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शिक्षा की भारतीय दृष्टि और वर्तमान अभारतीय दृष्टि में आमूलाग्र अन्तर है। यह अन्तर जीवन दृष्टि के अन्तर के कारण है। जीवन के लक्ष्य की भिन्नता के कारण है।
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शिक्षा की धार्मिक (भारतीय) दृष्टि और वर्तमान अधार्मिक (अभारतीय) दृष्टि में आमूलाग्र अन्तर है। यह अन्तर जीवन दृष्टि के अन्तर के कारण है। जीवन के लक्ष्य की भिन्नता के कारण है।
    
== शिक्षा के विषय ==
 
== शिक्षा के विषय ==
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# शिक्षा मुख्यत: ज्ञानार्जन, कौशालार्जन, बलार्जन, गुनार्जन के लिये होती है। अर्थार्जन याने पैसा कमाना यह तो उसका आनुषंगिक लाभ है। यह भी जीवन के लिये महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अन्य बातों के अर्जन से अर्थार्जन तो सहज ही किया जा सकता है।
 
# शिक्षा मुख्यत: ज्ञानार्जन, कौशालार्जन, बलार्जन, गुनार्जन के लिये होती है। अर्थार्जन याने पैसा कमाना यह तो उसका आनुषंगिक लाभ है। यह भी जीवन के लिये महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अन्य बातों के अर्जन से अर्थार्जन तो सहज ही किया जा सकता है।
 
# अध्ययन शिक्षा की मूल प्रक्रिया है। अध्यापन तो अध्ययन की प्रक्रिया का प्रेरक रूप ही है। अध्ययन तो अध्यापन के बगैर भी हो सकता है। लेकिन बिना अध्ययनकर्ता के कोई अध्यापन संभव नहीं होता। इसलिए शिक्षा अच्छी होने के लिये बालक का विद्यार्थी होना अनिवार्य है। हर बालक प्रारंभ से ही विद्यार्थी नहीं होता। उसे विद्यार्थी बनाना यह माता-पिता की प्राथमिक और बाद में शिक्षक की जिम्मेदारी है।
 
# अध्ययन शिक्षा की मूल प्रक्रिया है। अध्यापन तो अध्ययन की प्रक्रिया का प्रेरक रूप ही है। अध्ययन तो अध्यापन के बगैर भी हो सकता है। लेकिन बिना अध्ययनकर्ता के कोई अध्यापन संभव नहीं होता। इसलिए शिक्षा अच्छी होने के लिये बालक का विद्यार्थी होना अनिवार्य है। हर बालक प्रारंभ से ही विद्यार्थी नहीं होता। उसे विद्यार्थी बनाना यह माता-पिता की प्राथमिक और बाद में शिक्षक की जिम्मेदारी है।
# बालक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में और साथ ही में समाज को भी निकट से देखने वाला शिक्षक जैसा अन्य घटक नहीं होता। इसीलिये शिक्षा श्रेष्ठ तब ही बन सकती है जब शिक्षा शिक्षक के अधीन रहे। शिक्षक धर्मनिष्ठ रहे, समाजनिष्ठ रहे, राष्ट्रनिष्ठ रहे और शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे यही भारतीय परंपरा है। जब शिक्षा शिक्षकाधिष्ठीत होती है शिक्षा को स्वायत्त कहा जाता है। क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा का मूर्तिमंत स्वरूप  होता है। राजा शिक्षा नियंत्रक तो प्रजा में अराजक।  
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# बालक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में और साथ ही में समाज को भी निकट से देखने वाला शिक्षक जैसा अन्य घटक नहीं होता। इसीलिये शिक्षा श्रेष्ठ तब ही बन सकती है जब शिक्षा शिक्षक के अधीन रहे। शिक्षक धर्मनिष्ठ रहे, समाजनिष्ठ रहे, राष्ट्रनिष्ठ रहे और शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे यही धार्मिक (भारतीय) परंपरा है। जब शिक्षा शिक्षकाधिष्ठीत होती है शिक्षा को स्वायत्त कहा जाता है। क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा का मूर्तिमंत स्वरूप  होता है। राजा शिक्षा नियंत्रक तो प्रजा में अराजक।  
 
