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=== भारतीय संज्ञा ===
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१, विभिन्न राष्ट्रों की अपनी अपनी जीवनशैली होती है । जीवन और जगत को देखने की उनकी दृष्टि के अनुसार उनकी जीवनशैली विकसित होती है । उनकी अपनी मूल्यव्यवस्था बनती है । यह मूल्यव्यवस्था उनके स्वभाव का परिचय कराने वाली होती है ।
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. वर्तमान में वैश्विक परिभाषाओं के अन्तर्गत मूल्यव्यवस्था, मूल्यशिक्षा, मूल्यों का समूह आदि संज्ञायें व्यापक रूप में प्रचलित हैं । केवल शिक्षा के  ही नहीं तो समग्र जीवनव्यवस्था के सन्दर्भ में इन संज्ञाओं का प्रयोग होता है । 
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मूल्यशिक्षा को धर्मशिक्षा कहने पर कथन असंदिग्ध बनता है ।
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३. मूल्य संज्ञा भारतीय नहीं है। वह “वेल्यु' नामक अंग्रेजी संज्ञा का भारतीय अनुवाद है । मूल्य संज्ञा से जो लक्षित होता है उसे भारत में धर्म कहते हैं । व्यवहार में उसे नीति या नैतिकता भी कहा जाता है । फिर भी धर्म संज्ञा ही पूर्ण रूप से सटीक है । 
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४. धर्म संज्ञा का स्वीकार करने पर जो लक्षित होता है वह सवर्थि में परिपूर्ण है, सर्वसमाबेशक है । इसलिए मूल्यशिक्षा को धर्मशिक्षा कहने पर कथन असंदिग्ध बनता है ।
    
५ . कठिनाई यह है कि आज धर्म संज्ञा विवाद में पड गई है । धर्म को लेकर जो विवाद चल रहे हैं उसके कई आयाम हैं । विभिन्न उद्देश्यों से प्रेरित होकर विभिन्न प्रकार के लोग विभिन्न प्रकार के विवाद खड़े करते हैं ।
 
५ . कठिनाई यह है कि आज धर्म संज्ञा विवाद में पड गई है । धर्म को लेकर जो विवाद चल रहे हैं उसके कई आयाम हैं । विभिन्न उद्देश्यों से प्रेरित होकर विभिन्न प्रकार के लोग विभिन्न प्रकार के विवाद खड़े करते हैं ।
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१८. प्रेम आत्मा का सहज स्वभाव है । प्रेम का अर्थ अपनापन है । प्रेम का व्यवहार त्याग और सेवा का है। दूसरों के लिए कष्ट सहने का है । त्याग, सेवा और कष्ट से दुःख नहीं अपितु आनन्द का अनुभव होता है ।
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१९, आत्मीयता का सम्बन्ध होता है तब व्यापारी ग्राहक को अच्छे से अच्छी वस्तु मिले इसकी चिन्ता करता है । यह भावना जब व्यापक होती है तब उपभोग की वस्तुओं में कभी मिलावट नहीं होती, नापतौल में कभी धोखाधड़ी नहीं होती । ग्राहक व्यापारी पर पूर्ण विश्वास कर सकता है ।
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२०. शासक और शासित का सम्बन्ध आत्मीयता का होता है तब प्रजा की सुरक्षा की चिन्ता शासक करता है और उसके पालनपोषण को अपना कर्तव्य समझता है । प्रजा शासक को ईश्वर के समान आदर देती है । भारत में शासक को पृथ्वी पर आया हुआ इन्द्र ही मानती है ।
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२१. शिक्षक और छात्र का सम्बन्ध आत्मीयता का होता है तब शिक्षक छात्र को अपना मानस पुत्र मानता है और उसके कल्याण की कामना करता है । वह अपने से भी सवाया हो ऐसी उसकी इच्छा होती है । छात्र शिक्षक को भगवान के समान आदर देता है और उसकी सेवा को अपना धर्म मानता है ।
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२२. आत्मीयता के सम्बन्ध के आधार पर सारे व्यवसायी जब अपना व्यवसाय करते हैं तब कृषक समाज में अन्न का अभाव न रहे इसलिए खेती करता है, बुनकर प्रजा की वस्त्र की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए कपड़ा बुनता है,मोची लोगों के पैरों की रक्षा हो सके इसलिए जूते बनाता है । संक्षेप में सब दूसरों के काम आ सके इस उद्देश्य से काम करते हैं ।
