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परन्तु शुद्ध भारतीय विचार प्रक्रिया ने मूलतः विज्ञान और धर्म के बीच विसंवाद माना ही नहीं है। विज्ञान को भारत में केवल भौतिक विज्ञान ही नहीं माना है। भारत विज्ञान को ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया मानता है। जीवन के हर स्तर को विज्ञान के साथ जोडा है। जैसे कि अन्नमय कोश के साथ भौतिक विज्ञान, प्राणमय के साथ प्राणीविज्ञान, मनोमय के साथ मनोविज्ञान, विज्ञानमय के साथ विज्ञान और आनन्दमय कोश तथा आत्मा से जुड़ा आत्मविज्ञान है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि विज्ञानमय कोश के लिये केवल विज्ञान शब्द का प्रयोग किया गया है। विज्ञानयम कोश को ही सामान्य भाषा में बुद्धि कहा गया है । अर्थात् सर्व प्रकार का विज्ञान बुद्धि का क्षेत्र है। भारत में वैज्ञानिकता का पर्याय है शास्त्रीयता । शास्त्र भी बुद्धि का क्षेत्र है। व्यवहार जगत में सर्वत्र धर्म शास्त्रीयता को अर्थात् विज्ञान को मानता है, वह विज्ञान के, शास्त्र के, शास्त्रीयता के विरोधी नहीं होता, नहीं हो सकता । शास्त्र, शास्त्रीयता, वैज्ञानिकता, विज्ञान आदि सबका आधार अनुभूति है। अध्यात्म अनुभूति का क्षेत्र है । अतः अध्यात्म धर्म का, विज्ञान का, शास्त्रों का आधार है। इस प्रकार विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय भारत में किया गया है । समझने के लिये हम कह सकते हैं कि धर्म विज्ञान की सामाजिकता है, विज्ञान धर्म का सिद्धान्त है और अध्यात्म दोनों का अधिष्ठान, तीनों एक और अखण्ड जीवन के परस्परानुकूल तत्त्व हैं।
 