# केवल शिक्षक के अधीन होने से शिक्षा श्रेष्ठ नहीं बनती। उसके लिये शिक्षक का ज्ञानी, कुशल, श्रेष्ठ समाज निर्माण के लिये समर्पित राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षानिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ होना भी आवश्यक है।
 
# केवल शिक्षक के अधीन होने से शिक्षा श्रेष्ठ नहीं बनती। उसके लिये शिक्षक का ज्ञानी, कुशल, श्रेष्ठ समाज निर्माण के लिये समर्पित राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षानिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ होना भी आवश्यक है।
# मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देहभाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। समाज के साथ और आगे जड़-चेतन पर्यावरण के साथ आत्मीयता की भावना और व्यवहार का विकास ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है। यही व्यक्ति के समग्र विकास की भारतीय संकल्पना है।
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# मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देहभाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। समाज के साथ और आगे जड़-चेतन पर्यावरण के साथ आत्मीयता की भावना और व्यवहार का विकास ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है। यही व्यक्ति के समग्र विकास की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना है।
 
# मन बहुत चंचल होता है। इसे स्थिर किया जा सकता है। मन अनेकाग्र होता है। सदैव भटकता रहता है। इसे एकाग्र किया जा सकता है। मन महा-बलवान होता है। इसे नियंत्रण में लाया जा सकता है। मन द्वंद्वात्मक होता है। इसे निर्द्वंद्व किया जा सकता है। मन विकारों से ग्रस्त होता है। इसे विकारों से मुक्त किया जा सकता है। विषयों से आसक्ति मन का स्वभाव है। इसे अनासक्त बनाया जा सकता है। मन बुद्धि पर और विषयों के गुलाम इन्द्रिय मन पर नियंत्रण करते हैं तब अनर्थ होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में लाने के लिये ही शिक्षा होती है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे मन को नियंत्रण में रखना ही शिक्षा का मुख्य पहलू है।
 
# मन बहुत चंचल होता है। इसे स्थिर किया जा सकता है। मन अनेकाग्र होता है। सदैव भटकता रहता है। इसे एकाग्र किया जा सकता है। मन महा-बलवान होता है। इसे नियंत्रण में लाया जा सकता है। मन द्वंद्वात्मक होता है। इसे निर्द्वंद्व किया जा सकता है। मन विकारों से ग्रस्त होता है। इसे विकारों से मुक्त किया जा सकता है। विषयों से आसक्ति मन का स्वभाव है। इसे अनासक्त बनाया जा सकता है। मन बुद्धि पर और विषयों के गुलाम इन्द्रिय मन पर नियंत्रण करते हैं तब अनर्थ होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में लाने के लिये ही शिक्षा होती है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे मन को नियंत्रण में रखना ही शिक्षा का मुख्य पहलू है।
 
# मनुष्य के पास मन, बुद्धि, चित्त आदि अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यंत विकासशील होते हैं। पशु पक्षी और प्राणियों में इनका स्तर बहुत निम्न होता है। अन्य योनियाँ भोग योनियाँ हैं। केवल मनुष्य योनि ही कर्मयोनि है। कर्म योनि का अर्थ है जो अपने मन बुद्धि के अनुसार कर्म करने के लिये स्वतन्त्र है। इसीलिये केवल मनुष्य को ही शिक्षा की आवश्यकता होती है।
 
# मनुष्य के पास मन, बुद्धि, चित्त आदि अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यंत विकासशील होते हैं। पशु पक्षी और प्राणियों में इनका स्तर बहुत निम्न होता है। अन्य योनियाँ भोग योनियाँ हैं। केवल मनुष्य योनि ही कर्मयोनि है। कर्म योनि का अर्थ है जो अपने मन बुद्धि के अनुसार कर्म करने के लिये स्वतन्त्र है। इसीलिये केवल मनुष्य को ही शिक्षा की आवश्यकता होती है।
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== समावर्तन संदेश ==
 
== समावर्तन संदेश ==
तैत्तिरीय उपनिषद् में बताया हुआ यह शिक्षा पूर्ण करनेवाले स्नातकों को दिया जानेवाला सन्देश, उपदेश और आदेश है<ref>तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली </ref>:<blockquote>'''सत्यं वद।'''</blockquote><blockquote>अर्थात सदैव सत्य बोलो।</blockquote><blockquote>'''धर्मंचर।'''</blockquote><blockquote>अर्थात धर्म के अनुसार आचरण करो।</blockquote><blockquote>'''स्वाध्यायान्मा प्रमद:।'''</blockquote><blockquote>अर्थात आजीवन अपनी रुचि के विषय के माध्यम से मोक्षगामी कैसे हुआ जा सकता है इस ढँग से अध्ययन करो।</blockquote><blockquote>'''आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य।'''</blockquote><blockquote>अर्थात आचार्य को गुरुदक्षिणा देते रहो।</blockquote><blockquote>'''प्रजातंतुं मा व्यवच्छेत्सी।''' </blockquote><blockquote>अर्थात संतान निर्माण की परंपराको मत तोडो।</blockquote><blockquote>'''सत्यान्नप्रमदितव्यं।'''</blockquote><blockquote>अर्थात सत्य के पथ से कभी डिगो नहीं।</blockquote><blockquote>'''धर्मान्नप्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात कभी भी धर्माचरण से मत डिगो।</blockquote><blockquote>'''कुशलान्नप्रमदितव्यं।'''</blockquote><blockquote>अर्थात शुभ कर्म करने से कभी नहीं चूको।</blockquote><blockquote>'''भूत्यैन्नप्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात भौतिक उन्नति करते रहो।</blockquote><blockquote>'''स्वाध्यायप्रवचनाभ्यान्नप्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात अपनी रुचि के विषय में पूर्व में प्राप्त ज्ञान में स्वाध्याय से वृद्धि करो और यह वृध्दिंगत ज्ञान अगली पीढी को अंतरित करो। </blockquote><blockquote>'''देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात देवताओं के (पृथ्वी, अग्नि, वायू, वरूण आदि) पर्यावरण के विषय में और पितरों के प्रति याने समाज के प्रति अपने कर्तव्यों से कभी न चूको। </blockquote><blockquote>आगे कहा है:</blockquote><blockquote>'''मातृदेवो भव।''' </blockquote><blockquote>अर्थात तुम माता में देवबुद्धि रखनेवाले बनों।</blockquote><blockquote>'''पितृदेवो भव।''' </blockquote><blockquote>अर्थात तुम पिता में देवबुद्धि रखनेवाले बनो। </blockquote><blockquote>'''आचार्य देवो भव'''</blockquote><blockquote>अर्थात आचार्यों में देवबुद्धि रखो। </blockquote><blockquote>'''अतिथिदेवो भव।''' </blockquote><blockquote>अर्थात अतिथि में देवबुद्धि रखनेवाले बनो। </blockquote><blockquote>'''यन्यनववद्यनि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि।''' </blockquote><blockquote>अर्थात जो जो अच्छे आचरण हैं उनका तुम सेवन करो। अन्य किसी का सेवन न करो याने बुरे कर्म कभी नहीं करो। </blockquote><blockquote>'''यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि।''' </blockquote><blockquote>अर्थात हमारे भी जो अच्छे कर्म हैं उन्हीं का अनुसरण करो। हमारे भी जो कर्म अच्छे नहीं हैं उनका अनुसरण न करो।</blockquote><blockquote>'''ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणा:। तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यं।'''</blockquote><blockquote>अर्थात जो अपने से या हमसे श्रेष्ठ हैं उन्हें आसन आदि देकर, उनका आदर सत्कार करना चाहिये। दान देना चाहिये।