित है । ======
 
====== शिक्षक और मुख्याध्यापक के आपसी व्यवहार में भी शिष्ट आचरण अपेक्षित है । ======
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विद्यालय परिसर में अशिष्ट वेश धारण करके आना, अशिष्ट भाषा बोलना, झगडा करना भी निषिद्ध होना चाहिये । विद्यालय परिसर में कोलाहल करना, नारेबाजी करना आदि भी नहीं होना चाहिये।
 
विद्यालय परिसर में अशिष्ट वेश धारण करके आना, अशिष्ट भाषा बोलना, झगडा करना भी निषिद्ध होना चाहिये । विद्यालय परिसर में कोलाहल करना, नारेबाजी करना आदि भी नहीं होना चाहिये।
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विद्यालय में हडताल, धरना, विरोधप्रदर्शन होना भी विद्यालय को शोभा नहीं देता । ये सब बातें अचानक नहीं हो जातीं । वर्षों तक वातावरण बिगडते बिगडते बात यहाँ तक पहुँचती है। मुख्याध्यापक और शिक्षकों ने ऐसा होने दिया ऐसा ही उसका अर्थ है । विद्यालय को अनिष्ट तत्त्वों से बचाने का दायित्व तो शिक्षकों का ही है।
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विद्यालय में हडताल, धरना, विरोधप्रदर्शन होना भी विद्यालय को शोभा नहीं देता । ये सब बातें अचानक नहीं हो जातीं । वर्षों तक वातावरण बिगडते बिगडते बात यहाँ तक पहुँचती है। मुख्याध्यापक और शिक्षकों ने ऐसा होने दिया ऐसा ही उसका अर्थ है । विद्यालय को अनिष्ट तत्वों से बचाने का दायित्व तो शिक्षकों का ही है।
    
शिक्षक जब कहने लगते हैं कि हम क्या कर सकते हैं, तभी सब कुछ दुर्गति की और जाता है ।
 
शिक्षक जब कहने लगते हैं कि हम क्या कर सकते हैं, तभी सब कुछ दुर्गति की और जाता है ।
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===== विद्यार्थी क्या कर सकते हैं =====
 
===== विद्यार्थी क्या कर सकते हैं =====
1. स्वच्छता आदि से सम्बन्धित व्यवस्थाओं में सहभाग : सम्पूर्ण विद्यालय की स्वच्छता, व्यवस्था, सुशोभन, मरम्मत आदि सारे काम शिक्षकों के साथ मिलकर विद्यार्थी कर सकते हैं। आयु के अनुसार उन्हें अलग अलग प्रकार के काम दिये जा सकते हैं । ये काम केवल पैसा बचाने के लिये ही नहीं करने हैं । उन्हें शिक्षा का अभिन्न अंग बनाना है। ये क्रियात्मक शिक्षा के ही अंग हैं । योगशास्त्र में दूसरा अंग नियम है । पाँच नियम हैं, उनमें पहला अंग शौच है। शौच का ही अर्थ स्वच्छता है। अर्थात् जहाँ अध्ययन करना है वह स्थान आन्तर्बाह्य स्वच्छ होना चाहिये और अध्ययन करने वालों को ही स्वच्छता का कार्य भी करना चाहिये । ऐसी मानसिकता भी प्रथम निर्माण करनी चाहिये । यह मजदूरी नहीं है, पवित्र कार्य है ऐसी व्यापक समझ विकसित करने की आवश्यकता है।  
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# स्वच्छता आदि से सम्बन्धित व्यवस्थाओं में सहभाग : सम्पूर्ण विद्यालय की स्वच्छता, व्यवस्था, सुशोभन, मरम्मत आदि सारे काम शिक्षकों के साथ मिलकर विद्यार्थी कर सकते हैं। आयु के अनुसार उन्हें अलग अलग प्रकार के काम दिये जा सकते हैं। ये काम केवल पैसा बचाने के लिये ही नहीं करने हैं । उन्हें शिक्षा का अभिन्न अंग बनाना है। ये क्रियात्मक शिक्षा के ही अंग हैं । योगशास्त्र में दूसरा अंग नियम है । पाँच नियम हैं, उनमें पहला अंग शौच है। शौच का ही अर्थ स्वच्छता है। अर्थात् जहाँ अध्ययन करना है वह स्थान आन्तर्बाह्य स्वच्छ होना चाहिये और अध्ययन करने वालों को ही स्वच्छता का कार्य भी करना चाहिये । ऐसी मानसिकता भी प्रथम निर्माण करनी चाहिये । यह मजदूरी नहीं है, पवित्र कार्य है ऐसी व्यापक समझ विकसित करने की आवश्यकता है।  
 
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# कार्यालयीन कार्य : विद्यालय के सन्दर्भ में अनेक प्रकार का पत्रव्यवहार करना होता है, अनेक प्रकार की पंजिकायें होती है, अनेक प्रकार की जानकारी संकलित करनी होती है । खरीदी, बैंक, डाक, सरकार आदि अनेकों के साथ व्यवहार करना होता है । कार्यालय के इस काम में भी विद्यार्थी सहभागी हो सकते हैं । खरीदी करने का काम कर सकते हैं । इन सारे कामों को भी शिक्षा का अंग बनाना चाहिये ।  
2. कार्यालयीन कार्य : विद्यालय के सन्दर्भ में अनेक प्रकार का पत्रव्यवहार करना होता है, अनेक प्रकार की पंजिकायें होती है, अनेक प्रकार की जानकारी संकलित करनी होती है । खरीदी, बैंक, डाक, सरकार आदि अनेकों के साथ व्यवहार करना होता है । कार्यालय के इस काम में भी विद्यार्थी सहभागी हो सकते हैं । खरीदी करने का काम कर सकते हैं । इन सारे कामों को भी शिक्षा का अंग बनाना चाहिये ।  
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# विद्यालय में अनेक प्रकार के कार्यक्रम होते हैं । सभा, सम्मेलन, गोष्ठी, बैठक, कार्यशाला, रंगमंच कार्यक्रम, व्याख्यान, वादविवाद, प्रदर्शनी आदि विविध प्रकार होते हैं । इन कार्यक्रमों के लिये मंच, बैनर, साजसज्जा, बैठक व्यवस्था, चायपान, भोजन आदि अनेक व्यवस्थायें होती है। विद्यार्थियों की आयु और क्षमता के अनुसार इन सभी कामों में सहभाग हो सकता है।
 
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# ग्रन्थालय, प्रयोगशाला, कर्मशाला, रसोई, बगीचा आदि की देखभाल करना, वहाँ की व्यवस्था बनाये रखना भी एक बड़ा काम है।  
3. विद्यालय में अनेक प्रकार के कार्यक्रम होते हैं । सभा, सम्मेलन, गोष्ठी, बैठक, कार्यशाला, रंगमंच कार्यक्रम, व्याख्यान, वादविवाद, प्रदर्शनी आदि विविध प्रकार होते हैं । इन कार्यक्रमों के लिये मंच, बैनर, साजसज्जा, बैठक व्यवस्था, चायपान, भोजन आदि अनेक व्यवस्थायें होती है। विद्यार्थियों की आयु और क्षमता के अनुसार इन सभी कामों में सहभाग हो सकता है ।
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# कार्यक्रमों का संचालन करना, पूर्व तैयारी करना, परिचय, प्रस्तावना, स्वागत आदि करना भी विद्यार्थी के लायक काम है। वृत तैयार करके अख़बारों में देना, कार्यक्रम के समय ध्वनिव्यवस्था का संचालन करना, दृश्य और श्राव्य मुद्रण करना, छाया चित्र लेना आदि भी उनका ही काम है । ये सारे तो शिक्षा का अंग हैं ही।  
 
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# विद्यालय के काम से समाज को परिचित करवाने हेतु प्रचार और प्रसार करना, सामाजिक सार्वजनिक व्यवस्थाओं में सेवा करना, प्राकृतिक आपदाओं में सेवा करना, विद्यालय के अन्यान्य कामों के लिये निधिसंकलन करना, समाज प्रबोधन करना शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर कर सकते हैं।  
4. ग्रन्थालय, प्रयोगशाला, कर्मशाला, रसोई, बगीचा आदि की देखभाल करना, वहाँ की व्यवस्था बनाये रखना भी एक बड़ा काम है।  
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# विद्यालय के कार्यकलापों का नियोजन और आयोजन करना, उसके क्रियान्वयन के परिणामों की समीक्षा करना भी साथ मिलकर हो सकता है ।  
 
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# विद्यालय का शैक्षिक स्तर अच्छा रखना, विद्यालय की प्रतिष्ठा समाज में स्थापित होनी चाहिये, विद्यालय समाज में एक अच्छा विद्यालय माना जाना चाहिये यह भी विद्यार्थी और शिक्षकों की ही आकांक्षा होनी चाहिये । इस दष्टि से अच्छे से अध्यापन और अध्ययन का कार्य चलना चाहिये।  
5. कार्यक्रमों का संचालन करना, पूर्व तैयारी करना, परिचय, प्रस्तावना, स्वागत आदि करना भी विद्यार्थी के लायक काम है। वृत तैयार करके अख़बारों में देना, कार्यक्रम के समय ध्वनिव्यवस्था का संचालन करना, दृश्य और श्राव्य मुद्रण करना, छाया चित्र लेना आदि भी उनका ही काम है । ये सारे तो शिक्षा का अंग हैं ही।  
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# अध्यापन कार्य में विद्यार्थियों का बहुत महत्व पूर्ण योगदान होता है । कंठस्थीकरण का और अभ्यास का कार्य विद्यार्थी स्वयं कर सकते हैं। एक अग्रणी विद्यार्थी इस कार्य में नेतृत्व कर सकता है । मेधावी  विद्यार्थी नीचे की कक्षाओं को पढ़ाने का काम भी कर सकते हैं। केवल नीचली कक्षाओं को ही नहीं तो पढाई में कमजोर विद्यार्थियों को पढ़ाने का काम भी मेधावी  विद्यार्थी कर सकते हैं। शिक्षकों की सेवा करना भी मेधावी  विद्यार्थीयों का काम है । ग्रन्थालय से, प्रयोगशाला से आवश्यक सामग्री ले आना और वापस रखना, खेलों के लिये मैदानों का अंकन करना, संगीत, कला आदि की सामग्री सुरक्षित रखना आदि विद्यार्थियों के काम हैं।  
 
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# विद्यालय में अध्ययन पूर्ण होने के बाद भी विद्यार्थी का विद्यालय के साथ सम्बन्ध बना रहता है। मेधावी  विद्यार्थियों को तो विद्यालय में शिक्षक बनकर विद्यालय की ज्ञानपरम्परा का निर्वहण करना चाहिये और उस रूप में शिक्षकों का ऋण चुकाना चाहिये । जो विद्यार्थी शिक्षक नहीं बनते अपितु अन्यान्य व्यवसायों में जाते हैं उन्होंने विद्यालय के निर्वाह की आर्थिक जिम्मेदारी वहन करनी चाहिये। अन्य भी अनेक व्यावहारिक काम होते हैं जिनमें पूर्व विद्यार्थी सहभागी हो सकते हैं । इन विद्यार्थियों के कारण भी समाज में विद्यालय की छवी बनती है। जिस प्रकार अपने घर के साथ व्यक्ति आजीवन जुडा रहता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के साथ भी वह आजीवन जुडा रहना चाहिये।  
6. विद्यालय के काम से समाज को परिचित करवाने हेतु प्रचार और प्रसार करना, सामाजिक सार्वजनिक व्यवस्थाओं में सेवा करना, प्राकृतिक आपदाओं में सेवा करना, विद्यालय के अन्यान्य कामों के लिये निधिसंकलन करना, समाज प्रबोधन करना शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर कर सकते हैं।  
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7. विद्यालय के कार्यकलापों का नियोजन और आयोजन करना, उसके क्रियान्वयन के परिणामों की समीक्षा करना भी साथ मिलकर हो सकता है ।  
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8. विद्यालय का शैक्षिक स्तर अच्छा रखना, विद्यालय की प्रतिष्ठा समाज में स्थापित होनी चाहिये, विद्यालय समाज में एक अच्छा विद्यालय माना जाना चाहिये यह भी विद्यार्थी और शिक्षकों की ही आकांक्षा होनी चाहिये । इस दष्टि से अच्छे से अध्यापन और अध्ययन का कार्य चलना चाहिये।  
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9. अध्यापन कार्य में विद्यार्थियों का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । कंठस्थीकरण का और अभ्यास का कार्य विद्यार्थी स्वयं कर सकते हैं। एक अग्रणी विद्यार्थी इस कार्य में नेतृत्व कर सकता है । मेघावी विद्यार्थी नीचे की कक्षाओं को पढ़ाने का काम भी कर सकते हैं। केवल नीचली कक्षाओं को ही नहीं तो पढाई में कमजोर विद्यार्थियों को पढ़ाने का काम भी मेघावी विद्यार्थी कर सकते हैं। शिक्षकों की सेवा करना भी मेघावी विद्यार्थीयों का काम है । ग्रन्थालय से, प्रयोगशाला से आवश्यक सामग्री ले आना और वापस रखना, खेलों के लिये मैदानों का अंकन करना, संगीत, कला आदि की सामग्री सुरक्षित रखना आदि विद्यार्थियों के काम हैं।  
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10. विद्यालय में अध्ययन पूर्ण होने के बाद भी विद्यार्थी का विद्यालय के साथ सम्बन्ध बना रहता है। मेघावी विद्यार्थियों को तो विद्यालय में शिक्षक बनकर विद्यालय की ज्ञानपरम्परा का निर्वहण करना चाहिये और उस रूप में शिक्षकों का ऋण चुकाना चाहिये । जो विद्यार्थी शिक्षक नहीं बनते अपितु अन्यान्य व्यवसायों में जाते हैं उन्होंने विद्यालय के निर्वाह की आर्थिक जिम्मेदारी वहन करनी चाहिये । अन्य भी अनेक व्यावहारिक काम होते हैं जिनमें पूर्व विद्यार्थी सहभागी हो सकते हैं । इन विद्यार्थियों के कारण भी समाज में विद्यालय की छवी बनती है। जिस प्रकार अपने घर के साथ व्यक्ति आजीवन जुडा रहता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के साथ भी वह आजीवन जुडा रहना चाहिये।
      
===== इसे सम्भव बनाने के उपाय =====
 
===== इसे सम्भव बनाने के उपाय =====
 
इस प्रकार यहाँ विद्यार्थी और शिक्षक मिलकर विद्यालय का संचालन करें इस विषय में कुछ विवरण दिया गया है । परन्तु ऐसा होना इतना सरल नहीं है । इसे सम्भव बनाने हेतु भी योजना पूर्वक कुछ प्रयास करने होंगे । ये प्रयास कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...  
 
इस प्रकार यहाँ विद्यार्थी और शिक्षक मिलकर विद्यालय का संचालन करें इस विषय में कुछ विवरण दिया गया है । परन्तु ऐसा होना इतना सरल नहीं है । इसे सम्भव बनाने हेतु भी योजना पूर्वक कुछ प्रयास करने होंगे । ये प्रयास कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...  
 
