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कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...  
 
कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...  
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* भारतीय शिक्षा निःशुल्क होती है परन्तु निःशुल्क है इसलिये भारतीय नहीं है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा निःशुल्क ही होती है। परन्तु वह भारतीय नहीं है।
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* भारतीय शिक्षा शिक्षक के अधीन होती है, परन्तु केवल शिक्षक के अधीन है इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती। आज भी तो शिक्षक ही शिक्षा का सर्व प्रकार का कार्य कर ही रहे हैं।
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* भारतीय शिक्षा घरों में, विद्यालयों में, मन्दिरों में होती है परन्तु घरों में और मन्दिरों में होती है इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती। आज भी 'होमस्कुलिंग' के नाम से घरों में शिक्षा देने के प्रयोग हो रहे हैं, आज भी मन्दिरों द्वारा शिक्षासंस्थान चलाये जाते हैं परन्तु वह शिक्षा भारतीय होने की कोई निश्चिति नहीं है।
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* भारतीय शिक्षा धर्म और अध्यात्म की शिक्षा होती है, परन्तु धार्मिक और आध्यात्मिक है इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती । आज भी अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक संगठन वेद, उपनिषद, षडदर्शन, भगवद्गीता आदि पढाते हैं, पूजापाठ भी पढाते हैं, परन्तु वह शिक्षा भारतीय नहीं है।
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ऐसे अनेक पहलू हैं जो भारतीय शिक्षा के अंगप्रत्यंग हैं परन्तु वे अंगप्रत्यंग शिक्षा को भारतीय नहीं बनाते।
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भारतीय शिक्षा निःशुल्क होती है परन्तु निःशुल्क है इसलिये भारतीय नहीं है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा निःशुल्क ही होती है। परन्तु वह भारतीय नहीं है।
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जिस शिक्षा की आत्मा भारतीय है वही शिक्षा भारतीय है। जिसकी आत्मा भारतीय है और जिसकी नहीं है उन दोनों के अंगप्रत्यंग तो समान हो सकते हैं, परन्तु राष्ट्र अथवा सामान्य अर्थ में देश अंगप्रत्यंग से नहीं, आत्मा से विशिष्ट पहचान प्राप्त करता है । आत्मा ही देश का स्वभाव होती है। भारत के लिये जो स्वाभाविक है वही भारतीय है। भारत के स्वभाव के अनुरूप जो है वह भारतीय शिक्षा है, स्वभाव के विपरीत है वह अभारतीय ।
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भारतीय शिक्षा शिक्षक के अधीन होती है, परन्तु केवल शिक्षक के अधीन है इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती। आज भी तो शिक्षक ही शिक्षा का सर्व प्रकार का कार्य कर ही रहे हैं।
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==== भारतीय शिक्षा के विचारणीय सूत्र ====
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शिक्षा को लेकर भारत के स्वभाव के अनुरूप और विपरीत क्या है इस का विचार करने पर कुछ सूत्र ध्यान में आते हैं...
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# भारत सबको एक मानता है, अपना मानता है, किसी को पराया नहीं मानता। इसलिये सबका कल्याण हो, सब सुखी हों, किसीका अहित न हो ऐसी कामना करता है और प्रयास भी करता है।
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# भारत स्वतन्त्रता को सबसे बडा मूल्य मानता है। भारत अपनी स्वतन्त्रता की तो रक्षा करना चाहता ही है परन्तु और किसी की स्वतन्त्रता छीनना भी नहीं चाहता। वह और किसी को अपनी स्वतन्त्रता छीनने भी नहीं देता।
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# भारत केवल मनुष्यों की ही नहीं तो सजीव निर्जीव सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार और सम्मान करता है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये वह किसी को नष्ट करने की प्रवृत्ति नहीं रखता । जिन जिनसे कुछ भी प्राप्त होता है उसके साथ कृतज्ञता से व्यवहार करता है।
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# भारत धर्म को सर्वोपरि स्थान देता है। धर्म को आज की तरह केवल सम्प्रदाय नहीं मानता, धर्म को सम्पूर्ण विश्व की धारणा करने वाले विश्वनियम के रूप में जानता है और अपनी जीवनव्यवस्था के लिये उसी विश्वनियम के तत्त्व का स्वीकार करता है। इसलिये भारत के लिये जो धर्म के अनुकूल है वह स्वीकार्य है, धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। धर्मनिरपेक्षता भारतीय स्वभाव के विपरीत है, धर्म सापेक्षता ही स्वीकार्य है, सम्माननीय है।
