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आलेख १
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अर्थकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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भगवान ने हाथ काम करने के लिये दिये हैं इसलिये हाथ से काम करना अनिवार्य है
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और अच्छा है इस बात का स्वीकार करना चाहिये ।
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घर में और विद्यालय में शिशुअवस्था से ही हाथ से काम करना सिखाना चाहिये ।
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हाथ से काम करने वाला न करने वाले से श्रेष्ठ है ऐसा मानस बनना चाहिये ।
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काम करने वाले हाथ में ही लक्ष्मी, सरस्वती और लक्ष्मीपति का वास है यह तथ्य
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समझना चाहिये ।
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श्रेष्ठ समाज समृद्ध समाज होता है । समाज को समृद्ध बनाने हेतु अर्थकरी शिक्षा की
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व्यवस्था होनी चाहिये ।
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समृद्धि, धर्म और संस्कृति के अविरोधी होनी चाहिये । धर्म अर्थ से श्रेष्ठ माना जाना
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चाहिये ।
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भौतिक पदार्थों के उत्पादन पर आधारित समृद्धि होनी चाहिये । अनेक सांस्कृतिक
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बातें अर्थ से परे होनी चाहिये ।
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समाज में केवल गृहस्थ को ही अथर्जिन करने का अधिकार है, शेष तीनों आश्रम
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गृहस्थ के आश्रित है ।
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हर गृहस्थ को AIT करना ही चाहिये । परन्तु शिक्षक, वैद्य, पुरोहित,
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न्यायाधीश भिक्षावृत्ति से और राजा तथा अमात्य वर्ग चाकरी वृत्ति (नौकरी) से
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अथर्जिन करेंगे ।
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देश की प्राकृतिक सम्पदा, मनुष्य के हाथों की कारीगरी की कुशलता और मनुष्य
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की बुद्धि की निर्माणक्षमता आर्थिक समृद्धि के मूल आधार हैं ।
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अर्थकरी शिक्षा उत्पादन केन्द्रों में, वाणिज्य के केन्द्रों में और शासन के केन्द्रों में दी
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जानी चाहिये |
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देश की अर्थनीति विश्वविद्यालयों में बननी चाहिये, उसका क्रियान्वयन राज्य द्वारा
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होना चाहिये और उसका पालन प्रजा द्वारा होना चाहिये |
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2 ५.
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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आलेख २
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कामकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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काम का अर्थ केवल जातीयता नहीं है । सृजन के मूल संकल्प के रूप में वह सृष्टि
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में प्रथम उत्पन्न हुआ है । उसका आदरपूर्वक स्वीकार करना चाहिये ।
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काम अनन्तकोटि कामना अर्थात्‌ इच्छाओं का रूप धारण कर मनुष्य के मन में
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प्रतिष्ठित हुआ है । काम की शिक्षा मुख्य रूप से मन की शिक्षा है ।
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कामनायें उपभोग करने से कभी शान्त नहीं होतीं । कामनायें कभी समाप्त नहीं
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होतीं । कामनाओं को संयमित करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिये । इसीको
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मनःसंयम कहते हैं ।
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सन्तोष मनःसंयम का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है । सन्तोष से ही सुख, शान्ति,
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प्रसन्नता प्राप्त हो सकते हैं ।
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मनःसंयम हेतु ध्यान, जप, सत्संग, सेवा, स्वाध्याय, 3%कार उच्चारण और सात्विक
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आहार अनिवार्य हैं ।
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काम वस्तुओं की प्राप्ति हेतु प्रेरित करता है, येनकेन प्रकारेण उन्हें प्राप्त करने हेतु
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उकसाता है । उसमें बह नहीं जाना कामसाधना है ।
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काम अनेक वस्तुओं के सृजन हेतु भी प्रेरित करता है । वस्तुओं के सृजन में
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कौशल, गति और उत्कृष्टता प्राप्त करना कामसाधना है ।
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काम सृजन को प्रेरित करता है । उसका सुसंस्कृत रूप कला है । कामतुष्टि विकसित
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होकर सौन्दर्यबोध और प्रसन्नता में परिणत होती है । काम प्रेम बन जाता है । यह
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काम साधना का श्रेष्ठ रूप |
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काम का एक अर्थ जातीयता है । वह शारीरिक स्तर पर सम्भोग, प्राणिक स्तर पर
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मैथुन, मानसिक स्तर पर आसक्ति, बौद्धिक स्तर पर आत्मीयता प्रेरित कर्तव्य, चित्त
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के स्तर पर प्रसन्नता और आत्मिक स्तर पर प्रेम के रूप में व्यक्त होता है । काम की
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शरीर से आत्मा तक की यात्रा कामसाधना है ।
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काम हमारा नियन्त्रण न करे अपितु हमारे नियन्त्रण में रहे तो वह बडी शक्ति है जो
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अनेक असम्भव बातों को सम्भव बनाती है ।
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आलेख ३
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धर्मकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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धर्म केवल सम्प्रदाय नहीं है । सम्प्रदाय धर्म का एक अंग है । धर्म विश्वनियम है,
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विश्वव्यवस्था है । वह सृष्टि को और प्रजा को धारण करता है ।
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सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले धर्म की उत्पत्ति हुई है । यह
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सृष्टिधर्म है । इसके ही अनुसरण में समष्टि को धारण करने वाले समष्टि धर्म की
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उत्पत्ति हुई है ।
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बने रहने के लिये, अभ्युदय प्राप्त करने के लिये, कल्याण को प्राप्त करने के लिये
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मनुष्य को धर्म का पालन करना अनिवार्य है ।
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धर्म की रक्षा करने से ही धर्म हमारी रक्षा करता है । धर्म के पालन से ही धर्म की
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रक्षा होती है ।
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समष्टि धर्म का एक आयाम कर्तव्यपालन है । समष्टि की धारणा हेतु हर व्यक्ति को
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अपनी अपनी भूमिका अनुसार कर्तव्य प्राप्त हुए हैं । ये कर्तव्य ही उसका धर्म है ।
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जैसे कि पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, राजधर्म, व्यवसायधर्म आदि |
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धर्म का एक अर्थ स्वभाव है । स्वभाव जन्मजात होता है । स्वभाव के अनुसार
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स्वधर्म होता है । हर व्यक्ति को अपने धर्म का ही पालन करना चाहिये, पराये धर्म
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का नहीं ।
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धर्म का एक अर्थ न्याय, नीति और सदाचार का पालन करना है ।
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धर्म का एक आयाम सम्प्रदाय है । हर व्यक्ति को अपने सम्प्रदाय के इष्ट, ग्रन्थ,
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पूजापद्धति, शैली आदि का पालन करना चाहिये और अन्य सम्प्रदायों का द्वेष नहीं
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अपितु आदर करना चाहिये ।
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दूसरों का हित करना सबसे बडा धर्म है और दूसरों का अहित करना सबसे बडा
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अधर्म है ।
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धर्म समाज के अनुकूल नहीं, समाज धर्म के अनुकूल होना चाहिये । समाज के हर
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व्यवस्था धर्म के अनुकूल, धर्म के अविरोधी होनी चाहिये ।
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इन सभी बातों की शिक्षा हर स्तर पर अनिवार्य बननी चाहिये । तभी समाज का
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भला होगा |
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2८ ५
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2 ५.
