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४. गुरुदक्षिणा के बारे में कोई नियम, कोई कानून, कोई अनिवार्यता या कोई शर्त न होते हुए भी, हमारे सामने स्पष्ट है कि गुरु का जीवन निर्वाह इस पर ही निर्भर है फिर भी गुरु इसके बारे में तनिक भी चिन्ता करते नहीं । ऐसा होने पर भी गुरु का निर्वाह कभी रुकता नहीं। यह दर्शाता है कि विश्वास, श्रद्धा, आदर, कृतज्ञता और अपेक्षारहितता ये सब सामर्थ्य, कायदाकानून, नियम और शर्तों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान हैं।  
 
४. गुरुदक्षिणा के बारे में कोई नियम, कोई कानून, कोई अनिवार्यता या कोई शर्त न होते हुए भी, हमारे सामने स्पष्ट है कि गुरु का जीवन निर्वाह इस पर ही निर्भर है फिर भी गुरु इसके बारे में तनिक भी चिन्ता करते नहीं । ऐसा होने पर भी गुरु का निर्वाह कभी रुकता नहीं। यह दर्शाता है कि विश्वास, श्रद्धा, आदर, कृतज्ञता और अपेक्षारहितता ये सब सामर्थ्य, कायदाकानून, नियम और शर्तों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान हैं।  
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गुरुदक्षिणा की संकल्पना श्रेष्ठ एवं संस्कारित समाज में ही सम्भव है। मनुष्य में निहित सद्वृत्ति के आधार पर ही ऐसी व्यवस्थाएँ सम्भव होती हैं। स्वार्थ, अप्रामाणिकता, कृतज्ञता का अभाव जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ जब प्रबल बनती हैं तब शर्ते, कायदा-कानून भंग होते हैं, इसलिए दण्ड आदि सभी व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं।  
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५. गुरुदक्षिणा की संकल्पना श्रेष्ठ एवं संस्कारित समाज में ही सम्भव है। मनुष्य में निहित सद्वृत्ति के आधार पर ही ऐसी व्यवस्थाएँ सम्भव होती हैं। स्वार्थ, अप्रामाणिकता, कृतज्ञता का अभाव जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ जब प्रबल बनती हैं तब शर्ते, कायदा-कानून भंग होते हैं, इसलिए दण्ड आदि सभी व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं।  
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समाज आधारित शिक्षण का यह उत्तम नमूना है। इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था में शिक्षक और विद्यार्थी-गुरु और शिष्य - के बीच में अथवा इन दोनों का नियमन करने वाला कोई तत्त्व, कोई व्यवस्था नहीं होती। फिर यह सरकारी अर्थात् राजकीय और प्रशासनिक व्यवस्था भी नहीं है। यह सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था है।  
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६. समाज आधारित शिक्षण का यह उत्तम नमूना है। इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था में शिक्षक और विद्यार्थी-गुरु और शिष्य - के बीच में अथवा इन दोनों का नियमन करने वाला कोई तत्त्व, कोई व्यवस्था नहीं होती। फिर यह सरकारी अर्थात् राजकीय और प्रशासनिक व्यवस्था भी नहीं है। यह सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था है।  
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हमारा यह दृढ़ मत बना हुआ होता है कि आज के
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हमारा यह दृढ़ मत बना हुआ होता है कि आज के समय में ऐसी व्यवस्था सम्भव ही नहीं हो सकती। किसी भी प्रकार की अनिवार्यता न हो तो कोई पढ़ेगा नहीं, अनिवार्यता न हो तो कोई फीस ही न देगा, पहले से वेतन निश्चित नहीं होगा तो कोई पढ़ायेगा ही नहीं। परन्तु ऐसा मानना अपने आपको ही कम आँकना है। आज भी यह दुनियाँ जैसे भी चल रही है, वह कायदा-कानून, न्याय और दण्ड के आधार पर नहीं प्रत्युत मनुष्य में बची हुई अच्छाई के आधार पर ही चल रही है। ऐसी अच्छाई और संस्कारिता के आधार पर होने वाली व्यवस्थाओं को अधिक पारदर्शी बनाने के लिए और अधिक संस्कारित समाज निर्माण करने की ओर गति बढ़ानी होगी।
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==== दान ====
