Changes

Jump to navigation Jump to search
m
no edit summary
Line 4: Line 4:  
सहकारिता की हर कृति के पीछे काम करनेवाले विचारों के कारण सहकारिता के तीन स्वरूप बनते है। पहला है पाशव विचार पर आधारित सहकारिता। दूसरा विचार है मानव विचार पर आधारित सहकारिता। और तीसरा है दैवी विचारपर आधारित सहकारिता। पाशव विचार पर आधारित सहकारिता में पूर्णत: स्वार्थ की भावना से सहकार किया जाता है। यह सभी जीवों की, फिर वह पशु हो, पक्षी हो, कृमी-कीटक हो या मानव हो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। शरीर की बनावट को छोड दें तो, जन्म के समय मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं होता। किंतु संस्कारित मानव पशु नहीं होता। इसलिये मानव विचार की सहकारिता में, अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्तितक अर्थात् एक मर्यादित सीमातक स्वार्थ का (वह भी दूसरों का छीनकर नहीं) और आगे पूरी तरह आत्मीयता का आधार होता है। दैवी सहकारिता में अपने स्वार्थ का लेषमात्र भी नहीं होता।
 
सहकारिता की हर कृति के पीछे काम करनेवाले विचारों के कारण सहकारिता के तीन स्वरूप बनते है। पहला है पाशव विचार पर आधारित सहकारिता। दूसरा विचार है मानव विचार पर आधारित सहकारिता। और तीसरा है दैवी विचारपर आधारित सहकारिता। पाशव विचार पर आधारित सहकारिता में पूर्णत: स्वार्थ की भावना से सहकार किया जाता है। यह सभी जीवों की, फिर वह पशु हो, पक्षी हो, कृमी-कीटक हो या मानव हो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। शरीर की बनावट को छोड दें तो, जन्म के समय मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं होता। किंतु संस्कारित मानव पशु नहीं होता। इसलिये मानव विचार की सहकारिता में, अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्तितक अर्थात् एक मर्यादित सीमातक स्वार्थ का (वह भी दूसरों का छीनकर नहीं) और आगे पूरी तरह आत्मीयता का आधार होता है। दैवी सहकारिता में अपने स्वार्थ का लेषमात्र भी नहीं होता।
   −
संस्कार और शिक्षा ही मानव जाति के अर्भक को मानव बनाते है और आगे देवत्व की ओर ले जाते हैं। मानव जब योग्य संस्कार और शिक्षा प्राप्त कर लेता है उस की प्रवृत्ति में परिवर्तन आता है। इस परिवर्तन की सम्भावनाएँ भी केवल मानव जाति में ही है। अन्य किसी पशु, पक्षी, कृमि-कीटक आदि में नहीं है। संस्कार और शिक्षा से मानव स्वार्थ प्रवृत्ति को छोडकर आत्मीयता की ओर बढता है। मानव बनता है। अच्छे संस्कारों से वह देवत्व पाता है। अपने लिये नहीं, अपनों के लिये जीता है। इसीलिये आत्मीयता की भावना से सहकार करना यह मानवीय और दैवी विचार है। आत्मीयता का व्यवहार जहाँ होता है आत्मीयजनों के या औरों के हित को प्राथमिकता दी जाती है, अपने स्वार्थ से उपर उठकर अपनों के लिये या औरों के लिये कुछ हितकारी करने की भावना ही भारतीय दृष्टि में सहकारिता है। यही एकात्म मानव दर्शन का मार्गदर्शन है। यही “मैं नहीं तू ही” की भावना है।
+
संस्कार और शिक्षा ही मानव जाति के अर्भक को मानव बनाते है और आगे देवत्व की ओर ले जाते हैं। मानव जब योग्य संस्कार और शिक्षा प्राप्त कर लेता है उस की प्रवृत्ति में परिवर्तन आता है। इस परिवर्तन की सम्भावनाएँ भी केवल मानव जाति में ही है। अन्य किसी पशु, पक्षी, कृमि-कीटक आदि में नहीं है। संस्कार और शिक्षा से मानव स्वार्थ प्रवृत्ति को छोडकर आत्मीयता की ओर बढता है। मानव बनता है। अच्छे संस्कारों से वह देवत्व पाता है। अपने लिये नहीं, अपनों के लिये जीता है। इसीलिये आत्मीयता की भावना से सहकार करना यह मानवीय और दैवी विचार है। आत्मीयता का व्यवहार जहाँ होता है आत्मीयजनों के या औरों के हित को प्राथमिकता दी जाती है, अपने स्वार्थ से उपर उठकर अपनों के लिये या औरों के लिये कुछ हितकारी करने की भावना ही धार्मिक (भारतीय) दृष्टि में सहकारिता है। यही एकात्म मानव दर्शन का मार्गदर्शन है। यही “मैं नहीं तू ही” की भावना है।
    