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9९9 ५११११ ५१५9 भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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LNENLSVAAQBALS et g
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८५
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+
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आलेख ४
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भवननिर्माण के मूल सूत्र
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विद्यालय की पहचान भवन से नहीं, शिक्षा से होनी चाहिये । भवन साधन है, साध्य
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नहीं ।
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विद्यालय का भवन ज्ञान और विद्या को प्रकट करनेवाला होना चाहिये, प्रासाद,
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दुकान या कार्यालय नहीं लगना चाहिये ।
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विद्यालय का भवन शैक्षिक गतिविधियों के अनुरूप होना चाहिये, आवास के
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अनुकूल नहीं ।
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स्वच्छता और पवित्रता विद्यालय भवन के मूल आधार बनने चाहिये ।
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विद्यालय का भवन प्राकृतिक पदार्थों से बनना चाहिये । रेत, चूना, मिट्टी, पथ्थर,
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लकडी प्राकृतिक पदार्थ हैं जबकि सिमेण्ट, लोहा, सनमाइका कृत्रिम । कृत्रिम पदार्थ
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पर्यावरण का प्रदूषण करते हैं ।
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विद्यालय के भवन में तापमान नियन्त्रण की प्राकृतिक व्यवस्था होनी चाहिये । भवन
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की वास्तुकला ऐसी होनी चाहिये कि दिन में भी विद्युत प्रकाश की आवश्यकता न
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रहे और ग्रीष्म क्रतु में भी पंखों की आवश्यकता न पडे ।
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विद्यालय के भवन में सादगी होनी चाहिये, वैभव नहीं, सौन्दर्य होना चाहिये,
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विलासिता नहीं ।
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भवन निर्माण के भारतीय शास्त्र के अनुसार भवन बनना चाहिये । वास्तुशास्त्र का भी
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अनुसरण करना चाहिये ।
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भारतीय भवनों की खिडकियाँ भूतल से ढाई या तीन फीट की ऊँचाई पर नहीं होतीं
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अधिक से अधिक एक फूट की ऊँचाई पर ही होती हैं क्योंकि सबका भूमि पर
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बैठना ही अपेक्षित होता है ।
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विद्यालय भवन में वर्षा के पानी का संग्रह करने की व्यवस्था तो होनी ही चाहिये
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परन्तु गन्दे पानी की निकास की व्यवस्था भूमि के उपर होनी चाहिये ।
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विद्यालय के भवन को मिट्टी युक्त आँगन या मैदान होना चाहिये सब कुछ पथ्थर से
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बन्द नहीं कर देना चाहिये ।
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आलेख ५
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स्पर्धा होनी चाहिये या नहीं
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हम स्पर्धा को पुरुषार्थ का प्रेरक तत्त्व मानते हैं परन्तु यह सत्य नहीं है । स्पर्धा संघर्ष
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की और, संघर्ष हिंसा की ओर तथा हिंसा विनाश की ओर ले जाती है । इसलिये
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स्पर्धा का त्याग करना चाहिये ।
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विद्यालयों में स्पर्धा का तत्त्व बहुत लोकप्रिय और प्रतिष्ठित बन गया है । स्पर्धा का
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अर्थ नहीं समझने वाले बच्चों के लिये भी स्पर्धा का आयोजन होता है । इसका
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सर्वथा त्याग करना चाहिये ।
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स्पर्धा सर्वश्रेष्ठ बनने के लिये होती है, श्रेष्ठ बनने के लिये नहीं । व्यक्ति को श्रेष्ठ बनना
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चाहिये, सर्वश्रेष्ठ नहीं ।
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“स्वस्थ स्पर्धा' यह शब्दसमूह निररर्धक है, आकाश कुसुम या शशशुंग की तरह ।
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आकाश में कभी फूल नहीं खिलता और खरगोश को कभी सिंग नहीं होते उसी
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प्रकार स्पर्धा कभी स्वस्थ नहीं होती ।
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खेलों में स्पर्धा होती है तब खेलना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्त्वपूर्ण बन जाता
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है । पढ़ाई में स्पर्धा होती है तब पढना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्वपूर्ण बन
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जाता है । जीतने का सिद्धान्त होता है किसी भी प्रकार से दूसरों को हराना ।
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स्पर्धा से मुख्य विषय से ध्यान हटकर उसके फल पर केन्द्रित हो जाता है । फल
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नहीं मिला तो मुख्य विषय अप्रस्तुत बन जाता है ।
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स्पर्धा जीत और पुरस्कार इतने सहज हो गये हैं कि अब छोटे बडे सब के लिये
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पुरस्कार नहीं तो जीत का महत्त्व नहीं, जीत नहीं तो स्पर्धा निर््थक और स्पर्धा नहीं
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तो काम करने का कोई प्रयोजन नहीं । इस प्रकार स्पर्धा अनिष्टों का मूल है ।
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हमें संघर्ष नहीं, समन्वय चाहिये । स्पर्धा संघर्ष की जननी है इसलिये उसका त्याग
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करना चाहिये ।
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आज असम्भव लगता है तो भी विद्यालय से स्पर्धा का निष्कासन करने की
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आकांक्षा रखनी चाहिये और उसके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये ।
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2८ ५
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2 ५.
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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आलेख ६
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परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार
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परीक्षा शिक्षा का एकमेव अथवा मुख्य अंग नहीं है । परीक्षा में उत्तीर्ण होना एकमेव
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लक्ष्य नहीं है ।
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परीक्षा आवश्यकता पड़ने पर ही ली जानी चाहिये, स्वाभाविक क्रम में नहीं ।
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अध्ययन परीक्षा के लिये नही ज्ञान के लिए होना चाहिये ।
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विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त हुआ है कि नहीं वह शिक्षक, मातापिता और समाज उसके
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व्यवहार से सहज ही जान सकते हैं, परीक्षा एक कृत्रिम व्यवस्था है ।
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नौकरी है इसलिये स्पर्धा है, स्पर्धा है इसलिये परीक्षा है । यहाँ ज्ञान या कौशल का
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कोई सम्बन्ध नहीं है ।
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येनकेन प्रकारेण परीक्षा में उत्तीर्ण होना है तब अनेक प्रकार के दूषण पनपते हैं । ज्ञान
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और चरित्र से उसका कोई लेनादेना नहीं होता ।
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परीक्षा शिक्षा के तन्त्र पर इतनी हावी हो गई है कि अब सब परीक्षार्थी ही हैं,
  −
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विद्यार्थी नहीं । हमें विद्यार्थी चाहिये, परीक्षार्थी नहीं ।
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परीक्षा को अर्थपूर्ण बनाने के लिये उसे उद्देश्य के साथ जोडना चाहिये, पाठ्यक्रम
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और पाठ्यपुस्तकों के साथ नहीं । उद्देश्य के साथ जोडने पर परीक्षा का वर्तमान
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स्वरूप सर्वथा अप्रस्तुत बन जायेगा ।
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परीक्षा का वर्तमान स्वरूप अत्यन्त कृत्रिम है । उसका यथाशीघ्र त्याग करना
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चाहिये ।
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जो USI है वही मूल्यांकन कर सकता है यह शैक्षिक नियम है । आज जो पढाता
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है वह अविश्वसनीय बन गया है इसलिये जो पढाता नहीं और विद्यार्थी को जानता
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नहीं वह परीक्षा लेता है यह मूल्य और स्वाभाविकता दोनों का हास है ।
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परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे सार्थक बनाने की अत्यन्त आवश्यकता है।
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३०४
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आलेख ७
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परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार
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परीक्षा उद्देश्य के अनुरूप होनी चाहिये यह शैक्षिक नियम है । अतः हर विषय के