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# इस संकल्पना की स्वीकृति लोकमानस में होना और अभिभावकों की समझ में आना आवश्यक है। आज केवल परीक्षा में अंक लाना ही शिक्षा का उद्देश्य माना जाता है तब शेष सारी बातें निरर्थक लगना स्वाभाविक है। अतः सार्थक शिक्षा की कल्पना लेकर व्यापक समाजप्रबोधन करना होगा । अभिभावकों की स्वीकृति के बिना कोई काम होना असम्भव है। इस दृष्टि से अनेक शिक्षण चिंतकों ने विभिन्न स्वरूपों में लोकमानस से संवाद करने की आवश्यकता होगी। बहुत कुछ लिखा जाना चाहिये और प्रचलित और प्रसारित होना चाहिये।  
1. इस संकल्पना की स्वीकृति लोकमानस में होना और अभिभावकों की समझ में आना आवश्यक है। आज केवल परीक्षा में अंक लाना ही शिक्षा का उद्देश्य माना जाता है तब शेष सारी बातें निरर्थक लगना स्वाभाविक है। अतः सार्थक शिक्षा की कल्पना लेकर व्यापक समाजप्रबोधन करना होगा । अभिभावकों की स्वीकृति के बिना कोई काम होना असम्भव है। इस दृष्टि से अनेक शिक्षण चिंतकों ने विभिन्न स्वरूपों में लोकमानस से संवाद करने की आवश्यकता होगी। बहुत कुछ लिखा जाना चाहिये और प्रचलित और प्रसारित होना चाहिये।  
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# हाथ से काम करने को आज हेय माना जाने लगा है। विद्यार्थी को घर में भी किसी प्रकार का काम करने का अभ्यास नहीं है। हर मातापिता की आकांक्षा होती है कि उनकी सन्तान पढलिखकर ऐसा व्यवसाय करे जहाँ उसे हाथ से काम न करना पडे। इस स्थिति में विद्यार्थी को हर काम सिखाना होगा और घर में भी करने के लिये उसे प्रेरित करना होगा। फिर हाथों को काम करना सिखाना होगा यह एक बहुत बड़ा काम है और धैर्यपूर्वक करने की आवश्यकता है ।  
 
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# विद्यालय की अध्ययन अध्यापन पद्धति, समयविभाजन, परीक्षा पद्धति, व्यवस्थायें आदि सब इस संकल्पना के अनुरूप बदलना होगा । गणवेश भी बदल सकता है। हर विषय को क्रियात्मक पद्धति से ढालना होगा। हर विषय का मूल्यांकन क्रियात्मक बनाना होगा । यही नहीं तो अनेक बातों को परीक्षा से परे रखना होगा। परीक्षा की पद्धति, परीक्षा का महत्व , परीक्षा विषयक मानसिकता में बड़ा बदल करना होगा । पुस्तकों का और लेखन का महत्व  कम करना होगा । पढाई को जीवन के साथ जोडना होगा ।  
2. हाथ से काम करने को आज हेय माना जाने लगा है। विद्यार्थी को घर में भी किसी प्रकार का काम करने का अभ्यास नहीं है । हर मातापिता की आकांक्षा होती है कि उनकी सन्तान पढलिखकर ऐसा व्यवसाय करे जहाँ उसे हाथ से काम न करना पडे । इस स्थिति में विद्यार्थी को हर काम सिखाना होगा और घर में भी करने के लिये उसे प्रेरित करना होगा। फिर हाथों को काम करना सिखाना होगा यह एक बहुत बड़ा काम है और धैर्यपूर्वक करने की आवश्यकता है ।  
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# किसी एक विद्यालय में इस प्रकार की शिक्षा होगी तो वह विद्यालय एक प्रयोग के रूप में चल तो जायेगा । प्रयोग के रूप में उसे प्रतिष्ठा भी कदाचित मिलेगी, उसके विषय में कहीं कोई लेख भी लिखा जायेगा परन्तु मुख्य धारा की शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । प्रयोग तो आज भी बहुत अच्छे हो रहे हैं, अच्छे से अच्छे हो रहे हैं परन्तु आवश्यकता मुख्य धारा की शिक्षा में परिवर्तन होने की है । मुख्य धारा जब भारतीय होगी तब भारत की शिक्षा भारतीय होगी और शिक्षा जब भारतीय होगी तब भारत भी भारत बनेगा। मुख्य धारा की शिक्षा में इस प्रकार का परिवर्तन हो इस दृष्टि से देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों ने इस पर चिन्तन करना होगा और बडे बडे देशव्यापी सामाजिकसांस्कृतिक-शैक्षिक संगठनों ने इसे अपनाना होगा । जब यह परिवर्तन देशव्यापी बनता है तभी अर्थपूर्ण भी बनता है। एक और शिक्षण चिन्तन, दूसरी और समाज प्रबोधन और तीसरी ओर प्रत्यक्ष कार्य ऐसे तीनों एक साथ होंगे तभी परिवर्तन होने की सम्भावना बनेगी।  
 
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# विद्यार्थी की अपेक्षा शिक्षकों की मानसिकता अत्यन्त महत्व पूर्ण है। वेतन की अपेक्षा, अध्यापन का अत्यन्त संकुचित अर्थ और दायित्वबोध का अभाव समाज के अन्य घटकों की तरह शिक्षक समुदाय को भी ग्रस रहे हैं। वास्तव में शिक्षकों की भूमिका इसमें केन्द्रवर्ती है। उनका प्रबोधन, प्रशिक्षण और सज्जता बढाने के प्रभावी प्रयास करने होंगे।  
3. विद्यालय की अध्ययन अध्यापन पद्धति, समयविभाजन, परीक्षा पद्धति, व्यवस्थायें आदि सब इस संकल्पना के अनुरूप बदलना होगा । गणवेश भी बदल सकता है। हर विषय को क्रियात्मक पद्धति से ढालना होगा। हर विषय का मूल्यांकन क्रियात्मक बनाना होगा । यही नहीं तो अनेक बातों को परीक्षा से परे रखना होगा। परीक्षा की पद्धति, परीक्षा का महत्त्व, परीक्षा विषयक मानसिकता में बड़ा बदल करना होगा । पुस्तकों का और लेखन का महत्त्व कम करना होगा । पढाई को जीवन के साथ जोडना होगा ।  
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# यह कार्य त्वरित गति से तो नहीं होगा । धैर्यपूर्वक और निरन्तरतापूर्वक इस कार्य में लगे रहने की आवश्यकता है। भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु यह करना अनिवार्य है यह निश्चित है।  
 
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4. किसी एक विद्यालय में इस प्रकार की शिक्षा होगी तो वह विद्यालय एक प्रयोग के रूप में चल तो जायेगा । प्रयोग के रूप में उसे प्रतिष्ठा भी कदाचित मिलेगी, उसके विषय में कहीं कोई लेख भी लिखा जायेगा परन्तु मुख्य धारा की शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । प्रयोग तो आज भी बहुत अच्छे हो रहे हैं, अच्छे से अच्छे हो रहे हैं परन्तु आवश्यकता मुख्य धारा की शिक्षा में परिवर्तन होने की है । मुख्य धारा जब भारतीय होगी तब भारत की शिक्षा भारतीय होगी और शिक्षा जब भारतीय होगी तब भारत भी भारत बनेगा।
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मुख्य धारा की शिक्षा में इस प्रकार का परिवर्तन हो इस दृष्टि से देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों ने इस पर चिन्तन करना होगा और बडे बडे देशव्यापी सामाजिकसांस्कृतिक-शैक्षिक संगठनों ने इसे अपनाना होगा । जब यह परिवर्तन देशव्यापी बनता है तभी अर्थपूर्ण भी बनता है। एक और शिक्षण चिन्तन, दूसरी और समाज प्रबोधन और तीसरी ओर प्रत्यक्ष कार्य ऐसे तीनों एक साथ होंगे तभी परिवर्तन होने की सम्भावना बनेगी।  
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5. विद्यार्थी की अपेक्षा शिक्षकों की मानसिकता अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वेतन की अपेक्षा, अध्यापन का अत्यन्त संकुचित अर्थ और दायित्वबोध का अभाव समाज के अन्य घटकों की तरह शिक्षक समुदाय को भी ग्रस रहे हैं। वास्तव में शिक्षकों की भूमिका इसमें केन्द्रवर्ती है। उनका प्रबोधन, प्रशिक्षण और सज्जता बढाने के प्रभावी प्रयास करने होंगे।  
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6. यह कार्य त्वरित गति से तो नहीं होगा । धैर्यपूर्वक और निरन्तरतापूर्वक इस कार्य में लगे रहने की आवश्यकता है। भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु यह करना अनिवार्य है यह निश्चित है।
      
== विद्यालय और पूर्व छात्र ==
 
== विद्यालय और पूर्व छात्र ==
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===== विद्यालय और पूर्व छात्र का सम्धबन्ध =====
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===== विद्यालय और पूर्व छात्र का सम्बन्ध =====
 
विद्यालय से तात्पर्य है प्राथमिक, माध्यमिक या महाविद्यालय ऐसा कोई भी विद्यालय । छात्र जब तक विद्यालय में पढ़ाई करते हैं तब तक तो उनका विद्यालय के साथ सीधा सम्बन्ध रहता है। अब अध्ययन पूर्ण कर जब घर जाते हैं तब आगे के जीवन में उनका विद्यालय के साथ कैसा सम्बन्ध रहेगा ?
 
विद्यालय से तात्पर्य है प्राथमिक, माध्यमिक या महाविद्यालय ऐसा कोई भी विद्यालय । छात्र जब तक विद्यालय में पढ़ाई करते हैं तब तक तो उनका विद्यालय के साथ सीधा सम्बन्ध रहता है। अब अध्ययन पूर्ण कर जब घर जाते हैं तब आगे के जीवन में उनका विद्यालय के साथ कैसा सम्बन्ध रहेगा ?
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ऐसा विविध प्रकार का क्रम रहता हो तो भी एक बात लक्षणीय है कि अध्ययन पूर्ण करने के बाद छात्रों और विद्यालय का व्यवस्थित सम्बन्ध नहीं रहता ।
 
ऐसा विविध प्रकार का क्रम रहता हो तो भी एक बात लक्षणीय है कि अध्ययन पूर्ण करने के बाद छात्रों और विद्यालय का व्यवस्थित सम्बन्ध नहीं रहता ।
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यह सम्बन्ध रहना चाहिए । कैसे रहेगा ? जरा सोचें । अध्ययन पूर्ण करने के बाद छात्र कायदे से तो विद्यालय नहीं जाते यह सत्य है परन्तु छात्रों का जीवन गढ़ने में विद्यालय की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। छात्रों की बुद्धि, मानस, कौशल आदि का गठन विद्यालय के अध्ययन के कारण ही हुआ है । विद्यालय में गया है वह छात्र जो नहीं गया उससे सर्वथा भिन्न होगा। यह भिन्नता विद्यालय के कारण ही है। यह समझ में आया और उसका स्मरण रहा तो छात्र विद्यालय के प्रति कृतज्ञ रहेगा । आज ऐसी कृतज्ञता की भावना नहीं दिखाई देती है यह भी सत्य है । इसका कारण यह है कि लोग मानते हैं कि छात्र शुल्क देता है और शुल्क के बदले में शिक्षक पढ़ाते हैं । यह बहुत यांत्रिक और व्यावसायिक व्यवहार हुआ। ऐसे व्यवहार में भी शुल्क के बदले में तो ज्ञान नहीं ही मिला है। यदि शुल्क के बदले में वस्तु की तरह ज्ञान मिलता तो सभी छात्रों को एक जैसा ही मिलता । यदि पैसे से ही ज्ञान दिया जाता तो सभी शिक्षक एक जैसा ही पढ़ाते । वास्तव में पैसे से ज्ञान लिया और दिया नहीं जाता है यह आज के बाजारीकरण के जमाने में भी समझ में आने वाली बात है । तात्पर्य यह है कि विद्यार्थी का पूरा जीवन विद्यालय ने ही बनाया है। कृतज्ञतापूर्वक विद्यालय के साथ पेश आना हर छात्र के लिए सम्भव बनना चाहिए ।
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यह सम्बन्ध रहना चाहिए । कैसे रहेगा ? जरा सोचें । अध्ययन पूर्ण करने के बाद छात्र कायदे से तो विद्यालय नहीं जाते यह सत्य है परन्तु छात्रों का जीवन गढ़ने में विद्यालय की भूमिका अत्यन्त महत्व पूर्ण है। छात्रों की बुद्धि, मानस, कौशल आदि का गठन विद्यालय के अध्ययन के कारण ही हुआ है । विद्यालय में गया है वह छात्र जो नहीं गया उससे सर्वथा भिन्न होगा। यह भिन्नता विद्यालय के कारण ही है। यह समझ में आया और उसका स्मरण रहा तो छात्र विद्यालय के प्रति कृतज्ञ रहेगा । आज ऐसी कृतज्ञता की भावना नहीं दिखाई देती है यह भी सत्य है । इसका कारण यह है कि लोग मानते हैं कि छात्र शुल्क देता है और शुल्क के बदले में शिक्षक पढ़ाते हैं । यह बहुत यांत्रिक और व्यावसायिक व्यवहार हुआ। ऐसे व्यवहार में भी शुल्क के बदले में तो ज्ञान नहीं ही मिला है। यदि शुल्क के बदले में वस्तु की तरह ज्ञान मिलता तो सभी छात्रों को एक जैसा ही मिलता । यदि पैसे से ही ज्ञान दिया जाता तो सभी शिक्षक एक जैसा ही पढ़ाते । वास्तव में पैसे से ज्ञान लिया और दिया नहीं जाता है यह आज के बाजारीकरण के जमाने में भी समझ में आने वाली बात है । तात्पर्य यह है कि विद्यार्थी का पूरा जीवन विद्यालय ने ही बनाया है। कृतज्ञतापूर्वक विद्यालय के साथ पेश आना हर छात्र के लिए सम्भव बनना चाहिए ।
    
===== विद्यालय के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाना =====
 
===== विद्यालय के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाना =====
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===== विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी साँझी =====
 
===== विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी साँझी =====
बहुत बड़े महत्त्व का विषय यह है कि भारतीय संकल्पना के अनुसार विद्यालय चलाने की ज़िम्मेदारी शिक्षकों और विद्यार्थियों दोनों की है। जिस प्रकार घर घर के लोग मिलकर चलाते हैं उसी प्रकार विद्यालय विद्यालय के लोग मिलकर चलाएंगे यह स्वाभाविक माना जाना चाहिए । विद्यालय चलाने के शैक्षिक और भौतिक ऐसे दो पक्ष होते हैं । विद्यालय में पढ़ना और पढ़ाना होता है। यह एक आयाम है। पढ़ने पढ़ाने की व्यवस्था के लिए स्थान, भवन, फर्नीचर, शैक्षिक सामग्री आदि की आवश्यकता होती है। अर्थात् विद्यालय चलाने के लिए अर्थव्यवस्था भी करनी होती है। ये दोनों कार्य विद्यालय के पूर्व छात्र करेंगे । कुछ बातें इस प्रकार सोची जा सकती हैं
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बहुत बड़े महत्व  का विषय यह है कि भारतीय संकल्पना के अनुसार विद्यालय चलाने की ज़िम्मेदारी शिक्षकों और विद्यार्थियों दोनों की है। जिस प्रकार घर घर के लोग मिलकर चलाते हैं उसी प्रकार विद्यालय विद्यालय के लोग मिलकर चलाएंगे यह स्वाभाविक माना जाना चाहिए । विद्यालय चलाने के शैक्षिक और भौतिक ऐसे दो पक्ष होते हैं । विद्यालय में पढ़ना और पढ़ाना होता है। यह एक आयाम है। पढ़ने पढ़ाने की व्यवस्था के लिए स्थान, भवन, फर्नीचर, शैक्षिक सामग्री आदि की आवश्यकता होती है। अर्थात् विद्यालय चलाने के लिए अर्थव्यवस्था भी करनी होती है। ये दोनों कार्य विद्यालय के पूर्व छात्र करेंगे । कुछ बातें इस प्रकार सोची जा सकती हैं
    
जो विद्यार्थी अध्ययन में तेजस्वी हैं उन्हें विद्यालय में शिक्षक बनना चाहिए। शिक्षक बनकर पैसे कितने मिलते हैं यह स्वतन्त्र विषय है। हो सकता है कि न भी मिले या कम मिले । जिस प्रकार अच्छा वर या अच्छी वधू पाने के लिए गुण और कर्तृत्व देखे जाते हैं, रूप या पैसा नहीं उसी प्रकार ज्ञानदान का पवित्र और श्रेष्ठ कार्य करने का भाग्य मिलता है तो पैसे नहीं देखे जाते । अतः विद्यालय के लिए शिक्षकों की पीढ़ियाँ विद्यालय ही तैयार करेगा और वर्तमान विद्यार्थी ही भावी शिक्षक होंगे। इस दृष्टि से विद्यालय ने विद्यार्थियों का चयन करना होगा और विद्यार्थी तथा उनके अभिभावकों ने इस बात के लिए अपने आपको प्रस्तुत करना होगा। यह कार्य विद्यालय की आवश्यकता और विद्यार्थियों की क्षमता और सिद्धता के अनुसार होगा।  
 
जो विद्यार्थी अध्ययन में तेजस्वी हैं उन्हें विद्यालय में शिक्षक बनना चाहिए। शिक्षक बनकर पैसे कितने मिलते हैं यह स्वतन्त्र विषय है। हो सकता है कि न भी मिले या कम मिले । जिस प्रकार अच्छा वर या अच्छी वधू पाने के लिए गुण और कर्तृत्व देखे जाते हैं, रूप या पैसा नहीं उसी प्रकार ज्ञानदान का पवित्र और श्रेष्ठ कार्य करने का भाग्य मिलता है तो पैसे नहीं देखे जाते । अतः विद्यालय के लिए शिक्षकों की पीढ़ियाँ विद्यालय ही तैयार करेगा और वर्तमान विद्यार्थी ही भावी शिक्षक होंगे। इस दृष्टि से विद्यालय ने विद्यार्थियों का चयन करना होगा और विद्यार्थी तथा उनके अभिभावकों ने इस बात के लिए अपने आपको प्रस्तुत करना होगा। यह कार्य विद्यालय की आवश्यकता और विद्यार्थियों की क्षमता और सिद्धता के अनुसार होगा।  
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रंगमंच कार्यक्रम की आज जो दुर्गति हुई है वह कल्पनातीत है। उसमें अब शैक्षिक पक्ष का विचार लेशमात्र भी नहीं रह गया है।
 
