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| एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥३- १६॥ | | एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥३- १६॥ |
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| + | evaṁ pravartitaṁ cakraṁ nānuvartayatīha yaḥ aghāyur indriyārāmo moghaṁ pārtha sa jīvati ॥ 3-16 ॥ |
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| यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥३- १७॥ | | यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥३- १७॥ |
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| + | yas tv ātma-ratir eva syād ātma-tṛptaś ca mānavaḥ ātmany eva ca santuṣṭas tasya kāryaṁ na vidyate ॥ 3-17 ॥ |
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| नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥३- १८॥ | | नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥३- १८॥ |
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| + | naiva tasya kṛtenārtho nākṛteneha kaścana na cāsya sarva-bhūteṣu kaścid artha-vyapāśrayaḥ ॥ 3-18 ॥ |
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| तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥३- १९॥ | | तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥३- १९॥ |
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| + | tasmād asaktaḥ satataṁ kāryaṁ karma samācara asakto hy ācaran karma param āpnoti pūruṣaḥ ॥ 3-19 ॥ |
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| कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥३- २०॥ | | कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥३- २०॥ |
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| + | karmaṇaiva hi saṁsiddhim āsthitā janakādayaḥ loka-saṅgraham evāpi sampaśyan kartum arhasi ॥ 3-20 ॥ |
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| यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३- २१॥ | | यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३- २१॥ |
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| + | yad yad ācarati śreṣṭhas tat tad evetaro janaḥ sa yat pramāṇaṁ kurute lokas tad anuvartate ॥ 3-21 ॥ |
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| न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥३- २२॥ | | न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥३- २२॥ |
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| + | na me pārthāsti kartavyaṁ triṣu lokeṣu kiñcana nānavāptam avāptavyaṁ varta eva ca karmaṇi ॥ 3-22 ॥ |
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| यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥३- २३॥ | | यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥३- २३॥ |