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दिखने में आकर्षक और तत्काल सुविधा देने वाली परन्तु सार्वकालीन और सार्वत्रिक प्रदूषण और अस्वास्थ्य निर्माण करने वाली पास्टिक की दुनिया पश्चिम की अल्पबुद्धि का परिणाम है। अब यह केवल पदार्थों तक सीमित नहीं रही है। इसने प्लास्टिकवाद को जन्म दिया है
 
दिखने में आकर्षक और तत्काल सुविधा देने वाली परन्तु सार्वकालीन और सार्वत्रिक प्रदूषण और अस्वास्थ्य निर्माण करने वाली पास्टिक की दुनिया पश्चिम की अल्पबुद्धि का परिणाम है। अब यह केवल पदार्थों तक सीमित नहीं रही है। इसने प्लास्टिकवाद को जन्म दिया है
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जो प्रत्यक्ष पदार्थों से भी अधिक हानिकारक है।
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क्या है यह प्लास्टिकवाद ?
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किसी भी पदार्थ या प्रक्रिया का केन्द्रवर्ती तत्त्व नष्ट कर देना प्लास्टिकवाद है।
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उदाहरण के लिये अनाज की ऐसी जात तैयार करना जिसे पुनः बोया नहीं जा सकता, अर्थात् उसे बोने से अनाज ऊगेगा नहीं। इसे टर्मिनेटेड सीड - पुनः न ऊगने वाला बीज - अन्तिम बीज कहते हैं। अनाज, फल, सागसब्जी, फूल सब में यह प्रक्रिया चलती है । इसका अर्थ यह हुआ कि इन पदार्थों में रूप, रस, गन्ध, रंग आदि तो हैं परन्तु प्राण नहीं है। ये पदार्थ खाने से पेट तो भरता है परन्तु प्राणों का पोषण नहीं होता । उन्हें खाने से शरीर का संविधान भी धीरे धीरे बदलता जाता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि पचास सौ वर्षों में मनुष्य भी टर्मिनेटेड हो जायेंगे । आज लक्षण शुरू तो हो ही गये हैं।
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भोजन में तो यह बहुत गहरे तक गया है। अनाज, सब्जी की तरह मसाले भी पोषक के लिये होते हैं। शरीर और प्राण के लिये पोषक पदार्थों को स्वादिष्ट और दर्शनीय बनाने की कला मनुष्य को अवगत है । परन्तु प्लास्टिकवाद पोषण नष्ट कर केवल स्वाद और सुन्दरता को प्रस्तुत करता है। स्वाद और सुन्दरता भी चाहिये इसमें कोई सन्देह नहीं । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द आदि की सुन्दरता और मधुरता ज्ञानेन्द्रियों को सुख देती है परन्तु वह प्राकृतिक हो तभी । प्लास्टिक मसालों को प्राणहीन बना देता है । भोजन बनाने की, पैकिंग की, सुरक्षित रखने की सारी व्यवस्था प्लास्टिकवाद से ओतप्रोत है। इसका बहुत गहरा प्रभाव शरीर पर होता है। शरीर से सम्बन्धित ही बात करनी है तो औषधि का क्रम आहार के तुरन्त बाद आता है। एलोपथी द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जो औषधियाँ होती हैं उनका स्वभाव भी प्लास्टिक का ही होता है। अर्थात् ये अविघटनक्षम होता हैं । ये बिमारी दूर नहीं करतीं, शरीर का संविधान बदलती हैं, कुछ मात्रा में ज्ञानेन्द्रियों को बधिर भी कर देती हैं। प्रत्यक्ष में तो इन औषधियों तथा सर्जरी आदि प्रक्रियाओं का परिणाम चमत्कारपूर्ण लगता है परन्तु उनका प्लास्टीक का स्वभाव शरीर की  आन्तर्बाह्य संरचना पर विपरीत परिणाम करता है। आज मेडिकल साइन्स-औषधि विज्ञान से सब इतने अधिक प्रभावित हैं कि इस मुद्दे की ओर खास किसी का ध्यान जाता नहीं हैं परन्तु इस विषय पर भारतीय दृष्टि से अनुसन्धान करने की बहुत आवश्यकता है। एलोपथीं के सिद्धान्त और शरीररचना का सम्बन्ध कैसा है। औषधि बनाने की प्रक्रिया कैसी है और उसके शरीर पर क्या परिणाम होते हैं इसका अध्ययन होने की आवश्यकता है। सामान्य जन के लिये एक गोली लेते ही दर्द शान्त हो जाता है यह चमत्कार लगता है परन्तु उसके दुष्परिणाम समझ में नहीं आते। शरीर स्वास्थ्य से सम्बन्धित दिनचर्या, ऋतुचर्या, जीवनचर्या, आहारविहार, पथ्यापथ्य, व्यक्ति की मूल प्रकृति आदि का जिस शास्त्र में कुछ भी विचार नहीं करना पडता है वह शास्त्र मूल रूप में ही अप्राकृतिक कहा जायेगा । मनुष्य शरीर को एक भौतिक पदार्थ के रूप में ही वह देखता है ऐसा कहा जायेगा।
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ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित सभी विषयों और पदार्थों के प्लास्टिकवाद का विस्तार हुआ है। फूलों के, फलों के, मसालों के जो अर्क बनते हैं उनमें मूल रूप से उन पदार्थों का कोई अस्तित्व नहीं होता है। रासायनिक संयोजनों से रसायनशास्त्र की प्रयोगशाला में वे बनाये जाते हैं। उनका जो मूल उद्देश्य है वह सिद्ध नहीं होता, इन्द्रियों को केवल बाहरी अनुभव होता है। ग्रीन हाऊस खेती, बाजार में पैकींग में मिलने वाले फलों के रस, रासायनिक खाद, विटामीन की गोलियाँ आदि सब इस के उदाहरण हैं।
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प्रकृति में पदार्थों के रूपान्तरण की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। पदार्थों में स्थित संगठन और विघटन के गुण के कारण से यह प्रक्रिया सम्भव होती है । विघटन और संगठन के साथ समरसता का गुण भी जुडा हुआ है । इससे चक्रीयता की स्थिति निर्माण होती है । चक्रीयता प्रकृति का एक महत्त्वपूर्ण गुण है जो पदार्थ और काल दोनों को लागू है। इन गुणों के कारण प्रकृति स्वयंसंचालित रहती है। प्रकृति के साथ जुडा चेतन कॅटलेटिक एजण्ट के समान प्रकृति को स्वसंचालित रहने में कारणभूत रहता है।
    
==References==
 
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