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| == सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया == | | == सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया == |
− | भारतीय सृष्टि निर्माण की मान्यता में कई प्रकार हैं| इन में द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, त्रैत आदि हैं| हम यहाँ मुख्यत: वेदान्त की मान्यता का विचार करेंगे| वेद स्वत: प्रमाण हैं| | + | भारतीय सृष्टि निर्माण की मान्यता में कई प्रकार हैं | इन में द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, त्रैत आदि हैं | हम यहाँ मुख्यत: वेदान्त की मान्यता का विचार करेंगे | वेद स्वत: प्रमाण हैं | वेदों के ऋचाओं के मोटे मोटे तीन हिस्से बनाए जा सकते हैं | एक है उपासना काण्ड दूसरा है कर्मकांड और तीसरा है ज्ञान काण्ड | ज्ञानकाण्ड की अधिक विस्तार से प्रस्तुति उपनिषदों में की गई है | |
− | वेदों के ऋचाओं के मोटे मोटे तीन हिस्से बनाए जा सकते हैं| एक है उपासना काण्ड दूसरा है कर्मकांड और तीसरा है ज्ञान काण्ड| ज्ञानकाण्ड की अधिक विस्तार से प्रस्तुति उपनिषदों में की गई है| छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के दूसरे खंड में बताया है कि सृष्टि निर्माण से पूर्व केवल परमात्मा था| उसे अकेलापन खलने लगा|
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− | उसने विचार किया – एकाकी न रमते सो कामयत्| अकेले मन नहीं रमता| इसलिए इच्छा हुई| एको अहं बहुस्याम:| एक हूँ, अनेक हो जाऊँ| | + | छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के दूसरे खंड में बताया है कि सृष्टि निर्माण से पूर्व केवल परमात्मा था| उसे अकेलापन खलने लगा| उसने विचार किया: एकाकी न रमते सो कामयत् | अकेले मन नहीं रमता | इसलिए इच्छा हुई| एको अहं बहुस्याम:| एक हूँ, अनेक हो जाऊँ| |
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| + | '''वेदों''' में सृष्टि निर्माण के विषय में लिखा है: |
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| + | नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् | (ऋग्वेद १०-१२९-१) |
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| + | तम आसीत्तमसा$गूळहमग्रे प्रकेतम् सलीलं सर्वम् इदम् | (ऋग्वेद १०-१२९-३) |
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| + | अर्थ : सृष्टि निर्माण से पहले न कुछ स्वरूपवान था और न ही अस्वरूपवान था | न व्योम था और न उससे परे कुछ था | एक अन्धकार था | केवल अन्धकार था | उस अन्धकार में निश्चल, गंभीर, जिसे जानना संभव नहीं है ऐसा तरल पदार्थ सर्वत्र भरा हुआ था | इस तरल पदार्थ का निर्माण सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का प्रारम्भिक कार्य था | इस तरल पदार्थ में कोई हलचल नहीं थी | इस तरल पदार्थ के परमाणुओं में त्रिगुण साम्यावस्था में थे | इसलिए इस अवस्था को साम्यावस्था कहा गया है | |
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| + | '''सांख्य दर्शन''' में कहा है: |
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| + | सत्व रजस् तमसां साम्यावस्था प्रकृति: | (सांख्य १-६१) |
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| + | परमात्मा की इच्छा और शक्ति से साम्यावस्था भंग हुई | तरल पदार्थ के कणों याने परमाणुओं में सत्व, रज ओर तम ये अंतर्मुखी थे | परमात्मा की इच्छा और शक्ति से वे बहिर्मुखी हुए | |
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| + | लघ्वादिधर्मै: साधर्म्य विधर्मी च गुणानाम् | (सांख्य १-१२८) |
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| + | प्रीत्यप्रीतिर्विषादाद्यैर्गुणानामन्यों$न्यम् वैधर्म्यम् | (संख्या १-१२७) |
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| + | अर्थ : यह तीन गुण समान, परस्पर विरोधी और अत्यंत लघु थे | इन त्रिगुणों के बहिर्मुख होने के कारण इन कणों याने परमाणुओं में आकर्षण विकर्षण की प्रक्रिया शुरू हुई | इनमें दो आपस में आकर्षण और विकर्षण करते हैं | तीसरा विषाद गुणवाला याने अक्रिय (न्यूट्रल) है | इससे हलचल उत्पन्न हुई | इन कणों के अलग अलग मात्रा में एक दूसरे से जुड़ने के कारण परिमंडल निर्माण हुए | इन परिमंडलों की विविधता और आकारों के अनुसार सृष्टि के भिन्न भिन्न अस्तित्व निर्माण होने लगे | |
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| + | '''श्रीमद्भगवद्गीता''' वेदों का सार है | इसलिए गीता के सन्दर्भ लेना उचित होगा | श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ९ श्लोक ७ में कहा है: |
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| + | सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् | कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् || (भ.गी. ९-७) |
