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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
वैसे तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के भारतीय साहित्य में समृद्धि शास्त्र का कहीं भी उल्लेख किया हुआ नहीं मिलता। भारत में अर्थशास्त्र शब्द का चलन काफी पुराना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के लेखन से भी बहुत पुराना है। इकोनोमिक्स के लिए अर्थशास्त्र सही प्रतिशब्द नहीं है। अर्थशास्त्र समूचे जीवन को व्यापने वाला विषय है। धर्म मानव के जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला नियामक तत्व है। जीवन के विभिन्न आयामों का निर्माण ही काम और काम की पूर्ति के लिए किये गए अर्थ पुरुषार्थ के कारण होता है। इसलिए यदि हम मानते हैं कि धर्म मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला विषय है तो “काम” और “अर्थ” ये पुरुषार्थ भी मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाले विषय हैं, ऐसा मानना होगा।
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वैसे तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के धार्मिक (भारतीय) साहित्य में समृद्धि शास्त्र का कहीं भी उल्लेख किया हुआ नहीं मिलता। भारत में अर्थशास्त्र शब्द का चलन काफी पुराना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के लेखन से भी बहुत पुराना है। इकोनोमिक्स के लिए अर्थशास्त्र सही प्रतिशब्द नहीं है। अर्थशास्त्र समूचे जीवन को व्यापने वाला विषय है। धर्म मानव के जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला नियामक तत्व है। जीवन के विभिन्न आयामों का निर्माण ही काम और काम की पूर्ति के लिए किये गए अर्थ पुरुषार्थ के कारण होता है। इसलिए यदि हम मानते हैं कि धर्म मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला विषय है तो “काम” और “अर्थ” ये पुरुषार्थ भी मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाले विषय हैं, ऐसा मानना होगा।
    
इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी “अर्थ” के सभी आयामों का परामर्श नहीं लेता है। उसमें प्रमुखत: शासन और प्रशासन से सम्बन्धित विषय का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया हुआ है। अर्थशास्त्र इकोनोमिक्स जैसा केवल “धन” तक सीमित विषय नहीं है। वास्तव में “सम्पत्ति शास्त्र” यह शायद इकोनोमिक्स का लगभग सही अनुवाद होगा। लेकिन भारत में सम्पत्ति शास्त्र का नहीं समृद्धि शास्त्र का चलन था। सम्पत्ति व्यक्तिगत होती है जब की समृद्धि समाज की होती है। व्यक्ति “सम्पन्न” होता है समाज “समृद्ध” होता है। समृद्धि शास्त्र का अर्थ है समाज को समृद्ध बनाने का शास्त्र। धन और संसाधनों का वितरण समाज में अच्छा होने से समाज समृद्ध बनता है। वर्तमान में हम भारत में भी इकोनोमिक्स को ही अर्थशास्त्र कहते हैं। हम विविध प्रमुख शास्त्रों के अन्गांगी संबंधों की निम्न तालिका देखेंगे तो समृद्धि शास्त्र का दायरा स्पष्ट हो सकेगा।
 
इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी “अर्थ” के सभी आयामों का परामर्श नहीं लेता है। उसमें प्रमुखत: शासन और प्रशासन से सम्बन्धित विषय का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया हुआ है। अर्थशास्त्र इकोनोमिक्स जैसा केवल “धन” तक सीमित विषय नहीं है। वास्तव में “सम्पत्ति शास्त्र” यह शायद इकोनोमिक्स का लगभग सही अनुवाद होगा। लेकिन भारत में सम्पत्ति शास्त्र का नहीं समृद्धि शास्त्र का चलन था। सम्पत्ति व्यक्तिगत होती है जब की समृद्धि समाज की होती है। व्यक्ति “सम्पन्न” होता है समाज “समृद्ध” होता है। समृद्धि शास्त्र का अर्थ है समाज को समृद्ध बनाने का शास्त्र। धन और संसाधनों का वितरण समाज में अच्छा होने से समाज समृद्ध बनता है। वर्तमान में हम भारत में भी इकोनोमिक्स को ही अर्थशास्त्र कहते हैं। हम विविध प्रमुख शास्त्रों के अन्गांगी संबंधों की निम्न तालिका देखेंगे तो समृद्धि शास्त्र का दायरा स्पष्ट हो सकेगा।
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इस प्रक्रिया में बहुजन समाज अपनी स्वतन्त्रता को खो बैठता है। स्वतन्त्रता तो मानव जीवन का सामाजिक स्तर का अन्तिम लक्ष्य है। समाज अपने इस लक्ष्य से दूर हो जाता है। स्वतन्त्रता का क्षरण धीरे धीरे होता है। सामान्य मनुष्य यह समझ ही नहीं पाता कि उसकी स्वतन्त्रता कम होती जा रही है।   
 