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साथ उद्देश्यों को सम्यक्‌ रूप से निरूपित करना चाहिये ।
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उद्देश्य के अनुरूप पाठन पद्धति होनी चाहिये और पाठन पद्धति के अनुरूप ही
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परीक्षा की भी पद्धति विकसित होनी चाहिये ।
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आज की तरह परीक्षा एक मात्र लिखित स्वरूप की नहीं होनी चाहिये । मौखिक
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और प्रायोगिक स्वरूप की होनी चाहिये । विषय के स्वरूप के अनुसार परीक्षा का
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भी स्वरूप होना चाहिये ।
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परीक्षा में लिखित परीक्षा भी आज तो अत्यन्त कृत्रिम और निर्र्थक बन गई है ।
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उसे बदलना चाहिये । जितने विद्यार्थियों के प्रकार उतने ही परीक्षा के प्रकार होना
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चाहिये । सबके लिये एक ही प्रश्नपत्र होना अत्यन्त अस्वाभाविक है ।
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जो पढ़ाता है वही परीक्षा लेता है और विद्यार्थी को जानने के कारण अपनी ही
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पद्धति से लेता है इस नियम को यदि हम पुनःप्रतिष्ठित नहीं कर सकते तो विद्यालयों
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का अर्थ ही क्‍या है ? शिक्षक ही यदि विश्वसनीय नहीं तो शिक्षाक्षेत्र का कोई
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आधार ही नहीं है ।
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परीक्षा उत्तीर्ण करने का ३५ प्रतिशत अंकों का नियम भी अत्यन्त हास्यास्पद है ।
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साथ ही सभी विषयों के लिये एक ही मापदण्ड भी अवास्तविक है । उसे स्वाभाविक
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और अर्थपूर्ण बनाना चाहिये ।
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परीक्षा को जीवन के साथ जोड़ना चाहिये, ज्ञान के साथ जोडना चाहिये, समाज के
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साथ जोड़ना चाहिये ।
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नौकरीयों हेतु, प्रगत पाठ्यक्रम में प्रवेश हेतु, पुरस्कारों हेतु परीक्षा लेने की पद्धति
  −
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को छोड देना चाहिये । अध्ययन से पूर्व ही चयन, अध्ययन के दौरान ही मूल्यांकन
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और सिद्धता प्राप्त होने पर नियुक्ति यह सही क्रम है ।
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३०५
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2८ ५
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2 ५.
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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आलेख ८
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वृद्धावस्था की शिक्षा के आयाम
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कया वृद्धावस्था में भी शिक्षा प्राप्त करना शेष रह जाता है ? हाँ, वृद्धावस्था में भी
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शिक्षा होती है ।
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आयु के साठ वर्ष के बाद वृद्धावस्था शुरू होती है और आजीवन चलती है ।
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वृद्धावस्था में वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम ऐसे दो आश्रम होते हैं । ७५ वर्ष की
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आयु तक वानप्रस्थाश्रम और बाद में संन्यस्ताश्रम होता है ।
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संन्यस्ताश्रम सबके लिये अनिवार्य नहीं होता है परन्तु वानप्रस्थाश्रम सबके लिये
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होता है ।
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वानप्रस्थाश्रम में समाजसेवा की शिक्षा प्रमुख विषय है ।
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अनासक्ति, अधिकार छोडकर कर्तव्यपालन की शिक्षा और उपभोग का त्याग करने
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की शिक्षा महत्त्वपूर्ण शिक्षाक्रम है ।
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ब्रह्मचर्याश्रम में जिसका अभ्यास किया था वह स्वादसंयम अब व्यवहार में लाने का
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समय है ।
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तीर्थयात्रा, शास्त्रों का अध्ययन, सन्तचरणों का सेवन और कथाश्रवण शिक्षा के
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मुख्य माध्यम है ।
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BY की प्रवृत्ति का सर्वथा त्याग करना अपेक्षित है ।
  −
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समाजसेवा के विभिन्न दायित्वों का निरपेक्ष भाव से वहन करना इस अवस्था का
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मुख्य लक्षण है ।
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परन्तु ७५ वर्ष की आयु के बाद केवल धर्मचिन्तन और अध्यात्मसाधना ही शिक्षा
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का स्वरूप है ।
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गत जीवन की समीक्षा और आगामी जन्म का चिन्तनपूर्वक अनुमान भी इस
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अवस्था की शिक्षा का अंग है ।
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शास्त्रों का अध्ययन कर दूसरों को सिखाना भी चाहिये |
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ROG
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आलेख ९
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प्रौठावस्था की शिक्षा
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३५ से ६० वर्ष की आयु प्रौढावस्था है ।
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प्रौढावस्था में दो आश्रम सम्मिलित हैं । ५० वर्ष की आयु तक गृहस्थाश्रम और ५०
  −
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से ६० वर्ष की आयु तक वानप्रस्थाश्रम होता है ।
  −
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गृहस्थाश्रम में गृहस्थाश्रम का पालन करना महत्त्वपूर्ण है जिसमें सन्तानों का संगोपन,
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निर्वाह हेतु अ्थार्जन और सांसारिक सुखों का उपभोग इन तीन बातों का मुख्य रूप
  −
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से समावेश होता है ।
  −
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इन तीनों बातों के लिये धर्माचरण का महत्त्व है । इसकी शिक्षा मातापिता से,
  −
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साधुसन्तों से और मित्रों तथा स्वजनों से प्राप्त होती है ।
  −
  −
गृहस्थ के नाते समाजधर्म का पालन भी महत्त्वपूर्ण है । व्यवसाय, दान, यज्ञ आदि
  −
  −
के माध्यम से यह कर्तव्य निभाया जाता है ।
  −
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वानप्रस्थाश्रम तक पहुँचते पहुँचते सांसारिक दायित्वों से मुक्त हो सर्के इस दृष्टि से
  −
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जीवनक्रम का नियोजन करना चाहिये ।
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उपभोग से संयम की ओर, अधिकार से कर्तव्य की ओर तथा समाजसेवा की ओर
  −
  −
गति होनी चाहिये ।
  −
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सब कुछ जिम्मेदारीपूर्वक करना इस अवस्था में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है ।
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३०७
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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आलेख १०
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सोने के नियम
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रात्रि में जल्दी सोयें, प्रता: जल्दी उठें ।
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प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में उठें । ब्राह्ममुूर्त सूर्योदय से पूर्व चार घडी अर्थात्‌ ९६ मिनट होता है ।
  −
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आवश्यकता के अनुसार ६ से ८ घण्टे नींद लें ।
  −
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दिन में न सोयें । भोजन के बाद वामकुक्षि करें । उस समय गद्दे पर न सोयें । दरी बिछायें ।
  −
  −
सायंकाल किये हुए भोजन का पाचन होने के बाद ही सोयें । जल्दी सो सकें इसलिये जल्दी
  −
  −
भोजन करें ।
  −
  −
फोम के गद्दे और पोलीएस्टर की चहर बिछाकर न सोयें । सिन्थेटिक कम्बल या रजाई
  −
  −
ओढकर न सोयें । रुई का गद्दा, सूती El, WA कम्बल या रुई की रजाई का प्रयोग करें ।
  −
  −
सोने से पहले हाथ पैर मुँह धोयें । गीले पैर लेकर न सोयें ।
  −
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feat या गरम कपडे पहनकर न सोयें ।
  −
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पीठ या पेट के बल न सोयें । करवट लेकर सोयें ।
  −
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मुँह खुला रखकर मुँह से श्वास लेते न सोयें ।
  −
  −
चेहरा ढक कर न सोयें ।
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सीधा पंखे के नीचे न सोयें । यथासम्भव बिना ए.सी. सोयें । कम से कम एक खिड़की
  −
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खुली रखें ।
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मच्छरों से बचने के लिये feats अगरबत्ती न जलायें । मच्छरदानी सबसे अच्छा उपाय
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है।
  −
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पैर एकदूसरे पर चढाकर, या पेट के पास लेकर न सोयें ।
  −
  −
छाती पर हाथ रखकर न सोयें ।
  −
  −
तेज प्रकाश रखकर न सोयें । लाल प्रकाश में न सोयें । नीला या हरा प्रकाश रखें । प्रकाश
  −
  −
नभी हो तो अच्छा है ।
  −
  −
स्वाध्याय और प्रार्थना करके सोयें ।
  −
  −
३०८
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2८ ५
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2 ५.