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| + | अर्थ : हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सभी भूतमात्र याने सभी अस्तित्व मेरी प्रकृति में विलीन होते हैं और कल्प के प्रारम्भ में मैं उन्हें फिर उत्पन्न करता हूँ| |
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| + | श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक ४, ५ में कहा है: |
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| + | भूमिरापो नलो वायु ख़म् मनो बुद्धिरेव च | अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || (७-४) |
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| + | अर्थ : प्रकृति याने सृष्टि का हर अस्तित्व पृथ्वी, जल, वायु, तेज और आकाश इन पंचाभूतों के साथ ही मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बना है | |
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| + | आगे कहा है: |
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| + | अपरेयामितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि में पराम् | जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् || (भ.गी. ७-५) |
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| + | अर्थ: यह अष्टधा प्रकृति परमात्मा की अपरा याने अचेतन (चेतना अक्रिय) प्रकृति है | इससे भिन्न दूसरी जिसके द्वारा सारे संसार की धारणा होती है वह परमात्मा की जीवरूप (आत्मा) परा याने चेतन प्रकृति है | |
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| + | आगे और कहा है – न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन: |सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तंयदेभि:स्यात्त्रिभिर्गु गुणे: || (भ.गी. १८-४०) |
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| + | अर्थ : पृथ्वीपर, आकाश में या देवों में इसी तरह अन्यत्र कहीं भी ऐसा कोई भी पदार्थ या प्राणी नहीं है जिसमें प्रकृति से बने सत्व, रज और तम न हों | |
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| + | इसे उपर्युक्त ७-४ से मिलकर देखने से यह समझ में आता है कि बुद्धि का गुण सत्व, मन का गुण राजसी और अहंकार का गुण तम है | |
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| + | '''ब्रह्मसूत्र''' में भिन्न भिन्न जीवजातियों के निर्माण के सन्दर्भ में कहा है: |
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| + | योने: शरीरम् | (ब्रह्मसूत्र ३-१-२७) |
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| + | अर्थ: योनि से शरीर बनता है | अर्थात् जीव का शरीर स्त्री के उत्पत्ति स्थान (योनि) के अनुसार बनता है | अन्य जीव के पुरूष कण (स्पर्म) के अनुसार नहीं | किसी भिन्न जाति के जीव के पुरूष कण अन्य जाति की स्त्री की योनि में जाने से जीव निर्माण नहीं होता | भिन्न या विपरीत योनि शुक्र को ग्रहण नहीं करती | |
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− | वेदों में सृष्टि निर्माण के विषय में लिखा है –
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− | नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् | (ऋग्वेद १०-१२९-१) तम आसीत्तमसा$गूळहमग्रे प्रकेतम् सलीलं सर्वम् इदम् | (ऋग्वेद १०-१२९-३)
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− | अर्थ : सृष्टि निर्माण से पहले न कुछ स्वरूपवान था और न ही अस्वरूपवान था| न व्योम था और न उससे परे कुछ था| एक अन्धकार था| केवल अन्धकार था| उस अन्धकार में निश्चल, गंभीर, जिसे जानना संभव नहीं है ऐसा तरल पदार्थ सर्वत्र भरा हुआ था| इस तरल पदार्थ का निर्माण सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का प्रारम्भिक कार्य था| इस तरल पदार्थ में कोई हलचल नहीं थी| इस तरल पदार्थ के परमाणुओं में त्रिगुण साम्यावस्था में थे| इसलिए इस अवस्था को साम्यावस्था कहा गया है|
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− | सांख्य दर्शन में कहा है –
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− | सत्त्व रजस् तमसां साम्यावस्था प्रकृति: | (सांख्य १-६१) परमात्मा की इच्छा और शक्ति से साम्यावस्था भंग हुई| तरल पदार्थ के कणों याने परमाणुओं में सत्व, रज ओर तम ये अंतर्मुखी थे| परमात्मा की इच्छा और शक्ति से वे बहिर्मुखी हुए|
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− | लघ्वादिधर्मै: साधर्म्य विधर्मी च गुणानाम् | (सांख्य १-१२८) प्रीत्यप्रीतिर्विषादाद्यैर्गुणानामन्यों$न्यम् वैधर्म्यम् | (संख्या १-१२७)
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− | अर्थ : यह तीन गुण समान, परस्पर विरोधी और अत्यंत लघु थे| इन त्रिगुणों के बहिर्मुख होने के कारण इन कणों याने परमाणुओं में आकर्षण विकर्षण की प्रक्रिया शुरू हुई| इनमें दो आपस में आकर्षण और विकर्षण करते हैं| तीसरा विषाद गुणवाला याने अक्रिय (न्यूट्रल) है| इससे हलचल उत्पन्न हुई| इन कणों के अलग अलग मात्रा में एकदूसरे से जुड़ने के कारण परिमंडल निर्माण हुए| इन परिमंडलों की विविधता और आकारों के अनुसार सृष्टि के भिन्न भिन्न अस्तित्व निर्माण होने लगे|
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− | श्रीमद्भगवद्गीता वेदों का सार है| इसलिए गीता के सन्दर्भ लेना उचित होगा| श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ९ श्लोक ७ में कहा है -
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− | सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् | कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् || (भ.गी. ९-७)
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− | अर्थ : हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सभी भूतमात्र याने सभी अस्तित्त्व मेरी प्रकृति में विलीन होते हैं और कल्प के प्रारम्भ में मैं उन्हें फिर उत्पन्न करता हूँ|
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− | श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक ४, ५ में कहा है –
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− | भूमिरापो नलो वायु ख़म् मनो बुद्धिरेव च | अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || (७-४)
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− | अर्थ : प्रकृति याने सृष्टि का हर अस्तित्व पृथ्वी, जल, वायु, तेज और आकाश इन पंचाभूतोंके साथ ही मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बना है| आगे कहा है – अपरेयामितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि में पराम् | जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् || (भ.गी. ७-५)
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− | अर्थ: यह अष्टधा प्रकृति परमात्मा की अपरा याने अचेतन(चेतना अक्रिय) प्रकृति है| इससे भिन्न दूसरी जिसके द्वारा सारे संसार की धारणा होती है वह परमात्मा की जीवरूप (आत्मा) परा याने चेतन प्रकृति है| आगे और कहा है –
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− | न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन: | सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तंयदेभि:स्यात्त्रिभिर्गु गुणे: || (भ.गी. १८-४०)
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− | अर्थ : पृथ्वीपर, आकाश में या देवों में इसी तरह अन्यत्र कहीं भी ऐसा कोई भी पदार्थ या प्राणी नहीं है जिसमें प्रकृति से बने सत्त्व, रज और तम न हों|
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− | इसे उपर्युक्त ७-४ से मिलकर देखने से यह समझ में आता है कि बुद्धि का गुण सत्त्व, मन का गुण राजसी और तम का गुण अहंकार है|
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− | भिन्न भिन्न जीवजातियों के निर्माण के सन्दर्भ में ब्रह्मसूत्र में कहा है –
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− | योने: शरीरम् | (ब्रह्मसूत्र ३-१-२७)
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− | अर्थ : योनी से शरीर बनता है| अर्थात् जीव का शरीर स्त्री के उत्पत्ती स्थान (योनी) के अनुसार बनता है| अन्य जीव के पुरूष कण (स्पर्म) के अनुसार नहीं| किसी भिन्न जाति के जीव के पुरूष कण अन्य जाति की स्त्री की योनी में जाने से जीव निर्माण नहीं होता| भिन्न या विपरीत योनी शुक्र को ग्रहण नहीं करती|
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| भिन्न भिन्न अस्तित्वों के निर्माण का क्रम | | भिन्न भिन्न अस्तित्वों के निर्माण का क्रम |
| जड़ के बिना चेतन या जीव जी नहीं सकता| इसलिए पहले जड़ फिर चेतन| इसमें सभी एकमत हैं| जीवन के निर्माण के क्रम का अनुमान हम अवतार कल्पना से लगा सकते हैं| चेतन में भी सब से पहले निम्न चेतना के जीव निर्माण हुए| इसीलिये मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार से लेकर बुद्धावतारतक अवतारों में सृष्टि के निर्माण और विकास का क्रम ही समझ में आता है| | | जड़ के बिना चेतन या जीव जी नहीं सकता| इसलिए पहले जड़ फिर चेतन| इसमें सभी एकमत हैं| जीवन के निर्माण के क्रम का अनुमान हम अवतार कल्पना से लगा सकते हैं| चेतन में भी सब से पहले निम्न चेतना के जीव निर्माण हुए| इसीलिये मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार से लेकर बुद्धावतारतक अवतारों में सृष्टि के निर्माण और विकास का क्रम ही समझ में आता है| |