</blockquote><blockquote>'''श्रध्दया देयम्। अश्रध्दयाऽदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भ्रिया देयम्। संविदा देयम्।'''</blockquote><blockquote>अर्थात दान भी श्रध्दा से दो अश्रध्दा से दान न दो। श्रिया याने आर्थिक स्थिति के अनुसार दो। लज्जा से दो, भय से दो लेकिन दान दो। जो कुछ भी दान दो वह विवेक से दो।</blockquote><blockquote>आगे और कहा है – </blockquote><blockquote>'''अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सावा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणा: सम्मर्शिन:।''' </blockquote><blockquote>अर्थात तुम्हें कर्तव्य करने में या सदाचार के विषय में कुछ शंका हो तो उस विषय के ज्ञानी व्यक्ति से मार्गदर्शन प्राप्त करो।</blockquote><blockquote>'''युक्ता आयुक्ता:। अलूक्षा धर्मकामा: स्यू:। यथा ते तेषु वर्तेरन्। तथा ते तेषु वर्तेथा:। एष आदेश:। एष उपदेश:। एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्।'''</blockquote><blockquote>अर्थात किसी दोष से लांछित मनुष्य के साथ बर्ताव करने में शंका निर्माण हो जाए तो भी वहाँ जो परामर्श देने में कुशल, उत्तम कर्म और सदाचार में रत, स्निग्ध स्वभाव वाले, एकमात्र धर्म के अभिलाषी ऐसे जो ब्राह्मण जैसा बर्ताव करते हैं तुम्हें भी वैसा ही बर्ताव करना चाहिये। यही शास्त्र की आज्ञा है। यही गुरुजनों का उपदेश है। यही वेद और उपनिषदों का आदेश है। यही परंपरागत शिक्षा है। इसी प्रकार से तुम्हें अनुष्ठान करना चाहिये।</blockquote><blockquote>समावर्तन सन्देश एक तरह से भारतीय शिक्षण शास्त्रीय दृष्टि का सार है।</blockquote>
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तैत्तिरीय उपनिषद् में बताया हुआ यह शिक्षा पूर्ण करनेवाले स्नातकों को दिया जानेवाला सन्देश, उपदेश और आदेश है<ref>तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली </ref>:<blockquote>'''सत्यं वद।'''</blockquote><blockquote>अर्थात सदैव सत्य बोलो।</blockquote><blockquote>'''धर्मंचर।'''</blockquote><blockquote>अर्थात धर्म के अनुसार आचरण करो।</blockquote><blockquote>'''स्वाध्यायान्मा प्रमद:।'''</blockquote><blockquote>अर्थात आजीवन अपनी रुचि के विषय के माध्यम से मोक्षगामी कैसे हुआ जा सकता है इस ढँग से अध्ययन करो।</blockquote><blockquote>'''आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य।'''</blockquote><blockquote>अर्थात आचार्य को गुरुदक्षिणा देते रहो।</blockquote><blockquote>'''प्रजातंतुं मा व्यवच्छेत्सी।''' </blockquote><blockquote>अर्थात संतान निर्माण की परंपराको मत तोडो।</blockquote><blockquote>'''सत्यान्नप्रमदितव्यं।'''</blockquote><blockquote>अर्थात सत्य के पथ से कभी डिगो नहीं।</blockquote><blockquote>'''धर्मान्नप्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात कभी भी धर्माचरण से मत डिगो।</blockquote><blockquote>'''कुशलान्नप्रमदितव्यं।'''</blockquote><blockquote>अर्थात शुभ कर्म करने से कभी नहीं चूको।</blockquote><blockquote>'''भूत्यैन्नप्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात भौतिक उन्नति करते रहो।