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| संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः । योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥५- ६॥ | | संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः । योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥५- ६॥ |
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| + | sannyāsas tu mahā-bāho duḥkham āptum ayogataḥ yoga-yukto munir brahma na cireṇādhigacchati ॥ 5- 6 ॥ |
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| योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥५- ७॥ | | योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥५- ७॥ |
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| + | yoga-yukto viśuddhātmā vijitātmā jitendriyaḥ sarva-bhūtātma-bhūtātmā kurvann api na lipyate ॥ 5- 7 ॥ |
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| नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥५- ८॥ | | नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥५- ८॥ |
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| + | naiva kiñcit karomīti yukto manyeta tattva-vit paśyañ śṛṇvan spṛśañ jighrann aśnan gacchan svapañ śvasan ॥ 5- 8 ॥ |
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| प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥५- ९॥ | | प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥५- ९॥ |
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| + | pralapan visṛjan gṛhṇann unmiṣan nimiṣann api indriyāṇīndriyārtheṣu vartanta iti dhārayan ॥ 5- 9 ॥ |
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| ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥५- १०॥ | | ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥५- १०॥ |
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| + | brahmaṇy ādhāya karmāṇi saṅgaṁ tyaktvā karoti yaḥ lipyate na sa pāpena padma-patram ivāmbhasā ॥ 5- 10 ॥ |
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| कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥५- ११॥ | | कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥५- ११॥ |
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| + | kāyena manasā buddhyā kevalair indriyair api yoginaḥ karma kurvanti saṅgaṁ tyaktvātma-śuddhaye ॥ 5- 11 ॥ |
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| युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥५- १२॥ | | युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥५- १२॥ |
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| + | yuktaḥ karma-phalaṁ tyaktvā śāntim āpnoti naiṣṭhikīm ayuktaḥ kāma-kāreṇa phale sakto nibadhyate ॥ 5- 12 ॥ |
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| सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी । नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥५- १३॥ | | सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी । नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥५- १३॥ |
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| + | sarva-karmāṇi manasā sannyasyāste sukhaṁ vaśī nava-dvāre pure dehī naiva kurvan na kārayan ॥ 5- 13 ॥ |
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| न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥५- १४॥ | | न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥५- १४॥ |
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| + | na kartṛtvaṁ na karmāṇi lokasya sṛjati prabhuḥ na karma-phala-saṁyogaṁ svabhāvas tu pravartate ॥ 5- 14 ॥ |
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| नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥५- १५॥ | | नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥५- १५॥ |
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| + | nādatte kasyacit pāpaṁ na caiva sukṛtaṁ vibhuḥ ajñānenāvṛtaṁ jñānaṁ tena muhyanti jantavaḥ ॥ 5- 15 ॥ |
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| ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥५- १६॥ | | ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥५- १६॥ |
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| + | jñānena tu tad ajñānaṁ yeṣāṁ nāśitam ātmanaḥ teṣām āditya-vaj jñānaṁ prakāśayati tat param ॥ 5- 16 ॥ |
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| तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः । गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥५- १७॥ | | तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः । गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥५- १७॥ |
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| + | tad-buddhayas tad-ātmānas tan-niṣṭhās tat-parāyaṇāḥ gacchanty apunar-āvṛttiṁ jñāna-nirdhūta-kalmaṣāḥ ॥ 5- 17 ॥ |
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| विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥५- १८॥ | | विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥५- १८॥ |
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| + | vidyā-vinaya-sampanne brāhmaṇe gavi hastini śuni caiva śva-pāke ca paṇḍitāḥ sama-darśinaḥ ॥ 5- 18 ॥ |
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| इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥५- १९॥ | | इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥५- १९॥ |
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| + | ihaiva tair jitaḥ sargo yeṣāṁ sāmye sthitaṁ manaḥ nirdoṣaṁ hi samaṁ brahma tasmād brahmaṇi te sthitāḥ ॥ 5- 19 ॥ |
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| न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥५- २०॥ | | न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥५- २०॥ |
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| + | na prahṛṣyet priyaṁ prāpya nodvijet prāpya cāpriyam sthira-buddhir asammūḍho brahma-vid brahmaṇi sthitaḥ ॥ 5- 20 ॥ |
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| बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम् । स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥५- २१॥ | | बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम् । स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥५- २१॥ |
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| + | bāhya-sparśeṣv asaktātmā vindaty ātmani yat sukham sa brahma-yoga-yuktātmā sukham akṣayam aśnute ॥ 5- 21 ॥ |
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| ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥५- २२॥ | | ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥५- २२॥ |
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| + | ye hi saṁsparśa-jā bhogā duḥkha-yonaya eva te ādy-antavantaḥ kaunteya na teṣu ramate budhaḥ ॥ 5- 22 ॥ |
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| शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् । कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥५- २३॥ | | शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् । कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥५- २३॥ |
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| + | śaknotīhaiva yaḥ soḍhuṁ prāk śarīra-vimokṣaṇāt kāma-krodhodbhavaṁ vegaṁ sa yuktaḥ sa sukhī naraḥ ॥ 5- 23 ॥ |
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| योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः । स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥५- २४॥ | | योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः । स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥५- २४॥ |
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| + | yo ’ntaḥ-sukho ’ntar-ārāmas tathāntar-jyotir eva yaḥ sa yogī brahma-nirvāṇaṁ brahma-bhūto ’dhigacchati ॥ 5- 24 ॥ |
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| लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः । छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥५- २५॥ | | लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः । छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥५- २५॥ |
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| + | labhante brahma-nirvāṇam ṛṣayaḥ kṣīṇa-kalmaṣāḥ chinna-dvaidhā yatātmānaḥ sarva-bhūta-hite ratāḥ ॥ 5- 25 ॥ |
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| कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् । अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥५- २६॥ | | कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् । अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥५- २६॥ |
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| + | kāma-krodha-vimuktānāṁ yatīnāṁ yata-cetasām abhito brahma-nirvāṇaṁ vartate viditātmanām ॥ 5- 26 ॥ |
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| स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः । प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥५- २७॥ | | स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः । प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥५- २७॥ |
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| + | sparśān kṛtvā bahir bāhyāṁś cakṣuś caivāntare bhruvoḥ prāṇāpānau samau kṛtvā nāsābhyantara-cāriṇau ॥ 5- 27 ॥ |
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| यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः । विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥५- २८॥ | | यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः । विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥५- २८॥ |
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| + | yatendriya-mano-buddhir munir mokṣa-parāyaṇaḥ vigatecchā-bhaya-krodho yaḥ sadā mukta eva saḥ ॥ 5- 28 ॥ |
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| भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥५- २९॥ | | भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥५- २९॥ |
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| + | bhoktāraṁ yajña-tapasāṁ sarva-loka-maheśvaram suhṛdaṁ sarva-bhūtānāṁ jñātvā māṁ śāntim ṛcchati ॥ 5- 29 ॥ |
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| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ | | ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ |