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वेबस्टर डिक्शनरी में भी कुछ ऐसे ही अर्थ बताया गया है।
 
वेबस्टर डिक्शनरी में भी कुछ ऐसे ही अर्थ बताया गया है।
संस्कृति का अर्थ समझाने की दृष्टि से अंग्रेजी भाषा की मदद का कोई उपयोग नहीं है। इसे भारतीय साहित्य में ही ढूँढना होगा।   
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संस्कृति का अर्थ समझाने की दृष्टि से अंग्रेजी भाषा की मदद का कोई उपयोग नहीं है। इसे धार्मिक (भारतीय) साहित्य में ही ढूँढना होगा।   
    
मराठी शब्दकोश में खंड १८ में कहा है – सम् और कृति इन दो शब्दों से संस्कृति और संस्कार दोनों शब्द बने हैं। संस्कृति यह समाज की जीवन पद्धति होती है। लेकिन इन से कोई स्पष्टता नहीं होती। किसी समाज की जीवन पद्धति यदि अपने सुख के लिए औरों को लूटने की है तो क्या यह संस्कृति कही जाएगी। यह तो विकृति है। संस्कृति शब्द की और भी एक व्युत्पत्ति है – सम्यक् कृति याने संस्कृति। सम्यक का अर्थ है अच्छी या सबके लिए समान। याने सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत कृति ही संस्कृति है।  
 
मराठी शब्दकोश में खंड १८ में कहा है – सम् और कृति इन दो शब्दों से संस्कृति और संस्कार दोनों शब्द बने हैं। संस्कृति यह समाज की जीवन पद्धति होती है। लेकिन इन से कोई स्पष्टता नहीं होती। किसी समाज की जीवन पद्धति यदि अपने सुख के लिए औरों को लूटने की है तो क्या यह संस्कृति कही जाएगी। यह तो विकृति है। संस्कृति शब्द की और भी एक व्युत्पत्ति है – सम्यक् कृति याने संस्कृति। सम्यक का अर्थ है अच्छी या सबके लिए समान। याने सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत कृति ही संस्कृति है।  
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== संस्कृति ==
 
== संस्कृति ==
संस्कृति शब्द प्राचीन भारतीय वैदिक साहित्य में नहीं मिलता। लेकिन उसका निकटवर्ती शब्द संस्कार, बहुत पुराना है। संस्कृति का और संस्कार का संबंध बहुत घनिष्ठता का है। तमिल में तो संस्कृति को संस्कार ही कहा जाता है। संस्कार का अर्थ है भिन्न भिन्न बातों का हमारे शरीर पर, मन पर, बुद्धि पर, परिवर्तन करने वाला जो प्रभाव पड़ता है - वही संस्कार है। ऐसे संस्कारों से ही संस्कृति बनती है।   
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संस्कृति शब्द प्राचीन धार्मिक (भारतीय) वैदिक साहित्य में नहीं मिलता। लेकिन उसका निकटवर्ती शब्द संस्कार, बहुत पुराना है। संस्कृति का और संस्कार का संबंध बहुत घनिष्ठता का है। तमिल में तो संस्कृति को संस्कार ही कहा जाता है। संस्कार का अर्थ है भिन्न भिन्न बातों का हमारे शरीर पर, मन पर, बुद्धि पर, परिवर्तन करने वाला जो प्रभाव पड़ता है - वही संस्कार है। ऐसे संस्कारों से ही संस्कृति बनती है।   
    
संस्कार अच्छे भी होते हैं और बुरे भी होते हैं। इसी तरह संस्कृति जब बुरे संस्कारों से बनती है तब उसे अप-संस्कृति या विकृति कहना ठीक होगा। सामान्यत: बुरे संस्कारों को संस्कार नहीं कहा जाता। उन्हें कुसंस्कार कहते हैं। मनुष्य में अच्छे और बुरे दोनों बातों के प्रभाव होते हैं। लेकिन जब अच्छे संस्कारों का प्रभाव प्रखर होता है तब उसे सुसंस्कारित या संस्कारित मनुष्य कहा जाता है।   
 