इस प्रक्रिया में बहुजन समाज अपनी स्वतन्त्रता को खो बैठता है। स्वतन्त्रता तो मानव जीवन का सामाजिक स्तर का अन्तिम लक्ष्य है। समाज अपने इस लक्ष्य से दूर हो जाता है। स्वतन्त्रता का क्षरण धीरे धीरे होता है। सामान्य मनुष्य यह समझ ही नहीं पाता कि उसकी स्वतन्त्रता कम होती जा रही है।   
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वर्तमान इकोनोमिक्स की आर्थिक मानव, निरंतर आर्थिक विकास, इकोनोमी ऑफ़ वान्ट्स प्रकृति पर विजय पाने की राक्षसी महत्वाकांक्षा, ग्लोबलायझेशन आदि संकल्पनाओं के कारण विकट परिस्थितियाँ निर्माण हो गईं हैं। भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि और उस दृष्टि के आधार से निर्माण की गयी समृद्धि व्यवस्था इस विकटता से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य रखती है। भारतीय समृद्धि शास्त्रीय व्यवस्था में भी धर्म ही सर्वोपरि होता है। धर्म के विषय में हमने पूर्व में ही जाना है। चर और अचर सृष्टि के सभी घटकों के हित में काम करने की दृष्टि से किये गए व्यवहार को ही धर्म कहते हैं। धर्म विश्व व्यवस्था के नियम हैं। इसलिए भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि का अध्ययन, अनुसंधान एवं पुनर्प्रतिष्ठा आज और भी प्रासंगिक बन गए हैं।  
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वर्तमान इकोनोमिक्स की आर्थिक मानव, निरंतर आर्थिक विकास, इकोनोमी ऑफ़ वान्ट्स प्रकृति पर विजय पाने की राक्षसी महत्वाकांक्षा, ग्लोबलायझेशन आदि संकल्पनाओं के कारण विकट परिस्थितियाँ निर्माण हो गईं हैं। धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि और उस दृष्टि के आधार से निर्माण की गयी समृद्धि व्यवस्था इस विकटता से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य रखती है। धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय व्यवस्था में भी धर्म ही सर्वोपरि होता है। धर्म के विषय में हमने पूर्व में ही जाना है। चर और अचर सृष्टि के सभी घटकों के हित में काम करने की दृष्टि से किये गए व्यवहार को ही धर्म कहते हैं। धर्म विश्व व्यवस्था के नियम हैं। इसलिए धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि का अध्ययन, अनुसंधान एवं पुनर्प्रतिष्ठा आज और भी प्रासंगिक बन गए हैं।  
    
== उपभोग नीति ==
 
== उपभोग नीति ==
वर्तमान इकोनोमिक्स की सबसे बड़ी समस्या है इसके उपभोग दृष्टि की। यह दृष्टि व्यक्तिकेंद्री (स्वार्थपर आधारित), इहवादी और जड़वादी होने से इसमें ढेर सारी विकृतियाँ आ जातीं हैं। भारतीय उपभोग नीति या सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत उपभोग नीति का विचार अब हम करेंगे।  
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वर्तमान इकोनोमिक्स की सबसे बड़ी समस्या है इसके उपभोग दृष्टि की। यह दृष्टि व्यक्तिकेंद्री (स्वार्थपर आधारित), इहवादी और जड़वादी होने से इसमें ढेर सारी विकृतियाँ आ जातीं हैं। धार्मिक (भारतीय) उपभोग नीति या सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत उपभोग नीति का विचार अब हम करेंगे।  
    
