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शुद्ध भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो आविष्कार हुए वे निश्चितरूप से प्रशंसनीय ही थे। परन्तु अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धियुक्त मनुष्य के हाथ में जब प्रभावी साधन आता है तो उसका प्रयोग कैसा होगा यह सहज ही समझ में आनेवाली बात है। विज्ञान एक प्रभावी साधन है, वह न तो अच्छा होता है न बुरा, उसका प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि उसके प्रयोग का परिणाम अच्छा होगा कि बुरा । विज्ञान के आविष्कार हुए तब पश्चिम की खुशी और गर्व की सीमा नहीं रही। दैवयोग से उस समय इंग्लैण्ड का आधिपत्य विश्व के बड़े हिस्से पर था । इसलिये विज्ञान के आविष्कारों से जन्मे उत्साह और आनन्द का प्रभाव अन्य देशों पर भी पडा।
 
शुद्ध भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो आविष्कार हुए वे निश्चितरूप से प्रशंसनीय ही थे। परन्तु अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धियुक्त मनुष्य के हाथ में जब प्रभावी साधन आता है तो उसका प्रयोग कैसा होगा यह सहज ही समझ में आनेवाली बात है। विज्ञान एक प्रभावी साधन है, वह न तो अच्छा होता है न बुरा, उसका प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि उसके प्रयोग का परिणाम अच्छा होगा कि बुरा । विज्ञान के आविष्कार हुए तब पश्चिम की खुशी और गर्व की सीमा नहीं रही। दैवयोग से उस समय इंग्लैण्ड का आधिपत्य विश्व के बड़े हिस्से पर था । इसलिये विज्ञान के आविष्कारों से जन्मे उत्साह और आनन्द का प्रभाव अन्य देशों पर भी पडा।
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विज्ञान की सहायता से टैकनोलोजी का अद्भुत विकास हुआ। मनुष्य का जीवन असंख्य प्रकार की सुविधों से भर गया। एक भी काम ऐसा नहीं था जो यन्त्र की सहायता से न हो । यातायात के साधन बढ गये । यातायात की गति भी बढी । सडकें, पुल, पहाड़ों पर चढने हेतु रस्सी मार्ग, पहाडों के बीच में से जाने हेतु बोगदे, पानी पर चलने वाले जहाजों के साथ साथ पानी के अन्दर चलने वाले जहाज, आकाश मार्ग से जाने हेतु हवाई जहाज, अवकाशयान, बहुमंजिला मकान, उपर चढते हेतु उद्वाहक, फर्नीचर बनाने हेतु यन्त्र और उन यन्त्रों को बनाने हेतु यन्त्र... सर्वत्र यन्त्र ही यन्त्र दिखाई देने लगे । घरों के बैठक कक्षों, शयन कक्षों, भोजन कक्षों, रसोई, स्नानघर, बगीचा
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विज्ञान की सहायता से टैकनोलोजी का अद्भुत विकास हुआ। मनुष्य का जीवन असंख्य प्रकार की सुविधों से भर गया। एक भी काम ऐसा नहीं था जो यन्त्र की सहायता से न हो । यातायात के साधन बढ गये । यातायात की गति भी बढी । सडकें, पुल, पहाड़ों पर चढने हेतु रस्सी मार्ग, पहाडों के बीच में से जाने हेतु बोगदे, पानी पर चलने वाले जहाजों के साथ साथ पानी के अन्दर चलने वाले जहाज, आकाश मार्ग से जाने हेतु हवाई जहाज, अवकाशयान, बहुमंजिला मकान, उपर चढते हेतु उद्वाहक, फर्नीचर बनाने हेतु यन्त्र और उन यन्त्रों को बनाने हेतु यन्त्र... सर्वत्र यन्त्र ही यन्त्र दिखाई देने लगे । घरों के बैठक कक्षों, शयन कक्षों, भोजन कक्षों, रसोई, स्नानघर, बगीचा आदि सर्वत्र छोटे बड़े, सरल कठिन सारे । काम यन्त्रों के सहारे होने लगे। आज भी नये नये यन्त्र बनाने का यह सिलसिला जारी ही है। आज की संगणक की क्रान्ति ने जादू कर दिया है।
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भौतिक विज्ञान और उसकी सहायता से विकसित अद्भुत तन्त्रज्ञान का यदि एकांगी विचार ही करना है तो उसकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है। परन्तु उसके विश्वव्यापी जीवनलक्षी परिणामों का विचार भी करना है तो मामला गम्भीर है। और ऐसा विचार करना ही होगा, क्योंकि जीवन के लिये विज्ञान और तन्त्रज्ञान होते हैं न कि विज्ञान और तन्त्रज्ञान के लिये जीवन ।