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आलेख ११
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आहार के नियम
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  −
आवश्यकता से अधिक या कम आहार न लें । पर्याप्त मात्रा में लें ।
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तामसी भोजन न करें, सात्त्विक आहार लें ।
  −
  −
प्रातःकाल सूर्योदय के दो घडी बाद नास्ता करें, दोपहर मध्याहन के एक घडी पूर्व
  −
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और सायंकाल सूर्यास्त के एक घडी पूर्व भोजन करें । रात्रि भोजन न करें ।
  −
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विरुद्ध आहार न करें । ऋतु के अनुसार भोजन करें ।
  −
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अपवित्र भोजन न करें, भोजन को अपवित्र न बनायें ।
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भोजन से पूर्व और भोजन के तुस्त बाद पानी न पियें, भोजन के मध्य थोडा सा
  −
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पानी पियें । भोजन के एक घण्टे बाद पानी पियें ।
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बैठकर ही भोजन करें । कुर्सी से भी नीचे आसन बिछाकर भूमि पर बैठना अच्छा
  −
  −
है । खडे खडे भोजन न करें ।
  −
  −
व्यर्थ भूखे न रहें, परन्तु असमय खाने से, अखाद्य खाने से भूख रहना अच्छछा है ।
  −
  −
प्लास्टिक के पात्रों में भोजन न करें । एल्‍्युमिनियम के पात्रों में भी भोजन न करें ।
  −
  −
मिक्सर, ग्राइण्डर, माइक्रोवेव, प्रेशर कूकर आदि की सहायता से एल्यूमिनियम के
  −
  −
पात्रों में बनाया हुआ भोजन न करें । ऐसा खाने से भूखा रहना अच्छा है ।
  −
  −
रासायनिक खाद से उगाया गया, बिना क्रतु के असमय पकाया गया अनाज; फल
  −
  −
या सागसब्जी, अनुचित पद्धति से निकाला गया तेल, अनुचित पद्धति से बना घी,
  −
  −
जर्सी का दूध आरोग्य के लिये अत्यन्त हानिकारक है ।
  −
  −
भोजन से शरीर की पुष्टि और मन के संस्कार होते हैं । शरीर के लिये पौष्टिक, मन
  −
  −
के लिये सात्विक और जीभ के लिये स्वादिष्ट भोजन करें ।
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३०९
  −
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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आलेख १२
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अच्छी शिक्षा प्राप्त करने हेतु यह करें
  −
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रात को जल्दी सोयें, प्रात: जल्दी उठें, दिन में न सोयें ।
  −
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खूब मंत्र, स्तोत्र, सुभाषित, सूक्ति, सूत्र, पहाडे कंठस्थ करें ।
  −
  −
श्रीमदू भगवदूगीता को कण्ठस्थ करें, नित्य पाठ करें और उसका अध्ययन करें ।
  −
  −
जप करें, ध्यान करें, ऊँकार उच्चारण करें, स्वरसाधना करें
  −
  −
ब्रह्मचर्य का पालन करें अर्थात्‌ नियम, संयम, अनुशासन का पालन करें ।
  −
  −
खूब खेलें, व्यायाम करें, श्रम करें, काम करें ।
  −
  −
स्वाश्रयी और स्वाध्यायी बनें ।
  −
  −
शुद्ध उच्चारण और शुद्धलेखन के आग्रही बनें । सच्चा पढना सीखें । खूब वाचन करें ।
  −
  −
सारी बातें प्रत्यक्ष कार्य और प्रयोग करके सीखें ।
  −
  −
अपनी बुद्धि से सीखें, विचार, विवेक और निर्णय करना सीखें ।
  −
  −
कठिन सवालों का हल खोजने की चुनौती स्वीकार करें, हल प्राप्त न हो तब तक लगे रहें ।
  −
  −
अपना आदर्श, अपना ध्येय, अपना लक्ष्य निर्धारित करें, उसे प्राप्त करने की योजना बनायें ।
  −
  −
जिम्मेदारीपूर्वक अध्ययन करें, मेरी पढाई में किसका कितना योगदान है इसका विचार करें ।
  −
  −
जबतक स्वयं विचार नहीं कर सकते तब तक बडों की आज्ञा का पालन करें । बडों के साथ
  −
  −
वादविवाद न करें ।
  −
  −
अपनी पढाई का अपने जीवन के लिये, आसपास के जगत के लिये क्या उपयोग है इसका
  −
  −
विचार करें ।
  −
  −
भय, लालच, आकर्षण, स्वार्थ आदि को समझें और उन्हें परास्त करने का सामर्थ्य प्राप्त करें ।
  −
  −
अच्छा, खायें, अच्छा काम करें, मन को वश में रखें और बुद्धि को सक्रिय करें । बुद्धिपूर्वक
  −
  −
अध्ययन करें, बुद्धिपूर्वक व्यवहार करें ।
  −
  −
स्वतन्त्र बुद्धि का विकास ही अच्छी शिक्षा का परिणाम है । स्वतन्त्र बुद्धि से सर्व प्रकार की
  −
  −
स्वतन्त्रता प्राप्त होती है ।
  −
  −
शिक्षित व्यक्ति को शोभा देनेवाला आचरण करें ।
  −
  −
३१०
  −
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  −
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आलेख १३
  −
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अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के लिये यह न करें
  −
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देर तक न सोयें, जंक फूड न खायें, आलसी न बनें ।
  −
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मोबाइल, इण्टरनेट, टीवी और होटेल से बचें ।
  −
  −
क्रिकेट, पार्टी, शृंगार, विजातीय मैत्री के आकर्षण में न फँसे ।
  −
  −
गाईड बुक, ट्यूशन, कैल्क्युलेटर आदि का उपयोग न करें ।
  −
  −
परीक्षा में नकल न करें । छोटा लक्ष्य न रखें ।
  −
  −
किसी भी प्रश्न के तैयार उत्तरों की अपेक्षा न करें ।
  −
  −
उद्दण्ड, उच्छृखल, अविनयी, अहंकारी न बनें । अशिष्ट वाणी, अभद्र आचरण,
  −
  −
अविवेकी व्यवहार न करें ।
  −
  −
स्वार्थी न बनें, केवल अपना ही विचार न करें, किसी को मूर्ख बनाने में बहादुरी न
  −
  −
मानें ।
  −
  −
प्लास्टिक की वस्तुओं का, सिन्थेटिक पदार्थों का उपयोग न करें । पर्यावरण और
  −
  −
स्वास्थ्य की हानि न करें ।
  −
  −
भोगविलास के सपने न देखें, बिना परिश्रम के कमाई की आकांक्षा न रखें, कम काम
  −
  −
करके अधिक कमाई की खोज में न रहें ।
  −
  −
बिना स्वाध्याय और परिश्रम के अच्छे अंक लाने की कामना रखकर अनैतिक व्यवहार
  −
  −
A ae |
  −
  −
परिवार, विद्यालय और समाज के लिये आपत्तिरूप न बनें । स्वमान और गौरव न
  −
  −
ae |
  −
  −
स्वैराचार को स्वतन्त्रता न समझें । बुद्धि स्वतन्त्र होने पर ही स्वतन्त्रता प्राप्त होती है
  −
  −
यह समझें ।
  −
  −
बिना बुद्धिविकास विवेक नहीं, बिना विवेक अधिकार नहीं, बिना विवेक स्वतन्त्रता
  −
  −
नहीं ।
  −
  −
दूसरों की बुद्धि से ही सीखना पडता है तब तक आप बडे नहीं हुए । बडे नहीं हुए तो
  −
  −
स्वतन्त्रता और अधिकार कैसे मिलेंगे ?