सहकारिता की अति प्राचीन काल की और विशालतम घटना है देवों और दानवों द्वारा साझे प्रयासों से किया गया ‘सागरमंथन’। इस में सज्जन और दुर्जन दोनों ही प्रकार के लोग थे। दानव स्वार्थ-केंद्री थे और देव आत्मीयता-केंद्री थे। सागर में छिपे अनमोल रत्न मंथन के बगैर नहीं मिल सकते, ऐसा विचार देवों के मन में आया। इतना बडा उपक्रम और लाभ देखकर दानव भी आ जुटे। लेकिन दानवों का देवों के प्रति मन का बैर और दुष्ट भावना छुटी नहीं थी। इसलिये मंथन से रत्न निकलते समय, रत्न कौन लेगा इस मुद्देपर झगडे हो गये। देवों के चतुर नेतृत्व ने सभी मौल्यवान रत्न हथिया लिये। अमृत भी हथिया लिया। जब मंथन से विष निकला तो महादेव ने उस विष को भी ग्रहण कर पचा डाला। इन अमूल्य रत्नों को यदि चतुर और आत्मीयतायुक्त देवों ने दानवों के साथ में बाँट लिया होता तो कल्पना नहीं कर सकते, ऐसा अनर्थ पृथ्वी को सहना पडता। इस कथा से कुछ मार्गदर्शक बिंदू उभरकर सामने आते हैं:
 
सहकारिता की अति प्राचीन काल की और विशालतम घटना है देवों और दानवों द्वारा साझे प्रयासों से किया गया ‘सागरमंथन’। इस में सज्जन और दुर्जन दोनों ही प्रकार के लोग थे। दानव स्वार्थ-केंद्री थे और देव आत्मीयता-केंद्री थे। सागर में छिपे अनमोल रत्न मंथन के बगैर नहीं मिल सकते, ऐसा विचार देवों के मन में आया। इतना बडा उपक्रम और लाभ देखकर दानव भी आ जुटे। लेकिन दानवों का देवों के प्रति मन का बैर और दुष्ट भावना छुटी नहीं थी। इसलिये मंथन से रत्न निकलते समय, रत्न कौन लेगा इस मुद्देपर झगडे हो गये। देवों के चतुर नेतृत्व ने सभी मौल्यवान रत्न हथिया लिये। अमृत भी हथिया लिया। जब मंथन से विष निकला तो महादेव ने उस विष को भी ग्रहण कर पचा डाला। इन अमूल्य रत्नों को यदि चतुर और आत्मीयतायुक्त देवों ने दानवों के साथ में बाँट लिया होता तो कल्पना नहीं कर सकते, ऐसा अनर्थ पृथ्वी को सहना पडता। इस कथा से कुछ मार्गदर्शक बिंदू उभरकर सामने आते हैं:
Line 25: Line 25:  
# धिस इज द ओन्ली लाईफ. अर्थात् मेरे मरने के बाद दुनिया भले डूबे। जो कुछ है बस यही जन्म है। इसलिये प्रकृति को लूट-खसोटकर तथा दुर्बलों का शोषण कर जितना उपभोग मिल सके उतना भोगने की महत्वाकांक्षा अन्य उद्योगपतियों की ही तरह सहकारी क्षेत्र के उद्योगपतियों में भी पाई जाती है। सहकारी क्षेत्र के जाने माने नेता, एक ओर तो मंदिरों में पूजा के फोटो छपवाकर अपनी छवि को धार्मिक बनाने का प्रयास करते है वहीं दूसरी ओर सैंकड़ों/हजारों/लाखों करोड का गबन करते हुए दिखाई देते है।
 
# धिस इज द ओन्ली लाईफ. अर्थात् मेरे मरने के बाद दुनिया भले डूबे। जो कुछ है बस यही जन्म है। इसलिये प्रकृति को लूट-खसोटकर तथा दुर्बलों का शोषण कर जितना उपभोग मिल सके उतना भोगने की महत्वाकांक्षा अन्य उद्योगपतियों की ही तरह सहकारी क्षेत्र के उद्योगपतियों में भी पाई जाती है। सहकारी क्षेत्र के जाने माने नेता, एक ओर तो मंदिरों में पूजा के फोटो छपवाकर अपनी छवि को धार्मिक बनाने का प्रयास करते है वहीं दूसरी ओर सैंकड़ों/हजारों/लाखों करोड का गबन करते हुए दिखाई देते है।
   −
== एकात्म मानव दर्शनपर आधारित, भारतीय ' सहकार ' का स्वरूप ==
+
== एकात्म मानव दर्शनपर आधारित, धार्मिक (भारतीय) ' सहकार ' का स्वरूप ==
स्वार्थ भावना के बिना विश्व के व्यवहार चल ही नहीं सकते। यह वस्तुस्थिति है। इसीलिये  'काम' को हमारे शास्त्रों ने पुरूषार्थ कहा है। काम अर्थात् कामनाओं की पूर्ति करने के लिये किये गये प्रयासों को भी हमारे शास्त्रों की मान्यता है। ऐसे प्रयासों को अर्थ पुरूषार्थ कहा गया है। किंतु व्यक्ति का विचार समाज के और प्रकृति के विचार के बिना अधूरा रहता है। इन तीनों का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। समाज और सृष्टि के हित के दायरे में काम और अर्थ को रखने के प्रयासों को धर्म कहा गया है। अपनी कामनाओं / इच्छाओं को और उन की पूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखना भारतीय शास्त्रों की दृष्टि से अनिवार्य बात है। मुझे अच्छा खाना मिले। ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है। अच्छा खाना मिलने के लिये प्रयास करना भी गलत नहीं है। किंतु मुझे अच्छा खाना मिले इस हेतु दूसरे का खाना छीनकर खाने को धर्म का विरोध है। मुझे सुंदर पत्नि मिले ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है। उस हेतु धर्मानुकूल प्रयास करना भी मान्य है। किंतु उस हेतु से अन्यों की पत्नियों को बुरी नजर से देखना, उन्हे छल, बल, कपट से पाने के लिये प्रयास करना धर्म को मान्य नहीं है। धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ति तक स्वार्थ स्वीकार्य है। लेकिन अन्यों के हित में जब नि:स्वार्थ भाव से काम करते हैं, सहकार की भावना से काम करते हैं तब वह भारतीय सहकार का नमूना होता है।  
+
स्वार्थ भावना के बिना विश्व के व्यवहार चल ही नहीं सकते। यह वस्तुस्थिति है। इसीलिये  'काम' को हमारे शास्त्रों ने पुरूषार्थ कहा है। काम अर्थात् कामनाओं की पूर्ति करने के लिये किये गये प्रयासों को भी हमारे शास्त्रों की मान्यता है। ऐसे प्रयासों को अर्थ पुरूषार्थ कहा गया है। किंतु व्यक्ति का विचार समाज के और प्रकृति के विचार के बिना अधूरा रहता है। इन तीनों का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। समाज और सृष्टि के हित के दायरे में काम और अर्थ को रखने के प्रयासों को धर्म कहा गया है। अपनी कामनाओं / इच्छाओं को और उन की पूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखना धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों की दृष्टि से अनिवार्य बात है। मुझे अच्छा खाना मिले। ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है। अच्छा खाना मिलने के लिये प्रयास करना भी गलत नहीं है। किंतु मुझे अच्छा खाना मिले इस हेतु दूसरे का खाना छीनकर खाने को धर्म का विरोध है। मुझे सुंदर पत्नि मिले ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है। उस हेतु धर्मानुकूल प्रयास करना भी मान्य है। किंतु उस हेतु से अन्यों की पत्नियों को बुरी नजर से देखना, उन्हे छल, बल, कपट से पाने के लिये प्रयास करना धर्म को मान्य नहीं है। धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ति तक स्वार्थ स्वीकार्य है। लेकिन अन्यों के हित में जब नि:स्वार्थ भाव से काम करते हैं, सहकार की भावना से काम करते हैं तब वह धार्मिक (भारतीय) सहकार का नमूना होता है।  
    