रंगमंच कार्यक्रम की आज जो दुर्गति हुई है वह कल्पनातीत है। उसमें अब शैक्षिक पक्ष का विचार लेशमात्र भी नहीं रह गया है।
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कुछ बातें इस प्रकार समझने योग्य हैं ...
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कुछ बातें इस प्रकार समझने योग्य हैं:
 
* रंगमंच कार्यक्रम को अब मनोरंजन का ही विषय माना जाता है, शैक्षिक या सांस्कृतिक नहीं । ऐसा मानने के बाद भी उसमें कला का आविष्कार नहीं दिखाई देता है । अतिशय निम्न स्तर का मनोरंजन ही उसमें होता है। विद्या के धाम में अभिजात कला और श्रेष्ठ कोटी की रसिकता दिखाई देनी चाहिए उसका कहीं दर्शन नहीं होता है।
 
* रंगमंच कार्यक्रम को अब मनोरंजन का ही विषय माना जाता है, शैक्षिक या सांस्कृतिक नहीं । ऐसा मानने के बाद भी उसमें कला का आविष्कार नहीं दिखाई देता है । अतिशय निम्न स्तर का मनोरंजन ही उसमें होता है। विद्या के धाम में अभिजात कला और श्रेष्ठ कोटी की रसिकता दिखाई देनी चाहिए उसका कहीं दर्शन नहीं होता है।
 
* अधिकतर फिल्म ही रंगमंच कार्यक्रमों का आदर्श होता है। फिल्मी गीतों की सीडी के साथ भोंडा नाच करना उसका मुख्य अंग होता है।  
 
* अधिकतर फिल्म ही रंगमंच कार्यक्रमों का आदर्श होता है। फिल्मी गीतों की सीडी के साथ भोंडा नाच करना उसका मुख्य अंग होता है।  
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* वास्तव में रंगमंच कार्यक्रम शिक्षाक्रम से स्वतंत्र विषय नहीं है। वह अध्ययन का एक अंग है और उसका नियोजन उसी प्रकार होना चाहिए।  
 
* वास्तव में रंगमंच कार्यक्रम शिक्षाक्रम से स्वतंत्र विषय नहीं है। वह अध्ययन का एक अंग है और उसका नियोजन उसी प्रकार होना चाहिए।  
 
* रंगमंच कार्यक्रम कक्षाकक्ष की शिक्षा का ही विस्तार है । वह मौखिक और कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए अवसर देता है।  
 
* रंगमंच कार्यक्रम कक्षाकक्ष की शिक्षा का ही विस्तार है । वह मौखिक और कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए अवसर देता है।  
* उदाहरण के लिए विद्यालय में भाषा के विषय में कविता, नाटक या कहानी सीखी जाती है। नाटक केवल पढ़ने के लिए नहीं होता है, वह अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है । अत: कक्षाकक्ष में ही उसे प्रस्तुत करना उसे पढ़ने पढ़ाने की उत्तम विधि है। पहले विद्यार्थी नाटक देखें और बाद में प्रस्तुत करें यह क्रम होना चाहिए । ऐसी प्रस्तुति के समय साजसज्जा, प्रसाधन, वेषभूषा आदि का कोई महत्त्व नहीं है । अभिनय, संवाद बोलने का कौशल, वाणी का प्रभुत्व, आवाज का नियमन, अंगविन्यास, लिखित विषय को वाणी तथा अभिनय में परिवर्तित करने का कौशल आदि शैक्षिक विषय हैं। इनकी ओर ध्यान दिया जाय तभी वह शिक्षाक्रम का अंग बनता है अन्यथा केवल मनोरंजन है। केवल मनोरंजन के लिए विद्यालय में कोई अवकाश नहीं, वह घर में और घर के बाहर भी बहुत है।  
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* उदाहरण के लिए विद्यालय में भाषा के विषय में कविता, नाटक या कहानी सीखी जाती है। नाटक केवल पढ़ने के लिए नहीं होता है, वह अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है । अत: कक्षाकक्ष में ही उसे प्रस्तुत करना उसे पढ़ने पढ़ाने की उत्तम विधि है। पहले विद्यार्थी नाटक देखें और बाद में प्रस्तुत करें यह क्रम होना चाहिए । ऐसी प्रस्तुति के समय साजसज्जा, प्रसाधन, वेषभूषा आदि का कोई महत्व  नहीं है । अभिनय, संवाद बोलने का कौशल, वाणी का प्रभुत्व, आवाज का नियमन, अंगविन्यास, लिखित विषय को वाणी तथा अभिनय में परिवर्तित करने का कौशल आदि शैक्षिक विषय हैं। इनकी ओर ध्यान दिया जाय तभी वह शिक्षाक्रम का अंग बनता है अन्यथा केवल मनोरंजन है। केवल मनोरंजन के लिए विद्यालय में कोई अवकाश नहीं, वह घर में और घर के बाहर भी बहुत है।  
 
* साजसज्जा, वेषभूषा आदि नहीं होने से प्रेक्षक के रूप में भी कल्पनाशक्ति का विकास होता है। अभिनय देखकर ही चरित्र समझने की क्षमता बढ़ती है। पात्र के साथ तादात्म्य निर्माण होता है । कलाकृति का रसानुभव करना और उससे प्रेरणा प्राप्त करना तभी सम्भव है। हम सुनते हैं कि महात्मा गांधी ने राजा हरिश्चंद्र का नाटक देखा और उससे प्रेरणा प्राप्त कर जीवन में सत्य ही बोलने का व्रत लिया । आज छोटे छोटे बच्चे भी फिल्म में जो देखते हैं वह झूठ है ऐसा समझते हैं । उन्हें नट और नटियाँ दिखती हैं, उनके चरित्र नहीं । वे चरित्रों के नाम नहीं बोलते, नातों के ही नाम बोलते हैं। प्रेरणा लेते हैं तो उनके शृंगार और वेषभूषा तथा केशभूषा की क्योंकि कला अब अभिनय में नहीं अपितु साजसज्जा और शृंगार के ऊपरी सतह पर आ गई है।  
 
* साजसज्जा, वेषभूषा आदि नहीं होने से प्रेक्षक के रूप में भी कल्पनाशक्ति का विकास होता है। अभिनय देखकर ही चरित्र समझने की क्षमता बढ़ती है। पात्र के साथ तादात्म्य निर्माण होता है । कलाकृति का रसानुभव करना और उससे प्रेरणा प्राप्त करना तभी सम्भव है। हम सुनते हैं कि महात्मा गांधी ने राजा हरिश्चंद्र का नाटक देखा और उससे प्रेरणा प्राप्त कर जीवन में सत्य ही बोलने का व्रत लिया । आज छोटे छोटे बच्चे भी फिल्म में जो देखते हैं वह झूठ है ऐसा समझते हैं । उन्हें नट और नटियाँ दिखती हैं, उनके चरित्र नहीं । वे चरित्रों के नाम नहीं बोलते, नातों के ही नाम बोलते हैं। प्रेरणा लेते हैं तो उनके शृंगार और वेषभूषा तथा केशभूषा की क्योंकि कला अब अभिनय में नहीं अपितु साजसज्जा और शृंगार के ऊपरी सतह पर आ गई है।  
 
* इस छिछलेपन तथा कला के आभासी स्तर को सही करने का स्थान विद्यालय का कक्षाकक्ष है जहां कला का आस्वाद और कला की प्रस्तुति की सही समझ दी जाती है।  
 
* इस छिछलेपन तथा कला के आभासी स्तर को सही करने का स्थान विद्यालय का कक्षाकक्ष है जहां कला का आस्वाद और कला की प्रस्तुति की सही समझ दी जाती है।  
 
* कला का क्षेत्र आज बहुत बड़ी मात्रा में अक्रिय मनोरंजन का क्षेत्र बन गया है । लोग संगीत सुनते हैं, स्वयं गाते नहीं, नाटक या नृत्य देखते हैं, स्वयं करते नहीं, खेल भी देखते हैं, खेलते नहीं। बहुत ही अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों ओर दिखाई दे रही है इसलिए आनन्द कला का नहीं कला से मिलने वाले पैसे का रह गया है। यह सांस्कृतिक अवनति है।  
 
* कला का क्षेत्र आज बहुत बड़ी मात्रा में अक्रिय मनोरंजन का क्षेत्र बन गया है । लोग संगीत सुनते हैं, स्वयं गाते नहीं, नाटक या नृत्य देखते हैं, स्वयं करते नहीं, खेल भी देखते हैं, खेलते नहीं। बहुत ही अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों ओर दिखाई दे रही है इसलिए आनन्द कला का नहीं कला से मिलने वाले पैसे का रह गया है। यह सांस्कृतिक अवनति है।  
* आजकल अक्रिय मनोरंजन के प्रचलन के परिणामस्वरूप एक ओर तो निष्क्रियता बढ़ी है, दूसरी ओर जब भी विद्यार्थी नाचते गाते हैं तब उसमें किसी भी प्रकार का सौंदर्य नहीं होता। संगीत, नृत्य या अभिनय का उसमें दर्शन नहीं होता । एक प्रकार का भोंडापन ही दिखाई देता है । या तो उसमें परा कोटी का व्यावसायीकरण होता है। उसमें फिर सब लोग सहभागी नहीं हो सकते । हमारे लोकउत्सवों में छोटे बड़े सबकी, सामान्य से लेकर महाजनों की सहभागिता का बहुत महत्त्व रहा है। जिस प्रकार सार्वजनिक उत्सवों में लोकसहभागिता का महत्त्व है उसी प्रकार विद्यालय में शैक्षिक दृष्टि से सभी विद्यार्थियों की सहभागिता का महत्त्व है । जिस प्रकार भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास सबको आने चाहिए उसी प्रकार गाना, नाचना, खेलना, अभिनय करना भी सबको आना चाहिए । इस दृष्टि से कक्षाकक्ष ही रंगमंच है, प्रार्थनासभा ही विशेष प्रस्तुति के लिए मंच है, भाषाशुद्धि, स्वरशुद्धि, जिसका अभिनय कर रहे हैं उस चरित्र के साथ का तादात्म्य, भाषाकीय अभिव्यक्ति, अंगविन्यास आदि मूल्यांकन के मापदण्ड हैं, शिक्षक ही मूल्यांकन करने वाले और सिखाने वाले भी हैं।
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* आजकल अक्रिय मनोरंजन के प्रचलन के परिणामस्वरूप एक ओर तो निष्क्रियता बढ़ी है, दूसरी ओर जब भी विद्यार्थी नाचते गाते हैं तब उसमें किसी भी प्रकार का सौंदर्य नहीं होता। संगीत, नृत्य या अभिनय का उसमें दर्शन नहीं होता । एक प्रकार का भोंडापन ही दिखाई देता है । या तो उसमें परा कोटी का व्यावसायीकरण होता है। उसमें फिर सब लोग सहभागी नहीं हो सकते। हमारे लोकउत्सवों में छोटे बड़े सबकी, सामान्य से लेकर महाजनों की सहभागिता का बहुत महत्व  रहा है। जिस प्रकार सार्वजनिक उत्सवों में लोकसहभागिता का महत्व  है उसी प्रकार विद्यालय में शैक्षिक दृष्टि से सभी विद्यार्थियों की सहभागिता का महत्व  है । जिस प्रकार भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास सबको आने चाहिए उसी प्रकार गाना, नाचना, खेलना, अभिनय करना भी सबको आना चाहिए । इस दृष्टि से कक्षाकक्ष ही रंगमंच है, प्रार्थनासभा ही विशेष प्रस्तुति के लिए मंच है, भाषाशुद्धि, स्वरशुद्धि, जिसका अभिनय कर रहे हैं उस चरित्र के साथ का तादात्म्य, भाषाकीय अभिव्यक्ति, अंगविन्यास आदि मूल्यांकन के मापदण्ड हैं, शिक्षक ही मूल्यांकन करने वाले और सिखाने वाले भी हैं।
* महाविद्यालयों के रंगमंच कार्यक्रमों में राष्ट्रीय समस्याओं के सन्दर्भ में प्रबोधन और शिक्षाक्षेत्र के माध्यम से क्या हल हो सकता है उसका विचार भी प्रस्तुत होना चाहिए । उदाहरण के लिए देश की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण और उपाय, देश के गौरव का स्मरण और जागरण,सांस्कृतिक श्रेष्ठता के जतन का आग्रह, विश्व में भारत की भूमिका आदि महत्त्वपूर्ण विषयों का समावेश रंगमंच कार्यक्रमों में होना चाहिए । संक्षेप में रंगमंच कार्यक्रम शिशु से लेकर बड़ी कक्षाओं तक शिक्षाप्रक्रिया का ही नियमित और अंगभूत हिस्सा बनना चाहिए, अलग से कोई विशेष कार्यक्रम नहीं । यह पैसे का और मनोरंजन का विषय नहीं है, क्रियात्मक, भावात्मक, कलात्मक, व्यावहारिक शैक्षिक विषय है।
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* महाविद्यालयों के रंगमंच कार्यक्रमों में राष्ट्रीय समस्याओं के सन्दर्भ में प्रबोधन और शिक्षाक्षेत्र के माध्यम से क्या हल हो सकता है उसका विचार भी प्रस्तुत होना चाहिए । उदाहरण के लिए देश की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण और उपाय, देश के गौरव का स्मरण और जागरण,सांस्कृतिक श्रेष्ठता के जतन का आग्रह, विश्व में भारत की भूमिका आदि महत्व पूर्ण विषयों का समावेश रंगमंच कार्यक्रमों में होना चाहिए । संक्षेप में रंगमंच कार्यक्रम शिशु से लेकर बड़ी कक्षाओं तक शिक्षाप्रक्रिया का ही नियमित और अंगभूत हिस्सा बनना चाहिए, अलग से कोई विशेष कार्यक्रम नहीं । यह पैसे का और मनोरंजन का विषय नहीं है, क्रियात्मक, भावात्मक, कलात्मक, व्यावहारिक शैक्षिक विषय है।
    
== विद्यालय सामाजिक चेतना का केंद्र ==
 
== विद्यालय सामाजिक चेतना का केंद्र ==
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समाज मनुष्यों का समूह है। परन्तु समूह तो प्राणियों का भी होता है। कई प्राणी कभी भी अकेले नहीं रहते, छोटे बडे समूह में ही रहते हैं और घूमते हैं। उनके समूह को समाज नहीं कहते । जो मनुष्य प्राणियों की तरह केवल आहार, निद्रा, मैथुन और भय से प्रेरित होकर उन वृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये ही जीते हैं उनके समूह को भी समाज नहीं कहते । जो मनुष्य संस्कारयुक्त हैं, किसी उदात्त लक्ष्य के लिये जीते हैं, उदार अन्तःकरण से युक्त हैं ऐसे मनुष्यों के समूह को समाज कहते हैं।  
 
समाज मनुष्यों का समूह है। परन्तु समूह तो प्राणियों का भी होता है। कई प्राणी कभी भी अकेले नहीं रहते, छोटे बडे समूह में ही रहते हैं और घूमते हैं। उनके समूह को समाज नहीं कहते । जो मनुष्य प्राणियों की तरह केवल आहार, निद्रा, मैथुन और भय से प्रेरित होकर उन वृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये ही जीते हैं उनके समूह को भी समाज नहीं कहते । जो मनुष्य संस्कारयुक्त हैं, किसी उदात्त लक्ष्य के लिये जीते हैं, उदार अन्तःकरण से युक्त हैं ऐसे मनुष्यों के समूह को समाज कहते हैं।  
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उदार अन्तःकरण से युक्त लोगों की एक जीवनशैली होती है, एक रीति होती है । इस रीति को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का प्रेरक तत्त्व धर्म होता है। वर्तमान परिस्थिति में धर्म संज्ञा के सम्बन्ध में हमें बार बार खुलासा करना पडता है। धर्म संज्ञा सम्प्रदाय, पंथ, मत, मजहब, रिलिजन आदि में सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है। धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जो विश्वनियमों से बनी है और सृष्टि को धारण करती है अर्थात् नष्ट नहीं होने देती । धर्म मनुष्य समाज के लिये भी ऐसी ही व्यवस्था देता है जो उसे नष्ट होने से बचाती है। संस्कृति धर्म की ही व्यवहार प्रणाली है।
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उदार अन्तःकरण से युक्त लोगों की एक जीवनशैली होती है, एक रीति होती है । इस रीति को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का प्रेरक तत्व धर्म होता है। वर्तमान परिस्थिति में धर्म संज्ञा के सम्बन्ध में हमें बार बार खुलासा करना पडता है। धर्म संज्ञा सम्प्रदाय, पंथ, मत, मजहब, रिलिजन आदि में सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है। धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जो विश्वनियमों से बनी है और सृष्टि को धारण करती है अर्थात् नष्ट नहीं होने देती । धर्म मनुष्य समाज के लिये भी ऐसी ही व्यवस्था देता है जो उसे नष्ट होने से बचाती है। संस्कृति धर्म की ही व्यवहार प्रणाली है।
    
