| '''एक''', हमारा सारा व्यवहार सत्य और धर्म के अविरोधी होना चाहिए । '''दूसरा''', चराचर के हित और सुख का अविरोधी होना चाहिए । '''तीसरा''', पर्यावरण के अविरोधी होना चाहिए । '''चौथा''' मनुष्य के स्वास्थ्य के अविरोधी होना चाहिए । '''पाँचवा''', अहिंसक होना चाहिए । वैसे तो सत्य और धर्म के अविरोधी होना चाहिए, ऐसा कहने में शेष सारे मानक समाविष्ट हो जाते हैं तथापि सरलता पूर्वक समझने के लिए इतने विभाग किए हैं । सत्य के अविरोधी ही क्यों होना चाहिए ? इसलिए कि सत्य ऋत की वाचिक अभिव्यक्ति है । ऋत विश्व नियम को कहते हैं । नियम से ही विश्व का सारा व्यवहार सुचारु रूप से चलता है । इसलिए उसका पालन करना अनिवार्य है । ऋत उन्हें नियमों में बताता है, सत्य वाणी में अभिव्यक्त करता है । इसलिए उसका पालन करना चाहिए | ऋत ही धर्म है । धर्म से ही सारे ब्रह्मांड का धारण होता है, इसलिए उसका आधार लेना चाहिए । धर्म को कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए । सत्य और धर्म को छोड़ने से सर्व प्रकार के संकट आते हैं । चराचर के हित और सुख का ध्यान क्यों रखना चाहिए ? इसलिए क्योंकि चर और अचर एक दूसरे के साथ अभिन्न रूप से संलग्न हैं । एक के दुःख का सभी पर प्रभाव होता है । एक के भले से सभी का भला होता है, हम समझें या न समझें, मानें या न मानें, कोई चाहे या न चाहे ऐसा होता ही है क्योंकि छोटे-बड़े सभी का एक दूसरे के साथ सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध हमने नहीं बनाया । वह तो विश्व की रचना के समय से ही बना हुआ है । इसलिए उसके अविरोधी होना ही हमारे लिए बाध्यता है । पर्यावरण के अविरोधी क्यों होना चाहिए ? पर्यावरण का अर्थ है, हमारे चारों ओर की प्रकृति । यह प्रकृति पंचमहाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार की बनी है । हमारे चारों ओर पृथ्वी, जल, अभि, वायु और आकाश विभिन्न रूप धारण कर फैले हुए हैं । हमारे चारों ओर वनस्पति जगत् है तो कहीं प्राणी जगत् फैला हुआ है । हमारे चारों ओर बसे हुए मनुष्यों के मन के भाव अहंकार के विविध रूप और बुद्धि की सारी क्रिया-प्रक्रियाएँ फैली हुई हैं। इन सब के प्रति अविरोधी रहना सत्य और धर्म का आचरण करने के बराबर है । इन सबका ध्यान रखना व्यवहार के लिए बहुत आवश्यक है । मनुष्य के स्वास्थ्य के अविरोधी क्यों होना चाहिए ? इसलिए कि मनुष्य का स्वास्थ्य यदि ठीक नहीं रहा तो हित और सुख की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं । | | '''एक''', हमारा सारा व्यवहार सत्य और धर्म के अविरोधी होना चाहिए । '''दूसरा''', चराचर के हित और सुख का अविरोधी होना चाहिए । '''तीसरा''', पर्यावरण के अविरोधी होना चाहिए । '''चौथा''' मनुष्य के स्वास्थ्य के अविरोधी होना चाहिए । '''पाँचवा''', अहिंसक होना चाहिए । वैसे तो सत्य और धर्म के अविरोधी होना चाहिए, ऐसा कहने में शेष सारे मानक समाविष्ट हो जाते हैं तथापि सरलता पूर्वक समझने के लिए इतने विभाग किए हैं । सत्य के अविरोधी ही क्यों होना चाहिए ? इसलिए कि सत्य ऋत की वाचिक अभिव्यक्ति है । ऋत विश्व नियम को कहते हैं । नियम से ही विश्व का सारा व्यवहार सुचारु रूप से चलता है । इसलिए उसका पालन करना अनिवार्य है । ऋत उन्हें नियमों में बताता है, सत्य वाणी में अभिव्यक्त करता है । इसलिए उसका पालन करना चाहिए | ऋत ही धर्म है । धर्म से ही सारे ब्रह्मांड का धारण होता है, इसलिए उसका आधार लेना चाहिए । धर्म को कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए । सत्य और धर्म को छोड़ने से सर्व प्रकार के संकट आते हैं । चराचर के हित और सुख का ध्यान क्यों रखना चाहिए ? इसलिए क्योंकि चर और अचर एक दूसरे के साथ अभिन्न रूप से संलग्न हैं । एक के दुःख का सभी पर प्रभाव होता है । एक के भले से सभी का भला होता है, हम समझें या न समझें, मानें या न मानें, कोई चाहे या न चाहे ऐसा होता ही है क्योंकि छोटे-बड़े सभी का एक दूसरे के साथ सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध हमने नहीं बनाया । वह तो विश्व की रचना के समय से ही बना हुआ है । इसलिए उसके अविरोधी होना ही हमारे लिए बाध्यता है । पर्यावरण के अविरोधी क्यों होना चाहिए ? पर्यावरण का अर्थ है, हमारे चारों ओर की प्रकृति । यह प्रकृति पंचमहाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार की बनी है । हमारे चारों ओर पृथ्वी, जल, अभि, वायु और आकाश विभिन्न रूप धारण कर फैले हुए हैं । हमारे चारों ओर वनस्पति जगत् है तो कहीं प्राणी जगत् फैला हुआ है । हमारे चारों ओर बसे हुए मनुष्यों के मन के भाव अहंकार के विविध रूप और बुद्धि की सारी क्रिया-प्रक्रियाएँ फैली हुई हैं। इन सब के प्रति अविरोधी रहना सत्य और धर्म का आचरण करने के बराबर है । इन सबका ध्यान रखना व्यवहार के लिए बहुत आवश्यक है । मनुष्य के स्वास्थ्य के अविरोधी क्यों होना चाहिए ? इसलिए कि मनुष्य का स्वास्थ्य यदि ठीक नहीं रहा तो हित और सुख की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं । |
− | कहा ही है, शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् । | + | कहा ही है, <blockquote>शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् ।</blockquote>धर्म के आचरण का प्रमुख साधन शरीर है । इस कथन के तत्व को समझाने की आवश्यकता नहीं है । इसलिए हम जो-जो भी रचना, व्यवस्था, क्रिया, प्रक्रिया आदि सब करते हैं, वे शरीर स्वास्थ्य के अनुकूल होनी चाहिए । |