=== एकात्म मानव दर्शनपर आधारित वर्तमान में चलनेवाले सहकारिता के उपक्रम ===
 
=== एकात्म मानव दर्शनपर आधारित वर्तमान में चलनेवाले सहकारिता के उपक्रम ===
# एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ सहकारिता का उदाहरण एकत्रित भारतीय कुटुम्ब है। कौटुम्बिक भावना के आधार पर ही विकसित किये ग्रामकुल और आगे “वसुधैव कुटुंबकम्” व्यवहार में लाने के प्रयास अपने भारतीय पूर्वजों ने किये थे। इस प्रकार के उपक्रमों में सहकारिता की शून्य स्तर की भावना रखने वाले नवजात शिशू को संस्कारित और शिक्षित कर धर्मानुकूल इच्छा और प्रयत्न करने की क्षमता रखनेवाला, किंतु साथ ही में औरों के लिये जीने वाला कुटुम्ब घटक निर्माण किया जाता है।  
+
# एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ सहकारिता का उदाहरण एकत्रित धार्मिक (भारतीय) कुटुम्ब है। कौटुम्बिक भावना के आधार पर ही विकसित किये ग्रामकुल और आगे “वसुधैव कुटुंबकम्” व्यवहार में लाने के प्रयास अपने धार्मिक (भारतीय) पूर्वजों ने किये थे। इस प्रकार के उपक्रमों में सहकारिता की शून्य स्तर की भावना रखने वाले नवजात शिशू को संस्कारित और शिक्षित कर धर्मानुकूल इच्छा और प्रयत्न करने की क्षमता रखनेवाला, किंतु साथ ही में औरों के लिये जीने वाला कुटुम्ब घटक निर्माण किया जाता है।  
# राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या तत्सम संगठनों द्वारा चलाये हुए सेवाकार्य। केवल संघ के कार्यकर्ताओं ने चलाए हुए ऐसे १.५ लाख से अधिक उपक्रम हैं। ये चलाने वाले लोग नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित में काम करते हैं। इन उपक्रमों के नामों में 'सहकारी' यह शब्द नहीं है। लेकिन यह सभी उपक्रम एकात्म मानव दर्शन द्वारा मार्गदर्शित भारतीय सहकारिता पर आधारित ही हैं। इस में सहकार की भावना शुध्द एकात्मता की है।  
+
# राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या तत्सम संगठनों द्वारा चलाये हुए सेवाकार्य। केवल संघ के कार्यकर्ताओं ने चलाए हुए ऐसे १.५ लाख से अधिक उपक्रम हैं। ये चलाने वाले लोग नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित में काम करते हैं। इन उपक्रमों के नामों में 'सहकारी' यह शब्द नहीं है। लेकिन यह सभी उपक्रम एकात्म मानव दर्शन द्वारा मार्गदर्शित धार्मिक (भारतीय) सहकारिता पर आधारित ही हैं। इस में सहकार की भावना शुध्द एकात्मता की है।  
# और एक प्रकार के उपक्रम वे है जिन में लोगों ने मिलकर संस्था निर्माण की है जिन में पूर्णत: या अंशत: एकात्मतापर आधारित व्यवहार होता है। वैसे पूर्णत: एकात्मता का व्यवहार करनेवाली संस्था अभी तक लेखक ने न देखी है न सुनी है। लेकिन शायद हो सकती है। कुछ सहकारी बँक धर्मादाय के नामपर समाजसेवी संगठनों को आर्थिक मदद करती हैं। उन बँकों की यह कृति तो एकात्मता से सुसंगत कृति है। लेकिन जब यही बँक २ घंटे में वाहन खरीदीपर कर्जा उपलब्ध कराती है, यह उपभोक्तावाद को बढावा देने और प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को बढावा देने के कारण भारतीय सहकारिता का मार्गदर्शक उदाहरण नहीं रह जाती।  
+
# और एक प्रकार के उपक्रम वे है जिन में लोगों ने मिलकर संस्था निर्माण की है जिन में पूर्णत: या अंशत: एकात्मतापर आधारित व्यवहार होता है। वैसे पूर्णत: एकात्मता का व्यवहार करनेवाली संस्था अभी तक लेखक ने न देखी है न सुनी है। लेकिन शायद हो सकती है। कुछ सहकारी बँक धर्मादाय के नामपर समाजसेवी संगठनों को आर्थिक मदद करती हैं। उन बँकों की यह कृति तो एकात्मता से सुसंगत कृति है। लेकिन जब यही बँक २ घंटे में वाहन खरीदीपर कर्जा उपलब्ध कराती है, यह उपभोक्तावाद को बढावा देने और प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को बढावा देने के कारण धार्मिक (भारतीय) सहकारिता का मार्गदर्शक उदाहरण नहीं रह जाती।  
    
=== एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के मार्गदर्शक बिंदू ===
 
=== एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के मार्गदर्शक बिंदू ===
# एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ उपक्रम हमारी भारतीय एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था है। इस उपक्रम में जिस शिशू के मन में १०० प्रतिशत केवल अपने लिये सोचने की मानसिकता है, ऐसे शिशू को संस्कारित कर उस के मन में सहकारिता की ज्योत जलाई जाती है। उसे क्रमश: सर्वेषाम् अविरोधेन और आगे सर्वे भवन्तु सुखिन: की दिशा में बढाया जाता है। अपने हित के लिये धर्मानुकूल इच्छा और इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयत्न अनिवार्य है। किंतु इस से आगे केवल एकात्मता की भावना से पुरूषार्थ करना अपेक्षित है।  
+
# एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ उपक्रम हमारी धार्मिक (भारतीय) एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था है। इस उपक्रम में जिस शिशू के मन में १०० प्रतिशत केवल अपने लिये सोचने की मानसिकता है, ऐसे शिशू को संस्कारित कर उस के मन में सहकारिता की ज्योत जलाई जाती है। उसे क्रमश: सर्वेषाम् अविरोधेन और आगे सर्वे भवन्तु सुखिन: की दिशा में बढाया जाता है। अपने हित के लिये धर्मानुकूल इच्छा और इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयत्न अनिवार्य है। किंतु इस से आगे केवल एकात्मता की भावना से पुरूषार्थ करना अपेक्षित है।  
 
# एकात्मता पर आधारित पहले स्तर के सहकारी उपक्रम वही हो सकते है जो चराचर के हित में हों।  
 
# एकात्मता पर आधारित पहले स्तर के सहकारी उपक्रम वही हो सकते है जो चराचर के हित में हों।  
 
# दूसरों क्रमांकपर आनेवाले एकात्मतापर आधारित सहकारी उपक्रम वे है जो किसी का अहित नहीं करते।  
 
# दूसरों क्रमांकपर आनेवाले एकात्मतापर आधारित सहकारी उपक्रम वे है जो किसी का अहित नहीं करते।  
    
== भारतीय समृद्धि शास्त्र की पुनर्प्रस्तुति की आवश्यकता ==
 
== भारतीय समृद्धि शास्त्र की पुनर्प्रस्तुति की आवश्यकता ==
सहकारिता के क्षेत्र में काम करने से पहले हमें भारतीय दृष्टिकोण से 'समाजशास्त्र' और आगे 'समृद्धिशास्त्र' की प्रस्तुति करनी होगी। इन के अभाव में हम भारतीय सहकारिता के तत्व को व्यवहार में नहीं ला सकेंगे। सहकारी उपक्रम यह अर्थ पुरुषार्थ का एक पहलू है। इसलिये समृद्धिशास्त्र के और मानव के शाश्वत विकास के प्राथमिक तत्वों की प्रस्तुति भी एकात्म मानव दर्शन के आधार पर करनी होगी।  
+
सहकारिता के क्षेत्र में काम करने से पहले हमें धार्मिक (भारतीय) दृष्टिकोण से 'समाजशास्त्र' और आगे 'समृद्धिशास्त्र' की प्रस्तुति करनी होगी। इन के अभाव में हम धार्मिक (भारतीय) सहकारिता के तत्व को व्यवहार में नहीं ला सकेंगे। सहकारी उपक्रम यह अर्थ पुरुषार्थ का एक पहलू है। इसलिये समृद्धिशास्त्र के और मानव के शाश्वत विकास के प्राथमिक तत्वों की प्रस्तुति भी एकात्म मानव दर्शन के आधार पर करनी होगी।  
    
अफ्रीका के देश अविकसित माने जाते हैं। कई एशिया के देशों को भी अविकसित माना जाता  है। अमरिका शायद सबसे अधिक विकसित देश माना जाता है। योरप के भी काफी देश विकसित माने जाते हैं। किंतु अमरिका और योरप के देशों समेत एक भी ऐसा देश नहीं है जो और अधिक विकास नहीं करना चाहता। और उनके विकास का अर्थ है, और अधिक उपभोग। अधिक और अधिक प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग। इसे ही विकास कहा जाता है। विकास की दर बढाने की होड में हर देश लगा हुआ है। इसी होड के कारण आज विश्वभर के सभी देशों ने पाश्चात्य अर्थशास्त्र का स्वीकार किया है। इसके तीन प्रमुख कारण हैं। एक तो यह कि पश्चिमी देशों की तकनीकी प्रगति के कारण सभी की ऑंखें चौंधिया गयी है। और दूसरा कारण यह है कि भारत को छोड़कर इस पाश्चात्य इकोनोमिक्स से अधिक श्रेष्ठ ऐसा अन्य कोई विकल्प आज विश्व के किसी भी देश के सामने नहीं है। और तीसरा कारण यह भी है कि जिस प्रकार से हिंसक पशु पागल होकर जंगल में आतंक फैलाकर जंगल का जीवन भयप्रद कर देते है, इस विश्व के पर्यावरण में कई बलवान और मदांध देशों का आतंक मचा हुआ है। उस आतंक से जूझने के लिये, उस पर विजय प्राप्त करने के लिये जापान और भारत जैसे देश भी पाश्चात्य अधर्म युद्ध के मार्गपर चल पडे है ।  
 
