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सन् १७५० से १८०० तक दक्षिण एवं मध्यभारत लगभग स्वतन्त्र था। हमलों का प्रभाव कुछ कम था। इसलिए वहां की मौलिकता एवं सत्त्व आज भी पर्याप्त मात्रा में सुस्थिति में लगता है। ये क्षेत्र यूरोपीय शैली एवं रीतिरिवाजों से कम प्रभावित हुए लगते हैं। साथ ही स्वत्व बनाए रखकर यूरोपीय ज्ञान एवं विज्ञान का अपने उद्देश्य के अनुरूप उपयोग भी वे कर सकते हैं।
 
सन् १७५० से १८०० तक दक्षिण एवं मध्यभारत लगभग स्वतन्त्र था। हमलों का प्रभाव कुछ कम था। इसलिए वहां की मौलिकता एवं सत्त्व आज भी पर्याप्त मात्रा में सुस्थिति में लगता है। ये क्षेत्र यूरोपीय शैली एवं रीतिरिवाजों से कम प्रभावित हुए लगते हैं। साथ ही स्वत्व बनाए रखकर यूरोपीय ज्ञान एवं विज्ञान का अपने उद्देश्य के अनुरूप उपयोग भी वे कर सकते हैं।
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समृद्ध कृषि एवं विशाल औद्योगिक परंपरा के कारण भारत आज भी अपनी अर्थ व्यवस्था अपनी ही पद्धति से समर्थ रूप में कर सकता है। अपनी उत्पादन क्षमता पुनः बढ़ा सकता है। भले ही दो सौ वर्ष अवनति के, विनाश के एवं निराशा के बीते हैं तो भी भारत में पुनः उत्थान की क्षमता है ही। कम से कम दैनन्दिन उपयोग की वस्तुएँ तो विपुल मात्रा में बनाई ही जा सकती हैं। सबसे पहले सामाजिक, पर्यावरणीय एवं तकनीक की दृष्टि से अत्यंत हानिकारक पद्धतियाँ एवं उस से होनेवाला वस्तुओं का उत्पादन सर्वथा बंद कर देना चाहिए। उसी प्रकार बीज, पौधे, एवं अन्य वस्तुएँ, जो भारत पर जबरदस्ती लादी जा
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समृद्ध कृषि एवं विशाल औद्योगिक परंपरा के कारण भारत आज भी अपनी अर्थ व्यवस्था अपनी ही पद्धति से समर्थ रूप में कर सकता है। अपनी उत्पादन क्षमता पुनः बढ़ा सकता है। भले ही दो सौ वर्ष अवनति के, विनाश के एवं निराशा के बीते हैं तो भी भारत में पुनः उत्थान की क्षमता है ही। कम से कम दैनन्दिन उपयोग की वस्तुएँ तो विपुल मात्रा में बनाई ही जा सकती हैं। सबसे पहले सामाजिक, पर्यावरणीय एवं तकनीक की दृष्टि से अत्यंत हानिकारक पद्धतियाँ एवं उस से होनेवाला वस्तुओं का उत्पादन सर्वथा बंद कर देना चाहिए। उसी प्रकार बीज, पौधे, एवं अन्य वस्तुएँ, जो भारत पर जबरदस्ती लादी जा रही हैं, उनका भी त्याग करना चाहिए। यह भी पिछले कई दशकों से हो रहा एक प्रकार का आक्रमण ही है। गाँवों एवं शहरों के कस्बों जैसे क्षेत्रों में रहनेवाले लोगों की आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन होना चाहिए, न कि बाजार एवं आन्तरराष्ट्रीय व्यापार की आवश्यकता के अनुसार। इसका अर्थ यह नहीं है कि नगरों एवं महानगरों में रहनेवाले लोगों की आवश्यकताओं की उपेक्षा की जाए, अथवा आंतरराष्ट्रीय व्यापार बंद कर दिया जाए। इसका अर्थ यह है कि हमारी प्राथमिकताओं की पुनर्रचना की जाए। उत्पादन की पद्धति में परिवर्तन के साथ वितरण व्यवस्था में भी परिवर्तन अपेक्षित है। वस्तु का उत्पादन जहाँ होता है उस क्षेत्र का उस वस्तु पर प्रथम अधिकार होना चाहिए। यदि केवल बाजार को ही ध्यान में रखा जाएगा तो वस्तु की हेराफेरी की समस्या निर्माण