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| # हमारे यहाँ राजनीति इतनी अधिक मात्रा में चलती है कि विश्वविद्यालय उससे बच नहीं सकते । वे राजनीतिक विचारधाराओं से घिरे रहते हैं । इस कारण से शुद्ध ज्ञान की साधना नहीं होती । अतः हमारे विश्वविद्यालय पीछे रह जाते हैं। | | # हमारे यहाँ राजनीति इतनी अधिक मात्रा में चलती है कि विश्वविद्यालय उससे बच नहीं सकते । वे राजनीतिक विचारधाराओं से घिरे रहते हैं । इस कारण से शुद्ध ज्ञान की साधना नहीं होती । अतः हमारे विश्वविद्यालय पीछे रह जाते हैं। |
| इस प्रकार भिन्न भिन्न मत व्यक्त किये जाते हैं । परन्तु तथ्य का सही विश्लेषण करने की प्रवृत्ति बहुत कम रहती है। विश्लेषण की पद्धति कुछ इस प्रकार होनी चाहिये। | | इस प्रकार भिन्न भिन्न मत व्यक्त किये जाते हैं । परन्तु तथ्य का सही विश्लेषण करने की प्रवृत्ति बहुत कम रहती है। विश्लेषण की पद्धति कुछ इस प्रकार होनी चाहिये। |
| + | # पश्चिम और भारत एक दूसरे से इतने भिन्न हैं कि एक के मानक दूसरे को नहीं चलेंगे । यदि भारत अपनी दृष्टि से मानक बनाता है तो पश्चिम का एक भी विश्वविद्यालय उसमें कहीं बैठेगा नहीं । इसलिये पश्चिम ने बनाये हुए मानकों में हमारे विश्वविद्यालय नहीं बैठते हैं तो बहुत चिन्ता की बात नहीं बननी चाहिये । |
| + | # विश्वविद्यालय के मानकों में एक मानक पेटण्ट और उनसे होने वाली आय भी है। भारत में ज्ञान पर एकाधिकार स्थापित करने की कल्पना भी जल्दी नहीं आती । भारत आर्थिक पक्ष को मानक मानता भी नहीं है इसलिये वह पीछे रहेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। |
| + | # शिक्षितों को रोजगार नहीं मिलने की समस्याकी जनक राजनीति और गलत अर्थव्यवस्था है। इसमें विश्वविद्यालयों का कार्य बाधित होता है, वह अच्छे परिणाम नहीं दे सकता। |
| + | # विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता न के बराबर है, भारतीय ज्ञान को और जीवनदृष्टि को शत प्रतिशत अपनाना सम्भव नहीं है। इस स्थिति में शिक्षाक्षेत्र की स्थिति न घर का न घाट का' जैसी हो उसमें आश्चर्य नहीं है। |
| + | # इस स्थिति में हमें चाहिये कि हम स्पर्धा में रहे ही नहीं । पराये मापदण्डों से अपना मूल्यांकन करने की बात ही विचित्र है । हम पहले तो अपने मानक बनायें, उनकी सहायता से अपना मूल्यांकन करें, फिर हमारे मानकों की उनके मानकों के साथ तुलना भी करें, हमारे मानकों से उन के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों का मूल्यांकन करें तब जाकर मामला कुछ समझ में आयेगा। |
| + | परन्तु यह बात भी सही है कि हमारे अपने मानकों पर खरा उतरने वाले हमारे विश्वविद्यालयों की संख्या भी कम ही होगी । इस बात की चिन्ता अवश्य करनी चाहिये । |
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− | १. पश्चिम और भारत एक दूसरे से इतने भिन्न हैं कि एक के मानक दूसरे को नहीं चलेंगे । यदि भारत अपनी दृष्टि से मानक बनाता है तो पश्चिम का एक भी विश्वविद्यालय उसमें कहीं बैठेगा नहीं । इसलिये पश्चिम ने बनाये हुए मानकों में हमारे विश्वविद्यालय नहीं बैठते हैं तो बहुत चिन्ता की बात नहीं बननी चाहिये ।
| + | ==== प्रश्न २ आजकल आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड का महत्त्व बढने लगा है। सारे आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड पश्चिम के देशों के हैं। भारत ही आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड क्यों नहीं बनाता ? देश की प्रतिष्टा बढेगी और आन्तर्राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा चाहने वाले लोग उसमें प्रवेश ले पायेंगे । ==== |
