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परन्तु यह बात सरल नहीं है। अनेक बातों में हम विश्व के अन्यान्य देशों के साथ सम्बन्धित है । अनेक देशों से भारत ने कर्जा लिया है, अनेक देशों को कर्जा दिया है। अनेक देशों के साथ व्यापारी करार किये हैं । भारत राष्ट्रसंघ का भी सदस्य है । अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में भी व्यापार कर रही हैं । तात्पर्य यह है कि वैश्विक संरचना जो एक बार स्थापित हो गई है, उसे एकाएक नकारना तो सम्भव नहीं होता । इसलिये अर्थव्यवस्था के परिवर्तन का प्रारम्भ सरकारी स्तर से शुरू नहीं हो सकता । जनसमाज में प्रारम्भ हो सकता है। इसे लेकर दीर्घकालीन और तत्कालीन योजना बनाने की आवश्यकता है।
परन्तु यह बात सरल नहीं है। अनेक बातों में हम विश्व के अन्यान्य देशों के साथ सम्बन्धित है । अनेक देशों से भारत ने कर्जा लिया है, अनेक देशों को कर्जा दिया है। अनेक देशों के साथ व्यापारी करार किये हैं । भारत राष्ट्रसंघ का भी सदस्य है । अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में भी व्यापार कर रही हैं । तात्पर्य यह है कि वैश्विक संरचना जो एक बार स्थापित हो गई है, उसे एकाएक नकारना तो सम्भव नहीं होता । इसलिये अर्थव्यवस्था के परिवर्तन का प्रारम्भ सरकारी स्तर से शुरू नहीं हो सकता । जनसमाज में प्रारम्भ हो सकता है। इसे लेकर दीर्घकालीन और तत्कालीन योजना बनाने की आवश्यकता है।
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अर्थ को लेकर अमेरिका की जो वृत्ति है वह पराकोटि की अमानवीय है । भारत के मनीषियों ने तो कहा ही है कि जिनके ऊपर अर्थ का लोभ सवार हो गया है वे स्वजनों और आदरणीय लोगों की भी परवाह नहीं करते, उन्हें धोखा देने में और उनका शोषण करने में भी संकोच नहीं करते । अर्थ का लोभ दया, मैत्री, नीति आदि सबका नाश करता है। हमने 'द प्रिझन' और 'आर्थिक हत्यारे का कबूलातनामा' में देखा ही है कि किस प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति और सम्पूर्ण विश्वसमाज को निर्ममता से लूटने का कैसा
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अर्थ को लेकर अमेरिका की जो वृत्ति है वह पराकोटि की अमानवीय है । भारत के मनीषियों ने तो कहा ही है कि जिनके ऊपर अर्थ का लोभ सवार हो गया है वे स्वजनों और आदरणीय लोगों की भी परवाह नहीं करते, उन्हें धोखा देने में और उनका शोषण करने में भी संकोच नहीं करते । अर्थ का लोभ दया, मैत्री, नीति आदि सबका नाश करता है। हमने 'द प्रिझन' और 'आर्थिक हत्यारे का कबूलातनामा' में देखा ही है कि किस प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति और सम्पूर्ण विश्वसमाज को निर्ममता से लूटने का कैसा सिलसिला वह चला सकता है । अमेरिका की आसुरी वृत्ति उसके अर्थव्यवहार का प्रेरक तत्त्व है। इस आसुरी वृत्ति को समाप्त करना विश्वसमाज का लक्ष्य होना चाहिये । अर्थतन्त्र आवश्यक है। उसे आसुरी वृत्ति के पाश से मुक्त कर धर्म के अधीन करने से उसकी शुद्धि होगी । अर्थात् अमेरिका के साथ युद्ध अर्थक्षेत्र का होने पर भी वह धर्मसंस्थापना का ही युद्ध है । अमेरिका के पास अर्थ के समान और कई शस्त्रास्त्र हैं परन्तु अर्थ सेनापति है, शेष सारे उसके नेतृत्व में लड रहे हैं । अधर्म उनका राजा है जिसके लिये ये सब युद्ध में उतरे
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अर्थ को एक साधन बनाकर अमेरिका सम्पूर्ण विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास कर रहा है । उद्देश्य भी वही निश्चित करता है और नियत । भी वही बनाता है। श्रेष्ठ के मापदण्ड भी वही निश्चित करता है। ये मापदण्ड ऐसे हैं जिन पर उसकी ही संस्थायें श्रेष्ठ सिद्ध होती हैं। अपनी ही दृष्टि को वह विश्वदृष्टि कहता है। वैश्विकता के भारत निरपेक्ष मापदण्ड भारत बनाता है परन्तु अमेरिका निरपेक्ष मापदण्ड नहीं बनाये जाते हैं।
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अतः यह बौद्धिक क्षेत्र का भी युद्ध है। न्यायनीति, तर्क, बल, मानसिकता आदि सभी क्षेत्रों में एक साथ चुनौती स्वीकार कर भारत को इस युद्ध में उतरना है। उद्देश्य है,<blockquote>सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।</blockquote><blockquote>सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाक्भवेत् ।</blockquote>
==References==
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