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पाश्चात्य Classification भिन्न, इसके Thought Units भिन्न, Social Units भिन्न इसलिए Institutions भी भिन्न । इसकी कसौटी पर अपने समाज को कसने से पूर्व प्रत्येक वस्तु का Re-valuation अथवा Transvaluation (मूल्यपरिवर्तन) करने की बहुत आवश्यकता है। पाश्चात्य कल्पना से जो फल प्राप्त होते हैं, उन फलों से हमारा समाज वंचित हो तो कह सकते हैं कि अपने यहाँ यह वस्तु ही नहीं थी। और तुलना करनी ही हो तो समान ऐतिहासिककाल कीतुलना होनी चाहिए; और तारतम्य निश्चित करना हो तो Efficiency की दृष्टि से भी कर सकते हैं। Inherent Superiority of Conception और Scientific Aptitude की दृष्टि से भी कर सकते हैं।
 
पाश्चात्य Classification भिन्न, इसके Thought Units भिन्न, Social Units भिन्न इसलिए Institutions भी भिन्न । इसकी कसौटी पर अपने समाज को कसने से पूर्व प्रत्येक वस्तु का Re-valuation अथवा Transvaluation (मूल्यपरिवर्तन) करने की बहुत आवश्यकता है। पाश्चात्य कल्पना से जो फल प्राप्त होते हैं, उन फलों से हमारा समाज वंचित हो तो कह सकते हैं कि अपने यहाँ यह वस्तु ही नहीं थी। और तुलना करनी ही हो तो समान ऐतिहासिककाल कीतुलना होनी चाहिए; और तारतम्य निश्चित करना हो तो Efficiency की दृष्टि से भी कर सकते हैं। Inherent Superiority of Conception और Scientific Aptitude की दृष्टि से भी कर सकते हैं।
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वानप्रस्थ आश्रम का मूल उपद्देश्य समाजसेवा का ही है, ऐसा लगता नहीं है। जो सामाजिक व्यवहार में से निकल गये हैं, वे समाज पर अपना भार कम से कम डालते हैं। अपनी निराशा, निरुत्साह अथवा वैराग्यवृत्ति से कौटुम्बिक वातावरण को बिगाडते नहीं, और गृहस्थाश्रम में आयी हुई सुविधाभोगी वृत्तियो को झाड़कर दूर कर दी जाती
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वानप्रस्थ आश्रम का मूल उपद्देश्य समाजसेवा का ही है, ऐसा लगता नहीं है। जो सामाजिक व्यवहार में से निकल गये हैं, वे समाज पर अपना भार कम से कम डालते हैं। अपनी निराशा, निरुत्साह अथवा वैराग्यवृत्ति से कौटुम्बिक वातावरण को बिगाडते नहीं, और गृहस्थाश्रम में आयी हुई सुविधाभोगी वृत्तियो को झाड़कर दूर कर दी जाती हैं। इस उद्देश्य से वानप्रस्थ आश्रम की योजना हुई है, ऐसा मेरा मानना है। व्यावहारिक कर्म का अन्त अपने परिपक्व अनुभव को चिन्तन की भट्टी में डालने के निश्चय से वानप्रस्थ की रचना सरल बनाई हुई है, जिससे हिम्मत आने पर मनुष्य संन्यास भी ले सकता है।
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तुलनात्मक टिप्पणी लिखनी थी इसलिए इसमें जानबूझकर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिससे कल्पना शीघ्र ही समझ में आ जाये।
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सार रूप में यही कहूँगा कि तत्त्वतः हमारे यहाँ समाज सेवा थी और है भी। वह आज के हिन्दु धर्म में वह अलग से नहीं ही है, ऐसा आप कह सकते हैं; जबकि मैं तो कहूँगा कि इसीलिए हिन्दुधर्म श्रेष्ठ है।
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==== समाजसेवा की हिन्दवी मीमांसा ====