| + | उत्तर (१) आप कैसी बात कर रहे हैं ? आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड विकसित देशों में होते हैं, भारत जैसा विकासशील देश आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड कैसे बना सकता है ? हम आन्तर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा नहीं कर सकते। |
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− | २. विश्वविद्यालय के मानकों में एक मानक पेटण्ट और उनसे होने वाली आय भी है। भारत में ज्ञान पर एकाधिकार स्थापित करने की कल्पना भी जल्दी नहीं आती । भारत आर्थिक पक्ष को मानक मानता भी नहीं है इसलिये वह पीछे रहेगा | + | (२) नहीं, ऐसी बात नहीं है। हम उन मानकों को तो पूरा कर भी लेंगे परन्तु हमारे लोगों को भारत का नाम लेते ही कुछ नीचा सा लगता है। भले ही आन्तर्राष्ट्रीय हो तो भी इसकी तुलना में अमेरिका का या इंग्लैण्ड का बोर्ड ही उन्हें ऊँचा लगेगा । हम कितना भी अच्छा बनायेंगे तो भी वे भारत के बोर्ड में प्रवेश नहीं लेंगे। |
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| + | (३) भारत में यदि आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनेगा तो भी वह नाम मात्र का होगा । आन्तर्राष्ट्रीय बनने के लिये उसकी विदेशों में शाखा होनी चाहिये । वे यदि अरब देशों या आफ्रिका के देशों में रहीं तो प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। वे शाखायें यूरोप और अमेरिका के देशों में होनी चाहिये । भारत के आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की यदि अमेरिका या यूरोप के देशों में शाखायें रहीं तो भी वहाँ कोई प्रवेश नहीं लेगा । उनके बोर्डों में ही अच्छी शिक्षा मिलती है फिर भारत के बोर्ड में कोई क्यों पढेगा ? इसलिये भारत में आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनाने की बात व्यावहारिक नहीं लगती। |
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| + | (४) मेरे मतानुसार हमें भारतीय स्वरूप का आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड अवश्य बनाना चाहिये । और उसकी विदेशों में भी शाखायें होनी चाहिये ताकि वहाँ जो भारतीय रहते हैं वे अपने बच्चों को भारतीय शिक्षा दे सकें । यह कार्य कठिन होने पर भी सरकार ने विशेष योजना बनाकर करना चाहिये । आज पश्चिम के लोगों को भी भारतीय ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा हो रही है । वे भी भारत आने के स्थान पर अपने ही देश में रहकर पढ सकते हैं। |
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| + | (५) भारत पहले अपनी शिक्षाव्यवस्था ठीक कर ले यह आवश्यक है। भारत में शिक्षकों की नीयत और क्षमता, शिक्षा का दर्जा और परीक्षाओं की पद्धति जिस प्रकार के हैं वे आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड में नहीं चल सकते । इन बातों में पर्याप्त सुधार किये बिना हम आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड की कल्पना भी नहीं कर सकते । |
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| + | (६) यह तो एक बात है । दूसरी बात यह है कि सरकार को इसमें नहीं पडना चाहिये । जिस प्रकल्प में सरकार होती है वह परिणामकारी नहीं होता । किसी निजी संस्था को ऐसा बोर्ड बनाना चाहिये । ऐसा साहस ताता, अम्बानी, निरमा जैसे उद्योगगृह ही कर सकते हैं। सरकार ने उन्हें बताना चाहिये। |
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| ==References== | | ==References== |