अर्थात् जो धर्म के अनुसार अपनी जीवन रचना करते हैं ऐसे मनुष्यों का समूह समाज कहा जाता है ।  
 
अर्थात् जो धर्म के अनुसार अपनी जीवन रचना करते हैं ऐसे मनुष्यों का समूह समाज कहा जाता है ।  
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===== शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है =====
 
===== शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है =====
संस्कृति को एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित करते हुए नित्य प्रवाहित रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य शिक्षा करती है । वह घर में मातापिता द्वारा सन्तानों को, विद्यालय में शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को और समाज में धर्माचार्यो द्वारा लोगों को हस्तान्तरित की जाती है ।
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संस्कृति को एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित करते हुए नित्य प्रवाहित रखने का महत्व पूर्ण कार्य शिक्षा करती है । वह घर में मातापिता द्वारा सन्तानों को, विद्यालय में शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को और समाज में धर्माचार्यो द्वारा लोगों को हस्तान्तरित की जाती है ।
    
घर में भावात्मक, विद्यालय में ज्ञानात्मक और धर्माचार्य द्वारा प्रबोधनात्मक पद्धति से शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है। भावात्मक शिक्षा के आधार पर ज्ञानात्मक शिक्षा होती है। विद्यालय में जो ज्ञान प्राप्त किया उसे जीवनभर व्यवहार में प्रकट करना है। उस समय निरन्तर प्रबोधन करने का काम विद्वान धर्माचार्य करते हैं।
 
घर में भावात्मक, विद्यालय में ज्ञानात्मक और धर्माचार्य द्वारा प्रबोधनात्मक पद्धति से शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है। भावात्मक शिक्षा के आधार पर ज्ञानात्मक शिक्षा होती है। विद्यालय में जो ज्ञान प्राप्त किया उसे जीवनभर व्यवहार में प्रकट करना है। उस समय निरन्तर प्रबोधन करने का काम विद्वान धर्माचार्य करते हैं।
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इस व्यवस्था में विद्यालय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में जो शिक्षा दी जाती है उससे समाज की स्थिति बनती है। विद्यालय में यदि अच्छी शिक्षा मिलती है तो समाज अच्छा बनता है, विद्यालय में अच्छी शिक्षा नहीं मिलती है तो समाज अच्छा नहीं बनता है। समाज ही विद्यालय की शिक्षा का निकष है। अतः शिक्षा विद्यार्थी के माध्यम से सम्पूर्ण समाज को लक्ष्य बनाकर दी जानी चाहिये ।
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इस व्यवस्था में विद्यालय की भूमिका महत्व पूर्ण है । विद्यालय में जो शिक्षा दी जाती है उससे समाज की स्थिति बनती है। विद्यालय में यदि अच्छी शिक्षा मिलती है तो समाज अच्छा बनता है, विद्यालय में अच्छी शिक्षा नहीं मिलती है तो समाज अच्छा नहीं बनता है। समाज ही विद्यालय की शिक्षा का निकष है। अतः शिक्षा विद्यार्थी के माध्यम से सम्पूर्ण समाज को लक्ष्य बनाकर दी जानी चाहिये ।
    
===== विद्यालय की भूमिका =====
 
===== विद्यालय की भूमिका =====
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* होली, नवरात्रि, गणेश चर्थी आदि भारत के देशव्यापी सांस्कृतिक पर्व हैं। इनका आयोजन धार्मिक, सांस्कृतिक पद्धति से होना चाहिये । परन्तु वर्तमान में इसका बाजारीकरण, भौतिकीकरण और फिल्मीकरण हो गया है। ये सात्त्विक आनन्दप्रमोद के, उपासना के, राष्ट्र भावना जगाने के, समाज को संगठित करने के पर्व नहीं रह गये हैं। इन्हें यदि शुद्ध करना है तो कानून, पुलीस, बाजार, प्रशासन की क्षमता नहीं है। विद्यालय को ही अपने विद्यार्थियों की शिक्षा और उनके परिवारों के प्रबोधन के माध्यम से यह कार्य करना होगा। विद्यालय का यह कानूनी नहीं, स्वाभाविक कर्तव्य है।
 
* होली, नवरात्रि, गणेश चर्थी आदि भारत के देशव्यापी सांस्कृतिक पर्व हैं। इनका आयोजन धार्मिक, सांस्कृतिक पद्धति से होना चाहिये । परन्तु वर्तमान में इसका बाजारीकरण, भौतिकीकरण और फिल्मीकरण हो गया है। ये सात्त्विक आनन्दप्रमोद के, उपासना के, राष्ट्र भावना जगाने के, समाज को संगठित करने के पर्व नहीं रह गये हैं। इन्हें यदि शुद्ध करना है तो कानून, पुलीस, बाजार, प्रशासन की क्षमता नहीं है। विद्यालय को ही अपने विद्यार्थियों की शिक्षा और उनके परिवारों के प्रबोधन के माध्यम से यह कार्य करना होगा। विद्यालय का यह कानूनी नहीं, स्वाभाविक कर्तव्य है।
 
* चुनावों में लेनदेन होता है, सांसद उद्योजकों के साथ हाथ मिलाकर प्रजाविरोधी और देशविरोधी काम करते हैं तो विद्यालय के शिक्षकों और विद्यार्थियों को इन्हें ठीक करने का काम करना चाहिये ।
 
* चुनावों में लेनदेन होता है, सांसद उद्योजकों के साथ हाथ मिलाकर प्रजाविरोधी और देशविरोधी काम करते हैं तो विद्यालय के शिक्षकों और विद्यार्थियों को इन्हें ठीक करने का काम करना चाहिये ।
* परिवारो में जन्मदिन, विवाह, भोजनपद्धति यदि संस्कार हीन अथवा विदेशी हो गई है तो विद्यालय को ही इसे ठीक करना चाहिये ।
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* परिवारो में जन्मदिन, विवाह, भोजनपद्धति यदि संस्कार हीन अथवा विदेशी हो गई है तो विद्यालय को ही इसे ठीक करना चाहिये।
 
* छात्रों की अध्ययन पद्धति को समुचित रखना भी विद्यालय का ही काम है।
 
* छात्रों की अध्ययन पद्धति को समुचित रखना भी विद्यालय का ही काम है।
 
* प्राकृतिक या मानवनिर्मित आपत्तियों में सेवा कार्यों में जुटना, उनके लिये अर्थसंग्रह करना, विभिन्न प्रकार के अभियान चलाना विद्यालय का काम है। उदाहरण के लिये स्वदेशी जागरण अभियान, नवरात्रि सांस्कृतिकीकरण अभियान, सामाजिक समरसता अभियान आदि।
 
* प्राकृतिक या मानवनिर्मित आपत्तियों में सेवा कार्यों में जुटना, उनके लिये अर्थसंग्रह करना, विभिन्न प्रकार के अभियान चलाना विद्यालय का काम है। उदाहरण के लिये स्वदेशी जागरण अभियान, नवरात्रि सांस्कृतिकीकरण अभियान, सामाजिक समरसता अभियान आदि।
 
* वर्तमान में चले गाँव की ओर', भारत का ग्रामीणीकरण, गोरक्षा आन्दोलन, स्वतन्त्र उद्योगकरो, नौकरी छोडो, प्रबोधन कार्यक्रम ‘हाथ कुशल कारीगर' अभियान चलाने की आवश्यकता है।  
 
* वर्तमान में चले गाँव की ओर', भारत का ग्रामीणीकरण, गोरक्षा आन्दोलन, स्वतन्त्र उद्योगकरो, नौकरी छोडो, प्रबोधन कार्यक्रम ‘हाथ कुशल कारीगर' अभियान चलाने की आवश्यकता है।  
* 'भारतीयों, भारत में रहो, भारतीय बनो' भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय है। वैसा ही महत्त्वपूर्ण विषय ‘परिवार प्रथम पाठशाला' है।
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* 'भारतीयों, भारत में रहो, भारतीय बनो' भी अत्यन्त महत्व पूर्ण विषय है। वैसा ही महत्व पूर्ण विषय ‘परिवार प्रथम पाठशाला' है।
 
* शिक्षा के क्षेत्र में ‘पाँच वर्ष से पहले विद्यालय नहीं' का विषय लेकर समाजप्रबोधन करने की आवश्यकता है।
 
* शिक्षा के क्षेत्र में ‘पाँच वर्ष से पहले विद्यालय नहीं' का विषय लेकर समाजप्रबोधन करने की आवश्यकता है।
इस प्रकार संस्कृति, धर्म और । 3 ज्ञान के क्षेत्र में रक्षण, संवर्धन और शोधन का कार्य कर विद्यालय समाज को सुस्थिति में रखता है।
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इस प्रकार संस्कृति, धर्म और ज्ञान के क्षेत्र में रक्षण, संवर्धन और शोधन का कार्य कर विद्यालय समाज को सुस्थिति में रखता है।विद्यालय का अर्थ है शिक्षक और विद्यार्थी । शिक्षकों के निर्देशन में शिक्षा और समाज का प्रबोधन दोनों काम साथ साथ चलते हैं । यह सब होता है इसलिये विद्यालयों को ‘सामाजिक चेतना के केन्द्र' कहा जाता है ।
 
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विद्यालय का अर्थ है शिक्षक और विद्यार्थी । शिक्षकों के निर्देशन में शिक्षा और समाज का प्रबोधन दोनों काम साथ साथ चलते हैं ।
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यह सब होता है इसलिये विद्यालयों को ‘सामाजिक चेतना के केन्द्र' कहा जाता है ।
      
== पूरे दिन का विद्यालय ==
 
== पूरे दिन का विद्यालय ==
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===== कैसे विचार करना चाहिए =====
 
===== कैसे विचार करना चाहिए =====
 
आठ नौ या दस घण्टे के विद्यालय भी कुछ मात्रा में चलते हैं । यद्यपि इनकी संख्या कम ही है। इन विद्यालयों के बारे में कैसे विचार करना चाहिये ?  
 
आठ नौ या दस घण्टे के विद्यालय भी कुछ मात्रा में चलते हैं । यद्यपि इनकी संख्या कम ही है। इन विद्यालयों के बारे में कैसे विचार करना चाहिये ?  
 
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# इन विद्यालयों में दो समय का अल्पाहार, एक समय का भोजन और भोजन के बाद की विश्रान्ति की व्यवस्था होती है। इन बातों को यदि शिक्षा के अंग के रूप में स्वीकार किया जाय तो आहारशास्त्र की ज्ञानात्मक, भावनात्मक और क्रियात्मक शिक्षा बहुत अच्छे से हो सकती है । ज्ञानात्मक शिक्षा से तात्पर्य है, विद्यार्थियों को आहारविषयक शास्त्रीय अर्थात् वैज्ञानिक ज्ञान देना, भावनात्मक शिक्षा से तात्पर्य है विद्यार्थियों को आहारविषयक सांस्कृतिक ज्ञान देना और क्रियात्मक शिक्षा से तात्पर्य है विद्यार्थियों को भोजन बनाने और करने का कौशल सिखाना । आज समाज में आहार के विषय में घोर अज्ञान और विपरीत ज्ञान फैल गया है। विद्यालय में यदि इस प्रकार की शिक्षा दी जाती है तो उनके माध्यम से घरों में भी पहुँच सकती है। समाज के स्वास्थ्य और संस्कार में वृद्धि हो सकती है।  
1. इन विद्यालयों में दो समय का अल्पाहार, एक समय का भोजन और भोजन के बाद की विश्रान्ति की व्यवस्था होती है। इन बातों को यदि शिक्षा के अंग के रूप में स्वीकार किया जाय तो आहारशास्त्र की ज्ञानात्मक, भावनात्मक और क्रियात्मक शिक्षा बहुत अच्छे से हो सकती है । ज्ञानात्मक शिक्षा से तात्पर्य है, विद्यार्थियों को आहारविषयक शास्त्रीय अर्थात् वैज्ञानिक ज्ञान देना, भावनात्मक शिक्षा से तात्पर्य है विद्यार्थियों को आहारविषयक सांस्कृतिक ज्ञान देना और क्रियात्मक शिक्षा से तात्पर्य है विद्यार्थियों को भोजन बनाने और करने का कौशल सिखाना । आज समाज में आहार के विषय में घोर अज्ञान और विपरीत ज्ञान फैल गया है। विद्यालय में यदि इस प्रकार की शिक्षा दी जाती है तो उनके माध्यम से घरों में भी पहुँच सकती है। समाज के स्वास्थ्य और संस्कार में वृद्धि हो सकती है।  
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# परन्तु जो लोग कमाई करने के लिये ही विद्यालय चलाते हैं उन्हें भोजनादि की व्यवस्था में अधिक कमाई दिखाई देती है और वे खुश होते हैं। ऐसे विद्यालयों में अभिभावक और संचालकों में होटेल और होटेल में खाने के लिये जानेवालों का परस्पर जो व्यवहार होता है वैसा ही व्यवहार होता है। ऐसे विद्यालयों में आहारविषयक शिक्षा नहीं होती।  
 
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# कई बार अधिक समय तक विद्यालय चलाने के पीछे शैक्षिक विचार होता है। विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा दी जा सके, व्यक्तिगत मार्गदर्शन दिया जा सके यह उद्देश्य होता है। अधिक समय विद्यालय में रखना है तो भोजन आदि की व्यवस्था करनी ही होगी ऐसा विचार कर विद्यालय के संचालक ऐसी व्यवस्था करते हैं । यह केवल सुविधा की दृष्टि से होता है । इसमें शैक्षिक या आर्थिक दृष्टि नहीं होती ।  
2. परन्तु जो लोग कमाई करने के लिये ही विद्यालय चलाते हैं उन्हें भोजनादि की व्यवस्था में अधिक कमाई दिखाई देती है और वे खुश होते हैं। ऐसे विद्यालयों में अभिभावक और संचालकों में होटेल और होटेल में खाने के लिये जानेवालों का परस्पर जो व्यवहार होता है वैसा ही व्यवहार होता है। ऐसे विद्यालयों में आहारविषयक शिक्षा नहीं होती।  
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# क्वचित पूरे दिन के विद्यालय में विद्यार्थी अपना भोजन घर से ही लेकर आते हैं, विद्यालय की ओर से व्यवस्था नहीं की जाती । अभिभावकों का पैसा बचता है और विद्यालय झंझट से बचते हैं।  
 
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# पूरे दिन का विद्यालय अभिभावकों के लिये सुविधाजनक रहता है। विशेष रूप से महानगरों में जहाँ पतिपत्नी दोनों काम के लिये बाहर जाते हैं और बच्चों को देखनेवाला घर में और कोई नहीं होता तब इस व्यवस्था में बहुत सुविधा रहती है। यह केवल छोटे बच्चों की ही बात नहीं है, किशोर या तरुण आयु के बच्चों के लिये भी घर में अकेले रहना इष्ट नहीं लगता । इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालय आशीर्वादरूप होते हैं। महानगरों या नगरों में जहाँ विद्यालय घर से पर्याप्त दूरी पर होते हैं वहाँ भी यह व्यवस्था बहुत सुविधाजनक होती है।  
3. कई बार अधिक समय तक विद्यालय चलाने के पीछे शैक्षिक विचार होता है। विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा दी जा सके, व्यक्तिगत मार्गदर्शन दिया जा सके यह उद्देश्य होता है। अधिक समय विद्यालय में रखना है तो भोजन आदि की व्यवस्था करनी ही होगी ऐसा विचार कर विद्यालय के संचालक ऐसी व्यवस्था करते हैं । यह केवल सुविधा की दृष्टि से होता है । इसमें शैक्षिक या आर्थिक दृष्टि नहीं होती ।  
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# पूरे दिन के विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिये अतिरिक्त ट्यूशन या कोचिंग क्लास की आवश्यकता नहीं होती। होनी भी नहीं चाहिये । यदि पूरे दिन का विद्यालय भी शिक्षक, विद्यार्थी या अभिभावकों को अपर्याप्त लगता है तो मानना चाहिये कि कहीं कुछ गडबड है। अतः समय का पूर्ण उपयोग करना चाहिये।  
 