होगी; दूर तक ले जाना है तो उसका वस्तु की उत्पादन प्रक्रिया पर प्रभाव पड़कर उसका स्वरूप भी बदल जाता है। वस्तु मँहगी होती है एवं जहां उसका उत्पादन होता है वहाँ, एवं जो लोग उसका उत्पादन करते हैं उनके लिए वह वस्तु दुर्लभ बन जाती है। बेची जा सकती हैं ऐसी ही वस्तुओं का उत्पादन होता है, आवश्यक वस्तुओं का नहीं। जहाँ वस्तुओं का उत्पादन नहीं होता है वहाँ या तो उत्पादन होने लगे या उसका कोई बड़ा संग्रह हो जहाँ से उन्हें वे वस्तुएँ मिल सकें। सिद्धांत यह है कि अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन एवं उपयोग स्थानीय हो। भारत जैसा घनी आबादीवाला देश अन्न एवं अन्य प्राथमिक आवश्यकता की वस्तुएँ अन्य देशों को मुहैया कराने में असमर्थ है ऐसी कल्पना करना भी हास्यास्पद है। चाय, कपास, कच्चा लोहा, कोयला इत्यादि का निर्यात करना है तो तब विचार करना पडेगा जब वे आवश्यकता से सचमुच अधिक हैं, या इतनी विपुल मात्रा में मिलती हैं कि वे कभी समाप्त नहीं होंगी। उदाहरण के तौर पर पश्चिम यूरोप में वर्तमान समय में डेरी उत्पादनों का निकास हो सकता है क्योंकि यहाँ वे वस्तुएँ वास्तव में आवश्यकता से ज्यादा बनती हैं।
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खाद्य पदार्थ, कपड़ा, आवास एवं सार्वजनिक उपयोग के मकान बनाने के लिए उपयोगी सामग्री, जंगल उत्पादन एवं वनस्पति तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ, जो कि भारत की संस्कृति एवं सभ्यता से स्वाभाविक एवं अटूट संबंध रखती हैं उन का अर्थव्यवहार स्थानीय ही हो यह अत्यंत आवश्यक है। उस कारण से कहीं कहीं यदि उत्पादन की मात्रा कम हो तो भी ऐसा ही करना चाहिए। क्योंकि उससे उत्पादन की गुणवत्ता में वृद्धि होगी, भारत के सदियों से संचित सौंदर्यबोध को नवजीवन मिलेगा और मात्रा कम होने पर भी उसका बहुत बड़ा एवं अच्छा मुआवजा मिलेगा।
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इसी प्रकार परिवर्तन करने पर भी पुरानी पद्धति को पकड़कर रखना जरूरी नहीं है। पुराने स्वरूप को प्रतिष्ठित करने का अर्थ है उसमें निहित संकल्पना को बनाए रखना, उस समय व्यक्ति एवं समाज का जो आंतरिक सहसंबंध था उसे बनाए रखना, ऐसे उत्पादकों के भिन्न-भिन्न समूहों का आंतरसंबंध बनाए रखना। भारतीय राज्यतन्त्र का मर्म ही यह आंतरसंबंध है। भारत की ढाँचागत एवं संस्थागत रचना का हार्द भी वही था। केवल उच्च वर्ग के लोगों को ही नहीं अपितु भारत के सर्वसामान्य समाज को जो रचना उपयोगी एवं मूल्यवान लगती है उसे यदि पुनः अपनाया जाय, युगानुकूल उसमें सामान्य लोगों की सूझबूझ से ही परिवर्तन किया जाय, एकबार वह रचना प्रस्थापित हो जाए उसके बाद ही अपनी आवश्यकता के अनुसार, अपने स्वयं के स्वतन्त्र निर्णय से हम बाहर से वस्तुएँ आयात करें अथवा यंत्रों का उपयोग करें तो नुकसान नहीं होगा। बाहर से आया हुआ होकायंत्र अथवा मुद्रणालय जिस प्रकार यूरोप के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ था उसी प्रकार हमें भी आयात लाभकारी सिद्ध होगा।