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२३. काम करते समय सेवा के साथ साथ कर्तव्य बुद्धि होती है । दूसरों के साथ व्यवहार करते समय कर्तव्य बुद्धि से ही विचार का प्रारम्भ होता है । होता यह है कि जब सब कर्तव्य से प्रेरित होकर व्यवहार करते हैं तब सबके अधिकारों कि रक्षा सहज ही हो जाती है, सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति अपने आप हो जाती है ।
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२४. इस प्रकार के दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप समाज में श्रद्धा और विश्वास आधारभूत तत्त्व बनते हैं । इससे निर्शिताता आती है । चिन्ता एवं मानसिक तनाव पैदा ही नहीं होते । इस स्थिति में स्वास्थ्य, सुरक्षा, शान्ति, समृद्धि और सुख,स्वाभाविक हो जाते हैं ।
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२५, एकमात्र आत्मीयता के मूल्य से इतना लाभ होता है । जहां स्वकेन्द्री विचार है वहाँ स्वयं के हितों की रक्षा के लिए हमेशा चिन्ता रहती है, अपने जानमाल की रक्षा के लिए सावधानी रखनी पड़ती है, अपने फायदे के लिए ही सारा व्यवहार होता है ।
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२६. समाज में परस्पर विश्वास का अभाव रहता है, पुलिस, न्यायालय, जेल,हॉस्पिटल, अनाथालय, वृद्धाश्रम आदि की संख्या बढ़ती है ।
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२७, विश्वास का अभाव और स्वार्थवृत्ति के चलते धोखाधड़ी, मिलावट, भ्रष्टाचार आदि बढ़ते हैं । सब अपने अधिकारों का विचार करते हैं, कर्तव्य का नहीं । तब अपने फायदे के लिए स्पर्धा पनपती है । स्पर्धा छीनाझपटी का रूप धारण करती है । स्पर्धा संघर्ष की ओर, संघर्ष हिंसा की ओर और हिंसा विनाश की ओर ले जाती है ।
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२८. केवल आत्मीयता का मूल्य नहीं रहने से और स्वकेन्द्री हिसाब का मूल्य अपनाने से इतनी खानाखराबी हो जाती है । भारत में आज दोनों मूल्य चलते हैं । व्यक्ति और समाज एकसाथ दोनों को चाहता है ।
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२९, दो दृष्टियों के भेद का दूसरा आयाम है उपभोगवाद और संयम की जीवनशैली का । एक प्रतिमान सुख को जीवन का लक्ष्य मानता है, दूसरा मोक्ष को । एक कामनापूर्ति के लिए पुरुषार्थ की पराकाष्ठा करता है दूसरा कामनाओं को कम करने में ।          
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३०. एक प्रतिमान कामनाओं की पूर्ति के लिए अधिकाधिक साधनों को समृद्धि मानता है । ऐसी समृद्धि प्राप्त करने में यश प्राप्त होने को सफलता और सिद्धि मानता है, ऐसे यश और सफलता को विकास मानता है । ऐसा विकास करने के लिए की जाती आपाधापी को उद्यमशीलता मानता है ।
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३१ . दूसरा प्रतिमान आवश्यकताओं को कम करने को सिद्धि मानता है, अपनी और सबकी शांति चाहता है,सृूजनशील बनने के लिए पुरुषार्थ करता है, साधनों में नहीं अपितु साधना में विश्वास करता है, उद्यमशील होता है परन्तु व्यर्थ भागदौड़ नहीं करता । उसकी उद्यमशीलता औरों की भी अशांति का कारण नहीं बनती ।
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३२. ये दोनों मूल्य एकदूसरे के अत्यंत विरोधी हैं परन्तु भारत के लोग दोनों चाहते हैं । दोनों एकसाथ प्राप्त नहीं हो सकता यह सत्य है परन्तु उसकी चाह बनी रहती है ।
