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==== ३. कानून नहीं धर्म ====
 
==== ३. कानून नहीं धर्म ====
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मनुष्यसमाज को व्यवस्था में रहना पडता है। मनुष्यसमाज को व्यवस्था में रखना भी पड़ता है। कारण यह है कि मनुष्यों की वृत्तिप्रवृत्ति भिन्न भिन्न प्रकार की होती है । मनुष्य प्रकृति से स्वैराचारी होता है। मनुष्य की इच्छायें भी अनन्त होती हैं, बहुविध होती हैं। जो मन में आये वह कर सकने को वह स्वतन्त्रता मानता है। विभिन्न प्रवृत्ति के मनुष्यों की इच्छा, आकांक्षा आदि से प्रेरित व्यवहार, भिन्न भिन्न होने के कारण एकदूसरे से टकराते हैं। इसमें से संघर्ष, अशान्ति, वैमनस्य आदि निर्माण होते हैं और सुख और शान्ति नष्ट होते हैं।
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इसका उपाय करने की दो व्यवस्थायें हैं । एक है धर्म और दूसरी है कानून | धर्म भारत की व्यवस्था है, कानून पश्चिम की।
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३. धर्म की व्यवस्था दो स्तरों पर हुई है। एक है
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सृष्टिगत व्यवस्था, दूसरी है समाजगत । सृष्टिगत धर्मव्यवस्था सृष्टि के साथ साथ उत्पन्न हुई है, समाजगत व्यवस्था मनीषियों ने सृष्टिगत धर्म के अनुकूलन में बनाई है। कानून में ऐसे दो स्तर नहीं है। केवल मनुष्यसमाज के लिये मनुष्य ने बनाई हुई यह व्यवस्था है।
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४. धर्म की व्यवस्था मनुष्य के स्वभाव, क्षमता, रुचि, आवश्यकता, आदि मानवीय गुणों को ध्यान में लेकर बनाई गई है, कानून की व्यवस्था यान्त्रिक है, मानवीय सन्दर्भ से रहित है।
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५. पश्चिम का समाजचिन्तन व्यक्तिकेन्द्री होने के साथ साथ स्वार्थ केन्द्री भी है। हर व्यक्ति अपने स्वयं के हित का ही विचार करेगा और इसकी रक्षा की ही चिन्ता करेगा यह गृहीत माना जाता है। ऐसा करना स्वाभाविक और न्याय्य भी माना जाता है । व्यक्तियों के स्वार्थ आपस में टकरायेंगे यह भी स्वाभाविक माना जाता है। सबके हितों को परस्पर टकराने से बचाने हेतु करार व्यवस्था बनाई जाती है और करार को समुचित रूप से लागू करने के लिये कानून बनाये जाते है।
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६ . कानून बनाने की पद्धति यान्त्रिक होती है। उन्हें मानना अनिवार्य होता है। कानूनभंग के लिये दण्डविधान होता है । दण्ड के भय से ही कानून का पालन किया जाता है। कानून के पालन में स्वेच्छा नहीं होती है। कानून के उपरान्त होने वाला न्याय भी यान्त्रिक होता है। अतः कानून का पालन सख्ती से ही कराया जाता है।
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७. धर्म का ऐसा नहीं है । धर्म का आधार तात्त्विक दृष्टि से आत्मीयता है, व्यावहारिक दृष्टि से कर्तव्य है। सबको कर्तव्य का पालन करना सिखाया जाता है । तो भी स्खलन तो होता है इसलिये धर्म से विरुद्ध आचरण होता ही है। उसके लिये दण्ड का विधान भी होता है । न्याय और दण्ड में देशकालस्थिति के सन्दर्भ का विवेक किया जाता है। 
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८. धर्मानुसारी दण्डविधान में न्याय के उपरान्त क्षमा और दण्ड के मध्य एक तीसरा प्रायश्चित का भी विधान होता है जो पश्चात्ताप के अनुसरण में और अनुपात में दिया जाता है ।  व्यक्ति को अपनी गलती सुधारने का अवसर दिया जाता है।
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९. धर्म का पालन स्वेच्छापूर्वक करना होता है क्योंकि वह दूसरों का विचार करने के साथ और स्वयं के
    
==References==
 
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