</blockquote><blockquote>'''स्वाध्यायप्रवचनाभ्यान्नप्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात अपनी रुचि के विषय में पूर्व में प्राप्त ज्ञान में स्वाध्याय से वृद्धि करो और यह वृध्दिंगत ज्ञान अगली पीढी को अंतरित करो। </blockquote><blockquote>'''देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात देवताओं के (पृथ्वी, अग्नि, वायू, वरूण आदि) पर्यावरण के विषय में और पितरों के प्रति याने समाज के प्रति अपने कर्तव्यों से कभी न चूको। </blockquote><blockquote>आगे कहा है:</blockquote><blockquote>'''मातृदेवो भव।''' </blockquote><blockquote>अर्थात तुम माता में देवबुद्धि रखनेवाले बनों।</blockquote><blockquote>'''पितृदेवो भव।''' </blockquote><blockquote>अर्थात तुम पिता में देवबुद्धि रखनेवाले बनो। </blockquote><blockquote>'''आचार्य देवो भव'''</blockquote><blockquote>अर्थात आचार्यों में देवबुद्धि रखो। </blockquote><blockquote>'''अतिथिदेवो भव।''' </blockquote><blockquote>अर्थात अतिथि में देवबुद्धि रखनेवाले बनो। </blockquote><blockquote>'''यन्यनववद्यनि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि।''' </blockquote><blockquote>अर्थात जो जो अच्छे आचरण हैं उनका तुम सेवन करो। अन्य किसी का सेवन न करो याने बुरे कर्म कभी नहीं करो। </blockquote><blockquote>'''यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि।''' </blockquote><blockquote>अर्थात हमारे भी जो अच्छे कर्म हैं उन्हीं का अनुसरण करो। हमारे भी जो कर्म अच्छे नहीं हैं उनका अनुसरण न करो।</blockquote><blockquote>'''ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणा:। तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यं।'''</blockquote><blockquote>अर्थात जो अपने से या हमसे श्रेष्ठ हैं उन्हें आसन आदि देकर, उनका आदर सत्कार करना चाहिये। दान देना चाहिये।</blockquote><blockquote>'''श्रध्दया देयम्। अश्रध्दयाऽदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भ्रिया देयम्। संविदा देयम्।'''</blockquote><blockquote>अर्थात दान भी श्रध्दा से दो अश्रध्दा से दान न दो। श्रिया याने आर्थिक स्थिति के अनुसार दो। लज्जा से दो, भय से दो लेकिन दान दो। जो कुछ भी दान दो वह विवेक से दो।</blockquote><blockquote>आगे और कहा है – </blockquote><blockquote>'''अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सावा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणा: सम्मर्शिन:।''' </blockquote><blockquote>अर्थात तुम्हें कर्तव्य करने में या सदाचार के विषय में कुछ शंका हो तो उस विषय के ज्ञानी व्यक्ति से मार्गदर्शन प्राप्त करो।</blockquote><blockquote>'''युक्ता आयुक्ता:। अलूक्षा धर्मकामा: स्यू:। यथा ते तेषु वर्तेरन्। तथा ते तेषु वर्तेथा:। एष आदेश:। एष उपदेश:। एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्।'''</blockquote><blockquote>अर्थात किसी दोष से लांछित मनुष्य के साथ बर्ताव करने में शंका निर्माण हो जाए तो भी वहाँ जो परामर्श देने में कुशल, उत्तम कर्म और सदाचार में रत, स्निग्ध स्वभाव वाले, एकमात्र धर्म के अभिलाषी ऐसे जो ब्राह्मण जैसा बर्ताव करते हैं तुम्हें भी वैसा ही बर्ताव करना चाहिये। यही शास्त्र की आज्ञा है। यही गुरुजनों का उपदेश है। यही वेद और उपनिषदों का आदेश है। यही परंपरागत शिक्षा है। इसी प्रकार से तुम्हें अनुष्ठान करना चाहिये।</blockquote><blockquote>समावर्तन सन्देश एक तरह से धार्मिक (भारतीय) शिक्षण शास्त्रीय दृष्टि का सार है।</blockquote>
    
==References==
 
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[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान - भाग २)]]
 
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