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नित्य वंदना के बाद १० मिनिट प्रार्थना कक्ष में ही योगाभ्यास हो । योगाभ्यास अर्थात् केवल आसन प्राणायाम ही नहीं । अनेक प्रकार से इसका अभ्यास हो सकता है ।
 
नित्य वंदना के बाद १० मिनिट प्रार्थना कक्ष में ही योगाभ्यास हो । योगाभ्यास अर्थात् केवल आसन प्राणायाम ही नहीं । अनेक प्रकार से इसका अभ्यास हो सकता है ।
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शैक्षिक मूल्य - छात्रों की ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति
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====== शैक्षिक मूल्य - ======
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छात्रों की ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति बढ़ती है उसका प्रयोग और मापन करके देखे ।
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बढ़ती है उसका प्रयोग और मापन करके देखे
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====== अवरोध - ======
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शिक्षक को इस विषय मे रुचि और महत्त्व कम रहता है, समझ कम और श्रम ज्यादा होते है
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अवरोध - शिक्षक को इस विषय मे रुचि और
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====== उपाय - ======
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योग्य एवं जानकार व्यक्ति से इसे ठीक से समझ ले, अभिभावकों से भी अनुकूलता प्राप्त करे ।
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महत्त्व कम रहता है, समझ कम और श्रम ज्यादा होते है ।
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===== ८... साजसज्जा : =====
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नियमित रूप से भले अल्पमात्रा मे साजसज्जा अवश्य करे । सभी चीजे यथास्थान रखना वर्ग मे गुलदस्ता सजाना और अन्य कई प्रकार हो सकते है ।
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उपाय - योग्य एवं जानकार व्यक्ति से इसे ठीक से
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शैक्षिक मूल्य - कलागुणों में वृद्धी, सौन्दर्य दूष्ठी बढती है, कल्पकता का आनंद एवं उत्साह वर्धन होता है । इस काम का नियोजन व पालन व्यवस्थित करना अन्यथा साजसज्जा कम और गडबड ज्यादा जैसा होगा ।
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समझ ले, अभिभावकों से भी अनुकूलता प्राप्त करे
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===== ९. गुरुसेवा गुरु वन्दना : =====
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आचार्यों को आदर देना, उनकी सेवा करना, गुरु निन्‍दा उपहास न करना
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८... साजसज्ा :
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===== १०, भोजन : =====
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मध्यावकाश को भोजन के रूप में यह विद्यालयों में होने वाली नित्य गतिविधि है । भोजन बडा संस्कार है । अन्न से शरीर और मन की पुष्ठी होती है । इस विषय में विस्तृत विवेचन मध्यावकाश का भोजन इस प्रश्नावली में किया है ।
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नियमित रूप से भले अल्पमात्रा मे साजसज्जा अवश्य
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पाँच छ घण्टे के विद्यालय में ऐसी गतिविधियाँ संभव है । उसके लिए खर्च अधिक नहीं आता । कल्पकता एवं उत्कृष्ट योजकता मात्र आवश्यक है। मानसिकता भी आवश्यक है । आज विद्यालयों में ये गतिविधियाँ करवाना झंझट, बोझ भी लग सकता है । परन्तु भारतीय शिक्षा का प्रयोग करना है तो सब समझकर करना । छात्रों को इनका अच्छा परिणाम मिलेगा । शिक्षक एवं अभिभावकों को छात्रो के व्यवहार में अनुकूल परिवर्तन जरूर दिखेगा ।
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करे । सभी चीजे यथास्थान रखना वर्ग मे गुलदस्ता सजाना
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==== विमर्श ====
 