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# पूरे दिन के विद्यालय में या तो शिक्षकों की संख्या अधिक होती है अथवा उनका वेतन अधिक होता है। अधिकांश शिक्षक अधिक काम और अधिक वेतन चाहते हैं परन्तु वास्तव में अधिक शिक्षक होना शैक्षिक दृष्टि से अधिक उचित है। ऐसा होने से शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम हो जाता है, साथ ही शिक्षकों को शारीरिक और मानसिक थकान कम होती है। शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम होने से अध्ययन-अध्यापन की गुणवत्ता बढती है । यदि शिक्षक अधिक समय तक काम करते हैं तो उन्हें स्वाध्याय करने के लिये समय नहीं मिलता और शक्ति भी नहीं बचती।।  
4. क्वचित पूरे दिन के विद्यालय में विद्यार्थी अपना भोजन घर से ही लेकर आते हैं, विद्यालय की ओर से व्यवस्था नहीं की जाती । अभिभावकों का पैसा बचता है और विद्यालय झंझट से बचते हैं।  
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# पूरे दिन के विद्यालयों में सप्ताह में दो दिन का अवकाश होता है तो अधिक सुविधा रहती है। विद्यार्थियों और शिक्षकों में सामाजिकता का विकास हो इस दृष्टि से इस समय का उपयोग किया जाना चाहिये । विद्यार्थियों और शिक्षकों में सामाजिकता का विकास हो इस दृष्टि से शिक्षा भी दी जानी चाहिये । आज ऐसा दिखाई देता है कि पढाई जिनके पीछे लग गई है ऐसे विद्यार्थी सामाजिक व्यवहार में शून्य होते हैं । काम में अति व्यस्त शिक्षक सामाजिक व्यवहार में समय ही नहीं दे पाते । दोनों को यदि सामाजिकता की शिक्षा नहीं दी गई तो अवकाश का समय टीवी या अन्य व्यक्तिगत रुचि के काम या मनोरंजन में ही बीत जाता है । ऐसा न हो इसका ध्यान रखना चाहिये । परन्तु दो दिन का अवकाश है इसलिये विद्यालय का ही काम गृहकार्य के रूप में करने के लिये नहीं देना चाहिये, नहीं तो अन्य किसी भी प्रकार के कामों के लिये समय ही नहीं रहेगा।  
 
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# पूरे दिन के विद्यालय की व्यवस्था ऐसी तो नहीं होनी चाहिये कि विद्यार्थियों को बाद में खेलने का समय ही न रहे । या तो विद्यालय में खेलने की व्यवस्था हो या खेलने का ही गृहकार्य दिया जाय । घर में खेलने की व्यवस्था होना आवश्यक है। यदि घर में ऐसी व्यवस्था नहीं है तो विद्यालय में खेलना चाहिये ।  
5. पूरे दिन का विद्यालय अभिभावकों के लिये सुविधाजनक रहता है। विशेष रूप से महानगरों में जहाँ पतिपत्नी दोनों काम के लिये बाहर जाते हैं और बच्चों को देखनेवाला घर में और कोई नहीं होता तब इस व्यवस्था में बहुत सुविधा रहती है। यह केवल छोटे बच्चों की ही बात नहीं है, किशोर या तरुण आयु के बच्चों के लिये भी घर में अकेले रहना इष्ट नहीं लगता । इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालय आशीर्वादरूप होते हैं। महानगरों या नगरों में जहाँ विद्यालय घर से पर्याप्त दूरी पर होते हैं वहाँ भी यह व्यवस्था बहुत सुविधाजनक होती है।  
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# पूरे दिन के विद्यालय में बस्ता विद्यालय में ही रखकर जाने की व्यवस्था होना स्वाभाविक है। इससे विद्यार्थियों को बस्ते का बोझ उठाना नहीं पडता ।  
 
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# दस वर्ष की आयु तक पूरे दिन का विद्यालय होने की कोई आवश्यकता नहीं । पन्द्रह वर्ष के बाद भी ऐसी आवश्यकता नहीं। यह ग्यारह से पन्द्रह ऐसे पाँच वर्षों के लिये ही सबसे अधिक लाभदायी व्यवस्था हो सकती है । इस दौरान विद्यार्थी यदि साइकिल लेकर ही विद्यालय जाते हैं तो हर दृष्टि से अच्छा रहेगा।  
6. पूरे दिन के विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिये अतिरिक्त ट्यूशन या कोचिंग क्लास की आवश्यकता नहीं होती। होनी भी नहीं चाहिये । यदि पूरे दिन का विद्यालय भी शिक्षक, विद्यार्थी या अभिभावकों को अपर्याप्त लगता है तो मानना चाहिये कि कहीं कुछ गडबड है। अतः समय का पूर्ण उपयोग करना चाहिये।
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# पूरे दिन के विद्यालय में समयसारिणी और पाठन पद्धति में विशेष प्रयोग करने की सुविधा रहती है । इसका पूरा लाभ उठाना चाहिये । क्रियात्मक पद्धति से अध्ययन करने के अवसर विद्यार्थियों को मिलने चाहिये । ग्रन्थालय, विज्ञान प्रयोगशाला और उद्योगशाला में क्रियात्मक अध्ययन करने के अवसर मिलने चाहिये ।  
 
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# पूरे दिन के विद्यालय में जीवन व्यवहार की शिक्षा देने की व्यवस्था भी हो सकती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि विद्यार्थियों को पढाई के बोझ से ही लाद दिया जाय । वास्तव में पूरे दिन के विद्यालय में सामान्य विद्यालय से दो घण्टे ही अधिक मिलते हैं । अतः अनेक प्रकार की और अत्यधिक अपेक्षयें  नहीं करनी चाहिये । वैसे तो विद्यालय और घर दोनों स्थानों पर जो पढाई होती है वह इस व्यवस्था में एक ही स्थान पर होती है इतना ही अन्तर मानना चाहिये । केवल यहाँ सब कुछ शिक्षकों के मार्गदर्शन में होता है यह विशेष है ।  
7. पूरे दिन के विद्यालय में या तो शिक्षकों की संख्या अधिक होती है अथवा उनका वेतन अधिक होता है। अधिकांश शिक्षक अधिक काम और अधिक वेतन चाहते हैं परन्तु वास्तव में अधिक शिक्षक होना शैक्षिक दृष्टि से अधिक उचित है। ऐसा होने से शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम हो जाता है, साथ ही शिक्षकों को शारीरिक और मानसिक थकान कम होती है। शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम होने से अध्ययन-अध्यापन की गुणवत्ता बढती है । यदि शिक्षक अधिक समय तक काम करते हैं तो उन्हें स्वाध्याय करने के लिये समय नहीं मिलता और शक्ति भी नहीं बचती।।  
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# पूरे दिन के विद्यालय का समय प्रातःकाल सात बजे से शुरू होता है तो उत्तम। इससे विद्यार्थियों को प्रातः काल जल्दी उठने का अभ्यास सहज ही होता है। सायंकाल खेलने के बाद यदि छ: बजे वापस जाना है तो वह भी सही होगा। अभिभावकों और  शिक्षकों की सहमति से समय का निर्धारण होना आवश्यक है।  
 
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# आवासीय विद्यालय से अधिक व्यापक रूप में, अधिक संख्या में पूरे दिन के विद्यालय का प्रयोग हो सकता है। आवासी विद्यालय जैसी अधिक व्यवस्थायें नहीं करनी पडतीं यह एक सुविधा है और विद्यार्थी विद्यालय में अधिक समय तक रहने पर भी अपने परिवार में ही रह सकते हैं ।  
8. पूरे दिन के विद्यालयों में सप्ताह में दो दिन का अवकाश होता है तो अधिक सुविधा रहती है। विद्यार्थियों और शिक्षकों में सामाजिकता का विकास हो इस दृष्टि से इस समय का उपयोग किया जाना चाहिये । विद्यार्थियों और शिक्षकों में सामाजिकता का विकास हो इस दृष्टि से शिक्षा भी दी जानी चाहिये । आज ऐसा दिखाई देता है कि पढाई जिनके पीछे लग गई है ऐसे विद्यार्थी सामाजिक व्यवहार में शून्य होते हैं । काम में अति व्यस्त शिक्षक सामाजिक व्यवहार में समय ही नहीं दे पाते । दोनों को यदि सामाजिकता की शिक्षा नहीं दी गई तो अवकाश का समय टीवी या अन्य व्यक्तिगत रुचि के काम या मनोरंजन में ही बीत जाता है । ऐसा न हो इसका ध्यान रखना चाहिये ।
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परन्तु दो दिन का अवकाश है इसलिये विद्यालय का ही काम गृहकार्य के रूप में करने के लिये नहीं देना चाहिये, नहीं तो अन्य किसी भी प्रकार के कामों के लिये समय ही नहीं रहेगा।  
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9. पूरे दिन के विद्यालय की व्यवस्था ऐसी तो नहीं होनी चाहिये कि विद्यार्थियों को बाद में खेलने का समय ही न रहे । या तो विद्यालय में खेलने की व्यवस्था हो या खेलने का ही गृहकार्य दिया जाय । घर में खेलने की व्यवस्था होना आवश्यक है। यदि घर में ऐसी व्यवस्था नहीं है तो विद्यालय में खेलना चाहिये ।  
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10. पूरे दिन के विद्यालय में बस्ता विद्यालय में ही रखकर जाने की व्यवस्था होना स्वाभाविक है। इससे विद्यार्थियों को बस्ते का बोझ उठाना नहीं पडता ।  
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11. दस वर्ष की आयु तक पूरे दिन का विद्यालय होने की कोई आवश्यकता नहीं । पन्द्रह वर्ष के बाद भी ऐसी आवश्यकता नहीं । यह ग्यारह से पन्द्रह ऐसे पाँच वर्षों के लिये ही सबसे अधिक लाभदायी व्यवस्था हो सकती है । इस दौरान विद्यार्थी यदि साइकिल लेकर ही विद्यालय जाते हैं तो हर दृष्टि से अच्छा रहेगा।  
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12. पूरे दिन के विद्यालय में समयसारिणी और पाठन पद्धति में विशेष प्रयोग करने की सुविधा रहती है । इसका पूरा लाभ उठाना चाहिये । क्रियात्मक पद्धति से अध्ययन करने के अवसर विद्यार्थियों को मिलने चाहिये । ग्रन्थालय, विज्ञान प्रयोगशाला और उद्योगशाला में क्रियात्मक अध्ययन करने के अवसर मिलने चाहिये ।  
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13. पूरे दिन के विद्यालय में जीवन व्यवहार की शिक्षा देने की व्यवस्था भी हो सकती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि विद्यार्थियों को पढाई के बोझ से ही लाद दिया जाय । वास्तव में पूरे दिन के विद्यालय में सामान्य विद्यालय से दो घण्टे ही अधिक मिलते हैं । अतः अनेक प्रकार की और अत्यधिक अपेक्षयें  नहीं करनी चाहिये । वैसे तो विद्यालय और घर दोनों स्थानों पर जो पढाई होती है वह इस व्यवस्था में एक ही स्थान पर होती है इतना ही अन्तर मानना चाहिये । केवल यहाँ सब कुछ शिक्षकों के मार्गदर्शन में होता है यह विशेष है ।
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14. पूरे दिन के विद्यालय का समय प्रातःकाल सात बजे से शुरू होता है तो उत्तम। इससे विद्यार्थियों को प्रातः काल जल्दी उठने का अभ्यास सहज ही होता है। सायंकाल खेलने के बाद यदि छ: बजे वापस जाना है तो वह भी सही होगा। अभिभावकों और  शिक्षकों की सहमति से समय का निर्धारण होना आवश्यक है।  
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15. आवासीय विद्यालय से अधिक व्यापक रूप में, अधिक संख्या में पूरे दिन के विद्यालय का प्रयोग हो सकता है। आवासी विद्यालय जैसी अधिक व्यवस्थायें नहीं करनी पडतीं यह एक सुविधा है और विद्यार्थी विद्यालय में अधिक समय तक रहने पर भी अपने परिवार में ही रह सकते हैं ।
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इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालयों का शैक्षिक दृष्टि से अधिक प्रचलन हो यह हितकारी है ।
 
इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालयों का शैक्षिक दृष्टि से अधिक प्रचलन हो यह हितकारी है ।
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===== प्रयोजन =====
 
===== प्रयोजन =====
 
विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में जाने की आवश्यकता क्यों होती है ?  
 
विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में जाने की आवश्यकता क्यों होती है ?  
 
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# प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थी गुरु के घर में रहकर ही विद्या ग्रहण करता था। उसके लिये गुरुगृहवास शिक्षा प्राप्त करने का एक अनिवार्य अंग था । यह बात ठीक है कि जहाँ वह रहता था वहाँ गुरुकुल का होना सम्भव न हो इसलिये उसे अपना घर छोडकर गुरु के घर जाना पडे । परन्तु यह बात गौण थी । गुरु के साथ पूर्ण समय पूर्ण रूप से रहना अनिवार्य था ।  
1. प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थी गुरु के घर में रहकर ही विद्या ग्रहण करता था। उसके लिये गुरुगृहवास शिक्षा प्राप्त करने का एक अनिवार्य अंग था । यह बात ठीक है कि जहाँ वह रहता था वहाँ गुरुकुल का होना सम्भव न हो इसलिये उसे अपना घर छोडकर गुरु के घर जाना पडे । परन्तु यह बात गौण थी । गुरु के साथ पूर्ण समय पूर्ण रूप से रहना अनिवार्य था ।  
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# चालीस पचास वर्ष पूर्व भारत के छोटे छोटे गाँवों में विद्यालय, विशेष रूप से माध्यमिक विद्यालय नहीं होते थे। नगरों में ऐसे विद्यालय होते थे । महाविद्यालय तो बड़े नगरों में या महानगरों  में होते थे। आज भी उच्च शिक्षा के अनेक विशिष्ट संस्थान विद्यार्थी जहाँ रहता है उससे पर्याप्त दूरी पर ही होते हैं। इस स्थिति में विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में रहना पडता है।  
 
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# अनेक ऐसे किस्से हैं जिनमें विद्यार्थी बहुत अधिक शरारती, उद्दण्ड है या घर में उसे देखने वाला, टोकने वाला कोई नहीं है तब उसे आवासीय विद्यालय में भेजा जाता है। उसके लिये आवासीय विद्यालय सुधार गृह जैसा है।  
2. चालीस पचास वर्ष पूर्व भारत के छोटे छोटे गाँवों में विद्यालय, विशेष रूप से माध्यमिक विद्यालय नहीं होते थे। नगरों में ऐसे विद्यालय होते थे । महाविद्यालय तो बड़े नगरों में या महानगरों  में होते थे। आज भी उच्च शिक्षा के अनेक विशिष्ट संस्थान विद्यार्थी जहाँ रहता है उससे पर्याप्त दूरी पर ही होते हैं। इस स्थिति में विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में रहना पडता है।  
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# अतिधनाढ्य, अतिउच्चशिक्षित, अतिसत्ताधीशों के बच्चों को देश के अत्याधुनिक, अतिसमृद्ध आवासी विद्यालयों में भेजा जाता है । ये प्रतिष्ठा के दर्शक हैं और विशेष छाप लिये हुए हैं।  
 
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# अनाथ, गरीब, दलित, पिछड़ी जातियों के, वनवासी बच्चों के लिये सरकार की ओर से निःशुल्क आवासी विद्यालय चलाये जाते हैं जिन्हें आश्रमशाला कहा जाता है।  
3. अनेक ऐसे किस्से हैं जिनमें विद्यार्थी बहुत अधिक शरारती, उद्दण्ड है या घर में उसे देखने वाला, टोकने वाला कोई नहीं है तब उसे आवासीय विद्यालय में भेजा जाता है। उसके लिये आवासीय विद्यालय सुधार गृह जैसा है।  
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# आध्यात्मिक केन्द्रों में, मठों में, वेदाध्ययन केन्द्रों में जो विद्यालय चलते हैं वे आवासीय ही होते हैं । कई शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय भी अनिवार्य रूप से आवासीय होते हैं।  
 
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4. अतिधनाढ्य, अतिउच्चशिक्षित, अतिसत्ताधीशों के बच्चों को देश के अत्याधुनिक, अतिसमृद्ध आवासी विद्यालयों में भेजा जाता है । ये प्रतिष्ठा के दर्शक हैं और विशेष छाप लिये हुए हैं।  
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5. अनाथ, गरीब, दलित, पिछड़ी जातियों के, वनवासी बच्चों के लिये सरकार की ओर से निःशुल्क आवासी विद्यालय चलाये जाते हैं जिन्हें आश्रमशाला कहा जाता है।
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6. आध्यात्मिक केन्द्रों में, मठों में, वेदाध्ययन केन्द्रों में जो विद्यालय चलते हैं वे आवासीय ही होते हैं । कई शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय भी अनिवार्य रूप से आवासीय होते हैं।
      
===== स्वरूप =====
 
===== स्वरूप =====
 
विभिन्न प्रयोजनों से चलने वाले आवासीय विद्यालयों के स्वरूप भी भिन्न भिन्न होते हैं ।  
 
विभिन्न प्रयोजनों से चलने वाले आवासीय विद्यालयों के स्वरूप भी भिन्न भिन्न होते हैं ।  
 