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आज तो वही बात सामने आ रही है। यन्त्रों का प्रभाव इतना बढ़ गया है कि अब सारा जीवन यन्त्रों के साथ अनुकूलन बनाने में ही व्यतीत होता है। बिना यन्त्रों के हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते । यन्त्र हमें अनिवार्य लगने लगे हैं।
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यन्त्रों का विनाशक प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य पर पडा है। यन्त्रों के कारण से आहार की गुणवत्ता कम हुई है। भोजन बनाने हेतु जो यन्त्रसामग्री का प्रयोग होता है वह इस गुणवत्ता के नाश का कारण होता है। उदाहरण के लिये मिक्सर, ग्राइण्डर, चर्नर, माइक्रोवेव आदि भोजन बनाने वाले का कष्ट कम करते हैं परन्तु भोजन करनेवाले के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। खेतों में रासायनिक खाद, ट्रेक्टर से जुताई और बुनाई, बीजों का संकरीकरण, अनाज और सब्जी को सुरक्षित रखने की व्यवस्था आदि से पोषणक्षमता का नाश होता है । वातानुकूलन जैसी व्यवस्थाओं से गर्मी से रक्षा होती है परन्तु शरीर की रोगप्रतिकारक क्षमता कम होती है और वातावरण में तापमान बढता है। वाहनों की गति के साथ मनुष्य का शरीर और मन तालमेल नहीं बिठा सकते हैं और अनेक मनोकायिक समस्यायें पैदा होती हैं। सबसे अधिक एकदम से समझने में नहीं आनेवाली हानि है ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनक्षमता कम होना और कर्मेन्द्रियों का कौशल कम होना ।
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अनाज, सब्जी, फल, तैयार खाद्य पदार्थों के साथ साथ डेरी उद्योग ने स्वास्थ्य को बहुत हानि पहुँचाई है। दूध जैसे प्राकृतिक पदार्थ को अत्यन्त कृत्रिम बना दिया है।
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यन्त्रों का एक साथी उत्पाद है पेट्रोलियम और दूसरा है प्लास्टिक । इन दोनों ने सुविधा तो बहुत निर्माण की है परन्तु पर्यावरण का महासंकट भी पैदा किया है। सारा विश्व आज ग्लोबल बोर्मिग - वैश्विक तापमान वृद्धि - से चिन्तित है। तापमान बढ़ने का कारण पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही तो है। विश्व के अनेक देशों को त्सुनामी, भूकम्प, अतिवृष्टि, अकाल, हिमवर्षा जैसे प्राकृतिक संकटों का सामना करना पड़ रहा है । ऋतुओं का सन्तुलन बिगड रहा है । एक और गर्मी बढ रही है तो दूसरी ओर ठण्ड भी बढ़ रही है । यह बदल भी नियमित नहीं है । इन संकटों का कारण भी पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही है।
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परन्तु अब मन की स्थिति ऐसी हो गई है कि संकट भी झेले नहीं जा सकते हैं और संकटों के कारणों को भी छोडा नहीं जा सकता है। विश्व सम्मेलनों में संकटों की चर्चा की जाती है परन्तु उपाय ऐसे होते हैं जो संकटों को और बढायें । यन्त्रों ने मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का ह्रास किया है। सुविधा और शक्ति दोनों परस्पर विरोधी बन गये हैं। वाहनों के कारण गति बढी तो साथ साथ पैरों की चलने की क्षमता कम हुई, कैलकुलेटर ने गिनती करना शुरू किया तो बुद्धि की गणनक्षमता कम हुई, संगणक ने जानकारी का संग्रह करना शुरू किया तो स्मरणशक्ति और खोजी वृत्ति कम हुई, टीवी ने नृत्यगीत के कार्यक्रम शुरू किये तो हृदय की रसानुभूति की शक्ति कम हुई, साथ ही साथ सृजनशीलता भी कम हुई, यन्त्रों ने वस्त्र बुनना, छपाई करना और रंगना शुरू किया तो वस्त्र से सम्बन्धित कारीगरी का ह्रास हुआ। यन्त्रों ने सर्व प्रकार की कारीगरी के साथ जुड़े सृजनशीलता, कल्पनाशीलता, कौशल, निपुणता, उत्कृष्टता, विविधता, मौलिकता और उसमें से मिलने वाले आनन्द को नष्ट कर दिया, एक सर्जक और निर्माता को मजदूर बना दिया । एक और सर्जक नहीं रहा तो दूसरी ओर भावक भी नहीं रहा । यह बहुत बड़ा सांस्कृतिक नुकसान है। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि यह सब खोने का खेद भी नहीं रहा । श्रेष्ठ का कनिष्ठ बनाने का यह तरीका है।