संस्कार अच्छे भी होते हैं और बुरे भी होते हैं। इसी तरह संस्कृति जब बुरे संस्कारों से बनती है तब उसे अप-संस्कृति या विकृति कहना ठीक होगा। सामान्यत: बुरे संस्कारों को संस्कार नहीं कहा जाता। उन्हें कुसंस्कार कहते हैं। मनुष्य में अच्छे और बुरे दोनों बातों के प्रभाव होते हैं। लेकिन जब अच्छे संस्कारों का प्रभाव प्रखर होता है तब उसे सुसंस्कारित या संस्कारित मनुष्य कहा जाता है।   
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== संस्कृति और राष्ट्र ==
 
== संस्कृति और राष्ट्र ==
संस्कृति यह राष्ट्र की आत्मा होती है। जब तक किसी समाज की संस्कृति जीवित है राष्ट्र जीवित है। संस्कृति के नष्ट होने से राष्ट्र नष्ट हो जाता है। जैसे भारतवर्ष के जिन जिन भूक्षेत्रों में हिन्दू समाज अल्पसंख्य हो गया, दुर्बल हो गया, असंगठित हो गया; वह हिस्सा भारत राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। अगस्त १९४७ से पूर्व जो रावलपिन्डी भारत राष्ट्र का हिस्सा था, वह सितम्बर १९४७ को भारतीय राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। क्यों कि अगस्त १९४७ के बाद वहाँ एक भिन्न राष्ट्र बना। इस राष्ट्र की संस्कृति, जीवन दृष्टि भारतीय संस्कृति या जीवन दृष्टि से भिन्न थी।  
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संस्कृति यह राष्ट्र की आत्मा होती है। जब तक किसी समाज की संस्कृति जीवित है राष्ट्र जीवित है। संस्कृति के नष्ट होने से राष्ट्र नष्ट हो जाता है। जैसे भारतवर्ष के जिन जिन भूक्षेत्रों में हिन्दू समाज अल्पसंख्य हो गया, दुर्बल हो गया, असंगठित हो गया; वह हिस्सा भारत राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। अगस्त १९४७ से पूर्व जो रावलपिन्डी भारत राष्ट्र का हिस्सा था, वह सितम्बर १९४७ को धार्मिक (भारतीय) राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। क्यों कि अगस्त १९४७ के बाद वहाँ एक भिन्न राष्ट्र बना। इस राष्ट्र की संस्कृति, जीवन दृष्टि धार्मिक (भारतीय) संस्कृति या जीवन दृष्टि से भिन्न थी।  
    
अमरीका को ‘मेल्टिंग पॉट’ कहा जाता है। मेल्टिंग पॉट का अर्थ है ऐसा बर्तन जिसके अन्दर जो भी रहेगा वह पिघल जाएगा। पिघलाकर एक हो जाएगा। समरस हो जाएगा। सांस्कृतिक दृष्टि से एक बन जाएगा।
 
अमरीका को ‘मेल्टिंग पॉट’ कहा जाता है। मेल्टिंग पॉट का अर्थ है ऐसा बर्तन जिसके अन्दर जो भी रहेगा वह पिघल जाएगा। पिघलाकर एक हो जाएगा। समरस हो जाएगा। सांस्कृतिक दृष्टि से एक बन जाएगा।
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हम कहते हैं कि “विविधता में एकता’ यह हमारी विशेषता है। इसमें हम विविधता को सांस्कृतिक विविधता तक ले जाते हैं। प्रश्न यह निर्माण होता है कि फिर एकता किस बात में है? केवल भारतीय कहलाने मात्र से “किसी भी प्रकार की एकता” ध्यान में नहीं आती। हाँ ! विविधता बनाए रखने का आग्रह और प्रयास होते रहते हैं। जातियों की संस्कृति, छोटे छोटे समूहों की संस्कृति, प्रादेशिक समूहों की संस्कृति, मजहबों की संस्कृति, वनवासी, गिरिवासी लोगों को आदिवासी कहकर उनकी प्रत्येक की भिन्न भिन्न ऐसी सैंकड़ों प्रकार की संस्कृतियाँ, ग्रामीण और नागरी संस्कृति आदि के कारण हम पूरे राष्ट्र को बाँट रहे हैं।  
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हम कहते हैं कि “विविधता में एकता’ यह हमारी विशेषता है। इसमें हम विविधता को सांस्कृतिक विविधता तक ले जाते हैं। प्रश्न यह निर्माण होता है कि फिर एकता किस बात में है? केवल धार्मिक (भारतीय) कहलाने मात्र से “किसी भी प्रकार की एकता” ध्यान में नहीं आती। हाँ ! विविधता बनाए रखने का आग्रह और प्रयास होते रहते हैं। जातियों की संस्कृति, छोटे छोटे समूहों की संस्कृति, प्रादेशिक समूहों की संस्कृति, मजहबों की संस्कृति, वनवासी, गिरिवासी लोगों को आदिवासी कहकर उनकी प्रत्येक की भिन्न भिन्न ऐसी सैंकड़ों प्रकार की संस्कृतियाँ, ग्रामीण और नागरी संस्कृति आदि के कारण हम पूरे राष्ट्र को बाँट रहे हैं।  
    