  −
  −
विद्वानों का, सज्जनों का, वृद्धों का, सन्तजनों का अपमान, अनादर और उपहास न
  −
  −
करें । ऐसा करेंगे तो विद्या कभी भी प्राप्त नहीं होगी ।
  −
  −
३११
  −
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  −
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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आलेख १४
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अच्छी शिक्षा के अवरोध
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गर्भावस्था में माता का अनुचित आहारविहार
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शिशुअवस्था में संस्कारक्षम वातावरण का अभाव
  −
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बच्चों को बहुत जल्दी विद्यालय में भेजना
  −
  −
बच्चों का अनुचित आहारविहार
  −
  −
सिन्थेटिक पदार्थों का उपयोग
  −
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भोजन बनाने में पोषक द्रव्यों को नष्ट करने वाले यन्त्रों का प्रयोग और पानी के
  −
  −
शुद्धीकरण की स्वास्थ्यविरोधी प्रक्रिया
  −
  −
अधिक समय पढाई, बिना समझे पढाई
  −
  −
अध्ययन अध्यापन की यान्त्रिक पद्धतियाँ
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लिखित गृहकार्य, यान्त्रिक साधनों का उपयोग
  −
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व्यायाम, श्रम का, संयम नियम का अभाव
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अविचारी और अनर्थकारी परीक्षापद्धति
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बिना सोचे समझे अनावश्यक रूप से अत्यधिक साधनसामग्री का उपयोग
  −
  −
पाठ्यक्रम में अनावश्यक विषयों का समावेश और आवश्यक विषयों की उपेक्षा
  −
  −
जीवनव्यवहार के साथ शिक्षा का सम्बन्ध विच्छेद
  −
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शिक्षक और विद्यार्थी में प्रेम, आदर, श्रद्धा का अभाव
  −
  −
शिक्षक और मातापिता में परस्पर विश्वास का अभाव
  −
  −
मन की अर्थात्‌ सद्गुण और सदाचार की शिक्षा का अभाव
  −
  −
स्वार्थकेन्द्री जीवनविचार
  −
  −
शासन का नियन्त्रण और शिक्षकों में दायित्वबोध का अभाव
  −
  −
बिना अध्ययन के भी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने की सम्भावना, सुविधा और व्यवस्था
  −
  −
शिक्षा अच्छी नहीं होने पर किसी को भी जिम्मेदार मानने की व्यवस्था का अभाव
  −
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शिक्षा का बाजारीकरण, यान्त्रिकीकरण और अभारतीयकरण
  −
  −
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  −
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आलेख १५
  −
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विश्वविद्यालयों का संकट
  −
  −
वर्तमान भारत के सारे विश्वविद्यालय युरोपीय प्रतिमान के अनुसार ही चलते हैं । भारत
  −
  −
की संसद में पारित हुए प्रस्ताव के आधार पर शुरू होते हैं । उनका राजकीय नियन्त्रण
  −
  −
अनिवार्य है ।
  −
  −
विश्वविद्यालयों के शोध और अनुसन्धान के सारे मानक युरोपीय हैं । भारत के मानकों
  −
  −
का उन्हें न परिचय है न उन्हें मानने का आग्रह ।
  −
  −
सभी विषयों के मूल सिद्धान्त, विचारधारा, विवरण और जानकारी युरोअमेरिकी
  −
  −
जीवनदृष्टि पर आधारित और युरोअमेरिकी विद्वानों द्वारा प्रतिपादित हैं ।
  −
  −
विश्वविद्यालयों में शिक्षित लोग ही राष्ट्रजीवन की नीतियाँ बनाते हैं और दिशा निर्धारित
  −
  −
करते हैं । परिणाम स्वरूप देश भारतीय नहीं अपितु युरोअमेरिकी ज्ञानधारा से ही चलता
  −
  −
a |
  −
  −
विश्वविद्यालय में दिये जाने वाले ज्ञान का भारतीय जीवनशैली, भारतीय परम्परा,
  −
  −
भारतीय संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं है, यदि है तो विपरीत सम्बन्ध है ।
  −
  −
विश्वविद्यालयों को किसी भी विषय की आजीवन और सार्वत्रिक शिक्षा के स्वरूप का
  −
  −
कोई अतापता नहीं है | देश की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा अनाश्रित बन गई है ।
  −
  −
विद्यार्थियों के चरित्रनिर्माण, जीवननिर्वाह, समाजधारणा जैसे गम्भीर विषयों के साथ
  −
  −
विश्वविद्यालयों का कोई सम्बन्ध नहीं है, कोई दायित्वबोध नहीं है ।
  −
  −
ज्ञान एक और अखण्ड है इसलिये सारे विषय एकदूसरे से जुडे हैं, अंगांगी सम्बन्ध से
  −
  −
जुडे हैं यह दृष्टि नहीं होने से विषयों का जीवन के साथ सम्बन्ध बनना असम्भव हो
  −
  −
जाता है ।
  −
  −
अभारतीय ज्ञानधारा की प्रतिष्ठा के कारण विश्वविद्यालय सारे सांस्कृतिक संकरटों के
  −
  −
उद्गम स्थान बन जाते हैं इस बात की दखल अभीतक नहीं ली गई है यह शोचनीय
  −
  −
है।
  −
  −
३१३
  −
  −
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  −
  −
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
  −
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आलेख १६
  −
  −
शिक्षाविषयक सरकारी तन्त्र की कठिनाई
  −
  −
शिक्षा सरकार का काम नहीं है तो भी सरकार ने इसका स्वीकार कर लिया है इसलिये
  −
  −
सरकार के लिये वह बाध्यता बन गई है, बोज बन गई है ।
  −
  −
सरकार यदि अपना नियन्त्रण हटाना चाहे तो शिक्षा का दायित्व लेने के लिये शिक्षक
  −
  −
समर्थ नहीं हैं, तैयार भी नहीं हैं इसलिये सरकार को शिक्षा की जिम्मेदारी उठाने की
  −
  −
बाध्यता बन जाती है ।
  −
  −
सरकार अपना बोज कम करने हेतु किसी की सहायता माँगती है तो उद्योजक सामने
  −
  −
आते हैं और वे शिक्षा का बाजारीकरण कर देते हैं । शिक्षारूपी चुहिया शेर के पंजे से
  −
  −
निकलकर मगरमच्छ के जबडों में जा गिरती है ।
  −
  −
सरकार में तन्त्र काम करता है व्यक्ति नहीं । समय समय पर तन्त्र सम्हालने वाले व्यक्ति