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यन्त्रों ने जिस प्रकार एक एक मनुष्य की सर्व प्रकार की शक्तियों का ह्रास किया है उसी प्रकार समाज में भी वर्गों वर्गों में असन्तुलन निर्माण कर दिया है। मालिक और नोकर का भेद तो है ही, काम करवाने वालों और करवाने वालों का भेद तो है ही, काम करने को हेय मानने की वृत्तितो है ही, साथ में जीवन की अनेक सुन्दर और श्रेष्ठ बातों की कीमत पैसे से आँकना भी शुरू हो गया है । नृत्य, गीत, संगीत की कला के जानकार कम हो गये, वै पैसे लेकर ही अपनी कला की प्रस्तुति करते हैं और असंख्य लोग केवल दर्शक और श्रोता बनकर निष्क्रिय मनोरंजन प्राप्त करते हैं । अर्थात् गायक और भावक एक नहीं है । गायक को पैसा मिलता है, सुननेवाले को केवल सुनने का आनन्द मिलता है, गाने का नहीं । गायक और भावक के बीच में यन्त्र आ गये हैं। अब तो यन्त्रों का दखल इतना बढ़ गया है कि गायक को भी पता नहीं होता कि वह गाता है वह किस रूप में प्रस्तुत होगा। सर्व प्रकार के सृजन और निर्माता का यही हाल हुआ है। यह स्थिति समाज को मानसिक विघटन तक ले जाती है। व्यक्तित्व का विघटन तो इससे होता ही है।
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भारत की दृष्टि से यह अत्यन्त आत्मघाती कृति है। भारत यन्त्रों का निर्माण और उपयोग करना नहीं जानता है ऐसा तो नहीं है । श्रेष्ठ प्रकार की सुविधायें, कारीगरी, कला, दैनन्दिन उपयोग की वस्तुयें, शिल्प, स्थापत्य आदि के क्षेत्र में उत्कृष्टता और श्रेष्ठता के शिखर भारत ने सर किये हैं। वैभव और उपभोग के मामले में भारत की बराबरी करने वाला अब तक कोई नहीं रहा है। भारत तो क्या इजिप्त के पिरामिड भी स्थापत्य के उत्तम नमूने रहे हैं । इनमें यन्त्रों का प्रयोग हुआ ही है। परन्तु वे व्यक्ति और समाज के लिये विघटनकारी सिद्ध नहीं हुए थे। पश्चिम जब यन्त्रों का आविष्कार और प्रयोग करता है तब उसका परिणाम घातक होता है।
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भारत यन्त्रों का मनुष्य के सहायक के रूप में प्रयोग
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करने को अनुमति देता है, मनुष्य के स्थान पर यन्त्रों के प्रयोग को नहीं । मनुष्य यन्त्र का दास नहीं बनना चाहिये ।
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मनुष्य की स्वतन्त्रता अबाधित रहनी चाहिये । मनुष्य का उत्पादन और उत्पादन प्रक्रिया पर स्वामित्व भी अबाधित रहना चाहिये । यन्त्र का किसी भी रूप में प्रयोग स्वतन्त्रता और स्वामित्व के अविरोधी होना चाहिये ।
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भारत मानता है कि यन्त्र कितना भी शक्तिशाली और उत्तम हो तो भी यदि वह संस्कृति, सामाजिकता, प्रकृति, मानवीय क्षमताओं का विरोधी होगा तो उसे अनुमति नहीं है।
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यन्त्र से भी अधिक आवश्यक यन्त्र का उपयोग करने का विवेक है। जब तक यह विवेक प्राप्त नहीं होता यन्त्र का उपयोग करने की अनुमति भारत नहीं देगा।
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भारत की दृष्टि में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान के उपयोग का निकष पर्यावरण, स्वास्थ्य, सामाजिकता और संस्कृति है। भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान केवल साधन है, साध्य नहीं। वे उपकरण हैं, करण नहीं । इतना विवेक नहीं है तो वे विनाशक बनेंगे।
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जिसकी स्वतन्त्रता, सर्जकता और स्वामित्व की रक्षा और सम्मान होता है वह मनुष्य यन्त्रों से भी प्रेम करता है, उनका रक्षण और सम्मान करता है। ऐसा करके वह यन्त्रों के स्वभाव के रहस्यों का जान भी प्राप्त करता है। भारत ने ऐसी सिद्धि भी अतीत में प्राप्त की है। विश्व तो अभी इसकी कल्पना तक नहीं कर सकता । विश्व को अभी विज्ञान और तन्त्रज्ञान के विषय में बहुत कुछ सीखना है। भारत को सिखाने हेतु सिद्ध भी होना है।
    
==References==
 
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