भारत में हमारे सामने जो समस्याएँ खडी हैं उन में से कई समस्याएँ इस “विविधता” को बनाए रखने के आग्रह और प्रयासों के कारण है। पंडित दीनदयालजी संविधान में हुई इस गलती को “मूलगामी भूल” कहते हैं।
 
भारत में हमारे सामने जो समस्याएँ खडी हैं उन में से कई समस्याएँ इस “विविधता” को बनाए रखने के आग्रह और प्रयासों के कारण है। पंडित दीनदयालजी संविधान में हुई इस गलती को “मूलगामी भूल” कहते हैं।
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हर राष्ट्र की जीवन की ओर देखने की दृष्टि भिन्न होती है। इसे उस राष्ट्र की जीवनदृष्टि कहते हैं। जीवनदृष्टि के अनुसार जब वह व्यवहार (कृति) करता है, तब वह राष्ट्र अपनी संस्कृति का निर्माण करता है। हर राष्ट्र की अपनी संस्कृति होती है। इस संस्कृति के अनुसार उस राष्ट्र का जीवन चलता है।  
 
हर राष्ट्र की जीवन की ओर देखने की दृष्टि भिन्न होती है। इसे उस राष्ट्र की जीवनदृष्टि कहते हैं। जीवनदृष्टि के अनुसार जब वह व्यवहार (कृति) करता है, तब वह राष्ट्र अपनी संस्कृति का निर्माण करता है। हर राष्ट्र की अपनी संस्कृति होती है। इस संस्कृति के अनुसार उस राष्ट्र का जीवन चलता है।  
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हर समाज को परस्पर संवाद की आवश्यकता तो होती ही है। वह समाज अपने जीवन की आवश्यकताओं, मान्यताओं, विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए अपनी भाषा भी निर्माण करता है। यह भाषा उस राष्ट्र की संस्कृति के अनुसार ही आकार लेती है। उस भाषा के मुहावरे, कहावतें आदि उस राष्ट्र की संस्कृति की अभिव्यक्ति करते हैं। जैसे अंग्रेजी में कई कहावतें और मुहावरे ऐसे हैं, कि जिनके भाव किसी भी भारतीय भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए कोई कहावतें या मुहावरे नहीं हैं।   
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हर समाज को परस्पर संवाद की आवश्यकता तो होती ही है। वह समाज अपने जीवन की आवश्यकताओं, मान्यताओं, विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए अपनी भाषा भी निर्माण करता है। यह भाषा उस राष्ट्र की संस्कृति के अनुसार ही आकार लेती है। उस भाषा के मुहावरे, कहावतें आदि उस राष्ट्र की संस्कृति की अभिव्यक्ति करते हैं। जैसे अंग्रेजी में कई कहावतें और मुहावरे ऐसे हैं, कि जिनके भाव किसी भी धार्मिक (भारतीय) भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए कोई कहावतें या मुहावरे नहीं हैं।   
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जैसे अंग्रेजी में कहावत है “माईट इज राईट” अर्थ है जो बलवान है वह सही है। भारतीय भाषाओं में इससे मिलाती जुलती कहावतें हैं। जैसे मराठी में है “बळी तो कान पिळी” अर्थ है जो बलवान है वह आपके कान मरोड सकता है । याने बलवान कुछ भी कर सकता है। हिंदी में कहावत है “जिस की लाठी उस की भैंस”। अर्थ है जो बलवान होगा भैंस उस की होगी। हम देखेंगे कि मराठी और हिंदी दोनों भाषाओं की कहावतों का भावार्थ एक है लेकिन वह अंग्रेजी कहावत के अर्थ से भिन्न है। हमारी सांस्कृतिक मान्यता यह तो कहती है कि चलेगी बलवान की, लेकिन इस का अर्थ यह नहीं कि वह सही है, जैसी अंग्रेजी मान्यता है।  