परन्तु शुद्ध भारतीय विचार प्रक्रिया ने मूलतः विज्ञान और धर्म के बीच विसंवाद माना ही नहीं है। विज्ञान को भारत में केवल भौतिक विज्ञान ही नहीं माना है। भारत विज्ञान को ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया मानता है। जीवन के हर स्तर को विज्ञान के साथ जोडा है। जैसे कि अन्नमय कोश के साथ भौतिक विज्ञान, प्राणमय के साथ प्राणीविज्ञान, मनोमय के साथ मनोविज्ञान, विज्ञानमय के साथ विज्ञान और आनन्दमय कोश तथा आत्मा से जुड़ा आत्मविज्ञान है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि विज्ञानमय कोश के लिये केवल विज्ञान शब्द का प्रयोग किया गया है। विज्ञानयम कोश को ही सामान्य भाषा में बुद्धि कहा गया है । अर्थात् सर्व प्रकार का विज्ञान बुद्धि का क्षेत्र है। भारत में वैज्ञानिकता का पर्याय है शास्त्रीयता । शास्त्र भी बुद्धि का क्षेत्र है। व्यवहार जगत में सर्वत्र धर्म शास्त्रीयता को अर्थात् विज्ञान को मानता है, वह विज्ञान के, शास्त्र के, शास्त्रीयता के विरोधी नहीं होता, नहीं हो सकता । शास्त्र, शास्त्रीयता, वैज्ञानिकता, विज्ञान आदि सबका आधार अनुभूति है। अध्यात्म अनुभूति का क्षेत्र है । अतः अध्यात्म धर्म का, विज्ञान का, शास्त्रों का आधार है। इस प्रकार विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय भारत में किया गया है । समझने के लिये हम कह सकते हैं कि धर्म विज्ञान की सामाजिकता है, विज्ञान धर्म का सिद्धान्त है और अध्यात्म दोनों का अधिष्ठान, तीनों एक और अखण्ड जीवन के परस्परानुकूल तत्त्व हैं।
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अध्यात्म, धर्म, विज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर जो व्यवहारजीवन बनता है उसमें एक और आयाम जुडता है। वह है काल । काल अर्थात् समय समस्त सृष्टि को और सिद्दान्तों को प्रभावित करता है। काल के अनुसार व्यवहारजगत, व्यक्तजगत परिवर्तित होता है। जगत नित्य परिवर्तनशील है। इस परिवर्तन का मूलकारण है काल । काल को नापने के लिये भारत में 'युग' संज्ञा का प्रचलन है । काल का प्रवाह तो निरन्तर बहता है परन्तु उसकी गति
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अध्यात्म, धर्म, विज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर जो व्यवहारजीवन बनता है उसमें एक और आयाम जुडता है। वह है काल । काल अर्थात् समय समस्त सृष्टि को और सिद्दान्तों को प्रभावित करता है। काल के अनुसार व्यवहारजगत, व्यक्तजगत परिवर्तित होता है। जगत नित्य परिवर्तनशील है। इस परिवर्तन का मूलकारण है काल । काल को नापने के लिये भारत में 'युग' संज्ञा का प्रचलन है । काल का प्रवाह तो निरन्तर बहता है परन्तु उसकी गति चक्रीय है। बहुत छोटे से चक्र से लेकर । बहुत बड़े चक्र की गति है। हर चक्र को नाम दिया गया है। हर छोटा चक्र बड़े चक्र के अन्दर बना हुआ है। निरन्तर, गतिमान काल का प्रभाव सृष्टि के हर पदार्थ के स्वरूप को परिवर्तित करता है।
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भातीय मनीषा ने अपने समाजशास्त्र को इस नित्य परिवर्तनशील विश्व के सुसंगत बनाया है। इसलिये खानपान, वेशभूषा, गृहव्यवस्था, आमोदप्रमोद, खेल, पूजापद्धति, यात्रा आदि नित्य परिवर्तनशील होते हैं। उदाहरण के लिये वर्षा और शरद ऋतु में वातावरण अस्वास्थ्यकर होता है, पाचनतन्त्र दुर्बल रहता है इसलिये उपवास का प्रचलन है, ग्रीष्म में दूध के मिष्टान्न नहीं खाये जाते, संध्या के समय सोया नहीं जाता आदि । यह सब समय के अनुकूल है इसलिये युगानुकूल है, धर्म के अनुकूल _है इसलिये धर्मानुकूल है और विज्ञान के अनुकूल है इसलिये विज्ञानसम्मत भी है। दूसरा एक बिन्दु विचारणीय है। जैसे जैसे समय बीतता जाता है वैसे पदार्थों की गुणवत्ता और मनुष्य के शरीर, मन और बुद्धि की क्षमताओं का क्षरण होता है। अतः हर युग की व्यवस्था इन क्षमताओं के आधार पर ही बिठानी होती हैं।
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लोक में 'युगानुकूल' के लिये 'जमाने के अनुसार' ऐसा शब्दप्रयोग किया जाता है। इस का तात्पर्य होता यह होता है कि आसपास के लोग करते हैं उससे अलग, उससे विपरीत आचरण नहीं करना चाहिये । सब करते हैं ऐसा करने को इतना महत्त्व दिया गया है कि उक्ति है, 'यद्यपि सत्यं लोकविरुद्ध न करणीय नाचरणीयम्' अर्थात् भले ही सत्य हो तो भी लोक करते हैं उससे विरुद्ध है तो ऐसा कार्य या आचरण नहीं करना चाहिये । परन्तु लोक के आचरण को साधुसन्त उपदेश द्वारा नित्य परिष्कृत करते रहते हैं।
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आज जमाने के अनुसार' आचरण करने का अर्थ पश्चिमी शैली के अनुसार आचरण ऐसा हो गया है। दूसरी ओर भारतीय परम्परा में आस्था रखनेवाले लोग सौ दोसौ वर्ष पहले जो शैली थी उसी को अपनाने का आग्रह रखते हैं । दोनों के आग्रह को ठीक करना चाहिये । भारत को भारत की ही शैली अपनानी चाहिये, उसे आज की आवश्यकताओं पर कसना चाहिये । पश्चिमी शैली को आधुनिक नहीं मानना चाहिये । पश्चिम को आधुनिक और भारत को पुरातन कहना यह अतार्किक कथन है । भारतीय आधुनिक जीवनशैली ही उपयुक्त शैली है । अतः आज हम जो कुछ कर रहे हैं उसे भारतीयता और वैज्ञानिकता अर्थात् शास्त्रीयता की कसौटी पर परखकर अपनाना चाहिये।
    
==References==
 
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