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# एक प्रकार ऐसा होता है जहाँ विद्यालय और आवास एक दूसरे से भिन्न व्यवस्था में चलते हैं। एक ही संस्था दोनों को चलाती है परन्तु विद्यालय मुख्याध्यापक या प्रधानाचार्य के द्वारा और छात्रावास गृहपति के द्वारा संचालित होता है । एक विद्यालय में पढने वाले एक ही छात्रावास में रहते हैं।  
1. एक प्रकार ऐसा होता है जहाँ विद्यालय और आवास एक दूसरे से भिन्न व्यवस्था में चलते हैं। एक ही संस्था दोनों को चलाती है परन्तु विद्यालय मुख्याध्यापक या प्रधानाचार्य के द्वारा और छात्रावास गृहपति के द्वारा संचालित होता है । एक विद्यालय में पढने वाले एक ही छात्रावास में रहते हैं।  
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# कहीं विद्यालय और छात्रावास भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं में होते हैं । विद्यालय केवल विद्यालय होता है, छात्रावास केवल छात्रावास होता है। दोनों का एकदूसरे के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है । एक छात्रावास में भिन्न भिन्न विद्यालयों के माध्यमिक, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि सभी स्तरों के विद्यार्थी रहते हैं । एक ही विद्यालय में पढने वाले विद्यार्थी भिन्न भिन्न छात्रावासों में रहते हैं।  
 
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# विद्यालय और छात्रावास एक ही व्यक्ति के नियन्त्रण में चलते हैं और वह व्यक्ति होता है मुख्याध्यापक अथवा प्रधानाचार्य । इसमें एक ही विद्यालय, एक ही छात्रावास और शत प्रतिशत विद्यार्थी छात्रावास में रहने वाले होते हैं । ये २४ घण्टे के विद्यालय होते हैं और सही अर्थ में आवासी विद्यालय कहे जायेंगे।  
2. कहीं विद्यालय और छात्रावास भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं में होते हैं । विद्यालय केवल विद्यालय होता है, छात्रावास केवल छात्रावास होता है। दोनों का एकदूसरे के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है । एक छात्रावास में भिन्न भिन्न विद्यालयों के माध्यमिक, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि सभी स्तरों के विद्यार्थी रहते हैं । एक ही विद्यालय में पढने वाले विद्यार्थी भिन्न भिन्न छात्रावासों में रहते हैं।  
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3. विद्यालय और छात्रावास एक ही व्यक्ति के नियन्त्रण में चलते हैं और वह व्यक्ति होता है मुख्याध्यापक अथवा प्रधानाचार्य । इसमें एक ही विद्यालय, एक ही छात्रावास और शत प्रतिशत विद्यार्थी छात्रावास में रहने वाले होते हैं । ये २४ घण्टे के विद्यालय होते हैं और सही अर्थ में आवासी विद्यालय कहे जायेंगे।
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सही अर्थ में आवासीय विद्यालय की अधिक चर्चा करना उपयुक्त रहेगा।
 
सही अर्थ में आवासीय विद्यालय की अधिक चर्चा करना उपयुक्त रहेगा।
    
====== आवासीय विद्यालय - आज वे कैसे चलते हैं ? ======
 
====== आवासीय विद्यालय - आज वे कैसे चलते हैं ? ======
 
ये विद्यालय वास्तव में हमें प्राचीन गुरुकुलों का स्मरण करवाने वाले हैं, जहाँ पूर्ण समय विद्यार्थी अपने अध्यापकों के साथ रहते हैं। परन्तु गुरुकुल की सही संकल्पना ज्ञात न होने के कारण से आज वे उनसे भिन्न रूप में चलते हैं।
 
ये विद्यालय वास्तव में हमें प्राचीन गुरुकुलों का स्मरण करवाने वाले हैं, जहाँ पूर्ण समय विद्यार्थी अपने अध्यापकों के साथ रहते हैं। परन्तु गुरुकुल की सही संकल्पना ज्ञात न होने के कारण से आज वे उनसे भिन्न रूप में चलते हैं।
 
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# इन विद्यालयों की दिनचर्या बहुत आदर्श मानी जाय ऐसी होती है। प्रातः जल्दी जगना, प्रातःप्रार्थना, योगाभ्यास, व्यायाम आदि करना, अल्पाहार और गृहपाठ करना, ग्यारह बजे विद्यालय जाना, बीच में भोजन की छुट्टी होना, पुनः विद्यालय जाना, सायंकाल मैदान में खेलना, सायंप्रार्थना करना, भोजन करना, स्वाध्याय या गृहपाठ करना और सो जाना यही दिनक्रम रहता है। रविवार को छुट्टी रहती है । उस दिन की दिनचर्या कुछ विशेष रहती है। अन्य विद्यालयों की तरह ही परीक्षायें और अवकाश रहते हैं जब विद्यार्थी घर जाते हैं । परन्तु इन विद्यालयों में भारतीय पद्धति से शिक्षा की अनेक सम्भावनायें हैं जिनका ज्ञान होने से उनको वास्तविक रूप दिया जा सकता है।
1. इन विद्यालयों की दिनचर्या बहुत आदर्श मानी जाय ऐसी होती है। प्रातः जल्दी जगना, प्रातःप्रार्थना, योगाभ्यास, व्यायाम आदि करना, अल्पाहार और गृहपाठ करना, ग्यारह बजे विद्यालय जाना, बीच में भोजन की छुट्टी होना, पुनः विद्यालय जाना, सायंकाल मैदान में खेलना, सायंप्रार्थना करना, भोजन करना, स्वाध्याय या गृहपाठ करना और सो जाना यही दिनक्रम रहता है। रविवार को छुट्टी रहती है । उस दिन की दिनचर्या कुछ विशेष रहती है। अन्य विद्यालयों की तरह ही परीक्षायें और अवकाश रहते हैं जब विद्यार्थी घर जाते हैं ।
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# ये चौबीस घण्टे के विद्यालय हैं। अर्थात् चौबीस घण्टे का जीवन ही शिक्षा का विषय है, वही पाठ्यक्रम है । इस बात को ध्यान में रखकर नियोजन किया जा सकता है। प्रातःकाल जगने से रात्रि को सोने तक की सारी बातें क्रियात्मक, भावात्मक और ज्ञानात्मक पद्धति से सिखाई जा सकती हैं।
 
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# इन विद्यालयों की दिनचर्या प्रकृति के नियमानुसार बनाई जा सकती है । उदाहरण के लिये सोने, जागने, भोजन करने, खेलने, पढने और विश्रान्ति का समय वैज्ञानिक पद्धति से निश्चित कर सकते हैं । दोपहर में भोजन का समय मध्याह्न से पूर्व, सायंकाल सूर्यास्त से पूर्व, जगने का समय ब्राह्ममुहूर्त, अध्ययन का समय प्रातःकाल और सायंकाल आदि कर सकते हैं।
परन्तु इन विद्यालयों में भारतीय पद्धति से शिक्षा की अनेक सम्भावनायें हैं जिनका ज्ञान होने से उनको वास्तविक रूप दिया जा सकता है।  
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# चौबीस घण्टों में व्यक्तिगत और सामुदायिक जो भी काम होते हैं वे सब सहभागिता से किये जा सकते हैं । यदि कोई विद्यार्थी दस वर्ष आवासीय विद्यालय में रहता है तो स्वच्छता से लेकर भोजन बनाने तक के सारे काम करने में निपुणता प्राप्त हो सकती है, व्यवहार दक्षता प्राप्त हो सकती है, शास्त्रीय अध्ययन भी अच्छा हो सकता है।
 
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# आवासीय विद्यालय में शिक्षकों को विद्यालय का अंग बनकर रहना होता है । वर्तमान में शिक्षकों का सम्बन्ध केवल विषयों के अध्यापन से ही होता है परन्तु इसमें परिवर्तन कर उन्हें विद्यार्थियों के शिक्षक बनना चाहिये । विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्था में सहभागी बनना चाहिये। सामान्य विद्यालय के शिक्षक और आवासीय विद्यालयों के शिक्षकों में बहुत अन्तर होता है।
1. ये चौबीस घण्टे के विद्यालय हैं। अर्थात् चौबीस घण्टे का जीवन ही शिक्षा का विषय है, वही पाठ्यक्रम है । इस बात को ध्यान में रखकर नियोजन किया जा सकता है। प्रातःकाल जगने से रात्रि को सोने तक की सारी बातें क्रियात्मक, भावात्मक और ज्ञानात्मक पद्धति से सिखाई जा सकती हैं।  
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# आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुल के अनुसार चलाये जाय तो आज भी शिक्षा में बहुत बडे परिवर्तन की अपेक्षा की जा सकती है। वर्तमान में ऐसा होने में व्यवस्था की नहीं अपितु शिक्षकों की कमी है। शिक्षाक्षेत्र में जीवनशिक्षा यह विषय नहीं रहने के कारण शिक्षकों और विद्यार्थियों का जीवन समरस नहीं हो पाता । उदाहरण के लिये परिसर में ही जिनका निवास है ऐसे शिक्षकों की पत्नियों की विद्यालय की दैनन्दिन गतिविधियों में कोई भूमिका नहीं रहती है। अनेक बार शिक्षक भी विद्यालय परिसर में निवास नहीं चाहते हैं क्योंकि अपना जीवन विद्यार्थियों के मध्य खुली किताब जैसा बन जाय यह उन्हें पसन्द नहीं होता । यदि शिक्षक अपने आपको विद्यार्थियों के समान ही विद्यालय का अंग मानें तभी आवासीय विद्यालय गुरुकुल में परिवर्तित हो सकता है । शिक्षकों के लिये भी वह चौबीस घण्टों का विद्यालय बनना चाहिये । शिक्षकों की पत्नियाँ गृहमाता बननी चाहिये।
 
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# व्यवस्थाओं के विषय में भी गुरुकुल के समान अलग ही पद्धति से विचार किया जा सकता है। उदाहरण के लिये एक एक शिक्षक के साथ दस-बीस-पचीस विद्यार्थी रहते हों, वे सब भिन्न भिन्न आयु के भी हों और पूरा चौबीस घण्टों का जीवन एक बड़े परिवार की तरह रहते हों ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है । सारे काम शिक्षक, उनकी पत्नी, विद्यार्थी सब मिलकर करते हों, अध्ययन भी सब कामों में एक काम हो ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है।
2. इन विद्यालयों की दिनचर्या प्रकृति के नियमानुसार बनाई जा सकती है । उदाहरण के लिये सोने, जागने, भोजन करने, खेलने, पढने और विश्रान्ति का समय वैज्ञानिक पद्धति से निश्चित कर सकते हैं । दोपहर में भोजन का समय मध्याह्न से पूर्व, सायंकाल सूर्यास्त से पूर्व, जगने का समय ब्राह्ममुहूर्त, अध्ययन का समय प्रातःकाल और सायंकाल आदि कर सकते हैं।  
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# आजकल छात्रावासों में विद्यार्थी केवल पढेंगे, खेलेंगे और अन्य शैक्षिक गतिविधियों में सहभागी बनेंगे परन्तु और कोई काम नहीं करेंगे ऐसी अपेक्षा की जाती है। उनके निवास के कक्ष की स्वच्छता, उनके अपने कपड़ों की धुलाई, बर्तनों की सफाई आदि के लिये नौकर होंगे, भोजन बनाने आदि में सहभागी होना तो बहुत दूर की बात है । इन कामों को हेय मानने की यह प्रवृत्ति बहुत हानिकारक है।
 
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3. चौबीस घण्टों में व्यक्तिगत और सामुदायिक जो भी काम होते हैं वे सब सहभागिता से किये जा सकते हैं । यदि कोई विद्यार्थी दस वर्ष आवासीय विद्यालय में रहता है तो स्वच्छता से लेकर भोजन बनाने तक के सारे काम करने में निपुणता प्राप्त हो सकती है, व्यवहार दक्षता प्राप्त हो सकती है, शास्त्रीय अध्ययन भी अच्छा हो सकता है।  
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4. आवासीय विद्यालय में शिक्षकों को विद्यालय का अंग बनकर रहना होता है । वर्तमान में शिक्षकों का सम्बन्ध केवल विषयों के अध्यापन से ही होता है परन्तु इसमें परिवर्तन कर उन्हें विद्यार्थियों के शिक्षक बनना चाहिये । विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्था में सहभागी बनना चाहिये। सामान्य विद्यालय के शिक्षक और आवासीय विद्यालयों के शिक्षकों में बहुत अन्तर होता है।
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5. आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुल के अनुसार चलाये जाय तो आज भी शिक्षा में बहुत बडे परिवर्तन की अपेक्षा की जा सकती है। वर्तमान में ऐसा होने में व्यवस्था की नहीं अपितु शिक्षकों की कमी है। शिक्षाक्षेत्र में जीवनशिक्षा यह विषय नहीं रहने के कारण शिक्षकों और विद्यार्थियों का जीवन समरस नहीं हो पाता । उदाहरण के लिये परिसर में ही जिनका निवास है ऐसे शिक्षकों की पत्नियों की विद्यालय की दैनन्दिन गतिविधियों में कोई भूमिका नहीं रहती है। अनेक बार शिक्षक भी विद्यालय परिसर में निवास नहीं चाहते हैं क्योंकि अपना जीवन विद्यार्थियों के मध्य खुली किताब जैसा बन जाय यह उन्हें पसन्द नहीं होता । यदि शिक्षक अपने आपको विद्यार्थियों के समान ही विद्यालय का अंग मानें तभी आवासीय विद्यालय गुरुकुल में परिवर्तित हो सकता है । शिक्षकों के लिये भी वह चौबीस घण्टों का विद्यालय बनना चाहिये । शिक्षकों की पत्नियाँ गृहमाता बननी चाहिये।  
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6. व्यवस्थाओं के विषय में भी गुरुकुल के समान अलग ही पद्धति से विचार किया जा सकता है। उदाहरण के लिये एक एक शिक्षक के साथ दस-बीस-पचीस विद्यार्थी रहते हों, वे सब भिन्न भिन्न आयु के भी हों और पूरा चौबीस घण्टों का जीवन एक बड़े परिवार की तरह रहते हों ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है । सारे काम शिक्षक, उनकी पत्नी, विद्यार्थी सब मिलकर करते हों, अध्ययन भी सब कामों में एक काम हो ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है।  
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7. आजकल छात्रावासों में विद्यार्थी केवल पढेंगे, खेलेंगे और अन्य शैक्षिक गतिविधियों में सहभागी बनेंगे परन्तु और कोई काम नहीं करेंगे ऐसी अपेक्षा की जाती है। उनके निवास के कक्ष की स्वच्छता, उनके अपने कपड़ों की धुलाई, बर्तनों की सफाई आदि के लिये नौकर होंगे, भोजन बनाने आदि में सहभागी होना तो बहुत दूर की बात है । इन कामों को हेय मानने की यह प्रवृत्ति बहुत हानिकारक है।
      
====== एक समझने लायक उदाहरण ======
 
====== एक समझने लायक उदाहरण ======
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===== शिक्षक क्यों नहीं पढ़ाते ? =====
 
===== शिक्षक क्यों नहीं पढ़ाते ? =====
 
सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक पढाते क्यों नहीं है इसका भी ठीक से विचार करना चाहिये । यदि निदान ठीक करेंगे तो उपाय भी ठीक कर पायेंगे।  
 
सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक पढाते क्यों नहीं है इसका भी ठीक से विचार करना चाहिये । यदि निदान ठीक करेंगे तो उपाय भी ठीक कर पायेंगे।  
 