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जो माँगी जाती है, वह भिक्षा है परन्तु जो दिया जाता है, वह दान है। किसीके माँगने पर जो दिया जाता है वह दान नहीं है, वह तो भिक्षा ही है, परन्तु अपने सामाजिक कर्तव्य की पूर्ति हेतु स्वयं प्रेरणा से जो दिया जाता है वही दान है, उससे पुण्य सम्पादन होता है । वर्तमान समय में हम भिक्षा को ही दान कहने लगे हैं, यह बात आपके ध्यान में आई ही होगी। आजकल जिसे चेरिटी अर्थात् धर्मादा कहा जाता है, वह भी दान नहीं है। चेरिटी भी वास्तव में दया के भाव से की जाती है और उससे भी पुण्य सम्पादन का भाव होता है। चेरिटी दया है जबकि दान कर्तव्य है। दान देने वाले और लेने वाले का गौरव ही बढ़ाता है । दान देने वाले को दान लेने वाला उपकृत करता है।
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समाज को यदि सुव्यवस्थित चलाना है तो सभी व्यवस्थाओं का परस्पर सामंजस्य सुयोग्य पद्धति से होना आवश्यक है। हमने देखा है कि उत्पादनतंत्र, उद्योगतंत्र, व्यवसायतंत्र, शिक्षातंत्र, समाजतंत्र, राज्यतंत्र, धर्मतंत्र जैसी भिन्न भिन्न व्यवस्थाएं समाज को सुव्यवस्थित रखती हैं। धर्मतंत्र इन सभी तंत्रों में सर्वोपरि है। धर्मतंत्र के प्रतिनिधि के रूप में शिक्षातंत्र कार्यरत होता है। धर्मतंत्र और शिक्षातंत्र समाजतंत्र को प्रेरित और निर्देशित करते हैं । और अन्य सभी तंत्र समाजतंत्र को अनुकूल होते हुए कार्यरत रहते हैं । इस प्रकार सभी तंत्र परस्पर संकलित रहते हैं।
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शिक्षा को इस प्रकार अपना उचित स्थान मिलने के बाद ही उस तंत्र को चलाने के लिये उपयुक्त पद्धतियों का समुचित विचार हो सकता है।
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इस प्रकार के उचित स्थानप्राप्त शिक्षातंत्र की अर्थव्यवस्था के बारे में जो चर्चा की है। तदनुसार समित्पाणि, गुरुदक्षिणा और भिक्षा इन तीन व्यवस्थाओं का हमने विचार किया। अब हम दान के बारे में विचार करेंगे।
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दान के संदर्भ में कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं ।
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१. शिक्षातंत्र दान द्वारा पोषित हो यह बहुत प्राचीन, सर्वस्वीकृत और स्वाभाविक परंपरा है । एक आचार्य को, उपाध्याय को, गुरु को दान लेने का अधिकार है और दान देना गृहस्थ का कर्तव्य है।
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२. शिक्षासंस्था को दान देना यह पुण्यकार्य है। उससे लेने वाला उपकृत नहीं होता है, देने वाले को पुण्य लाभ होता है।
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३. शिक्षा व्यवस्था के लिये दान की याचना नहीं की जाती। समाज अपना कर्तव्य मानकर आवश्यकता समझ कर बिना याचना के स्वयं होकर देता है। उससे दान के, देने वाले के और लेने वाले के गौरव की रक्षा होती है।
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४. जिस प्रकार नियमितरूप से मंदिर जाना और वहाँ किसी भी रूप में यथाशक्ति दान करना अनिवार्य है उसी प्रकार शिक्षा संस्थानों में भी गृहस्थों को नियमपूर्वक दान करना चाहिये।
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५. समाज में धर्म का स्थान सर्वोपरि है यह दर्शाने के लिये गाँव में राजमहल सहित कोई भी भवन मंदिर से ऊँचा नहीं बनाया जाता था उसी प्रकार शिक्षासंस्थानों के अध्यापक, विद्यार्थी, एवं समग्र शिक्षा केन्द्र का समाज के सर्वसामान्य वैभव की तुलना में कम वैभवी होना समाज के लिये लज्जा का विषय होना चाहिये । ऐसा होने पर भी दान पर पोषित संस्थान को तो अपरिग्रही ही रहना चाहिये । शिक्षासंस्थानों में जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ योग्य रूप से पूर्ण हो रही हैं, आवश्यक व्यवस्थाएं उत्तम हैं, किसी भी प्रकार की सामग्री की न्यूनता नहीं है, । दूसरी ओर शिक्षासंस्थान वैभव, विलासिता, आराम, संग्रहवृत्ति इत्यादि का स्वैच्छिक त्याग करते हुए संयम, सादगी, अल्प आवश्यकताएँ, परिश्रम, स्वावलंबन के आधार पर चल रहे हैं यह समाज के लिये अत्यंत भूषणास्पद चित्र है। स्वाभाविक जीवनचर्या ऐसी ही होनी चाहिये । अध्ययन के लिये शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक दृष्टि से भी यह आवश्यक है। उसमें हीनता के बोध का कोई स्थान नहीं है।