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३३. दो विरोधी प्रतिमानों का तीसरा आयाम है अपनी ज़िम्मेदारी के विषय में धारणा । एक स्वयं के दुःखों के लिए दूसरों को जिम्मेदार मानता है, दूसरा अपने आपको । भारत में कर्म और कर्मफल का सिद्धान्त सर्वस्वीकृत है । अपना भाग्य अपने ही कर्मों पर निर्भर करता है ऐसी आम धारणा है । अपना भाग्यविधाता व्यक्ति स्वयं है, जबकि दूसरा प्रतिमान अपने सुख को अपने कारण और अपना दुःख दूसरों के कारण है ऐसा मानता है । उसकी यह धारणा जन्म और पुनर्जन्म में विश्वास करने और नहीं करने के कारण बनती है । भारत जन्मजान्मांतर में विश्वास करता है, यूरोअमेरिकी जीवनदृष्टि नहीं करता ।
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३४. कामनाओं की पूर्ति ही एकमात्र लक्ष्य होता है तब छोटे बड़े सभी तत्त्व अथर्जिन के साधन ही हो जाते हैं । यहाँ शिक्षा अथर्जिन के लिए होती है, धर्माचरण सुखप्राप्ति के लिए होता है, दानदाक्षिणा भी कुछ भौतिक लाभ की प्राप्ति के लिए होते हैं । सारे भौतिक अभौतिक पदार्थों का मूल्य पैसे से ही आँका जाता है । यहाँ समाजसेवा भी व्यवसाय है ।
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३५. परन्तु भारत में ज्ञान पवित्र है, भक्ति पवित्र है, अन्न पवित्र है, जल पवित्र है । इनका मूल्य पैसे से आँका नहीं जाता है । ये सब अर्थ से परे हैं । इन्हें दान में  दिया जाता है और कृपा के रूप में मांगा जाता है । समाज की सेवा ईश्वर की सेवा है ।
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३६. भारत में वर्तमान में सामान्य लोग इन दो विरोधी बातों में फंसे हुए हैं । वे पुण्य कमाने के लिए तीर्थयात्रा पर जाते हैं जहां दर्शन और प्रसाद दोनों बिकते हैं । वे मानते हैं कि तीर्थयात्रा में जितना अधिक कष्ट है उतना ही पुण्य अधिक प्राप्त होता है फिर भी यात्रा में सुविधा ढूंढते हैं । तीर्थयात्रा और सैर कि खिचड़ी हो गई है ।
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करता । मिलावट नहीं करनी चाहिए यह जानता है परन्तु करता अवश्य है । दान करना चाहिए यह जानता है तो भी नहीं करता । विदेशी वस्तु का प्रयोग नहीं करना चाहिए यह जानता है परन्तु करता है ।
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३७. परस्त्री माता समान है और पराया धन मिट्टी के समान है ऐसी दृढ़ धारणा के कारण स्त्रीपुरुष सम्बन्धों में तथा अथर्जिन में शील का रक्षण सहज होता है । परन्तु अभारतीय दृष्टि में कामसंबंध और अधथार्जन में नैतिकता की आवश्यकता नहीं है । केवल कानून का ही बंधन पर्याप्त है । ऐसे समाज में शिलरक्षण को गंभीरता से नहीं लिया जाता ।
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=== मान्यता और व्यवहार में विरोध ===
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३८. इसका परिणाम यह होता है कि भारतीय जन दो प्रतिमानों की चपत में पिसा जा रहा है । वह आन्तरिक संघर्ष का शिकार बन गया है । वह किसी एक बात को ठीक मानता है परन्तु उसका आचरण ठीक उससे विपरीत होता है । वह जो करता है उसे मन ही मन ठीक नहीं मानता ।
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३९. वह जानता है कि प्रात:काल ब्राह्ममुहूर्त में उठना अच्छा है । वह इसके सम्बन्ध में सूक्तियाँ बताता है । उसकी मान्यता प्रामाणिक है परन्तु प्रत्यक्ष सुबह देर से उठना उसे अच्छा लगता है । उसकी सारी व्यवस्थायेँ वह जल्दी न उठ सके ऐसी ही बनती हैं ।
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४०. तामसी आहार नहीं लेना चाहिए ऐसा वह मानता है । बाहर का अपवित्र अन्न खाने से शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ता है, संस्कार क्षीण होते हैं, चित्त अशुद्ध होता है इसका उसे ज्ञान होता है परन्तु वह अशुद्ध आहार खरीदता है, बनाता है, बेचता भी है । यह ठीक नहीं है ऐसा मानने पर भी करता वही है ।
