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यह पाठ्यक्रम आज भारतीय नहीं है। सर्वत्र जो पढाया जाता है। वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित है। यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है। इसकी तात्त्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे व्यावहारिक बनाने के लिये क्या करना होगा इसका ही विचार करना आवश्यक है। कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...
 
यह पाठ्यक्रम आज भारतीय नहीं है। सर्वत्र जो पढाया जाता है। वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित है। यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है। इसकी तात्त्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे व्यावहारिक बनाने के लिये क्या करना होगा इसका ही विचार करना आवश्यक है। कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...
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(१) प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है।
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(१) प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है। देश के सर्व प्रकार के सांस्कृतिक और अन्य संकटों का मूल स्रोत अथवा सांस्कृतिक उन्नति का मुख्य परिचालक विश्वविद्यालय हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ है उनके अध्यापक । परन्तु वर्तमान विपरीतता यह है कि विश्वविद्यालय अध्यापकों के नहीं अपितु सरकार के अधीन हैं। सरकार के अधीन रहकर विश्वविद्यालय के अध्यापक यह काम नहीं कर सकते । इसलिये ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना होनी चाहिये जो सरकार के अधीन न हों। देशभर में पचास सौ ऐसे विश्वविद्यालय होने से कार्य का अच्छा प्रारम्भ हो सकता है। इन विश्वविद्यालयों को सरकारी मान्यता नहीं होगी इसलिये इनके द्वारा दिये गये प्रमाणपत्रों से सरकारी या सरकार मान्य संस्थाओं या उद्योगों में नौकरी नहीं मिलेगी। जिन्हें किसी प्रकार की सरकारी मान्यता या आर्थिक सहायता की आवश्यकता नहीं है ऐसी संस्थाओं और उद्योगों में इन्हें अवश्य काम मिल सकता है। सरकार की मान्यता नहीं है ऐसे विश्वविद्यालयों में पढे हुए विद्यार्थी स्वयं ऐसी शिक्षासंस्थायें शुरु करें यह एक अच्छा पर्याय है, साथ ही वे उद्योग तथा समाज के लिये उपयोगी अन्य संस्थाओं का प्रारम्भ भी कर सकते हैं। उन संस्थाओं और उद्योगों में अनेक लोगों को काम मिल सकता है।
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सरकारी सहायता नहीं होगी तब ये विश्वविद्यालय कैसे चलेंगे ? ये समाज के सहयोग से चलेंगे । भारतीय समाज ऐसे संस्थानों को सहयोग करने के लिये तत्पर रहता ही है। देश में अनेक धार्मिक - सामाजिक - सांस्कृतिक संगठनों को समाज ही सहयोग करता है। वर्तमान में भी ऐसी बहत बडी व्यवस्था देश में चल ही रही है। ऐसे संगठनों ने इन विश्वविद्यालयों को आर्थिक सहयोग करना चाहिये।
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देशभर में ऐसे पचास विश्वविद्यालय हों तो उनके पाँचसौ या हजार अध्यापकों को एक संगठित समूह की तरह कार्य करना चाहिये । इन सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने मिलकर एक कुलाधिपति का चयन करना चाहिये । सारे अध्यापक मिलकर एक आचार्य परिषद बनेगी। देशभर में
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हजार अध्यापकों की ज्ञानशक्ति कार्य का । प्रारम्भ करने के लिये कम नहीं है।
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अध्यापकों के इस संगठनने एक ओर उद्योजकों, दूसरी ओर प्रशासकों और तीसरी ओर सरकार के मन्त्री परिषद के साथ समायोजन स्थापित करना चाहिये । विश्वविद्यालयों को सरकार से मुक्त रखने का कारण यह नहीं है कि अध्यापक सरकार का विरोध करते हैं, विरोधी विचारधारा वाले हैं या सरकार उनका विरोध करती है।
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प्रशासन से मुक्त रहना भी विरोध के कारण से नहीं है। __ मुक्त रहना तो सर्वकल्याणकारी शिक्षा की आवश्यकता
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है। इसलिये सबका कर्तव्य है। परन्तु मुक्त रहने के बाद
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भी संवाद, समन्वय और समर्थन तो हो ही सकता है। __ सरकार प्रजा के लिये है और विश्वविद्यालय सरकार और प्रजा दोनों के लिये हैं । इसलिये संवाद लाभकारी है।
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उद्योजकों के साथ संवाद इसलिये नहीं करना है क्योंकि उनसे धन चाहिये । उद्योगकों से संवाद इसलिये चाहिये कि देश की अर्थव्यवस्था ठीक करने में उनका सहयोग प्राप्त हो । उसी प्रकार प्रबोधन की दृष्टि से सामान्य जनसे भी संवाद स्थापित हो यह आवश्यक है। संक्षेप में इन विद्यालयों को समाजाभिमुख होना चाहिये ।
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उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों के साथ भी विचार विमर्श __ करने की दृष्टि से संवाद स्थापित करना शिक्षाक्षेत्र के हित की दृष्टि से लाभकारी है।
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(२) इन विश्वविद्यालयों को पहला कार्य देशभर की शिक्षा का एक शैक्षिक प्रारूप तैयार करने का करना चाहिये । ऐसा करने में उन्हें तीन काम करने होंगे...
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१. अध्ययन और अनुसन्धान २. पाठ्यक्रम निर्माण ३. सन्दर्भसाहित्य का निर्माण
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अध्ययन और अनुसन्धान
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भारतीय ज्ञानधारा युगों से प्रवाहित है। द्रष्टा ऋषियों ने अपने हृदय में इस ज्ञान की अनुभूति की है। इस __ अनुभूति के आधार पर शास्त्रग्रन्थों की रचना हुई है। इन
    
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
 
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
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