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जैसे अंग्रेजी में कहावत है “माईट इज राईट” अर्थ है जो बलवान है वह सही है। धार्मिक (भारतीय) भाषाओं में इससे मिलाती जुलती कहावतें हैं। जैसे मराठी में है “बळी तो कान पिळी” अर्थ है जो बलवान है वह आपके कान मरोड सकता है । याने बलवान कुछ भी कर सकता है। हिंदी में कहावत है “जिस की लाठी उस की भैंस”। अर्थ है जो बलवान होगा भैंस उस की होगी। हम देखेंगे कि मराठी और हिंदी दोनों भाषाओं की कहावतों का भावार्थ एक है लेकिन वह अंग्रेजी कहावत के अर्थ से भिन्न है। हमारी सांस्कृतिक मान्यता यह तो कहती है कि चलेगी बलवान की, लेकिन इस का अर्थ यह नहीं कि वह सही है, जैसी अंग्रेजी मान्यता है।  
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ऐसी ही एक और कहावत है “ओनेस्टी इज द बेस्ट पोलिसी” याने प्रामाणिकता यह सर्वोत्तम पोलिसी है। याने जब लाभ हो तब प्रामाणिकता का व्यवहार करो। भारतीय भाषाओं में इस अर्थ की कोई  कहावत नहीं है। क्यों कि हमारी मान्यता है कि प्रामाणिकता तो अनिवार्य बात है। प्रामाणिकता तो हमारे खून में होनी चाहिए। प्रामाणिकता तो हमारा धर्म है। और इसके लिए जान भी दी जा सकती है।   
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ऐसी ही एक और कहावत है “ओनेस्टी इज द बेस्ट पोलिसी” याने प्रामाणिकता यह सर्वोत्तम पोलिसी है। याने जब लाभ हो तब प्रामाणिकता का व्यवहार करो। धार्मिक (भारतीय) भाषाओं में इस अर्थ की कोई  कहावत नहीं है। क्यों कि हमारी मान्यता है कि प्रामाणिकता तो अनिवार्य बात है। प्रामाणिकता तो हमारे खून में होनी चाहिए। प्रामाणिकता तो हमारा धर्म है। और इसके लिए जान भी दी जा सकती है।   
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जब हम किसी को याद कर रहे होते हैं और वह अचानक अनापेक्षित वहाँ आ जाता है तब के लिए अंग्रेजी में और एक मुहावरा है “थिंक ऑफ़ द डेव्हिल एंड ही इज देयर” अर्थ है शैतान को याद करो और वह हाजिर हो जाता है। भारतीय भाषाओं में भी इसा प्रसंग के लिए मुहावरें हैं लेकिन उनके अर्थ भिन्न हैं। हिन्दी में कहेंगे “लो ! भगवान को याद किया और स्वयं भगवान उपस्थित हो गए”। मराठी में भी ऐसा ही कहेंगे “ घ्या ! नाव घेतले आणि दत्तासारखा" (भगवान दत्तात्रेय जैसा) उपस्थित हो गया। इन दोनों मुहावरों में अंतर अंग्रेजों की और हमारी सांस्कृतिक भिन्नता के कारण है। हमारी मान्यता है कि केवल मनुष्य ही नहीं तो हर अस्तित्व यह परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। जब कि अंग्रेजी याने ईसाई मान्यता यह है कि प्रत्येक मानव डेव्हिल है। पापी है। वह आदम और ईव के द्वारा किये हुए उस “ओरिजिनल सिन” याने मूल पाप का नतीजा है।  
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जब हम किसी को याद कर रहे होते हैं और वह अचानक अनापेक्षित वहाँ आ जाता है तब के लिए अंग्रेजी में और एक मुहावरा है “थिंक ऑफ़ द डेव्हिल एंड ही इज देयर” अर्थ है शैतान को याद करो और वह हाजिर हो जाता है। धार्मिक (भारतीय) भाषाओं में भी इसा प्रसंग के लिए मुहावरें हैं लेकिन उनके अर्थ भिन्न हैं। हिन्दी में कहेंगे “लो ! भगवान को याद किया और स्वयं भगवान उपस्थित हो गए”। मराठी में भी ऐसा ही कहेंगे “ घ्या ! नाव घेतले आणि दत्तासारखा" (भगवान दत्तात्रेय जैसा) उपस्थित हो गया। इन दोनों मुहावरों में अंतर अंग्रेजों की और हमारी सांस्कृतिक भिन्नता के कारण है। हमारी मान्यता है कि केवल मनुष्य ही नहीं तो हर अस्तित्व यह परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। जब कि अंग्रेजी याने ईसाई मान्यता यह है कि प्रत्येक मानव डेव्हिल है। पापी है। वह आदम और ईव के द्वारा किये हुए उस “ओरिजिनल सिन” याने मूल पाप का नतीजा है।  
    