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४१. ज्ञान को पवित्र मानता है परन्तु ज्ञानसाधना नहीं करता । मिलावट नहीं करनी चाहिए यह जानता है परन्तु करता अवश्य है । दान करना चाहिए यह जानता है तो भी नहीं करता । विदेशी वस्तु का प्रयोग नहीं करना चाहिए यह जानता है परन्तु करता है ।
    
४२. भारत की अधिकृत व्यवस्थायेँ भारतीय मूल्यों से सर्वथा विपरीत बनी हैं । विज्ञापन की अधिकृतता, रासायनिक खादों का उत्पादन, गंगा जैसी नदियों के पानी का प्रदूषण करने वाले उद्योगों को मान्यता, विवाह को करार के सिद्धान्त के अनुसार मान्यता, व्यक्ति को ही समाजजीवन में केंद्र मानना आदि इसके बड़े बड़े उदाहरण हैं । सम्पूर्ण प्रजा का जीवन इन सिद्धांतों से बंधा हुआ है ।
 
४२. भारत की अधिकृत व्यवस्थायेँ भारतीय मूल्यों से सर्वथा विपरीत बनी हैं । विज्ञापन की अधिकृतता, रासायनिक खादों का उत्पादन, गंगा जैसी नदियों के पानी का प्रदूषण करने वाले उद्योगों को मान्यता, विवाह को करार के सिद्धान्त के अनुसार मान्यता, व्यक्ति को ही समाजजीवन में केंद्र मानना आदि इसके बड़े बड़े उदाहरण हैं । सम्पूर्ण प्रजा का जीवन इन सिद्धांतों से बंधा हुआ है ।
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५३. इस प्रकार हर बात में समझौते चलते रहते हैं । परस्पर
 
५३. इस प्रकार हर बात में समझौते चलते रहते हैं । परस्पर
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विरोधी दिशाओं में खींचे जाने के कारण शक्ति क्षीण होती है और स्थायी पशुता अथवा स्थायी अपराधबोध बना रहता है ।
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सारांश
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५४. इसे मूल्यों का हास कहने के स्थान पर देश को चलाने वाले तत्त्वों की नासमझी, विपरीत बुद्धि, आत्मविश्वास का अभाव, बौद्धिक दृढ़ता का अभाव, दायित्वबोध का अभाव, धर्मश्रद्धा का अभाव, राष्ट्रीय परंपपरा का अज्ञान और उसके गौरव का अभाव ही मानना चाहिए |
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५५, मूल्यों की इस दुर्गति का उपाय करना शिक्षा का ही और पर्याय से शिक्षकों का ही काम है ।
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=== शिक्षा की व्यावहारिक समस्याएँ ===
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५६. शिक्षा के तन्त्र की दायित्व लेने वाला कोई नहीं है । अधिकार रखने वाले तो बहुत हैं परन्तु जवाबदेही किसीकी भी नहीं है । यहाँ कुछ भी हो सकता है और कुछ भी नहीं होता । कोई किसीका खास कुछ बिगाड़ नहीं सकता ।
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५७. यहाँ तन्त्र काम करता है, व्यक्ति नहीं । व्यवस्था बहुत अच्छी है परन्तु व्यवस्था को सम्हालने वाला व्यक्ति नहीं है । व्यवस्था ही व्यवस्था को सम्हालती है। लोगों की शिकायत होती है कि तन्त्र बहुत जड़ हो गया है । तन्त्र तो जड़ होता ही है, परन्तु खास बात यह है कि तन्त्र ने मनुष्य को भी जड़ बना दिया है । तंत्र मनुष्य के लिए है, व्यवस्था के लिए नहीं ।
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५८. आज वास्तव में देखा जाता है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाया ही नहीं जाता है । आठ वर्ष पढ़ने पर भी छात्रों को अक्षसज्ञान नहीं होता है । जबकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षक सबसे अधिक गुणवत्ता वाले होते हैं । समस्या उनकी योग्यता कि नहीं है, उनकी नियत कि है । समस्या उन्हें प्रेरित करने वाली या नियमन में रखने वाली व्यवस्था की है । सब यह जानते हैं तो भी उन्हें कुछ किया नहीं जा सकता ।
