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* विद्यालय भवन में वर्षा के पानी का संग्रह करने की व्यवस्था तो होनी ही चाहिये परन्तु गन्दे पानी की निकास की व्यवस्था भूमि के उपर होनी चाहिये ।
* विद्यालय भवन में वर्षा के पानी का संग्रह करने की व्यवस्था तो होनी ही चाहिये परन्तु गन्दे पानी की निकास की व्यवस्था भूमि के उपर होनी चाहिये ।
* विद्यालय के भवन को मिट्टी युक्त आँगन या मैदान होना चाहिये सब कुछ पथ्थर से बन्द नहीं कर देना चाहिये।
* विद्यालय के भवन को मिट्टी युक्त आँगन या मैदान होना चाहिये सब कुछ पथ्थर से बन्द नहीं कर देना चाहिये।
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=== आलेख ५ ===
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==== स्पर्धा होनी चाहिये या नहीं ====
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* हम स्पर्धा को पुरुषार्थ का प्रेरक तत्त्व मानते हैं परन्तु यह सत्य नहीं है । स्पर्धा संघर्ष की और, संघर्ष हिंसा की ओर तथा हिंसा विनाश की ओर ले जाती है। इसलिये स्पर्धा का त्याग करना चाहिये।
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* विद्यालयों में स्पर्धा का तत्त्व बहुत लोकप्रिय और प्रतिष्ठित बन गया है । स्पर्धा का अर्थ नहीं समझने वाले बच्चों के लिये भी स्पर्धा का आयोजन होता है । इसका सर्वथा त्याग करना चाहिये।
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* स्पर्धा सर्वश्रेष्ठ बनने के लिये होती है, श्रेष्ठ बनने के लिये नहीं । व्यक्ति को श्रेष्ठ बनना चाहिये, सर्वश्रेष्ठ नहीं। '
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* 'स्वस्थ स्पर्धा' यह शब्दसमूह निरर्थक है, आकाश कुसुम या शशशृंग की तरह । आकाश में कभी फूल नहीं खिलता और खरगोश को कभी सिंग नहीं होते उसी प्रकार स्पर्धा कभी स्वस्थ नहीं होती।
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* खेलों में स्पर्धा होती है तब खेलना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्त्वपूर्ण बन जाता है। पढ़ाई में स्पर्धा होती है तब पढना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्वपूर्ण बन जाता है । जीतने का सिद्धान्त होता है किसी भी प्रकार से दूसरों को हराना ।
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* स्पर्धा से मुख्य विषय से ध्यान हटकर उसके फल पर केन्द्रित हो जाता है । फल नहीं मिला तो मुख्य विषय अप्रस्तुत बन जाता है।
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* स्पर्धा जीत और पुरस्कार इतने सहज हो गये हैं कि अब छोटे बड़े सब के लिये पुरस्कार नहीं तो जीत का महत्त्व नहीं, जीत नहीं तो स्पर्धा निरर्थक और स्पर्धा नहीं तो काम करने का कोई प्रयोजन नहीं । इस प्रकार स्पर्धा अनिष्टों का मूल है।
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* हमें संघर्ष नहीं, समन्वय चाहिये । स्पर्धा संघर्ष की जननी है इसलिये उसका त्याग करना चाहिये।
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* आज असम्भव लगता है तो भी विद्यालय से स्पर्धा का निष्कासन करने की आकांक्षा रखनी चाहिये और उसके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये ।
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=== आलेख ६ ===
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==== परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार ====
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* परीक्षा शिक्षा का एकमेव अथवा मुख्य अंग नहीं है । परीक्षा में उत्तीर्ण होना एकमेव लक्ष्य नहीं है।
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* परीक्षा आवश्यकता पड़ने पर ही ली जानी चाहिये, स्वाभाविक क्रम में नहीं। अध्ययन परीक्षा के लिये नही ज्ञान के लिए होना चाहिये ।
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* विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त हुआ है कि नहीं वह शिक्षक, मातापिता और समाज उसके व्यवहार से सहज ही जान सकते हैं, परीक्षा एक कृत्रिम व्यवस्था है।
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* नौकरी है इसलिये स्पर्धा है, स्पर्धा है इसलिये परीक्षा है । यहाँ ज्ञान या कौशल का कोई सम्बन्ध नहीं है।
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* येनकेन प्रकारेण परीक्षा में उत्तीर्ण होना है तब अनेक प्रकार के दूषण पनपते हैं । ज्ञान
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* और चरित्र से उसका कोई लेनादेना नहीं होता ।
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* परीक्षा शिक्षा के तन्त्र पर इतनी हावी हो गई है कि अब सब परीक्षार्थी ही हैं, विद्यार्थी नहीं । हमें विद्यार्थी चाहिये, परीक्षार्थी नहीं।
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* परीक्षा को अर्थपूर्ण बनाने के लिये उसे उद्देश्य के साथ जोडना चाहिये, पाठ्यक्रम
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* और पाठ्यपुस्तकों के साथ नहीं । उद्देश्य के साथ जोडने पर परीक्षा का वर्तमान स्वरूप सर्वथा अप्रस्तुत बन जायेगा।
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* परीक्षा का वर्तमान स्वरूप अत्यन्त कृत्रिम है। उसका यथाशीघ्र त्याग करना चाहिये।
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* जो पढाता है वही मूल्यांकन कर सकता है यह शैक्षिक नियम है । आज जो पढाता है वह अविश्वसनीय बन गया है इसलिये जो पढाता नहीं और विद्यार्थी को जानता नहीं वह परीक्षा लेता है यह मूल्य और स्वाभाविकता दोनों का हास है।
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* परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे सार्थक बनाने की अत्यन्त आवश्यकता है।
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