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शुद्ध पढ़ने पढ़ाने के अतिरिक्त अनेक बातें ऐसी हैं जो पढाई की सहयोगी के रूप में विद्यालयों में होती है । इनका शैक्षिक दृष्टि से विचार किया जाना चाहिये क्योंकि इनका सीधा सम्बन्ध पढ़ाई से है ।
और अन्य कई प्रकार हो सकते है ।
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शैक्षिक मूल्य - कलागुणों में वृद्धी, सौन्दर्य दूष्ठी बढती
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है, कल्पकता का आनंद एवं उत्साह वर्धन होता है ।
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इस काम का नियोजन व पालन व्यवस्थित करना
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अन्यथा साजसज्जा कम और गडबड ज्यादा जैसा होगा ।
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९. गुरुसेवा गुरु वन्दना :
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आचार्यों को आदर देना, उनकी सेवा करना, गुरु
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निन्‍्दा उपहास न करना ।
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१०, भोजन :
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मध्यावकाश को भोजन के रूप में यह विद्यालयों में
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होने वाली नित्य गतिविधि है । भोजन बडा संस्कार है ।
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अन्न से शरीर और मन की पुष्ठी होती है । इस विषय में
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विस्तृत विवेचन मध्यावकाश का भोजन इस प्रश्नावली में
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किया है ।
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पाँच छ घण्टे के विद्यालय में ऐसी गतिविधियाँ संभव
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है । उसके लिए खर्च अधिक नहीं आता । कल्पकता एवं
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उत्कृष्ट योजकता मात्र आवश्यक है। मानसिकता भी
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आवश्यक है । आज विद्यालयों में ये गतिविधियाँ करवाना
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झंझट, बोझ भी लग सकता है । परन्तु भारतीय शिक्षा का
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प्रयोग करना है तो सब समझकर करना । छात्रों को इनका
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अच्छा परिणाम मिलेगा । शिक्षक एवं अभिभावकों को
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छात्रो के व्यवहार में अनुकूल परिवर्तन जरूर दिखेगा ।
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श्प७
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शुद्ध पढ़ने पढ़ाने के अतिरिक्त अनेक बातें ऐसी हैं
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जो पढाई की सहयोगी के रूप में विद्यालयों में होती है ।
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इनका शैक्षिक दृष्टि से विचार किया जाना चाहिये क्योंकि
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इनका सीधा सम्बन्ध पढ़ाई से है ।
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१, प्रार्थना
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प्रार्थथा से किसी भी शुभ कार्य का प्रारम्भ होना
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भारत में केवल स्वाभाविक ही नहीं तो अनिवार्य माना
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गया है । हमने कल्याणकारी सभी बातों को देवता का
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स्वरूप दिया है। यहाँ तक की पानी को जलदेवता
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अथवा वरुण देवता, अग्नि को अग्थिदेवता, वायु को
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वायुदेवता, पृथ्वी को पृथ्वीदेवता कहा है | पृथ्वी को तो
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हम माता ही कहते हैं। तब विद्या को, ज्ञान को हम
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देवता न मानें ऐसा हो ही नहीं सकता । विद्या की, वाणी
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की, कला की, संगीत की देवता सरस्वती विद्यालयों की
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अधिष्ठात्री देवी है । अध्ययन अध्यापन के रूप में हम
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उसकी उपासना करते हैं। ज्ञान के सभी लक्षणों को
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साकार रूप देकर हमने सरस्वती की प्रतिमा बनाई है । इस
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देवता की प्रार्थना से प्रारम्भ करना नितान्त आवश्यक है ।
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परन्तु इसमें केवल कर्मकाण्ड नहीं चलेगा । कुछ बातें
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ध्यान देने योग्य हैं
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जो भी करें शाख्रशुद्ध करें । विद्याकेन्द्रों में अशास्त्रीय
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नहीं चलता । सुशोभन अवश्य करना चाहिये और
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वह पर्यावरण और सौन्दर्य दृष्टि को ध्यान में रखकर
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किया जाना चाहिये ।
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फूल, दीप और अगरबत्ती का प्रयोग यदि करते हैं
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तो ध्यान में रखें कि अगरबत्ती सिन्थेटिक न हो,
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दीप जर्सी के घी का न हो और फूल कृत्रिम न
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हों । इस निमित्त से विद्यालय में अन्यान्य चित्रों पर
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जो प्लास्टिक के फूलों की मालायें चढ़ाई जाती हैं
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वे उतार दी जाय । सरस्वती को यह मान्य नहीं है ।
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प्रार्थथा शुद्ध स्वर और शुद्ध उच्चारण से गाई जानी
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चाहिये । सरस्वती वाणी और संगीत दोनों की देवता
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है । बेसूरा गायन, बेसूरे और बेढब वाद्य और बेताल
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वादन, चिछ्ठा चिक्लाकर गाना, गलत
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उच्चारण करना उसे मान्य नहीं है। वह इसे क्षमा
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नहीं करेगी । कृपा करने की तो बात ही दूर की है ।