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# आज के शैक्षिक वातावरण में प्रेरणा का तत्व गायब है। कोई कहे या न कहे, कोई देखे या न देखे, पुरस्कार या प्रशंसा मिले या न मिले, कोई दण्ड दे या न दे अपना कर्तव्य है इसलिये पढाना ही चाहिये ऐसी भावना बनने के लिये वातावरण चाहिये । सामने आदर्श चाहिये, शिक्षा मिली हुई होनी चाहिये, आज ऐसी शिक्षा नहीं है। कर्तव्यपालन करना चाहिये, स्वेच्छा से करना चाहिये, अपने कारण से किसी का अकल्याण नहीं होना चाहिये ऐसी शिक्षा किसी भी स्तर पर, किसी भी प्रकार से नहीं दी जाती । समाज में अपने से बडे, अपने अधिकारी कर्तव्यपालन कर रहे हैं ऐसा प्रेरणादायक चरित्र कहीं दिखाई नहीं देता, सर्वत्र वातवरण ही अपने लाभ का विचार करने का है। शिक्षाक्षेत्र में प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक तो बहुत छोटे हैं । अन्य सरकारी विभागों में भी वातावरण तो ऐसा ही है । शिक्षा के उपर के स्तरों पर भी वातावरण तो ऐसा ही है । सर्वत्र सबका व्यवहार ऐसा है इसलिये  इन शिक्षकों का व्यवहार भी ऐसा ही है ।
1. आज के शैक्षिक वातावरण में प्रेरणा का तत्त्व गायब है। कोई कहे या न कहे, कोई देखे या न देखे, पुरस्कार या प्रशंसा मिले या न मिले, कोई दण्ड दे या न दे अपना कर्तव्य है इसलिये पढाना ही चाहिये ऐसी भावना बनने के लिये वातावरण चाहिये । सामने आदर्श चाहिये, शिक्षा मिली हुई होनी चाहिये, आज ऐसी शिक्षा नहीं है। कर्तव्यपालन करना चाहिये, स्वेच्छा से करना चाहिये, अपने कारण से किसी का अकल्याण नहीं होना चाहिये ऐसी शिक्षा किसी भी स्तर पर, किसी भी प्रकार से नहीं दी जाती । समाज में अपने से बडे, अपने अधिकारी कर्तव्यपालन कर रहे हैं ऐसा प्रेरणादायक चरित्र कहीं दिखाई नहीं देता, सर्वत्र वातवरण ही अपने लाभ का विचार करने का है। शिक्षाक्षेत्र में प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक तो बहुत छोटे हैं । अन्य सरकारी विभागों में भी वातावरण तो ऐसा ही है । शिक्षा के उपर के स्तरों पर भी वातावरण तो ऐसा ही है । सर्वत्र सबका व्यवहार ऐसा है इसलिये  इन शिक्षकों का व्यवहार भी ऐसा ही है ।
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# पढाने न पढाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त कृत्रिम है। विद्यार्थी ज्ञानवान और चरित्रवान बनें इसका निकर्ष परीक्षा ही है । परीक्षा भी लिखित होती है। अंक दे सकें इस स्वरूप की होती है । अंक दे देना बहुत सरल है । समाज में या व्यक्तिगत जीवन में अज्ञान और असंस्कार दिखाई दे रहा है यह परीक्षा में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने का निकष नहीं है । इसलिये अंक मिल जाते हैं परन्तु ज्ञान या संस्कार नहीं आता । इस परिणाम हेतु दण्डित या पुरस्कृत करना असम्भव है। इसलिये विद्यालय में पढाना सम्भव ही नहीं होता।
 
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# कहीं पर भी सीधी कारवाई होने की व्यवस्था सरकारी तन्त्र में नहीं होती। निरीक्षण करने वाला स्वयं कुछ नहीं कर सकता, केवल रिपोर्ट भेज सकता है । रिपोर्ट पढने वाला और उपर रिपोर्ट भेजता है। रिपोर्ट को सिद्ध करना बहुत कठिन होता है। उसमें फिर राजकीय हस्तक्षेप भी होते हैं । कारवाई करने वाले 'शिक्षक' नहीं होते, प्रशासकीय विभाग के होते हैं । वास्तव में निर्णय लेने या कारवाई करने की दृष्टि से यह शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। नीतियाँ निश्चित करनेवाला राजकीय क्षेत्र है, कारवाई करनेवाला प्रशासकीय क्षेत्र है, शिक्षा का क्षेत्र तो उनके अधीन है। राजकीय क्षेत्र वाले चुनावों की और सत्ता की चिन्ता करते हैं, उनके लिये सरकारी विद्यालय अपने हितों के लिये उपयोग में आनेवाला क्षेत्र है। प्रशासनिक अधिकारियों के लिये ये सब कर्मचारी हैं । उनका कार्यक्षेत्र नियम, कानून, कानून की धारा, नियम पालन के या उल्लंघन के शाब्दिक प्रावधान, नियुक्ति वेतन आदि हैं, शिक्षा नहीं । शिक्षा के प्रश्न को शैक्षिक दृष्टि से समझनेवाला, शैक्षिक दृष्टि से हल करनेवाला इस तन्त्र में कोई नहीं है । जब शिक्षा प्रशासन और राजनीति के अधीन हो जाती है तब वह निर्जीव और यांत्रिक हो जाती है। प्राणवान व्यक्ति अपनी अंगभूत ऊर्जा से कार्य करता है, यन्त्र बाहरी ऊर्जा से । प्राणवान व्यक्ति अपने ही बल, इच्छा और प्रेरणा से चलता है। यन्त्र चलाने पर चलता है । सरकारी शिक्षा का तन्त्र भी चलाने पर चलने वाला तन्त्र है । शिक्षा स्वभाव से प्राणवान है, प्रशासन स्वभाव से यान्त्रिक है। चलाने वाला यान्त्रिक हो और चलनेवाला प्राणवान यह अपने आप में बहुत विचित्र व्यवस्था है। ऐसी विचित्र व्यवस्था होने के कारण ही ज्ञान, चरित्र, कर्तृत्व, कुशलता आदि जीवमान तत्व पलायन कर जाते हैं। इस मूल कारण से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अच्छी शिक्षा नहीं होती।
2. पढाने न पढाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त कृत्रिम है। विद्यार्थी ज्ञानवान और चरित्रवान बनें इसका निकर्ष परीक्षा ही है । परीक्षा भी लिखित होती है। अंक दे सकें इस स्वरूप की होती है । अंक दे देना बहुत सरल है । समाज में या व्यक्तिगत जीवन में अज्ञान और असंस्कार दिखाई दे रहा है यह परीक्षा में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने का निकष नहीं है । इसलिये अंक मिल जाते हैं परन्तु ज्ञान या संस्कार नहीं आता । इस परिणाम हेतु दण्डित या पुरस्कृत करना असम्भव है। इसलिये विद्यालय में पढाना सम्भव ही नहीं होता।  
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# सरकारी तन्त्र अ-मानवीय है । यह एक व्यवस्था है । यहाँ व्यक्ति गौण है, नियम ही मुख्य है । इस व्यवस्था में नियम के आधार पर व्यवहार होता है. भावना और विवेक के आधार पर नहीं, कर्तृत्व और चरित्र के आधार पर नहीं । उदाहरण के लिये शिक्षामन्त्री शिक्षक, विद्वान अथवा शिक्षाशास्त्री ही होगा ऐसा नहीं है। यह शिक्षा मनोविज्ञान जाननेवाला होगा यह जरूरी नहीं है। वह लोगों के मतों से चुनकर देश चलानेवाली संसद या धारासभा में पहुँचा हुआ सांसद या विधायक है । यह स्वभाव से और कार्य से, विचार और अनुभव से व्यापारी भी हो सकता है, उद्योजक हो सकता है या मजदूर भी हो सकता है। उसका शिक्षा के साथ ज्ञानोपासक या ज्ञानसेवक जैसा कोई सम्बन्ध नहीं है । प्रशासनिक अधिकारी तन्त्र को चलानेवाला  है। वह शिक्षा को, चिकित्सा को, कारखानों को, खानों-खदानों को, विद्युत उत्पादन को, मजदूरों को एक ही पद्धति से चलाता है । उसे सजीव निर्जीव का, अच्छे बुरे का, सज्जन और दुर्जन का कोई भेद नहीं है । वह अन्धे की तरह ‘समदृष्टि' है, कानून अन्धे की लकड़ी  है।
 
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# इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता । भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं । यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है। कोई भी यन्त्र स्वतन्त्र व्यवहार कर ही नहीं । सकता । यदि करने लगता है तो पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है। तात्पर्य यह है कि विशाल और व्यापक सरकारी तन्त्र को अ-मानवीय होना ही पड़ता है। सूझबूझ, कल्पनाशक्ति, अन्तर्दष्टि, देशकाल परिस्थिति के अनुसार स्वविवेक आदि इसमें सम्भव ही नहीं होते हैं। शिक्षा का स्वभाव इससे सर्वथा उल्टा है। उसे इन सबकी आवश्यकता होती है। परन्तु शिक्षक के हाथ में अधिकार नहीं है । अधिकार यान्त्रिक व्यवस्था के हैं। ऐसे अ-मानवीय तन्त्र में शिक्षा का विचार, शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के निर्णय, योजनायें, नीतियाँ शैक्षिक दृष्टि से, शैक्षिक पद्धति से नहीं लिये जाते हैं, लिये जाना सम्भव भी नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि विद्यालय, शिक्षक और विद्यार्थियों के होते हुए भी शिक्षा नहीं चलती।
3. कहीं पर भी सीधी कारवाई होने की व्यवस्था सरकारी तन्त्र में नहीं होती। निरीक्षण करने वाला स्वयं कुछ नहीं कर सकता, केवल रिपोर्ट भेज सकता है । रिपोर्ट पढने वाला और उपर रिपोर्ट भेजता है। रिपोर्ट को सिद्द करना बहुत कठिन होता है। उसमें फिर राजकीय हस्तक्षेप भी होते हैं । कारवाई करने वाले 'शिक्षक' नहीं होते, प्रशासकीय विभाग के होते हैं ।
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# इसका अर्थ यह नहीं है कि निजी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा अच्छी चलती है। वहाँ अच्छी चलती दिखाई देती है इसके कारण वहाँ के शिक्षक नहीं हैं, वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं है वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं हैं तन्त्र है । निजी विद्यालयों में अच्छी चलती दिखाई दे रही है इसका कारण भी शिक्षक नहीं है, तन्त्र ही हैं । सरकारी तन्त्र बहुत बडा होने के कारण से और अ-मानवीय होने के कारण से वहाँ शिक्षक से ‘पढवाना' सम्भव नहीं होता । निजी विद्यालयों में तन्त्र छोटा होने के कारण से, मानवीय होने के कारण से शिक्षक से पढवाना' सम्भव होता है । सरकारी तन्त्र में नौकरी देने वाली व्यवस्था है, निजी तन्त्र में मनुष्य है । मनुष्य इच्छा, भावना, विवेक आदि से परिचालित होकर व्यवहार करता है। इसलिये यहाँ शिक्षक को पढाना पडता है । निजी विद्यालयों में शुल्क देनेवाला अभिभावक भी एक महत्व पूर्ण घटक है । अभिभावक और संचालक मिलकर शिक्षक को पढाने के लिये बाध्य कर सकते हैं।
 
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# इस कारण से जो शुल्क दे सकते हैं ऐसे अभिभावक सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजना पसन्द नहीं करते । सरकारी विद्यालय तो चलेंगे ही क्योंकि उन्हें चलाना सरकारी बाध्यता है, परन्तु उसमें पढने के लिये कोई जायेगा नहीं । इसस्थिति में लालच देकर पढने के लिये बुलाना पडता है । अब जो आते हैं वे भोजन, कपडे आदि के आकर्षण से आते हैं, भोजन करके भाग जाते हैं। शिक्षक उनके इतने विमुख है कि वे भगा भी देते हैं ।
वास्तव में निर्णय लेने या कारवाई करने की दृष्टि से यह शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। नीतियाँ निश्चित करनेवाला राजकीय क्षेत्र है, कारवाई करनेवाला प्रशासकीय क्षेत्र है, शिक्षा का क्षेत्र तो उनके अधीन है। राजकीय क्षेत्र वाले चुनावों की और सत्ता की चिन्ता करते हैं, उनके लिये सरकारी विद्यालय अपने हितों के लिये उपयोग में आनेवाला क्षेत्र है। प्रशासनिक अधिकारियों के लिये ये सब कर्मचारी हैं । उनका कार्यक्षेत्र नियम, कानून, कानून की धारा, नियम पालन के या उल्लंघन के शाब्दिक प्रावधान, नियुक्ति वेतन आदि हैं, शिक्षा नहीं । शिक्षा के प्रश्न को शैक्षिक दृष्टि से समझनेवाला, शैक्षिक दृष्टि से हल करनेवाला इस तन्त्र में कोई नहीं है । जब शिक्षा प्रशासन और राजनीति के अधीन हो जाती है तब वह निर्जीव और यांत्रिक हो जाती है। प्राणवान व्यक्ति अपनी अंगभूत ऊर्जा से कार्य करता है, यन्त्र बाहरी ऊर्जा से । प्राणवान व्यक्ति अपने ही बल, इच्छा और प्रेरणा से चलता है । यन्त्र चलाने पर चलता है । सरकारी शिक्षा का तन्त्र भी चलाने पर चलने वाला तन्त्र है । शिक्षा स्वभाव से प्राणवान है, प्रशासन स्वभाव से यान्त्रिक है। चलाने वाला यान्त्रिक हो और चलनेवाला प्राणवान यह अपने आप में बहुत विचित्र व्यवस्था है। ऐसी विचित्र व्यवस्था होने के कारण ही ज्ञान, चरित्र, कर्तृत्व, कुशलता आदि जीवमान तत्त्व पलायन कर जाते हैं। इस मूल कारण से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अच्छी शिक्षा नहीं होती।  
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4. सरकारी तन्त्र अ-मानवीय है । यह एक व्यवस्था है । यहाँ व्यक्ति गौण है, नियम ही मुख्य है । इस व्यवस्था में नियम के आधार पर व्यवहार होता है. भावना और विवेक के आधार पर नहीं, कर्तृत्व और चरित्र के आधार पर नहीं । उदाहरण के लिये शिक्षामन्त्री शिक्षक, विद्वान अथवा शिक्षाशास्त्री ही होगा ऐसा नहीं है। यह शिक्षा मनोविज्ञान जाननेवाला होगा यह जरूरी नहीं है। वह लोगों के मतों से चुनकर देश चलानेवाली संसद या धारासभा में पहुँचा हुआ सांसद या विधायक है । यह स्वभाव से और कार्य से, विचार और अनुभव से व्यापारी भी हो सकता है, उद्योजक हो सकता है या मजदूर भी हो सकता है । उसका शिक्षा के साथ ज्ञानोपासक या ज्ञानसेवक जैसा कोई सम्बन्ध नहीं है । प्रशासनिक अधिकारी तन्त्र को चलानेवाला  है। वह शिक्षा को, चिकित्सा को, कारखानों को, खानों-खदानों को, विद्युत उत्पादन को, मजदूरों को एक ही पद्धति से चलाता है । उसे सजीव निर्जीव का, अच्छे बुरे का, सज्जन और दुर्जन का कोई भेद नहीं है । वह अन्धे की तरह ‘समदृष्टि' है, कानून अन्धे की लकडी है।
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इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता । भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं । यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है। कोई भी यन्त्र स्वतन्त्र व्यवहार कर ही नहीं । सकता । यदि करने लगता है तो पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है। तात्पर्य यह है कि विशाल और व्यापक सरकारी तन्त्र को अ-मानवीय होना ही पड़ता है। सूझबूझ, कल्पनाशक्ति, अन्तर्दष्टि, देशकाल परिस्थिति के अनुसार स्वविवेक आदि इसमें सम्भव ही नहीं होते हैं। शिक्षा का स्वभाव इससे सर्वथा उल्टा है। उसे इन सबकी आवश्यकता होती है। परन्तु शिक्षक के हाथ में अधिकार नहीं है । अधिकार यान्त्रिक व्यवस्था के हैं। ऐसे अ-मानवीय तन्त्र में शिक्षा का विचार, शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के निर्णय, योजनायें, नीतियाँ शैक्षिक दृष्टि से, शैक्षिक पद्धति से नहीं लिये जाते हैं, लिये जाना सम्भव भी नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि विद्यालय, शिक्षक और विद्यार्थियों के होते हुए भी शिक्षा नहीं चलती।  
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5. इसका अर्थ यह नहीं है कि निजी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा अच्छी चलती है। वहाँ अच्छी चलती दिखाई देती है इसके कारण वहाँ के शिक्षक नहीं हैं, वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं है वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं हैं तन्त्र है । निजी विद्यालयों में अच्छी चलती दिखाई दे रही है इसका कारण भी शिक्षक नहीं है, तन्त्र ही हैं । सरकारी तन्त्र बहुत बडा होने के कारण से और अ-मानवीय होने के कारण से वहाँ शिक्षक से ‘पढवाना' सम्भव नहीं होता । निजी विद्यालयों में तन्त्र छोटा होने के कारण से, मानवीय होने के कारण से शिक्षक से पढवाना' सम्भव होता है । सरकारी तन्त्र में नौकरी देने वाली व्यवस्था है, निजी तन्त्र में मनुष्य है । मनुष्य इच्छा, भावना, विवेक आदि से परिचालित होकर व्यवहार करता है। इसलिये यहाँ शिक्षक को पढाना पडता है । निजी विद्यालयों में शुल्क देनेवाला अभिभावक भी एक महत्त्वपूर्ण घटक है । अभिभावक और संचालक मिलकर शिक्षक को पढाने के लिये बाध्य कर सकते हैं।
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इस कारण से जो शुल्क दे सकते हैं ऐसे अभिभावक  
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सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजना पसन्द नहीं करते । सरकारी विद्यालय तो चलेंगे ही क्योंकि उन्हें चलाना सरकारी बाध्यता है, परन्तु उसमें पढने के लिये कोई जायेगा नहीं । इसस्थिति में लालच देकर पढने के लिये बुलाना पडता है । अब जो आते हैं वे भोजन, कपडे आदि के आकर्षण से आते हैं, भोजन करके भाग जाते हैं। शिक्षक उनके इतने विमुख है कि वे भगा भी देते हैं ।
      