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आस्तिक हो अथवा नास्तिक, प्रत्येक समझदार मनुष्य इतना तो समझता ही है कि स्वयं जिस समाज में रहता है, उस समाज की सेवा करना उसका कर्तव्य है। अनाथों की मदद करना, निराश्रितों को आश्रय देना आदि बातें सभी धर्मों में कही हुई हैं। हिन्दु धर्म में भी परहित में लगे रहने का उपदेश दिया हुआ है। परन्तु प्राचीन ग्रन्थों को पढ़ते समय अथवा सामान्य धर्मचुस्त मनुष्य के विचारों को समझते समय हमारे और पाश्चात्य लोगों की समाजसेवा की कल्पना में पर्याप्त भेद दिखाई देगा। भूखे को अन्न देना, प्यासे को पानी पिलाना, जलाशय खुदवाना अथवा धर्मशालाएं बनवाना, ब्रह्मभोजन करवाना अथवा मंदिर निर्माण करवाना - इतने से ही अधिकतर हमारी समाजसेवा पूर्ण होती है। (गोरक्षा जैसे विषय तो जीवदया में गिने जाते हैं। समाजसेवा में उसका समावेश कैसे किया जायेगा ?) यूरोप में मध्ययुग में समाजसेवा की यही कल्पना थी। बीमार की सेवा करने के व्यवस्थित प्रयत्न तो उनके साधु-सन्तों ने हमसे भी अधिक किये होंगे।
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रोमन केथोलिक धर्म में सुधार हुए और विद्या प्रारम्भ हुई तब से हमारे देश में समाजसेवा की कल्पना को नई दिशा मिली है। विद्यालय स्थापित करना, प्रवास में मदद करना, गरीबों की स्थिति सुधारना, पतितों का उद्धार करना और धार्मिक मान्यताओं में सुधार करना - ऐसा बहुविध कार्यक्रम आजकल समाजसेवा में सम्मिलित किया गया है। इस नई कल्पना की चर्चा हमारे समाज में रात-दिन होते रहने के कारण यहाँ उसका विस्तारपूर्वक वर्णन करने की आवश्यकता नहीं।
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कोम्ट जैसे नास्तिक विद्वान के लेखों से यूरोप में समाज सेवा का नया सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ और नास्तिक और आस्तिक सब कोई कहने लगे कि समाजसेवा ही मोक्ष का द्वार है।
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अपने यहाँ भी इसी विचारका अनुवाद होकर कहावत बनी, 'जनता से अलग जनार्दन नहीं।' 'हमारे आसपास के करोड़ों जीते-जागते नारायणों का दुःख दूर करना ही मोक्ष का मार्ग हैं, 'नरसेवा-नारायणसेवा' आदि विचार लोगों के मन में अधिक से अधिक जाग्रत होने लगे हैं। हिन्दु धर्म में ये कल्पनाएँ नई नहीं है। परन्तु दूसरी बातों को गौण मानकर सेवा की इन बातों को महत्त्वपूर्ण मानने का आग्रह नया अवश्य है। इस आग्रह का एक परिणाम यह हुआ है कि कुछ लोगों को मनुष्य का ध्येय क्या होना चाहिए - आत्मोन्नति अथवा समाजोन्नति - इस विषय में शंका होने लगी है। हमारा देश एक यूरोपीय राष्ट्र के अधिकार में है, इसलिए उस राष्ट्र की राष्ट्रीयता की और राष्ट्राभिमान की कल्पना ऊपरी शंका के साथ पढ़ी जाने से ऊपर का विवाद उलझन भरा हो गया है। इस स्थिति में सभी सामाजिक प्रयत्नों को किस दिशा में मोड़ना, यह निश्चित करने से पहले समाज सेवा के ध्येय के बारे में सहज विवेचन करने की आवश्यकता है।
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समाजसेवा में मेरा मोक्ष होना है ऐसा मानना अर्थात् पहले तो समाज की सेवा करने का मुझे अवसर मिलना चाहिए और ऐसा अवसर मुझे मिले इसके लिए समाज सदैव पांगला ही रहना चाहिए यह सिद्ध होता है। परन्तु कम या अधिक लोगों की अपंग दशा पर मेरे मोक्ष का आधार रहे यह स्थिति ईष्ट भी नहीं और युक्तिपूर्ण भी नहीं। और समाज की सेवा करके उसका पंगुपना कुछ अंशों में दूर करना हो
    
==References==
 
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