== धर्म और संस्कृति ==
 
== धर्म और संस्कृति ==
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अब इसमें धर्म पुरुषार्थ आ जाता है। मनुष्य की कामनाएँ याने इच्छाएँ जब धर्म से नियमित, मार्गदर्शित और निर्देशित होती हैं तो वे इच्छाएँ मनुष्य को मेरे निकट लातीं हैं। मैं उसे प्राप्त हो जाता हूँ। इस तरह से इच्छाओं की पूर्ति जब धर्म के दायरे में की जाती है तब मोक्ष प्राप्ति होती है।  
 
अब इसमें धर्म पुरुषार्थ आ जाता है। मनुष्य की कामनाएँ याने इच्छाएँ जब धर्म से नियमित, मार्गदर्शित और निर्देशित होती हैं तो वे इच्छाएँ मनुष्य को मेरे निकट लातीं हैं। मैं उसे प्राप्त हो जाता हूँ। इस तरह से इच्छाओं की पूर्ति जब धर्म के दायरे में की जाती है तब मोक्ष प्राप्ति होती है।  
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मोक्ष - यह जीवन का लक्ष्य है। और इसकी दिशा में ले जानेवाली हर कृति संस्कृति है। यह हर कृति जब धर्म के दायरे में होती है तब ही वह मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाती है। इस का अर्थ है कि भारतीय दृष्टि से धर्म के अनुसार कृति ही संस्कृति है।
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मोक्ष - यह जीवन का लक्ष्य है। और इसकी दिशा में ले जानेवाली हर कृति संस्कृति है। यह हर कृति जब धर्म के दायरे में होती है तब ही वह मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाती है। इस का अर्थ है कि धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से धर्म के अनुसार कृति ही संस्कृति है।
    
एक अलग तरीके से भी धर्म और संस्कृति का संबंध समझा जा सकता है। मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। मोक्षप्राप्ति का साधन पुरुषार्थ चतुष्टय है याने धर्म के अविरोधी काम या इच्छाओं को रखने में है।  
 
एक अलग तरीके से भी धर्म और संस्कृति का संबंध समझा जा सकता है। मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। मोक्षप्राप्ति का साधन पुरुषार्थ चतुष्टय है याने धर्म के अविरोधी काम या इच्छाओं को रखने में है।  
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धर्म के अच्छे अनुपालना के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन है शरीर:<blockquote>शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। <ref>कुमारसंभव ५.३३</ref></blockquote>अपने शरीर को ठीक रखने के लिए समाज की मदद आवश्यक होती है। समाज के द्वारा निर्माण की गई वस्तुओं, सेवाओं के बिना हम सुख से जी नहीं सकते। समाज यदि सुखी होगा तो हम भी सुखी हो सकते हैं। इसलिए समाज के सुखी रहने से ही हम अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ सकते हैं। इसलिए कहा गया है:<blockquote>आत्मनो मोक्षार्थम् जगद् हिताय च।<ref>ऋग्वेद</ref></blockquote>जगत का याने समाज का और पर्यावरण का दोनों का हित करने के लिए किये गए व्यवहार का ही नाम संस्कृति है। समाज ओर पर्यावरण दोनों के हित की कृति ही संस्कृति है।
 