=== संसाधनों का वास्तविक मूल्य ===
 
=== संसाधनों का वास्तविक मूल्य ===
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अंग्रेजी में एक कहावत है,' थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली '। विचार वैश्विक रखो और व्यवहार स्थानिक स्तर पर करो। इस का अर्थ और स्पष्ट करने की आवश्यकता है। क्योंकि कई बार लोग कहते हैं कि, 'वैश्विकता तो विचार करने की ही बात है। व्यवहार की नहीं। व्यवहार के लिये तो स्थानिक समस्याओं का ही संदर्भ सामने रखना होगा। किन्तु यह विचार ठीक नहीं है। इस कहावत का वास्तविक अर्थ तो यह है कि कोई भी स्थानिक स्तर की कृति करने से पहले उस कृति का वैश्विक स्तर पर कोई विपरीत परिणाम ना हो ऐसा व्यवहार ही स्थानिक स्तर पर करना।  
 
अंग्रेजी में एक कहावत है,' थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली '। विचार वैश्विक रखो और व्यवहार स्थानिक स्तर पर करो। इस का अर्थ और स्पष्ट करने की आवश्यकता है। क्योंकि कई बार लोग कहते हैं कि, 'वैश्विकता तो विचार करने की ही बात है। व्यवहार की नहीं। व्यवहार के लिये तो स्थानिक समस्याओं का ही संदर्भ सामने रखना होगा। किन्तु यह विचार ठीक नहीं है। इस कहावत का वास्तविक अर्थ तो यह है कि कोई भी स्थानिक स्तर की कृति करने से पहले उस कृति का वैश्विक स्तर पर कोई विपरीत परिणाम ना हो ऐसा व्यवहार ही स्थानिक स्तर पर करना।  
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प्रसिध्द विद्वान अर्नोल्ड टॉयन्बी कहता है 'यदि मानव जाति को आत्मनाश से बचाना हो तो जिस अध्याय का प्रारंभ पश्चिम ने किया है, उस का अंत अनिवार्य रूप से भारतीय ढंग से ही करना होगा ‘।  
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प्रसिध्द विद्वान अर्नोल्ड टॉयन्बी कहता है 'यदि मानव जाति को आत्मनाश से बचाना हो तो जिस अध्याय का प्रारंभ पश्चिम ने किया है, उस का अंत अनिवार्य रूप से धार्मिक (भारतीय) ढंग से ही करना होगा ‘।  
    
== समृद्धि शास्त्र के स्तंभ ==
 
== समृद्धि शास्त्र के स्तंभ ==
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## शिक्षण व्यवस्था  
 
## शिक्षण व्यवस्था  
 
# राष्ट्र के पड़ोसियों से दौत्य सम्बन्ध रखना। पड़ोसी देशों में होने वाले वातावरण, परिवर्तनों का निरीक्षण कर उचित सावधानी बरतना। उचित कार्यवाही भी करना।   
 
# राष्ट्र के पड़ोसियों से दौत्य सम्बन्ध रखना। पड़ोसी देशों में होने वाले वातावरण, परिवर्तनों का निरीक्षण कर उचित सावधानी बरतना। उचित कार्यवाही भी करना।   
# भारतीय विचारों में जीवन का लक्ष्य 'मोक्ष' है। काम पुरुषार्थ अर्थात् कामनाओं को और आर्थिक पुरुषार्थ अर्थात् इन कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये प्रयासों को धर्मानुकूल बनाना होगा। यह विचार भारतीय समृद्धिशास्त्र के निर्माण का आधार बने। समृद्धिशास्त्र शिक्षा का विषय है। और शिक्षा का लक्ष्य स्पष्ट किया गया है: 'सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात 'मुक्ति दिलाए ऐसी शिक्षा' या 'मुक्ति दिलाए ऐसा समृद्धिशास्त्र'।  
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# भारतीय विचारों में जीवन का लक्ष्य 'मोक्ष' है। काम पुरुषार्थ अर्थात् कामनाओं को और आर्थिक पुरुषार्थ अर्थात् इन कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये प्रयासों को धर्मानुकूल बनाना होगा। यह विचार धार्मिक (भारतीय) समृद्धिशास्त्र के निर्माण का आधार बने। समृद्धिशास्त्र शिक्षा का विषय है। और शिक्षा का लक्ष्य स्पष्ट किया गया है: 'सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात 'मुक्ति दिलाए ऐसी शिक्षा' या 'मुक्ति दिलाए ऐसा समृद्धिशास्त्र'।  
 