अफ्रीका के देश अविकसित माने जाते हैं। कई एशिया के देशों को भी अविकसित माना जाता  है। अमरिका शायद सबसे अधिक विकसित देश माना जाता है। योरप के भी काफी देश विकसित माने जाते हैं। किंतु अमरिका और योरप के देशों समेत एक भी ऐसा देश नहीं है जो और अधिक विकास नहीं करना चाहता। और उनके विकास का अर्थ है, और अधिक उपभोग। अधिक और अधिक प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग। इसे ही विकास कहा जाता है। विकास की दर बढाने की होड में हर देश लगा हुआ है। इसी होड के कारण आज विश्वभर के सभी देशों ने पाश्चात्य अर्थशास्त्र का स्वीकार किया है। इसके तीन प्रमुख कारण हैं। एक तो यह कि पश्चिमी देशों की तकनीकी प्रगति के कारण सभी की ऑंखें चौंधिया गयी है। और दूसरा कारण यह है कि भारत को छोड़कर इस पाश्चात्य इकोनोमिक्स से अधिक श्रेष्ठ ऐसा अन्य कोई विकल्प आज विश्व के किसी भी देश के सामने नहीं है। और तीसरा कारण यह भी है कि जिस प्रकार से हिंसक पशु पागल होकर जंगल में आतंक फैलाकर जंगल का जीवन भयप्रद कर देते है, इस विश्व के पर्यावरण में कई बलवान और मदांध देशों का आतंक मचा हुआ है। उस आतंक से जूझने के लिये, उस पर विजय प्राप्त करने के लिये जापान और भारत जैसे देश भी पाश्चात्य अधर्म युद्ध के मार्गपर चल पडे है ।  
Line 49: Line 49:     
== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
कौटुम्बिक भावना से चलाए गये उपक्रम सामने रखकर ही हमें भावी सहकारिता के क्षेत्र की पुनर्रचना करनी होगी। इस बातपर विचार पूर्वक और हिम्मत से प्रयोग करने की आवश्यकता है। ग्रामकुल जैसी व्यवस्थाएं कुछ गाँवों में क्षीण अवस्था में, लेकिन आज भी विद्यमान है। इन व्यवस्थाओं का और पू. दादा आठवलेजी ने किये प्रयोगों का अध्ययन करना होगा। भारतीयता की दृष्टि से ग्रामीण लोग अधिक भारतीय है। वर्तमान शिक्षा का असर उनपर उतना नहीं हुआ है जितना शहरी लोगों पर हुआ है। ग्रामीण लोग अभी भी एकात्म मानव दर्शन के विचार से पूर्णत: विलग नहीं हुए है। इसीलिये सहकारिता में हो या अर्थशास्त्र में, परिवर्तन के प्रयोग हमें ग्रामीण क्षेत्र से ही प्रारभ करने होंगे ।
+
कौटुम्बिक भावना से चलाए गये उपक्रम सामने रखकर ही हमें भावी सहकारिता के क्षेत्र की पुनर्रचना करनी होगी। इस बातपर विचार पूर्वक और हिम्मत से प्रयोग करने की आवश्यकता है। ग्रामकुल जैसी व्यवस्थाएं कुछ गाँवों में क्षीण अवस्था में, लेकिन आज भी विद्यमान है। इन व्यवस्थाओं का और पू. दादा आठवलेजी ने किये प्रयोगों का अध्ययन करना होगा। भारतीयता की दृष्टि से ग्रामीण लोग अधिक धार्मिक (भारतीय) है। वर्तमान शिक्षा का असर उनपर उतना नहीं हुआ है जितना शहरी लोगों पर हुआ है। ग्रामीण लोग अभी भी एकात्म मानव दर्शन के विचार से पूर्णत: विलग नहीं हुए है। इसीलिये सहकारिता में हो या अर्थशास्त्र में, परिवर्तन के प्रयोग हमें ग्रामीण क्षेत्र से ही प्रारभ करने होंगे ।
    
==References==
 
==References==

Navigation menu