  −
  −
बदल जाते हैं । इससे दायित्व बोध कभी पैदा ही नहीं होता । बदलते रहते व्यक्ति
  −
  −
व्यवस्था को अनवस्था में बदल देते हैं तो भी किसी को जिम्मेदार नहीं बनाया जाता
  −
  −
है।
  −
  −
सरकार शिक्षा में सुधार तो बहुत करना चाहती है परन्तु डेमोक्रसी के तन्त्र में ज्ञान के भी
  −
  −
विषय में ज्ञानियों का अधिकार नहीं चलता, बहुमत का चलता है इसलिये ज्ञानात्मक
  −
  −
सुधार होने की कोई सम्भावना ही नहीं बचती |
  −
  −
केवल विश्वविद्यालय ही नहीं तो सरकारी तन्त्र भी युरोअमेरिकी जीवनदृष्टि और व्यवस्था
  −
  −
से चलता है । प्रशासन अपने आपको इतना श्रेष्ठ मानता है कि वह युरोअमेरिकी
  −
  −
विद्वानों की ही बात मानता है, भारतीय ज्ञान की ओर तुच्छता से देखता है । सरकारें
  −
  −
बदलती रहती हैं । इस कारण से सरकार के चाहने पर भी भारत में शिक्षा भारतीय नहीं
  −
  −
हो सकती ।
  −
  −
सरकार, प्रशासन, उद्योजक और विश्वविद्यालय मिलकर युरोअमेरिकी प्रतिमान की ही
  −
  −
प्रतिष्ठा में ही यदि लगे रहेंगे तो भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा कैसे होगी ? किसकी
  −
  −
इच्छाशक्ति बलवान होने से भारतीय करण का प्रारम्भ हो सकता है ? प्रश्न विचित्र है,
  −
  −
उत्तर कठिन ।
  −
  −
३१४
  −
  −
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  −
  −
आलेख १७
  −
  −
क्या मातापिता इतना साहस कर सकते हैं
  −
  −
कम से कम पाँच वर्ष की आयु तक बच्चों को किसी प्रकार के विद्यालय में नहीं
  −
  −
भेजेंगे ।
  −
  −
जब तक बालक घर में है बालक की माता नौकरी हेतु घर से बाहर नहीं जायेगी ।
  −
  −
बालक को सिखायेगी । बालक की गुरु बनेगी ।
  −
  −
बालक को सरकारी निःशुल्क विद्यालय में ही पढने भेजेंगे और सरकारी विद्यालय के
  −
  −
शिक्षकों को पढ़ाने के लिये बाध्य करेंगे ।
  −
  −
सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढनेवाले दलित, झॉंपडी में रहनेवाले, गरीब पाँच बच्चों
  −
  −
को नियमित घर बुलायेंगे और अपने बालक के साथ खेलने का अवसर देंगे और उन्हें
  −
  −
संस्कारित करेंगे ।
  −
  −
बालक के लिये कभी भी ट्यूशन नहीं रखेंगे । विद्यालय में अच्छी पढाई हो इसके लिये
  −
  −
दबाव बनायेंगे । बहुत ऊँचा शुल्क, कोचिंग क्लास, ट्यूशन आदि के विरोध में
  −
  −
आन्दोलन करेंगे । विद्यार्थियों का समय बचायेंगे ।
  −
  −
अपने पुत्रपुत्रियों को घर के सारे काम सिखायेंगे, आग्रहपूर्वक करवायेंगे और अच्छी
  −
  −
तरह से काम करने का मन बनायेंगे ।
  −
  −
बालकों को भविष्य में क्या बनना है इसकी निश्चिति छोटी आयु में कर लेंगे और उसके
  −
  −
अनुरूप ही तैयारी करेंगे । निर्स्थक शिक्षा हेतु समय, पैसा और शक्ति का अपव्यय नहीं
  −
  −
करेंगे ।
  −
  −
अपनी सन्तानों को अच्छे गृहस्थाश्रम हेतु आवश्यक ऐसी शिक्षा अच्छी तरह से देने का
  −
  −
प्रबन्ध करेंगे । इस मामले में मातापिता का कोई विकल्प नहीं है । इसके लिये समय
  −
  −
और शक्ति का विनियोग करना ही चाहिये ।
  −
  −
अपनी सन्तानें परीक्षा में नकल न करें, आसान परीक्षा का आग्रह न रखें, बिना परिश्रम
  −
  −
के उत्तीर्ण होने से खुश न हों, शिक्षकों का आदर करें इस बात का आग्रह रखेंगे ।
  −
  −
अथार्जिन ही शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य नहीं है यह समझाने में यशस्वी हों । साथ ही
  −
  −
अधथर्जिन हेतु उचित शिक्षा का प्रबन्ध करें ।
  −
  −
३१५
  −
  −
............. page-332 .............
  −
  −
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
  −
  −
आलेख १८
  −
  −
क्या महाविदायलयीन विद्यार्थियों में इतना साहस है
  −
  −
जितने वर्ष अध्ययन चलता है प्रतिदिन औसत छः घण्टे अध्ययन करें । अध्ययन में
  −
  −
कभी भी खण्ड न हो ।
  −
  −
परीक्षा हेतु शत प्रतिशत पाठ्यक्रम का पूर्ण अध्ययन करें । परीक्षा में कुछ भी पूछा
  −
  −
जाय कोई चिन्ता नहीं ।
  −
  −
परीक्षा में जरा भी नकल न करें । सरल प्रश्नपत्र की अपेक्षा न करें । कठिन प्रश्न पत्र
  −
  −
हल करना ही अपनी योग्यता मानें । बौद्धिक चुनौती का स्वीकार करने में आनन्द और
  −
  −
सन्तोष का अनुभव करें ।
  −
  −
महाविद्यालय की कक्षाओं में पूर्ण उपस्थिति का आग्रह हो ।
  −
  −
जबतक पढ़ते हैं कभी भी होटेल में, पार्टी में, वेलेण्टाइन डे जैसे आयोजनों में सहभागी
  −
  −
न हों । विद्यात्रती बनें ।
  −
  −
देश दुनिया में क्या चल रहा है इसकी जानकारी रहे इस दृष्टि से अखबार, टीवी के
  −
  −
समाचार, चचर्यिं सुनें, देखें, पढें, मित्रों के साथ चर्चा करें और अपने मत बनायें ।
  −
  −
विश्वस्थिति का भारत पर क्या प्रभाव हो रहा है इसका विचार करें और संकटों से बचने
  −
  −
के उपायों का चिन्तन करें ।
  −
  −
योगाभ्यास और व्यायाम कर अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास करें ।
  −
  −
अध्ययन कर बौद्धिक सामर्थ्य बढ़ायें ।
  −
  −
जिस विषय पर अध्ययन कर रहे हैं उसका क्या उपयोग है इसका विचार करें । कितना
  −
  −
प्रगत अध्ययन करने की अपनी क्षमता है इसका आकलन करें ।
  −
  −
अथार्जिन हेतु क्षमता प्राप्त करें । अथर्जिन के सांस्कृतिक नियम अपनायें और अपनी
  −
  −
सीमा तय करें ।
  −
  −
अच्छे गृहस्थाश्रम की संकल्पना समझें और उसके लिये भी सिद्धता करें ।
  −
  −
अपने शिक्षित होने से अपना, अपने परिवार का, अपने समाज का, अपने देश का
  −
  −
गौरव बढ़ने वाला है कि कम होने वाला इसका आकलन करें ।
  −
  −
शिक्षा विषयक अपने मापदण्ड कितने ऊँचे हैं इसका विचार करें । मापद्‌ण्ड ऊँचे रखें
  −
  −
और उन पर खरे उतरने का पुरुषार्थ करें ।
  −
  −
३१६
  −
  −
............. page-333 .............