धर्म के अच्छे अनुपालना के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन है शरीर:<blockquote>शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। <ref>कुमारसंभव ५.३३</ref></blockquote>अपने शरीर को ठीक रखने के लिए समाज की मदद आवश्यक होती है। समाज के द्वारा निर्माण की गई वस्तुओं, सेवाओं के बिना हम सुख से जी नहीं सकते। समाज यदि सुखी होगा तो हम भी सुखी हो सकते हैं। इसलिए समाज के सुखी रहने से ही हम अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ सकते हैं। इसलिए कहा गया है:<blockquote>आत्मनो मोक्षार्थम् जगद् हिताय च।<ref>ऋग्वेद</ref></blockquote>जगत का याने समाज का और पर्यावरण का दोनों का हित करने के लिए किये गए व्यवहार का ही नाम संस्कृति है। समाज ओर पर्यावरण दोनों के हित की कृति ही संस्कृति है।
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धर्म और मजहब या रिलीजन में अंतर है। इसलिए मजहबी या रिलीजन के अनुसार की हुई कोई भी कृति जब तक धर्म के अनुसार ठीक नहीं है तब तक वह कृति भारतीय संस्कृति नहीं है। इसी तरह किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय के द्वारा बताई हुई या समर्थित या पुरस्कृत कोई भी कृति जब धर्म के अनुकूल होगी तब ही वह भारतीय संस्कृति कहलाएगी।
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धर्म और मजहब या रिलीजन में अंतर है। इसलिए मजहबी या रिलीजन के अनुसार की हुई कोई भी कृति जब तक धर्म के अनुसार ठीक नहीं है तब तक वह कृति धार्मिक (भारतीय) संस्कृति नहीं है। इसी तरह किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय के द्वारा बताई हुई या समर्थित या पुरस्कृत कोई भी कृति जब धर्म के अनुकूल होगी तब ही वह धार्मिक (भारतीय) संस्कृति कहलाएगी।
    
== वर्तमान जीवन की गति और संस्कृति ==
 
== वर्तमान जीवन की गति और संस्कृति ==
 
विश्व गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं। गति ही जीवन है। गतिशून्यता मृत्यू है। इसलिए जीवन चलते रहने के लिए गति आवश्यक होती है। लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते। ऐसा होने से वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं। दु:खी हो जाते हैं। लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है। इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके। इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है। वर्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है। इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता। ठहराव, विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है। केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है। वर्तमान जीवन ने लोगों को पगढ़ीला बना दिया है। आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है। घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है। क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है। घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति शायद श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है। लेकिन वर्तमान तंत्रज्ञान के, और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोई ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं।
 
विश्व गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं। गति ही जीवन है। गतिशून्यता मृत्यू है। इसलिए जीवन चलते रहने के लिए गति आवश्यक होती है। लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते। ऐसा होने से वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं। दु:खी हो जाते हैं। लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है। इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके। इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है। वर्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है। इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता। ठहराव, विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है। केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है। वर्तमान जीवन ने लोगों को पगढ़ीला बना दिया है। आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है। घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है। क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है। घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति शायद श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है। लेकिन वर्तमान तंत्रज्ञान के, और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोई ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं।
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लेकिन जीवन जब तक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती। संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है। लेकिन ठहराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे। जब समाज के सारे लोग समान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं। यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है। वर्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है। यह गति जिस सामाजिक जीवन के अभारतीय प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है।
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लेकिन जीवन जब तक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती। संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है। लेकिन ठहराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे। जब समाज के सारे लोग समान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं। यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है। वर्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है। यह गति जिस सामाजिक जीवन के अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है।
    
== भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता ==
 
== भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता ==
भारत ने कभी भी आक्रमण नहीं किया। दूसरे पर किसी भी कारण के बिना लूटपाट के लिए, अत्याचार के लिए आक्रमण करना यह एक मानवीय विकृति है। विश्व में ऐसा शायद एक भी समाज का उदाहरण नहीं है जो बलवान बना और उसने औरों की लूट करने के लिए, औरों को गुलाम बनाने के लिए अन्य समाजों पर आक्रमण नहीं किये। फिर भी भारतीय संस्कृति ने दुनिया को जीता था। कैसे ? वैसे तो ईसा पूर्व के काल में कुछ सैनिक अभियान भी हुए लेकिन वे कभी भी जनता की लूटमार करने के लिए नहीं हुए। भारतीय संस्कृति के वैश्विक विस्तार के कारण सभी राज्यों की जनता समान संस्कृति की थी। इसलिए वे आक्रमण एक राष्ट्र द्वारा  दूसरे राष्ट्र पर किये हुए आक्रमण के स्वरूप के नहीं थे। एक ही राष्ट्र के अन्दर होनेवाले राजाओं के संघर्ष जैसे ही थे।  
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भारत ने कभी भी आक्रमण नहीं किया। दूसरे पर किसी भी कारण के बिना लूटपाट के लिए, अत्याचार के लिए आक्रमण करना यह एक मानवीय विकृति है। विश्व में ऐसा शायद एक भी समाज का उदाहरण नहीं है जो बलवान बना और उसने औरों की लूट करने के लिए, औरों को गुलाम बनाने के लिए अन्य समाजों पर आक्रमण नहीं किये। फिर भी धार्मिक (भारतीय) संस्कृति ने दुनिया को जीता था। कैसे ? वैसे तो ईसा पूर्व के काल में कुछ सैनिक अभियान भी हुए लेकिन वे कभी भी जनता की लूटमार करने के लिए नहीं हुए। धार्मिक (भारतीय) संस्कृति के वैश्विक विस्तार के कारण सभी राज्यों की जनता समान संस्कृति की थी। इसलिए वे आक्रमण एक राष्ट्र द्वारा  दूसरे राष्ट्र पर किये हुए आक्रमण के स्वरूप के नहीं थे। एक ही राष्ट्र के अन्दर होनेवाले राजाओं के संघर्ष जैसे ही थे।  
    