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०... प्रार्थना सभा का वातावरण पवित्र होना भी उतना
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ही आवश्यक है । यदि हम कर सकें तो प्रार्थनाकक्ष
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में प्रार्थना के अलावा मौन रहना, अन्य किसी प्रकार
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की बातें नहीं करना भी होना चाहिये । अधिकांश
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विद्यालयों में विद्यालय का प्रारम्भ सभा से होता
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है । जिसमें सूचनायें, समाचार वाचन, पंचांग कथन,
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किसी विद्यार्थी या कक्षा की प्रस्तुति, शिक्षक द्वारा
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प्रेरक उदूबोधन होता है और इस सभा का एक अंग
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प्रार्थथा है। यह विद्यालय के कामकाज का
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उपयोगितावादी दृष्टिकोण है जिससे प्रार्थना का
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महत्त्व कम हो जाता है ।
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०". एक बात विशेष उल्लेखनीय है । कई विद्यालयों में
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wet केवल विद्यार्थियों के लिये होती है । कुछ
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विद्यालय ऐसे हैं जहाँ शिक्षकगण प्रार्थना में सहभागी
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होता है परन्तु लगभग एक भी विद्यालय ऐसा नहीं
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है जहाँ सेवक, कार्यालयीन कर्मचारी, या उसी समय
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उपस्थित अभिभावक प्रार्थना में सम्मिलित होते हों ।
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यह अवश्य आश्चर्यकारक है ।
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०... और एक आश्चर्यकारक बात यह है कि
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महाविद्यालय और विश्वविद्यालय ऐसे विद्याकेन्द्र हैं
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जहाँ प्रार्थना अनिवार्य या आवश्यक नहीं मानी
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जाती । अपवाद स्वरूप ही कहीं प्रार्थना होती
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दिखाई देती है ।
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०... सरकारी या गैरसरकारी शिक्षाविभाग के कार्यालयों या
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संस्थानों में भी प्रार्थना का प्रचलन नहीं है । प्रार्थना
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करना मानो धर्म निरपेक्ष देश में बच बच कर करने
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का विषय बन गया है । इस विषय को गम्भीरता से
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लेने की आवश्यकता है ।
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===== १, प्रार्थना =====
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प्रार्थथा से किसी भी शुभ कार्य का प्रारम्भ होना भारत में केवल स्वाभाविक ही नहीं तो अनिवार्य माना गया है । हमने कल्याणकारी सभी बातों को देवता का स्वरूप दिया है। यहाँ तक की पानी को जलदेवता अथवा वरुण देवता, अग्नि को अग्थिदेवता, वायु को वायुदेवता, पृथ्वी को पृथ्वीदेवता कहा है | पृथ्वी को तो हम माता ही कहते हैं। तब विद्या को, ज्ञान को हम देवता न मानें ऐसा हो ही नहीं सकता । विद्या की, वाणी की, कला की, संगीत की देवता सरस्वती विद्यालयों की अधिष्ठात्री देवी है । अध्ययन अध्यापन के रूप में हम उसकी उपासना करते हैं। ज्ञान के सभी लक्षणों को साकार रूप देकर हमने सरस्वती की प्रतिमा बनाई है । इस देवता की प्रार्थना से प्रारम्भ करना नितान्त आवश्यक है । परन्तु इसमें केवल कर्मकाण्ड नहीं चलेगा । कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं....
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* जो भी करें शाख्रशुद्ध करें । विद्याकेन्द्रों में अशास्त्रीय नहीं चलता । सुशोभन अवश्य करना चाहिये और वह पर्यावरण और सौन्दर्य दृष्टि को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये।
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* फूल, दीप और अगरबत्ती का प्रयोग यदि करते हैं तो ध्यान में रखें कि अगरबत्ती सिन्थेटिक न हो, दीप जर्सी के घी का न हो और फूल कृत्रिम न हों । इस निमित्त से विद्यालय में अन्यान्य चित्रों पर जो प्लास्टिक के फूलों की मालायें चढ़ाई जाती हैं वे उतार दी जाय । सरस्वती को यह मान्य नहीं है ।
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* प्रार्थथा शुद्ध स्वर और शुद्ध उच्चारण से गाई जानी चाहिये । सरस्वती वाणी और संगीत दोनों की देवता है । बेसूरा गायन, बेसूरे और बेढब वाद्य और बेताल वादन, चिछ्ठा चिक्लाकर गाना, गलत उच्चारण करना उसे मान्य नहीं है। वह इसे क्षमा नहीं करेगी । कृपा करने की तो बात ही दूर की है ।
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* प्रार्थना सभा का वातावरण पवित्र होना भी उतना ही आवश्यक है । यदि हम कर सकें तो प्रार्थनाकक्ष में प्रार्थना के अलावा मौन रहना, अन्य किसी प्रकार की बातें नहीं करना भी होना चाहिये । अधिकांश विद्यालयों में विद्यालय का प्रारम्भ सभा से होता है । जिसमें सूचनायें, समाचार वाचन, पंचांग कथन, किसी विद्यार्थी या कक्षा की प्रस्तुति, शिक्षक द्वारा प्रेरक उदूबोधन होता है और इस सभा का एक अंग प्रार्थथा है। यह विद्यालय के कामकाज का उपयोगितावादी दृष्टिकोण है जिससे प्रार्थना का महत्त्व कम हो जाता है ।
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* एक बात विशेष उल्लेखनीय है । कई विद्यालयों में प्रार्थना केवल विद्यार्थियों के लिये होती है । कुछ विद्यालय ऐसे हैं जहाँ शिक्षकगण प्रार्थना में सहभागी होता है परन्तु लगभग एक भी विद्यालय ऐसा नहीं है जहाँ सेवक, कार्यालयीन कर्मचारी, या उसी समय उपस्थित अभिभावक प्रार्थना में सम्मिलित होते हों । यह अवश्य आश्चर्यकारक है ।
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* और एक आश्चर्यकारक बात यह है कि महाविद्यालय और विश्वविद्यालय ऐसे विद्याकेन्द्र हैं जहाँ प्रार्थना अनिवार्य या आवश्यक नहीं मानी जाती । अपवाद स्वरूप ही कहीं प्रार्थना होती दिखाई देती है ।
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* सरकारी या गैरसरकारी शिक्षाविभाग के कार्यालयों या संस्थानों में भी प्रार्थना का प्रचलन नहीं है । प्रार्थना करना मानो धर्म निरपेक्ष देश में बच बच कर करने का विषय बन गया है । इस विषय को गम्भीरता से लेने की आवश्यकता है ।
 
२. संकल्प
 
२. संकल्प
  
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