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स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है । जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है । परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है । विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना __ अधिक प्रेरणादायी होता है।
 
स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है । जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है । परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है । विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना __ अधिक प्रेरणादायी होता है।
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अनेक बार बड़े लोग विदेशों में स्वच्छता व भारत में गन्दगी का तुलनात्मक वर्णन बच्चों के सामने ऐसे शब्दों में बताते हैं कि जैसे भारतीयों को गन्दगी ही पसन्द है, ये स्वच्छता के बारे में कुछ नहीं जानते । जैसे भारत में स्वच्छता को कोई महत्त्व ही नहीं है । ऐसा बोलने से अपने देश के प्रति हीनता बोध ही पनपता है, जो उचित नहीं है । भारत में तो सदैव से ही स्वच्छता का आचरण व व्यवहार रहा है। एक गृहिणी उठते ही सबसे पहले पूरे घर की सफाई करती है । घर के द्वार पर रंगोली बनाती है, पहले पानी छिड़कती है । ऐसी आदतें जिस देश के घर घर में हो भला वह भारत कभी स्वच्छता की अनदेखी कर सकता है ? केवल घर व शरीर की शुद्धि ही नहीं तो चित्त शुद्धि पर परम पद प्राप्त करने की इच्छा जन जन में थी, आज फिर से उसे जगाने की आवश्यकता है।
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==== स्वच्छता के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करना चाहिये... ====
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* सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ नहीं रखना यह आज के समय का सामान्य प्रचलन हो गया है । इसका कारण जरा व्यापक और दूरवर्ती है। अंग्रेजों के भारत की सत्ता के अधिग्रहण से पूर्व भारतीय समाज स्वायत्त था। स्वायत्तता का एक लक्षण स्वयंप्रेरणा से सामाजिक दायित्वों का निर्वाहण करने का भी था । परन्तु अंग्रेजों ने सत्ता ग्रहण कर लेने के बाद समाज धीरे धीरे शासन के अधीन होता गया। इस नई व्यवस्था में ज़िम्मेदारी सरकार की और काम समाज का ऐसा विभाजन हो गया। सरकार जिम्मेदार थी परन्तु स्वयं काम करने के स्थान पर काम करवाती थी । जो काम करता था उसका अधिकार नहीं था, जिसका अधिकार था वह काम नहीं करता था । धीरे धीरे काम करना हेय और करवाना श्रेष्ठ माना जाने लगा। आज ऐसी व्यवस्था में हम जी रहे हैं । यह व्यवस्था हमारी सभी रचनाओं में दिखाई देती है।
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* विद्यालय की स्वच्छता विद्यालय के आचार्यों और छात्रों के नित्यकार्य का अंग बनाना चाहिए क्योंकि यह शिक्षा का ही क्रियात्मक अंग है। आज ऐसा माना नहीं जाता है । आज यह सफाई कर्मचारियों का काम माना जाता है और पैसे देकर करवाया जाता है। छात्र या आचार्य इसे अपने लायक नहीं मानते हैं। इससे ऐसी मानसिकता पनपती है कि अच्छे पढेलिखे और अच्छी कमाई करने वाले स्वच्छताकार्य करेंगे नहीं। समय न हो और अन्य लोग करने वाले हो और किसीको स्वच्छताकार्य न करना पड़े यह अलग विषय है परन्तु पढेलिखे हैं और प्रतिष्ठित लोग ऐसा काम नहीं करते यह मानसिकता अलग विषय है।  प्रायोगिक शिक्षा का यह अंग बनने की आवश्यकता है।
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* स्वच्छता स्वभाव बने यह भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। आजकल इस विषय में भी विपरीत अवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर, मार्गों पर,
 
यह प्रश्नावली संस्थाचालक, शिक्षक, अभिभावक ऐसे तीनों गटों के सहयोग से भरकर प्राप्त हुई है।
 
यह प्रश्नावली संस्थाचालक, शिक्षक, अभिभावक ऐसे तीनों गटों के सहयोग से भरकर प्राप्त हुई है।
  
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