== भारतीय संस्कृति का विश्वसंचार ==
 
== भारतीय संस्कृति का विश्वसंचार ==
भारतीय संस्कृति का विश्व संचार कैसा और कितना व्यापक था इसको हम शरद हेबालकर लिखित “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” इस ग्रन्थ में देख सकते हैं । पुस्तक में भारतीय संस्कृति का पूर्व में जापान तक और पश्चिम में अमरीका तक विश्वभर में कैसे विस्तार हुआ था उसका आलेख मिलता है।
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भारतीय संस्कृति का विश्व संचार कैसा और कितना व्यापक था इसको हम शरद हेबालकर लिखित “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” इस ग्रन्थ में देख सकते हैं । पुस्तक में धार्मिक (भारतीय) संस्कृति का पूर्व में जापान तक और पश्चिम में अमरीका तक विश्वभर में कैसे विस्तार हुआ था उसका आलेख मिलता है।
    
== इस्लाम के आक्रमणों का भारत राष्ट्र की संस्कृति पर हुआ परिणाम ==
 
== इस्लाम के आक्रमणों का भारत राष्ट्र की संस्कृति पर हुआ परिणाम ==
किसी समय मनु ब्राहृावर्त से पूरे विश्वपर राज्य करता था। भारतीय समाज रचना और व्यवस्थाएँ विश्वभर में स्वीकृत भी थीं और प्रतिष्ठित भी थीं। धीरे धीरे काल के प्रवाह में इस राष्ट्र की चित्ति का संकुचित होना शुरू हुआ । लम्बे भूतकाल में धीरे धीरे लेकिन यह संकोच होता ही रहा। आगे यह भारतवर्ष की वर्तमान सीमाओं तक सिमट गया। ये सीमाएँ वास्तव में अभी हजार वर्ष पूर्व तक ईरान से ब्राह्मदेश और हिमालय से समुद्र तक फैली हुई थीं।  
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किसी समय मनु ब्राहृावर्त से पूरे विश्वपर राज्य करता था। धार्मिक (भारतीय) समाज रचना और व्यवस्थाएँ विश्वभर में स्वीकृत भी थीं और प्रतिष्ठित भी थीं। धीरे धीरे काल के प्रवाह में इस राष्ट्र की चित्ति का संकुचित होना शुरू हुआ । लम्बे भूतकाल में धीरे धीरे लेकिन यह संकोच होता ही रहा। आगे यह भारतवर्ष की वर्तमान सीमाओं तक सिमट गया। ये सीमाएँ वास्तव में अभी हजार वर्ष पूर्व तक ईरान से ब्राह्मदेश और हिमालय से समुद्र तक फैली हुई थीं।  
    
दीर्घ काल तक भारतवर्ष की भूमि के निरंतर घटने के इतिहास के कुछ तथ्य अब देखेंगे।  
 
दीर्घ काल तक भारतवर्ष की भूमि के निरंतर घटने के इतिहास के कुछ तथ्य अब देखेंगे।  
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४. आत्म-विस्मृति
 
४. आत्म-विस्मृति
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५. अभारतीय याने अंग्रेजी जीवन के प्रतिमान के स्वीकार की मानसिकता
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५. अधार्मिक (अभारतीय) याने अंग्रेजी जीवन के प्रतिमान के स्वीकार की मानसिकता
    
==References==
 
==References==

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