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परन्तु अन्न, वस्त्र, आवास भले ही अनिवार्य हों मनुष्य के लिए इतनी ही बात पर्याप्त नहीं होती। उदाहरण के तौर पर अब तो भारत डेढ़ सौ वर्षों से विशाल रेल व्यवहार से जुड़ा हुआ है, डाक एवं तार की व्यवस्था भी उतनी ही पुरानी है, अब टेलिफोन भी आ गया है, समाचारपत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें भी दैनिक आवश्यकताएँ हैं; रेडियो, दूरदर्शन एवं मोटरें भी सामान्य हो गए हैं, हवाई जहाज भी परिचित है। हवाई जहाज के कारण ही तो असंख्य आंतरराष्ट्रीय परिषद्, परिसंवाद, बैठक, यात्राएँ इत्यादि संभव बनते हैं, दुनिया को चलाने का दावा करनेवाले लोग सरलता से एकदूसरे से मिल सकते हैं एवं मुट्ठीभर लोग दुनिया को मुठ्ठी में बांधे रख सकते हैं एवं पूरा विश्व एक छोटा सा गाँव है ऐसा बोलने का साहस होता है। सैद्धांतिक रूप से कदाचित इस प्रकार का वाहनव्यवहार छोड़कर परंपरागत धीमी गति का वाहनव्यवहार अपनाया जा सकता है। उससे व्यक्ति एवं समाज दोनों का लाभ होगा। परन्तु भले ही भारत के दस से बीस प्रतिशत लोग ही इन सभी सुविधाओं का उपयोग करते हों तो भी वाहनव्यवहार एवं सूचना प्रसारण में इतना जलद परिवर्तन करना संभव नहीं है। यद्यपि इन दोनों व्यवस्थाओं का भारतीय दृष्टिकोण एवं भारतीय पार्श्वभूमि में मूल्यांकन होना बहुत ही आवश्यक है। ऐसे मूल्यांकन में व्यावहारिक विकल्प एवं उसके क्रियान्वयन की पद्धति का भी समावेश होना चाहिए।
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ऊर्जा के विषय में भी पुर्नविचार की आवश्यकता है। भारत ऊर्जा के क्षेत्र में पशु, कोयला, लकडी एवं लकडी के कोयले जैसी वस्तुओं पर निर्भर है। दिनों दिन ईंधन के लिए ही योग्य लकडी का उपयोग करने के स्थान पर जंगल कटते जा रहे है एवं नीलगिरी जैसे वृक्षों की उपज एवं बुआई बढ़ती जा रही है। देश के ८० से ९० प्रतिशत लोगों को तो ऊर्जा प्राप्त नहीं होती है। उनके लिए सूर्यप्रकाश ही ऊर्जा का स्रोत है। वास्तव में भारत जैसे भरपूर सूर्यप्रकाशवाले देश में ऊर्जा की आवश्यकता कम ही होनी चाहिए, ऊर्जा की अधिक आवश्यकता तो सूर्यप्रकाश के विषय में इतने सद्भागी नहीं है ऐसे देशों को पड़नी चाहिए। परन्तु इतनी बड़ी कृपा का लाभ उठाया जा सके इस प्रकार की लोगों की जीवन शैली एवं स्वाभाविक कुशल रचना भी होनी चाहिए। भारत की जीवनशैली मूलतः ऐसी ही थी, परन्तु अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी से इसमें बहुत विकृति आई है। अब लोगों की जीवनशैली एवं रचना में पुनः परिवर्तन हो तब तक वर्तमान परिस्थिति में भी ऊर्जा का पुनर्वितरण जरुरी है। व्यक्तिगत उपयोग के लिए, बड़े बड़े प्रकल्पों के लिए, योजनाओं के लिए सौर ऊर्जा का अधिक से अधिक उपयोग करने की आवश्यकता है।
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जिन जिन क्षेत्रों में तीसरे विश्व के समान भारत को अन्य देशों के व्यवहार को ही केन्द्रस्थान पर रखने की जरूरत है वहीं भिन्न रूप से सोचने की भी जरूरत है। आज समग्र विश्व में बल का प्रयोग सबसे महत्वपूर्ण कारक माना जाता है। इस विषय में भारत को एक विशेष दृष्टि विकसित करने की जरूरत है। महात्मा गांधी ने अहिंसा पर आधारित विश्व रचना की, एवं संयम पर आधारित व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन रचना की बात की थी। विश्व में अनेकानेक लोगों ने इस बात को समझकर अपनाया है।