  −
  −
आलेख १९
  −
  −
क्या शिक्षकों में इतना साहस है कि...
  −
  −
अपने बलबूते पर विद्यालय शुरू करें और निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करें ?
  −
  −
अपने आपको इतना विश्वसनीय बनायें कि बोली हुई बात के लिये कोई प्रमाण देना न
  −
  −
पडे ?
  −
  −
विद्यार्थी को जानें और सुपात्र विद्यार्थी को ही पढ़ायें । कुपात्र विद्यार्थी को सुपात्र बनने
  −
  −
का अवसर दें ?
  −
  −
भय, लोभ, लालच, दबाव, षडयन्त्र, कपट को जानें, उनका शिकार न बनें अपितु उन्हें
  −
  −
परास्त करें ?
  −
  −
शिक्षाक्षेत्र की समस्याओं को समझें, उनके निराकरण का सामर्थ्य और साहस जुटायें
  −
  −
और उनका समाधान करना अपना दायित्व मानें ?
  −
  −
ज्ञान की अवमानना न होने दें, उसे बाजारीकरण से बचायें और विद्यार्थियों को भी
  −
  −
ज्ञाननिष्ठ बनायें ?
  −
  −
अपने विद्यार्थियों में से दस प्रतिशत विद्यार्थियों को अपने जैसे शिक्षक बनने की प्रेरणा
  −
  −
और शिक्षण दें ?
  −
  −
भारतीय शिक्षा पर पश्चिमी शिक्षा का जो प्रभाव हुआ है उसका अनिष्ट समझें, उस
  −
  −
प्रभाव को निरस्त करने हेतु पुरुषार्थ करें और उसके स्थान पर भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा
  −
  −
करें ?
  −
  −
शिक्षकों को संगठित करें, शिक्षा के अवरुद्ध प्रवाह को मुक्त करें और समाज और राज्य
  −
  −
का मार्गदर्शन करने का सामर्थ्य प्राप्त करें ?
  −
  −
धर्माचार्यों के सहयोग से धर्मानुसारी शिक्षा की प्रतिष्ठा करें ? धर्माचार्यों के साथ मिलकर
  −
  −
प्रथम तो धर्म को ही विवाद से मुक्त करें और जीवन के आधार के रूप में उसे प्रतिष्ठित
  −
  −
करें ?
  −
  −
अपने सामने प्राचीन गुरुकुलों के आचार्यों का आदर्श रखें, वर्तमान में विश्वमर से प्राप्त
  −
  −
ज्ञान को उसके अनुकूल बनायें, प्राचीन व्यवस्थाओं को युगानुकूल बनायें और शिक्षा
  −
  −
का एक प्रतिमान विकसित करें ?
  −
  −
............. page-334 .............
  −
  −
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
  −
  −
आलेख २०
  −
  −
शिक्षा को भारतीय बनाने हेतु यह किया जाय
  −
  −
देशभर में कम से कम एक सौ अनुसन्धान पीठ बनें जहाँ भारतीय ज्ञानधारा का अध्ययन हो और उसे
  −
  −
युगानुकूल बनाने हेतु अनुसन्धान हो ।
  −
  −
इन्हीं पीठों में अनुसन्धान के परिणामस्वरूप नये ग्रन्थों का निर्माण हो, नये पाठ्यक्रम बनें और उच्च
  −
  −
शिक्षा से प्राथमिक शिक्षा तक के विद्यालय चलाये जाय । एक एक संस्थान ऐसे दस विद्यालय
  −
  −
चलायें । इनमें उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले युवा विद्यार्थी किशोरवयीन विद्यार्थियों को, किशोरवयीन
  −
  −
विद्यार्थी बालवयीन विद्यार्थियों को पढायें और इस प्रकार एक शुखला तैयार हो ।
  −
  −
प्रत्येक स्तर पर दस दस विद्यार्थी हों । इस हिसाब से एक एक पीठ में दस युवा, एक सौ किशोर और
  −
  −
एक हजार बाल अवस्था के विद्यार्थी होंगे ।
  −
  −
एक पीठ में एक पीठाधीश, दस आचार्य हों । एक एक आचार्य के पास एक सौ ग्यारह विद्यार्थी
  −
  −
होंगे । एक पीठ की पीठाधीश सहित कुल संख्या १,१२१ होगी ।
  −
  −
वर्ष में एक बार सभी पीठों के पीठाधीश, आचार्य और उच्च शिक्षा के विद्यार्थियों का दस दिन का
  −
  −
सम्मेलन एक स्थान पर होगा । इसकी संख्या २११ होगी ।
  −
  −
दस वर्ष बाद दस आचार्य अपने अपने पीठ नये स्थानों पर शुरु करेंगे, उच्च शिक्षा के विद्यार्थी आचार्य
  −
  −
बनेंगे ।
  −
  −
इस प्रकार से संख्या बढते बढते पचास वर्षों में पूरे देश में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा होगी ।
  −
  −
इन अनुसन्धान पीठों के निभाव का खर्च समाज देगा । विद्यार्थीयों के भोजन तथा अन्य
  −
  −
आवश्यकताओं को उनके अभिभावक पूर्ण करेंगे । केवल एक सौ किशोर, दस युवा विद्यार्थी, दस
  −
  −
आचार्य और एक पीठाधीश ऐसे १२१ लोग ही आवासी होंगे । बालकवय के विद्यार्थी अपने घर में
  −
  −
रहेंगे ।
  −
  −
एक सौ किशोरों का निभाव उद्योजकों के द्वारा होगा । युवा विद्यार्थी और आचार्य इस हेतु से भिक्षा
  −
  −
माँगेंगे । किशोर विद्यार्थी व्यवस्था के सारे काम करेंगे ।
  −
  −
अनुसन्धान पीठ के शैक्षिक खर्च हेतु समाज के सामान्य जनों से सहयोग प्राप्त किया जायेगा ।
  −
  −
fiat atk दान कितना भी अधिक जमा करना पडे, पढनेवाले विद्यार्थियों के लिये शिक्षा निःशुल्क
  −
  −
होगी ।
  −
  −
वर्ष में एक बार पूरा पीठ देश में यात्रा के लिये जायेगा । यह प्रचार प्रसार हेतु होगा ।
  −
  −
अनुसन्धान पीठ में प्रवेश हेतु स्वास्थ्य, चरित्र, जिज्ञासा, सेवाभाव आदि के निकष होंगे ।
  −
  −
विद्यार्थियों के साथ साथ उनके अभिभावकों को भी पढ़ाने की व्यवस्था की जायेगी ।
  −
  −
राज्य के साथ संवाद स्थापित करना इन अनुसन्धान पीठों का महत्त्वपूर्ण कार्य होगा ।
  −
  −
............. page-335 .............
