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* काम का एक अर्थ जातीयता है । वह शारीरिक स्तर पर सम्भोग, प्राणिक स्तर पर मैथुन, मानसिक स्तर पर आसक्ति, बौद्धिक स्तर पर आत्मीयता प्रेरित कर्तव्य, चित्त के स्तर पर प्रसन्नता और आत्मिक स्तर पर प्रेम के रूप में व्यक्त होता है। काम की शरीर से आत्मा तक की यात्रा कामसाधना है।  
 
* काम का एक अर्थ जातीयता है । वह शारीरिक स्तर पर सम्भोग, प्राणिक स्तर पर मैथुन, मानसिक स्तर पर आसक्ति, बौद्धिक स्तर पर आत्मीयता प्रेरित कर्तव्य, चित्त के स्तर पर प्रसन्नता और आत्मिक स्तर पर प्रेम के रूप में व्यक्त होता है। काम की शरीर से आत्मा तक की यात्रा कामसाधना है।  
 
* काम हमारा नियन्त्रण न करे अपितु हमारे नियन्त्रण में रहे तो वह बडी शक्ति है जो अनेक असम्भव बातों को सम्भव बनाती है।
 
* काम हमारा नियन्त्रण न करे अपितु हमारे नियन्त्रण में रहे तो वह बडी शक्ति है जो अनेक असम्भव बातों को सम्भव बनाती है।
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=== आलेख ३ ===
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==== धर्मकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम ====
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* धर्म केवल सम्प्रदाय नहीं है । सम्प्रदाय धर्म का एक अंग है। धर्म विश्वनियम है, विश्वव्यवस्था है । वह सृष्टि को और प्रजा को धारण करता है।
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* सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले धर्म की उत्पत्ति हुई है। यह सृष्टिधर्म है । इसके ही अनुसरण में समष्टि को धारण करने वाले समष्टि धर्म की उत्पत्ति हुई है।
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* बने रहने के लिये, अभ्युदय प्राप्त करने के लिये, कल्याण को प्राप्त करने के लिये मनुष्य को धर्म का पालन करना अनिवार्य है।
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* धर्म की रक्षा करने से ही धर्म हमारी रक्षा करता है । धर्म के पालन से ही धर्म की रक्षा होती है।
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* समष्टि धर्म का एक आयाम कर्तव्यपालन है । समष्टि की धारणा हेतु हर व्यक्ति को अपनी अपनी भूमिका अनुसार कर्तव्य प्राप्त हुए हैं। ये कर्तव्य ही उसका धर्म है। जैसे कि पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, राजधर्म, व्यवसायधर्म आदि।
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* धर्म का एक अर्थ स्वभाव है। स्वभाव जन्मजात होता है। स्वभाव के अनुसार स्वधर्म होता है। हर व्यक्ति को अपने धर्म का ही पालन करना चाहिये, पराये धर्म का नहीं।
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* धर्म का एक अर्थ न्याय, नीति और सदाचार का पालन करना है। धर्म का एक आयाम सम्प्रदाय है।
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* धर्म का एक आयाम संप्रदाय है। हर व्यक्ति को अपने संप्रदाय के इष्ट, ग्रन्थ, पूजापद्धति, शैली आदि का पालन करना चाहिए और अन्य सम्प्रदायों का द्वेष नहीं अपितु आदर करना चाहिए।
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* दूसरों का हित करना सबसे बड़ा धर्म है और दूसरों का अहित करना सबसे बड़ा अधर्म है।
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* धर्म समाज के अनुकूल नहीं, समाज धर्म के अनुकूल होना चाहिये । समाज के हर व्यवस्था धर्म के अनुकूल, धर्म के अविरोधी होनी चाहिये ।
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* इन सभी बातों की शिक्षा हर स्तर पर अनिवार्य बननी चाहिये । तभी समाज का भला होगा।
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