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आज भी इन्ही सूत्रों को आधार बनाकर आज के संदर्भ में उसके विभिन्न विकल्पों को छाँटकर उसे व्यावहारिक बनाने की जरूरत है। इस विषय में भारत पहल कर सकता है एवं रास्ता भी दिखा सकता है, परन्तु ऐसे प्रयास सफल होने तक भारत को स्वाभाविक रूप से ही अपनी सुरक्षा की ओर ध्यान देना ही पड़ेगा। एवं उसके लिए आवश्यक सभी उपायों का भी आयोजन करना पड़ेगा। इस विषय में भारत को आज विश्व में प्रबल भौतिक संसाधन, अनुसंधान, उपकरण एवं उससे प्राप्त होनेवाला सामर्थ्य भी प्राप्त करना पड़ेगा।
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अभी तक तो भारत जैसे देशों ने अपने व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन में आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक एवं तांत्रिक ज्ञान को दखल देने से रोके रखा है, या बेमन से कुछ कुछ अपनाया है। इसमें असफलता ही प्राप्त हुई है। भारत की मानसिक एवं आध्यात्मिक स्थिति आज उलझ गई है। यूरोप के सैनिकी, राजनैतिक एवं बौद्धिक आक्रमण का यह परिणाम है। इस स्थिति में विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को उचित रूप से अपनाने में असफलता प्राप्त होना स्वाभाविक है। यूरोप का यह आक्रमण इतना प्रबल है कि महात्मा गाँधी के निकटतम अनुयायी एवं उनकी ही प्रेरणा से कार्य करनेवाली सभी संस्थाएँ अपने शत्रु की ही विचारधारा, व्यवहारप्रणाली एवं पद्धतियों का अनुसरण एवं अनुकरण करते हैं। ब्रिटिश राज्यतन्त्र द्वारा निर्मित ढाँचे, नीतिनियम, पद्धति एवं प्रक्रियाओं को उन्होंने अपना लिया है। उन लोगों को होश ही नहीं है कि उद्देश्य चाहे लोगों का भला करने का ही हो परन्तु होता तो नुकसान ही है।
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उत्पादन के क्षेत्र में महात्मा गांधी ने स्थानीय कच्चा माल एवं उत्पादन केन्द्र, मनुष्य की मेहनत एवं स्वावलंबन को आधारभूत तत्त्व माना था। आज उनकी संस्थाएँ बातें तो इन्हीं सब की करती हैं परन्तु व्यवहार उसके बिलकुल विपरीत करती हैं। इसका उन्हें होश ही नहीं रहा। पश्चिम की निरर्थक एवं बेकार तकनीक को वैकल्पिक रास्ता कहकर उन्होंने अपना लिया है। इस तरह अपने ही समाज से वे अलग हो गए हैं। मूल हथकरघे के स्थान पर कपड़े की मिलों में उपयोग किए जानेवाले कताईयंत्र की छोटी प्रतिकृति जैसे अंबर चरखे का प्रचलन इस विकृति का एक उदाहरण है।
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भारत यदि तीसरे विश्व एवं समग्र विश्व को भी रास्ता दिखाना चाहता है तो अपने भूतकाल को, अपने सही स्वभाव एवं स्वरूप को तथा वर्तमान वास्तविकता को उसने ठीक प्रकार से समझना होगा। साथ ही पश्चिम को भी उसके वास्तविक रूप में ही समझना होगा। आधुनिक विज्ञान द्वारा निर्मित संकटों से बच निकलने के लिए भारत जैसे देश को स्वयं तो जागना ही पड़ेगा साथ ही उसे प्रभावित करनेवाली सांसारिक स्थिति के विषय में भी जागृत बनना पड़ेगा।
    
==References==
 
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