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== प्राक्कथन ==
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== '''जीवन का प्रतिमान''' ==
जीते तो सभी हैं। लेकिन हर समाज का जीने का तरीका होता है। उस समाज की समझ के अनुसार यह तरीका अन्य समाजों से श्रेष्ठ जीने का तरीका होता है। इस जीवन जीने के तरीके को जीवनशैली कहते हैं। जीवनशैली का आधार उस समाज की जीवन जीने के संबंध में कुछ मान्यताएं होती हैं। इन मान्यताओं को उस समाज की जीवनदृष्टि कहते हैं। यह मान्यताएं या जीवनदृष्टि और जीवनशैली उस समाज की विश्वदृष्टि पर आधारित होते हैं। विश्वदृष्टि का अर्थ है उस समाज की विश्व या चर-अचर सृष्टि के निर्माण से संबंधित मान्यताएं। इन्हीं को उस समाज का तत्वज्ञान भी कहते हैं। यह मान्यताएं या विश्व दृष्टि ही व्यक्ति के अन्य मानवों से संबंध और व्यक्ति के और अन्यों के चर-अचर सृष्टि के साथ संबंध तय करती है।
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* जीते तो सभी हैं। लेकिन हर समाज का जीने का तरीका होता है। उस समाज की समझ के अनुसार यह तरीका अन्य समाजों से श्रेष्ठ जीने का तरीका होता है। इस जीवन जीने के तरीके को '''जीवनशैली''' कहते हैं।
 
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अपनी विश्व दृष्टि और उस पर आधारित जीवनदृष्टि के अनुसार समाज जीवन चले इस लिये वह समाज कुछ व्यवस्थाओं का समूह निर्माण करता है। ये व्यवस्थाएं समान मान्यताओं को आधार मान कर निर्माण की जातीं हैं। इस लिये ये व्यवस्थाएं एक दूसरे की पूरक भी होतीं हैं और मददरूप भी होतीं हैं। इस व्यवस्था समूह को ही उस समाज की विश्वदृष्टि यानी जीवन दृष्टि और जीवनशैली के साथ मिला कर उस समाज के जीवन का प्रतिमान कहते हैं। अंग्रेजी में इसे पॅरेडिम (paradigm) कहते हैं।
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* जीवनशैली का आधार उस समाज की जीवन जीने के संबंध में कुछ मान्यताएं होती हैं। इन मान्यताओं को उस समाज की '''जीवनदृष्टि''' कहते हैं। 
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* यह मान्यताएं या जीवनदृष्टि और जीवनशैली उस समाज की '''विश्वदृष्टि''' पर आधारित होते हैं। विश्वदृष्टि का अर्थ है उस समाज की विश्व या चर-अचर सृष्टि के निर्माण से संबंधित मान्यताएं। इन्हीं को उस समाज का तत्वज्ञान भी कहते हैं। यह मान्यताएं या विश्व दृष्टि ही व्यक्ति के अन्य मानवों से संबंध और व्यक्ति के और अन्यों के चर-अचर सृष्टि के साथ संबंध तय करती है।
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* अपनी विश्व दृष्टि और उस पर आधारित जीवनदृष्टि के अनुसार समाज जीवन चले इस लिये वह समाज कुछ व्यवस्थाओं का समूह निर्माण करता है। ये व्यवस्थाएं समान मान्यताओं को आधार मान कर निर्माण की जातीं हैं। इस लिये ये व्यवस्थाएं एक दूसरे की पूरक भी होतीं हैं और मददरूप भी होतीं हैं। इस व्यवस्था समूह को ही उस समाज की विश्वदृष्टि यानी जीवन दृष्टि और जीवनशैली के साथ मिला कर उस समाज के '''जीवन का प्रतिमान''' कहते हैं। अंग्रेजी में इसे पॅरेडिम (paradigm) कहते हैं।
 
वर्तमान शिक्षा वर्तमान अभारतीय जीवन के प्रतिमान का ही एक हिस्सा है। इस शिक्षा का जिन पर गहरा प्रभाव है उन्हें लगता है कि मानव जाति अष्म या पाषाण युग से निरंतर श्रेष्ठ बन रही है। वर्तमान मानव और मानव जाति से भविष्य की मानव और मानव जाति अधिक श्रेष्ठ होंगे। किन्तु जो इस शिक्षा से प्रभावित नहीं हुए हैं, या जो भारतीय काल गणना की समझ रखते हैं उन्हें अपने अनुभवों से भी और भारतीय शास्त्रों के कथन के अनुसार भी लगता है कि मानव जाति का निरंतर ह्रास हो रहा है। सत्ययुग का मानव और मानव जाति अत्यंत श्रेष्ठ थे। काम और मोह से मुक्त थे। त्रेता युग में सत्ययुग के मानव का ह्रास हुआ। द्वापर में उस से भी अधिक ह्रास हुआ। कलियुग में द्वापर से भी स्थिति और बिगडी और निरंतर बिगड रही है। किसे क्या लगता है इस का संबंध वह मानव या मानव समाज, किस प्रतिमान को ठीक मानता है इस से है।  
 
वर्तमान शिक्षा वर्तमान अभारतीय जीवन के प्रतिमान का ही एक हिस्सा है। इस शिक्षा का जिन पर गहरा प्रभाव है उन्हें लगता है कि मानव जाति अष्म या पाषाण युग से निरंतर श्रेष्ठ बन रही है। वर्तमान मानव और मानव जाति से भविष्य की मानव और मानव जाति अधिक श्रेष्ठ होंगे। किन्तु जो इस शिक्षा से प्रभावित नहीं हुए हैं, या जो भारतीय काल गणना की समझ रखते हैं उन्हें अपने अनुभवों से भी और भारतीय शास्त्रों के कथन के अनुसार भी लगता है कि मानव जाति का निरंतर ह्रास हो रहा है। सत्ययुग का मानव और मानव जाति अत्यंत श्रेष्ठ थे। काम और मोह से मुक्त थे। त्रेता युग में सत्ययुग के मानव का ह्रास हुआ। द्वापर में उस से भी अधिक ह्रास हुआ। कलियुग में द्वापर से भी स्थिति और बिगडी और निरंतर बिगड रही है। किसे क्या लगता है इस का संबंध वह मानव या मानव समाज, किस प्रतिमान को ठीक मानता है इस से है।  
  
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