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जो धर्म सिखाती है वही शिक्षा है, धर्म सिखाने वाला शिक्षक है और वह सबके लिये सम्माननीय है।
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भारतीय शिक्षा घरों में, विद्यालयों में, मन्दिरों में होती है परन्तु घरों में और मन्दिरों में होती है इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती। आज भी 'होमस्कुलिंग' के नाम से घरों में शिक्षा देने के प्रयोग हो रहे हैं, आज भी मन्दिरों द्वारा शिक्षासंस्थान चलाये जाते हैं परन्तु वह शिक्षा भारतीय होने की कोई निश्चिति नहीं है।  
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शिक्षक धर्म सिखाता है इसलिये शासक के लिये भी सम्माननीय है।  
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भारतीय शिक्षा धर्म और अध्यात्म की शिक्षा होती है, परन्तु धार्मिक और आध्यात्मिक है इसलिये वह
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शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था शिक्षक के अधीन है। उसे वैसी ही रखना राजा और प्रजा सबके लिये हितकारी है।
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धर्म सिखानेवाला शिक्षक स्वतन्त्र है, स्वायत्त है, निःस्वार्थी है, चरित्रवान है और संयमित और सादा जीवन जीता है।
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भारत में शिक्षा सार्वत्रिक है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी भूमिका में अपनी अपनी क्षमता और सीखने वाले की आवश्यकता के अनुसार सिखाता है। मातापिता सन्तानों को, व्यवसायी अपने साथियों को, गुरु शिष्य को शिक्षा देता है, भौतिक बदले की अपेक्षा नहीं रखता। अपने को प्राप्त शिक्षा दूसरे को देनी ही चाहिये और शिक्षा का प्रसार करना ही चाहिये ऐसी अपेक्षा कोई व्यक्ति नहीं अपितु धर्म करता है, धर्म की इस अपेक्षा को पूर्ण करने के लिये सब सिद्ध रहते हैं।
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भारत परम्परा का देश है, परम्परा को बनाये रखना, परिष्कृत करना, समृद्ध बनाना शिक्षा का काम है।
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भारत में अधिसत्ता धर्म की ही है, शिक्षक उसका प्रतिहारी है, शासक, कारीगर, व्यापारी सब उसकेअनुचर हैं, उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले और उसके साम्राज्य की रक्षा करने वाले हैं। श
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शिक्षा मुक्ति देनेवाले ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है वह स्वयं मुक्त होगी तभी ज्ञान की वाहक बन सकेंगी। इसलिये भारत में शासक के द्वारा, व्यापारियों के द्वारा शिक्षा को मुक्त ही रखा गया है और उसे पुष्ट होने हेतु सहयोग और सहायता दी जाती रही है।
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भारतीय शिक्षा हमेशा धर्मसापेक्ष परन्तु अर्थनिरपेक्ष रही है। शिक्षा ग्रहण करने को और देने को पैसे के साथ कभी जोडा नहीं गया है।
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भारत में शिक्षा राजा और प्रजा का मार्गदर्शन और नियमन करती रही है। उसने कभी शासन नहीं किया, व्यापार नहीं किया, उत्पादन नहीं किया, उसने धर्मसाधना और धर्मरक्षा ही की है।
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भारतीय शिक्षा की यह आत्मा है। भारतीय शिक्षा का यह स्वभाव रहा है। इस शिक्षा ने समाज को श्रेष्ठ बनाया है। इस शिक्षा ने प्रजा को समृद्ध और सुसंस्कृत बनाया है। इस शिक्षा ने राष्ट्र को चिरंजीव बनाया है।
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आज सामान्य जन भी कह सकता है कि भारत की वर्तमान शिक्षा 'टेकनिकली' भारतीय होने पर भी स्वभाव से भारतीय नहीं है।
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शिक्षा ऊपर बताये गये हैं ऐसे अर्थों में भारतीय होनी चाहिये कि नहीं ऐसा यदि पूछा जाय तो लोग बडे असमंजस में पड जायेंगे । उत्तर देते नहीं बनेगा।
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आज के जमाने में यह नहीं चलेगा
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एक ओर तो आज भी भारतीय अन्तर्मन में इन सारी बातों के लिये प्रेम है, आकर्षण है और सुप्त इच्छा है कि यह सब ऐसा ही होना चाहिये । परन्तु व्यावहारिक धरातल पर तो यह सब रम्य स्वप्न जैसा ही लगता है। एक ही बात मन में उठती है कि यह सम्भव ही नहीं है, आज का जमाना अलग है, उसमें यह सब नहीं चलता।
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आज पैसे का बोलबाला है। कोई मुफ्त में पढायेगा नहीं और मुफ्त में मिलने वाली शिक्षा कोई लेगा नहीं ।
    
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
 
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
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