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५९, ऐसा होना बहुत स्वाभाविक है । जब जड़ तन्त्र ही  नियमन करता है तब मनुष्य उस जड़ तन्त्र के अधीन हो जाता है । जड़ तन्त्र के पास विवेक नहीं होता । उसके अधीन रहना मनुष्य को अच्छा नहीं लगता है । परन्तु उसकी कुछ चलती नहीं है । इसलिए वह भी जड़ तन्त्र में जड़ बन जाता है । सबसे पहला काम वह दायित्वबोध को छोड देने का ही करता है ।
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६०. मनुष्य का स्वभाव है कि अच्छा बने रहने के लिए, अपना काम ठीक ढंग से करने के लिए उसे किसी न किसी प्रकार कि प्रेरणा चाहिए अथवा नियंत्रण चाहिए । ये दोनों बातें जिंदा मनुष्य से ही प्राप्त होने से काम चलता है | यंत्र न तो प्रेरणा दे सकता है न नियंत्रण कर सकता है । इसलिए शिक्षा भी जड़ बन जाती है ।
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६१. जड़ तन्त्र नियंत्रण तो करता है परन्तु वह जड़ का ही कर सकता है, जड़ पद्धति से ही कर सकता है । अत: उपस्थिती अनिवार्य कि जा सकती है परन्तु उपस्थित रहने से काम होता हो यह अनिवार्य नहीं है ।
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६२. विद्यालय में पूर्ण समय उपस्थित रहने, पाठ्यक्रम पूर्ण करने, विद्यालय का परीक्षाफल शतप्रतिशत प्राप्त करने की तांत्रिक व्यवस्था हो सकती है परन्तु उतने मात्र से शिक्षा नहीं होती है । ये व्यवस्थायें जड़ हैं, शिक्षा नहीं । बाध्य शरीर को, प्रक्रिया को, अंकों को किया जा सकता है, ज्ञान को नहीं । इसलिए छात्र उत्तीर्ण होते हैं, ज्ञानवान नहीं ।
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६३. छात्र परीक्षार्थी होते हैं, विद्यार्थी नहीं । वे परीक्षा पास करते हैं, पढ़ते नहीं हैं, शिक्षक परीक्षा पास करवाते हैं, पढ़ाते नहीं । उन्हें वेतन विद्यालय में उपस्थित रहने का मिलता है पढ़ाने का नहीं, परीक्षा पास करवाने का मिलता है पढ़ाने का नहीं ।
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इनकी गन्ध भी नहीं होती है । समस्या का पता ही नहीं चल सकता है ।
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६४. वेतन ज्ञान और संस्कार देने का, चरित्रनिर्माण करने का दिया भी नहीं जा सकता । वेतन का और ज्ञान तथा संस्कार का कोई सम्बन्ध ही नहीं है । इनका सम्बन्ध स्वेच्छा, दायित्वबोध और ज्ञाननिष्ठा से है । ये बातें धर्म की, धर्माचार्य की, स्वजनों की या स्वयं की प्रेरणा से ही प्राप्त हो सकती हैं । जड़ तन्त्र को इनकी गन्ध भी नहीं होती है । समस्या का पता ही नहीं चल सकता है ।
    
६५. जड़ तन्त्र को लगता है कि सुविधा होने से छात्र शिक्षा ग्रहण करेंगे। अत: यह तन्त्र छात्रों को निःशुल्क शिक्षा देने की, पाठ्यपुस्तकें देने की, भोजन देने की, गणवेश देने की व्यवस्था करता है । इसमें सदूभाव होता है । परन्तु यह जड़ सद्धाव है । छात्रों के परिवार को सहायता मिलती है परन्तु छात्र शिक्षा ग्रहण नहीं करते । शिक्षा जिज्ञासा के कारण ग्रहण कि जाती है, सुविधा प्राप्त होने से नहीं । जिज्ञासा जागृत करने का काम सुविधा के बस की बात नहीं है ।
 
६५. जड़ तन्त्र को लगता है कि सुविधा होने से छात्र शिक्षा ग्रहण करेंगे। अत: यह तन्त्र छात्रों को निःशुल्क शिक्षा देने की, पाठ्यपुस्तकें देने की, भोजन देने की, गणवेश देने की व्यवस्था करता है । इसमें सदूभाव होता है । परन्तु यह जड़ सद्धाव है । छात्रों के परिवार को सहायता मिलती है परन्तु छात्र शिक्षा ग्रहण नहीं करते । शिक्षा जिज्ञासा के कारण ग्रहण कि जाती है, सुविधा प्राप्त होने से नहीं । जिज्ञासा जागृत करने का काम सुविधा के बस की बात नहीं है ।
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