# किसी भी प्रकार के आर्थिक अधिकार सरकार के पास न रहें। धर्म व्यवस्था ने दिया कर वसूली का और कर के योग्य विनिमय का अधिकार केवल शासन के पास रहेगा। इस हेतु सत्ता का विकेंद्रीकरण भी करना होगा।  
 
# किसी भी प्रकार के आर्थिक अधिकार सरकार के पास न रहें। धर्म व्यवस्था ने दिया कर वसूली का और कर के योग्य विनिमय का अधिकार केवल शासन के पास रहेगा। इस हेतु सत्ता का विकेंद्रीकरण भी करना होगा।  
 
# संपूर्ण और सार्थक रोजगार की संकल्पना और चराचर की नि:स्वार्थ सेवा की भावना से किये जा रहे काम, इनका सन्तुलन। प्राचीन काल में धनार्जन के काम केवल गृहस्थाश्रमी अर्थात् मात्र ३३ प्रतिशत सज्ञान लोग करते थे। 'मैं नौकर नहीं बनूंगा' ऐसी मानसिकता हुआ करती थी। यही योग्य भी है।  
 
# संपूर्ण और सार्थक रोजगार की संकल्पना और चराचर की नि:स्वार्थ सेवा की भावना से किये जा रहे काम, इनका सन्तुलन। प्राचीन काल में धनार्जन के काम केवल गृहस्थाश्रमी अर्थात् मात्र ३३ प्रतिशत सज्ञान लोग करते थे। 'मैं नौकर नहीं बनूंगा' ऐसी मानसिकता हुआ करती थी। यही योग्य भी है।  
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समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन  होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगों को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है{{Citation needed}} : <blockquote>यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?</blockquote>लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: जरूरतमंदों में वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका जरूरतमंदों में वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता।  
 
समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन  होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगों को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है{{Citation needed}} : <blockquote>यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?</blockquote>लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: जरूरतमंदों में वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका जरूरतमंदों में वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता।  
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जीवन का भारतीय प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। इसलिए समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगों को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की मदद लेनी होगी। इस का विचार हमने [[Bharat's Social Paradigm (भारतीय समाज धारणा दृष्टि)|इस]] अध्याय में किया है। इसलिए यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे। वर्तमान में जीवन का प्रतिमान अभारतीय है। इसमें कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था ये व्यवस्थाएँ दुर्बल हो गईं हैं। और दुर्बल होती जा रहीं हैं। राष्ट्र की सभी व्यवस्थाओं के तंत्र पूर्णत: अभारतीय हैं। इसलिए हमें दो प्रकार के प्रयास करने होंगे:
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जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। इसलिए समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगों को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की मदद लेनी होगी। इस का विचार हमने [[Bharat's Social Paradigm (भारतीय समाज धारणा दृष्टि)|इस]] अध्याय में किया है। इसलिए यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे। वर्तमान में जीवन का प्रतिमान अधार्मिक (अभारतीय) है। इसमें कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था ये व्यवस्थाएँ दुर्बल हो गईं हैं। और दुर्बल होती जा रहीं हैं। राष्ट्र की सभी व्यवस्थाओं के तंत्र पूर्णत: अधार्मिक (अभारतीय) हैं। इसलिए हमें दो प्रकार के प्रयास करने होंगे:
 
# कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था व्यवस्थाओं के दोष दूर कर उनका शुद्धिकरण करना होगा। यह काम निम्न पद्धति से होगा:
 
# कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था व्यवस्थाओं के दोष दूर कर उनका शुद्धिकरण करना होगा। यह काम निम्न पद्धति से होगा:
 
## राष्ट्र और राष्ट्र की इन प्रणालियों की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं की सैद्धांतिक प्रस्तुति करनी होगी।
 