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अर्थात् महालय और विद्यालय की श्रेष्ठता के मापदंड भिन्न हैं। दोनों को स्वयं का विकास अपने अपने मापदंडों के आधार पर करना है, अन्यों के मापदंडों से नहीं। अर्थात् महालय के लिये वैभव स्वाभाविक है, विद्यालय के लिये सादगी।
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६. दान देने वाले का विद्यालय पर कोई अधिकार नहीं होता है। शिक्षासंस्था के संचालन में उसका कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये।
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शिक्षासंस्थानों को दान देने की प्रथा आज भी पर्याप्त मात्रा में प्रचलित है यह वास्तव में अच्छी बात है। परंतु वह प्रथा कुछ मात्रा में प्रदूषित भी हुई है। प्रदूषण कुछ इस प्रकार के हैं -
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१. कुछ संस्थानों में प्रवेश की शर्त के रूप में दान (Donation) लिया जाता है।
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२. शिक्षकों की नियुक्ति के समय भी अनिवार्य रूप में दान लिया जाता है।
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३. अन्यान्य निमित्त बना कर अनिवार्य रूप में दान लिया जाता है।
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४. संचालकों के द्वारा जबरन लिये जाने वाले इस दान के साथ साथ दान देने वाला भी उसे अनेक प्रकार से प्रदूषित करता है।
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५. दान देने वाला संस्थान के संचालन में अपना अधिकार मांगता है। उदाहरण के लिये संस्थान में ट्रस्टी अथवा संरक्षक के नाते नियुक्ति।
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६. शिक्षकों के चयन और विद्यार्थियों के प्रवेश के बारे में भी अधिकार चाहता है।
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७. भवन को नाम देना, अपने नामपट्ट लगाना इत्यादि आग्रह भी सामान्य हैं।
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८. और कुछ नहीं तो दाता के नाते सम्मान, प्रतिष्ठा, अग्रक्रम इत्यादि की अपेक्षा तो रखता ही है ।
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९. कई दाता अपनी बेहिसाबी संपत्ति से दान देते हैं।
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१०. सरकार स्वयं भी दान देती है पर वह अनुदान के रूप में होता है। याने उसका हिसाब रखना और सरकार को पेश करना होता है। उसके खर्च के बिंदुओं पर सरकार का नियंत्रण रहता है।
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११. शिक्षासंस्थानों की आवश्यकतानुसार प्राचीनकाल में राजा और श्रेष्ठी दान देते थे और आज भी कई संस्थान और सरकार दान देते हैं पर उसके लिये संस्था को विस्तृत जानकारी देते हुए याचना करनी होती है। यह वास्तव में निम्न कक्षा की भिक्षा कही जा सकती है, इसे दान नहीं कहा जा सकता ।
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शिक्षासंस्थान दान पर पोषित हों और समाज उनका उत्तम प्रकार से पोषण करे यह उत्तम स्थिति मानी जा सकती है। पर शिक्षासंस्थान दान प्राप्त करने के लिये अनेक प्रकार के चित्र विचित्र उपक्रम करें, अनेक प्रकार से याचना करें, दूसरी ओर दान देने वाले लोग अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयास करें यह सब सुसंस्कृत समाज के लक्षण नहीं हैं। सुसंस्कृत समाज दानप्रवृत्ति को शुद्ध और प्रवाहित रखता है तो दूसरी और दान देने की सुव्यवस्था से शिक्षा और समाज दोनों सुसंस्कृत बनते हैं।
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आज जब दान का संस्कार समाज में जीवित है तब दान को अनेक प्रकार के प्रदूषणों से मुक्त कर शुद्ध और पवित्र बनाने की आवश्यकता है। यह बात असम्भव भी नहीं है। पर इस विषय में शिक्षा संस्थानों द्वारा पहल अपेक्षित है।
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इस दृष्टि से सर्वप्रथम शिक्षासंस्थानों को 'बाजार' बनने से बचना चाहिये । उद्योगगृहों, कार्यालयों एवं महालयों की पंक्ति से बाहर निकलकर 'विद्यालय' नामक विशिष्ट पंक्ति निर्माण करनी चाहिये । उत्तम विद्यालय के
    
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -
 
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -
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