===== उपाय क्या है =====
 
===== उपाय क्या है =====
 
परिस्थिति की आलोचना या शिकायत करके तो काम बनने वाला नहीं है। मार्ग क्या है इसका विचार करना होगा।  
 
परिस्थिति की आलोचना या शिकायत करके तो काम बनने वाला नहीं है। मार्ग क्या है इसका विचार करना होगा।  
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====== कुछ इस प्रकार विचार कर सकते हैं... ======
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====== कुछ इस प्रकार विचार कर सकते हैं ======
1. अभिभावकों को अपनी सन्तानों को सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भेजने हेतु प्रेरित करना यह वर्तमान परिस्थिति में करनेलायक प्रथम उपाय है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में जो सुविधा है वह पर्याप्त है, जो शिक्षक हैं वे नीयत से कैसे भी हों शैक्षिक पात्रता की दृष्टि से पर्याप्त हैं । सरकारी विद्यालय में शुल्क नहीं है, वह सस्ता है। घर के पास है इसलिये वाहन का खर्च नहीं है। अन्य तामझाम नहीं हैं। बालक चलकर विद्यालय जा सकते हैं इसलिये समय और श्रम की बचत होती है । अतः इन विद्यालयों में भेजना अधिक अच्छा है । तन्त्र तो शिक्षकों को पढाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता परन्तु अभिभावक कर सकते हैं। अभिभावकों के आग्रह का परिणाम तन्त्र पर भी होता है । अतः यह प्रबोधन का विषय बनना चाहिये । प्रश्न केवल यह है कि सरकार की इस मामले में सहायता करने हेतु कोई आयेगा नहीं, आयेगा तो किसी न किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा से आयेगा । सरकार से मिलने वाले लाभ या तो आर्थिक या राजनीतिक होते हैं । यह होते हुए भी सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को पढाना लोगों के लिये लाभकारी ही है ।
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# अभिभावकों को अपनी सन्तानों को सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भेजने हेतु प्रेरित करना यह वर्तमान परिस्थिति में करनेलायक प्रथम उपाय है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में जो सुविधा है वह पर्याप्त है, जो शिक्षक हैं वे नीयत से कैसे भी हों शैक्षिक पात्रता की दृष्टि से पर्याप्त हैं । सरकारी विद्यालय में शुल्क नहीं है, वह सस्ता है। घर के पास है इसलिये वाहन का खर्च नहीं है। अन्य तामझाम नहीं हैं। बालक चलकर विद्यालय जा सकते हैं इसलिये समय और श्रम की बचत होती है । अतः इन विद्यालयों में भेजना अधिक अच्छा है । तन्त्र तो शिक्षकों को पढाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता परन्तु अभिभावक कर सकते हैं। अभिभावकों के आग्रह का परिणाम तन्त्र पर भी होता है । अतः यह प्रबोधन का विषय बनना चाहिये । प्रश्न केवल यह है कि सरकार की इस मामले में सहायता करने हेतु कोई आयेगा नहीं, आयेगा तो किसी न किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा से आयेगा । सरकार से मिलने वाले लाभ या तो आर्थिक या राजनीतिक होते हैं । यह होते हुए भी सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को पढाना लोगों के लिये लाभकारी ही है । समाजसेवी संगठनों को अभिभावक प्रबोधन का कार्य करना चाहिये । शिक्षा महँगी हो गई है उसका भी उपाय हो जायेगा । यह भी आज का विकट प्रश्न बना हुआ है।
 
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# प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के पास पढाने के अतिरिक्त इतने अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर पाते हैं। उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है। शिक्षक और अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं। यदि सरकारी विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी।
समाजसेवी संगठनों को अभिभावक प्रबोधन का कार्य करना चाहिये । शिक्षा महँगी हो गई है उसका भी उपाय हो जायेगा । यह भी आज का विकट प्रश्न बना हुआ है।  
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# प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर सकती हैं। यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा। सरकार यदि अपनी प्रतिष्ठा बढाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो उसका लाभ उठाने वाले तत्व निकल आयेंगे । इसलिये स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है।
 
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# कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपडे आदि की सहायता करते हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन विद्यालयों में पढाई होती नहीं है। यह अच्छा है, परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों को पढाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर बीच में से रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं। इससे तो कुल मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
2. प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के पास पढाने के अतिरिक्त इतने अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर पाते हैं। उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है। शिक्षक और अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं। यदि सरकारी विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी।  
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# एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ट करने का काम करना चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया जा सकता है। सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय चलाना उसके बस की बात नहीं। यह भी समाज प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है। शिक्षा की स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगों और संगठनों को इस विषय में विचार करना होगा।
 
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# कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं।
3. प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर सकती हैं। यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा। सरकार यदि अपनी प्रतिष्ठा बढाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो उसका लाभ उठाने वाले तत्त्व निकल आयेंगे । इसलिये स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है।  
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## सभी शिक्षित मातापिता अपने बच्चों को स्वयं पढायेंगे, साथ ही जो स्वयं अपने बच्चों को नहीं पढा सकते ऐसे मातापिता को बच्चों को भी पढायेंगे ऐसा विचार प्रस्तुत करना चाहिये । भोजन, वस्त्र, औषध आदि की व्यवस्था जिस प्रकार अपनी जिम्मेदारी पर की जाती है उसी प्रकार शिक्षा की भी व्यवस्था की जाय इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिये ।
 
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## दस वर्ष की आयु तक की शिक्षा तो इसी प्रकार से चल सकती है । चलनी भी चाहिये । एक शिक्षक को पाँच विद्यार्थी होना शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि से भी बहुत अच्छा होगा दस वर्ष की आयु के बाद कुछ सामूहिक शिक्षा की व्यवस्था का विचार करना होगा । हर सोसाइटी अपना अपना विद्यालय भी चलाये ऐसा प्रचलन शुरू हो सकता है।। सोसाइटी में जिस प्रकार कॉमन प्लॉट होता है, कम्युनिटी हॉल होता है, कई कॉलनियों में तरणताल और जिम होते हैं उसी प्रकार से विद्यालय भी हो सकता है, होना चाहिये । पन्द्रह वर्ष की आयु तक ऐसा विद्यालय चल सकता है ।
4. कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपडे आदि की सहायता करते हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन विद्यालयों में पढाई होती नहीं है। यह अच्छा है, परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों को पढाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर बीच में से रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं। इससे तो कुल मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
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## उद्योगगृहों को अपने कर्मचारियों की सन्तानों की शिक्षा की व्यवस्था करने का आग्रह होना चाहिये । ये प्राथमिक विद्यालय ही होंगे । दस वर्ष की आयु तक ऐसी शिक्षा दी जायेगी।
 
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## अपने उद्योग के लिये आवश्यक कौशलों की शिक्षा का प्रबन्ध उद्योगगृह ही करे और उसके साथ सामान्य ज्ञान और संस्कारों की शिक्षा का प्रबन्ध भी किया जाय ऐसी व्यवस्था प्रचलित करनी चाहिये ।
5. एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ट करने का काम करना चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया जा सकता है।
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## मन्दिरों में देश, धर्म, संस्कृति का ज्ञान देने की व्यवस्था अनिवार्यरूप से करनी चाहिये । मन्दिर विभिन्न सम्प्रदायों के हो सकते हैं । उनके साथ ही सामाजिक संगठन सम्प्रदाय-निरपेक्ष शिक्षा देने की व्यवस्था कर सकते हैं, उन्हें करनी भी चाहिये।
 
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## किसे किस प्रकार की शिक्षा लेना इसकी बाध्यता नहीं होनी चाहिये । शिक्षित और संस्कारी होना यह कानूनी बाध्यता नहीं होनी चाहिये, सामाजिक और सांस्कृतिक आग्रह होना चाहिये।
सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय चलाना उसके बस की बात नहीं। यह भी समाज प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है। शिक्षा की स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगों और संगठनों को इस विषय में विचार करना होगा।  
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## रोटरी क्लब जैसी संस्थायें, अनेक धार्मिक सांस्कृतिक संगठन भोजन, वस्त्र आदि का दान करते हैं उसी प्रकार से शिक्षा का दान भी करना चाहिये।
 
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## सारी शिक्षा निःशुल्क दी जाय इसका भी आग्रह बढना चाहिये । शिक्षा देना पुण्य का काम है, इसके कोई पैसे लेगा नहीं, पैसे लेना हीनता है ऐसी भावना प्रचलित होनी चाहिये।
6. कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं।
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## शिक्षा पारिवारिक मामला है, साथ ही धर्मक्षेत्र का भी मामला है । देश के धार्मिक और सांस्कृतिक संगठनों को देश की शिक्षा का दायित्व लेना चाहिये । सरकार की सहायता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये, सरकारी दखल भी नहीं होने देनी चाहिये । समाज का भला हो ऐसी भावना से ही यह काम चलना चाहिये।
 
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## प्राथमिक विद्यालय चरित्रनिर्माण, सामान्य ज्ञान और कुशलताओं के विकास का क्षेत्र है। चरित्रनिर्माण मातापिता और धर्माचार्य कर सकते हैं । सामान्य ज्ञान शिक्षक दे सकते हैं। कुशलताओं का विकास अर्थार्जन हेतु तथा गृहस्थाश्रम चलाने हेतु आवश्यक है। इसमें से एक भी काम सरकार का नहीं है। मातापिता, धर्माचार्य, शिक्षक और उद्योजक मिलकर इसकी व्यवस्था करें यह अपक्षित है।
1. सभी शिक्षित मातापिता अपने बच्चों को स्वयं पढायेंगे, साथ ही जो स्वयं अपने बच्चों को नहीं पढा सकते ऐसे मातापिता को बच्चों को भी पढायेंगे ऐसा विचार प्रस्तुत करना चाहिये । भोजन, वस्त्र, औषध आदि की व्यवस्था जिस प्रकार अपनी जिम्मेदारी पर की जाती है उसी प्रकार शिक्षा की भी व्यवस्था की जाय इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिये ।  
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## शैक्षिक संगठन यदि केन्द्रवर्ती भूमिका निभाते हैं तो यह कार्य सरल होगा। प्राथमिक शिक्षा के तंन्त्र की पुनर्रचना होना अत्यन्त आवश्यक है इस बात से तो सबकी सहमति है । किसी को अग्रेसर होना है । किसी एक व्यक्ति के अग्रसर होने से यह बात बनेगी नहीं । व्यक्ति या व्यक्तिसमूह से या छोटी संस्थाओं से होने वाला यह काम नहीं है। शिक्षक संगठनों ने धुरी बनकर सम्बन्धित घटकों की सहमति बनानी होगी, सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी। बलशाली पर्याय तैयार करने के बाद सरकार से भी बात करनी होगी।
 
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## कोई कारण नहीं कि सरकार इससे सहमत न हो । सरकार भी इस बाध्यता से मुक्त होना चाहेगी। शैक्षिक संगठनों का दायित्व है कि वे सरकार को इस बोज से मुक्त करें, समाज को उसके दायित्व का बोध करायें, धर्माचार्यों को देश के संस्कारों की चिन्ता करने हेतु निवेदन करें, मातापिता और उद्योगगृहों को कौशल विकास के दायित्व का स्वीकार करने हेतु सिद्ध करें। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की दुर्गति को देखकर यदि इस प्रकार के उपाय करने का मानस बनता है तो अच्छा परिणाम मिल सकता है । शिक्षा की गाड़ी सही पटरी पर चढ सकती है और शिक्षाक्षेत्र की सेवा हो सकती है।
2. दस वर्ष की आयु तक की शिक्षा तो इसी प्रकार से चल सकती है । चलनी भी चाहिये । एक शिक्षक को पाँच विद्यार्थी होना शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि से भी बहुत अच्छा होगा दस वर्ष की आयु के बाद कुछ सामूहिक शिक्षा की व्यवस्था का विचार करना होगा । हर सोसाइटी अपना अपना विद्यालय भी चलाये ऐसा प्रचलन शुरू हो सकता है। । सोसाइटी में जिस प्रकार कॉमन प्लॉट होता है, कम्युनिटी हॉल होता है, कई कॉलनियों में तरणताल और जिम होते हैं उसी प्रकार से विद्यालय भी हो सकता है, होना चाहिये । पन्द्रह वर्ष की आयु तक ऐसा विद्यालय चल सकता है ।  
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3. उद्योगगृहों को अपने कर्मचारियों की सन्तानों की शिक्षा की व्यवस्था करने का आग्रह होना चाहिये । ये प्राथमिक विद्यालय ही होंगे । दस वर्ष की आयु तक ऐसी शिक्षा दी जायेगी।  
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4. अपने उद्योग के लिये आवश्यक कौशलों की शिक्षा का प्रबन्ध उद्योगगृह ही करे और उसके साथ सामान्य ज्ञान और संस्कारों की शिक्षा का प्रबन्ध भी किया जाय ऐसी व्यवस्था प्रचलित करनी चाहिये ।  
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5. मन्दिरों में देश, धर्म, संस्कृति का ज्ञान देने की व्यवस्था अनिवार्यरूप से करनी चाहिये । मन्दिर विभिन्न सम्प्रदायों के हो सकते हैं । उनके साथ ही सामाजिक संगठन सम्प्रदाय-निरपेक्ष शिक्षा देने की व्यवस्था कर सकते हैं, उन्हें करनी भी चाहिये।  
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6. किसे किस प्रकार की शिक्षा लेना इसकी बाध्यता नहीं होनी चाहिये । शिक्षित और संस्कारी होना यह कानूनी बाध्यता नहीं होनी चाहिये, सामाजिक और सांस्कृतिक आग्रह होना चाहिये।
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7. रोटरी क्लब जैसी संस्थायें, अनेक धार्मिक सांस्कृतिक संगठन भोजन, वस्त्र आदि का दान करते हैं उसी प्रकार से शिक्षा का दान भी करना चाहिये।  
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8. सारी शिक्षा निःशुल्क दी जाय इसका भी आग्रह बढना चाहिये । शिक्षा देना पुण्य का काम है, इसके कोई पैसे लेगा नहीं, पैसे लेना हीनता है ऐसी भावना प्रचलित होनी चाहिये।  
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9. शिक्षा पारिवारिक मामला है, साथ ही धर्मक्षेत्र का भी मामला है । देश के धार्मिक और सांस्कृतिक संगठनों को देश की शिक्षा का दायित्व लेना चाहिये । सरकार की सहायता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये, सरकारी दखल भी नहीं होने देनी चाहिये । समाज का भला हो ऐसी भावना से ही यह काम चलना चाहिये।  
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10. प्राथमिक विद्यालय चरित्रनिर्माण, सामान्य ज्ञान और कुशलताओं के विकास का क्षेत्र है। चरित्रनिर्माण मातापिता और धर्माचार्य कर सकते हैं । सामान्य ज्ञान शिक्षक दे सकते हैं। कुशलताओं का विकास अर्थार्जन हेतु तथा गृहस्थाश्रम चलाने हेतु आवश्यक है। इसमें से एक भी काम सरकार का नहीं है। मातापिता, धर्माचार्य, शिक्षक और उद्योजक मिलकर इसकी व्यवस्था करें यह अपक्षित है।  
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11. शैक्षिक संगठन यदि केन्द्रवर्ती भूमिका निभाते हैं तो यह कार्य सरल होगा। प्राथमिक शिक्षा के तंन्त्र की पुनर्रचना होना अत्यन्त आवश्यक है इस बात से तो सबकी सहमति है । किसी को अग्रेसर होना है । किसी एक व्यक्ति के अग्रसर होने से यह बात बनेगी नहीं । व्यक्ति या व्यक्तिसमूह से या छोटी संस्थाओं से होने वाला यह काम नहीं है। शिक्षक संगठनों ने धुरी बनकर सम्बन्धित घटकों की सहमति बनानी होगी, सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी। बलशाली पर्याय तैयार करने के बाद सरकार से भी बात करनी होगी।  
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12. कोई कारण नहीं कि सरकार इससे सहमत न हो । सरकार भी इस बाध्यता से मुक्त होना चाहेगी। शैक्षिक संगठनों का दायित्व है कि वे सरकार को इस बोज से मुक्त करें, समाज को उसके दायित्व का बोध करायें, धर्माचार्यों को देश के संस्कारों की चिन्ता करने हेतु निवेदन करें, मातापिता और उद्योगगृहों को कौशल विकास के दायित्व का स्वीकार करने हेतु सिद्द करें।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की दुर्गति को देखकर यदि इस प्रकार के उपाय करने का मानस बनता है तो अच्छा परिणाम मिल सकता है । शिक्षा की गाड़ी सही पटरी पर चढ सकती है और शिक्षाक्षेत्र की सेवा हो सकती है।
      
==References==
 
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