## राष्ट्र और राष्ट्र की इन प्रणालियों की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं की सैद्धांतिक प्रस्तुति करनी होगी।
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## इन प्रणालियों के परिष्कार के उपरांत भी इनमें से कुछ केन्द्र निरन्तर काम करेंगे। इन स्थाई केन्द्रों का काम इन प्रणालियों का निरंतर अध्ययन करना, कुछ गलत होता हो तो उसे जान कर उसके सुधार की प्रक्रिया चलाने का होगा।
 
## इन प्रणालियों के परिष्कार के उपरांत भी इनमें से कुछ केन्द्र निरन्तर काम करेंगे। इन स्थाई केन्द्रों का काम इन प्रणालियों का निरंतर अध्ययन करना, कुछ गलत होता हो तो उसे जान कर उसके सुधार की प्रक्रिया चलाने का होगा।
 
# राष्ट्रीय स्तर पर समृद्धि शास्त्र के बिन्दुओं का क्रियान्वयन सर्वप्रथम शिक्षा के क्षेत्र से प्रारम्भ कर पीछे पीछे अन्य सभी व्यवस्थाओं को अनुकूल बनाना होगा। इसकी प्रक्रिया निम्न पद्धति से चलेगी:
 
# राष्ट्रीय स्तर पर समृद्धि शास्त्र के बिन्दुओं का क्रियान्वयन सर्वप्रथम शिक्षा के क्षेत्र से प्रारम्भ कर पीछे पीछे अन्य सभी व्यवस्थाओं को अनुकूल बनाना होगा। इसकी प्रक्रिया निम्न पद्धति से चलेगी:
## सर्वप्रथम उन व्यवस्थाओं के शास्त्रों के भारतीय स्वरूपों की बुद्धियुक्त प्रस्तुति करना। यह काम धर्म और शिक्षा से सम्बंधित विद्वानों का है।
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## सर्वप्रथम उन व्यवस्थाओं के शास्त्रों के धार्मिक (भारतीय) स्वरूपों की बुद्धियुक्त प्रस्तुति करना। यह काम धर्म और शिक्षा से सम्बंधित विद्वानों का है।
## शासन के सहयोग से भारतीय व्यवस्थाओं के स्थानिक स्तर के कुछ प्रयोग करने होंगे। प्रयोगों के लिए अनुकूल स्थान का चयन करना होगा। इन प्रयोगों के द्वारा शास्त्रों की प्रस्तुतियों की उचितता और श्रेष्ठता को जांचना होगा। आवश्यकतानुसार शास्त्रों की प्रस्तुतियों में सुधार करने होंगे। स्थानिक स्तर पर सफलता मिलने के बाद जनपद या प्रांत के स्तरपर प्रयोग करने होंगे। अनुकूल प्रांत में शासन की सहमति और सहयोग से ये प्रयोग किये जाएंगे। आगे अन्य अनुकूल प्रान्तों में और सबसे अंत में समूचे राष्ट्र में इस परिवर्तन की प्रक्रिया को चलाना होगा।
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## शासन के सहयोग से धार्मिक (भारतीय) व्यवस्थाओं के स्थानिक स्तर के कुछ प्रयोग करने होंगे। प्रयोगों के लिए अनुकूल स्थान का चयन करना होगा। इन प्रयोगों के द्वारा शास्त्रों की प्रस्तुतियों की उचितता और श्रेष्ठता को जांचना होगा। आवश्यकतानुसार शास्त्रों की प्रस्तुतियों में सुधार करने होंगे। स्थानिक स्तर पर सफलता मिलने के बाद जनपद या प्रांत के स्तरपर प्रयोग करने होंगे। अनुकूल प्रांत में शासन की सहमति और सहयोग से ये प्रयोग किये जाएंगे। आगे अन्य अनुकूल प्रान्तों में और सबसे अंत में समूचे राष्ट्र में इस परिवर्तन की प्रक्रिया को चलाना होगा।
 
## परिवर्तन की प्रक्रिया पूर्ण होने के उपरांत भी इन व्यवस्थाओं के निरंतर अध्ययन और परिष्कार की स्थाई व्यवस्था बनानी होगी।
 
## परिवर्तन की प्रक्रिया पूर्ण होने के उपरांत भी इन व्यवस्थाओं के निरंतर अध्ययन और परिष्कार की स्थाई व्यवस्था बनानी होगी।
  

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