  −
  −
20
  −
  −
8
  −
  −
अवस्था
  −
  −
गर्भावस्था
  −
  −
शिशु अवस्था
  −
  −
बाल अवस्था
  −
  −
किशोरावस्था
  −
  −
तरुणावस्था
  −
  −
पूर्वयुवावस्था
  −
  −
उत्तरयुवावस्था
  −
  −
पूर्वप्रौदावस्था
  −
  −
उत्तर प्रौदावस्था
  −
  −
पूर्व वृद्धावस्था
  −
  −
उत्तर वृद्धावस्था
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  −
आलेख २१ : आयु की अवस्था एवं करण
  −
  −
आयु
  −
  −
गर्भधान से जन्म तक
  −
  −
ज्म से पाँच वर्ष
  −
  −
६ से १२ वर्ष ब्रह्माचर्य
  −
  −
१३ से १५ वर्ष ब्रह्मब्रयाश्रम
  −
  −
आश्रम
  −
  −
सक्रियकरण
  −
  −
कर्मन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय, मनका
  −
  −
भावनापक्ष
  −
  −
मन का विचार पक्ष, बुद्धि का
  −
  −
निरीक्षण, परीक्षण, तर्क
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८८ ८८५
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2 ५.
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८ 9-५४
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शक्ति
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संस्कार
  −
  −
संस्कार
  −
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क्रिया, अनुभव, भावना
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विचार कुछ मात्रा में विवेक
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२० से विवाहतक
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ब्रह्मचर्याश्रिम
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सभ बहिः और अन्तःकरण
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३५ से ५० वर्ष तक
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५० से ६० वर्ष
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  −
६० से ७५ वर्ष
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७५ से मृत्यु तक
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गृहस्थाश्रम
  −
  −
गृहस्थाश्रम
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वानप्रस्थाश्रम
  −
  −
वानप्रस्थाश्रम
  −
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संन्यस्ताश्रम
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(यह अनिवार्यन हीं है,
  −
  −
संन्यास नहीं लिया तो
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वानप्रस्थाश्रम)
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३१९
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सभी विशेष रूप से बुद्धि
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सभी विशेष रूप से अन्तःकरण
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विवेक, दायित्वबोध
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विवेक और दायित्वबोध
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कर्तृत्वभाव
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चिन्तन, दायित्वबोध,
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कर्तृत्वभाव
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विवेक दायित्वबोध
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विवेक ज्ञाताभाव
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विवेक ज्ञाताभाव
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८“
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८ न
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कि,
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शिक्षा का स्वरूप
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माता का आहार, विहार,
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संगीत, क्रियाकलाप
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आसपास के लोग तथा वातावरण से
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संस्कार ग्रहण करना, सीखने का अखण्ड | अन्य लोग, सहयोगी
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पुरुषार्थ, अनुकरण
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क्रियाआधारित प्रेरणा आधारित अनुभव
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आधाख़ि
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निरीक्षण और प्रयोग, संवाद, वार्तालाप,
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पठन, लेखन
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चिन्तन करना, समझना, निर्णय करना,
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अपना मत बनाना
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व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में
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दायित्व समझना स्वतन्त्र बुद्धि से निर्णय
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का
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गृहस्थधर्म का पालन शिक्षितों से संवाद
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प्रत्यक्ष अनुभव से सीखना
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कुलधर्म, समाजधर्म का पालन, दान,
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यज्ञ, सेवा, स्वाध्याय, विद्वानों और
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Brit का उपदेश
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१, कुलधर्म और समाजधर्म
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का चिन्तन और व्यवहार,
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२. नई पीढ़ी को इन सब
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का हस्तास्तरण
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१, मनो व्यापारो का अवलोकन, २.
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जगत के व्यवहारों का अवलोकन
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१, चिन्तन,
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२. अनुसन्धान,
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३. मार्गदर्शन
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शिक्षा देने वाले
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क्या करें
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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क्या न करें
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माता संस्कासक्षम वातावरण का निर्माण गर्भ | चिन्ता, क्रोध, शोक आदि
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की सुरक्षा
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लालन कों सम्मान दे, गीत, खेल,
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कहानी,
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माता पिता तथा घर के
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घर में मातापिता,
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विद्यालय में शिक्षक
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अन्य क्रियाकलाप
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संस्कारक्षम वातावरण, क्रियाकलाप,
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अनुभव, और प्रेरणा
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संयम, परिश्रम, घर के अनेक काम,
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घ्में मातापिता,ब घिलय में शिक्षक. | साधक बाधक विचार
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घर में मातापिता, विद्यालय में शिक्षक, | स्वतन्त्र बुद्धि से विचार करे दें,
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अन्य विजन मित्रतापूर्वक व्यवहार कों
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घर में मातापिता,
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विद्यालय में शिक्षक, ग्रन्थालय, अनुभवी
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लोग
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मातापिता, ग्रन्थ, समाज के वर्ष लोग,
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स्वजन और मित्र
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ग्रन्थ, विद्वान, सन्त, स्नेही, स्वजन,
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अनुभव
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अनुभव, ग्रन्थ,
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सम्तजन, gE, KR
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TAM, WY,
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विद्रजन, सन्तजन
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WRT, GASH,
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विद्रजन, जगत
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कठोर ब्रह्मचर्य का पालन, जिम्मेदारी
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का स्वीकार
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१, समर्थ सन्तान को
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जन्म देना, २. अ्थार्जन करना, है.
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TRAC ST पालन करना
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१. जो कों समझ कर विवेकपूर्वक कॉं,
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२. सन्तानों को संस्कारयुक्त शिक्षा दें,
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३. चख़ि का रक्षण कों
  −
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१, क्रमश: आसक्ति कम कों, २.
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FRI al जिम्मेदारी सॉप दे
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३. समाजसेवा हेतु सिद्धता
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प्राप्त कों
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१, समाजसेवा, २. दायित्वों का
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हस्तान्तरण, ३. नई पीढ़ी का मार्गदर्शन,
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४, अधिकारों का त्याग, ५. कथा
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श्रवण,
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६. तीर्थयात्रा
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१, यात्रा, १. आसक्ति का त्याग,
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३. अपेक्षाओं का त्याग, ४. उदारता,
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५, क्षमाशीलता, ६. सत्य और धर्म के
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प्रति निष्ठा, ७. संयम, ८. तप, ९, ईश्वर
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प्रणिधान
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३२०
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औपचारिक शिक्षा उपदेश, दण्ड न दें,
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विद्यालय न भैंजे
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केवल लिखने पढने की शिक्षा
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अक्रिय, मनोरंजन, विजातीय मैत्री,
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अनुचित आहार विहार
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यान्त्रिक रूप से न पढ़ें, गैर जिम्मेदार न
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  −
बनें
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विलास, उच्छुखलता
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१, असंस्कारी, अशिष्ट आचरण *.
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  −
जिम्मेदारी का त्याग
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१, अविवेक और असंयम, २. अशिष्ट
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व्यवहार, ३.. अनैतिक अधर्जिन, ४.
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अधार्मिक आचरण
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१, विलास, २. अशिष्ट और अविचारी
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  −
व्यवहार, ३. नई पीढ़ी से स्पर्धा और
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तुलना
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१, अधथर्जिन, २. भोगविलास, 2.
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दायित्वों का त्याग, ४. अधर्मयुक्त
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आचरण
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१, अस्वास्थ्यकर और असंस्कृत
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आचरण, २. परिवार और समाज के
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व्यवहारों में दल, ३. बचकाना
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व्यवहार
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