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जैसे कि डिटर्जण्ट, पेट्रोल और प्लास्टिक पर्यावरण के बड़े शत्रु हैं । वे हमारे घर घर में, दैनन्दिन व्यवहार में कितने व्याप्त हो गये हैं इसकी गिनती करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि हम इन वस्तुओं का उपयोग जरा भी कम नहीं करते हैं और पर्यावरण की चिन्ता करते हैं । क्या विद्यालय के माध्यम से हम अपने आप पर नियन्त्रण करने का विचार नहीं करेंगे ? अपने आप पर नियन्त्रण का काम कठिन अवश्य है परन्तु यह यदि शुरु ही नहीं किया तो इसका निवारण कैसे होगा ?
 
जैसे कि डिटर्जण्ट, पेट्रोल और प्लास्टिक पर्यावरण के बड़े शत्रु हैं । वे हमारे घर घर में, दैनन्दिन व्यवहार में कितने व्याप्त हो गये हैं इसकी गिनती करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि हम इन वस्तुओं का उपयोग जरा भी कम नहीं करते हैं और पर्यावरण की चिन्ता करते हैं । क्या विद्यालय के माध्यम से हम अपने आप पर नियन्त्रण करने का विचार नहीं करेंगे ? अपने आप पर नियन्त्रण का काम कठिन अवश्य है परन्तु यह यदि शुरु ही नहीं किया तो इसका निवारण कैसे होगा ?
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क्या हम नहीं जानते कि हम उपयोग करते हैं ऐसी सेंकड़ों वस्तुयें प्रदूषण करती हैं ? इसका प्रथम उपाय करना चाहिये।
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२. इन उपायों को करने के बाद ही आगे मानसिक प्रदूषण का विचार करना चाहिये ।
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मन को बहकाने वाली बातें चारों ओर हों तब मन कैसे शान्त हो सकता है ? अमर्याद इच्छायें, उनकी पूर्ति के लिये किये जने वाले प्रयास, हल्का और सस्ता मनोरंजन, कभी शान्त न होने वाली लालसायें, स्वार्थ, लालच आदि हमें असंस्कारी बनाते हैं।
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हमें विद्यार्थियों को मन को वश में करने के उपाय बताने चाहिये । लोभ, लालच, इर्ष्या, द्वेष आदि पर नियन्त्रण करना सिखाना चाहिये । ये हमारे शत्रु हैं जो संस्कारों का नाश करते हैं । इन्हीं से हिंसा फैलती है, शत्रुता पनपती है, अनेक प्रकार के अनाचार होते हैं।
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क्या मोबाइल और मोटरबाइक से निर्माण होने वाला प्रदूषण पानी के प्रदूषण से कम घातक है ? नहीं, उल्टे अधिक घातक है । परन्तु हम इन्हें विकास का लक्षण मानते हैं ।
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क्या हम देख नहीं रहे हैं कि मोबाइल के कारण हमारी स्मरणशक्ति बहुत कम हो गई है ? क्या नेट पर सर्च कर, जानकारी डाउनलोड कर, कट् एण्ड पेस्ट की चातुरी अपनाकर पीएचडी प्राप्त होने की सुविधा के चलते हमारी चिन्तन प्रक्रिया अत्यन्त सतही हो गई है ? अतिशय स्वार्थी बनकर हमारे परिवार, धर्म, ज्ञान आदि को बाजार में ला दिया है । यह हम नहीं जानते ? यह सारा सांस्कृतिक पर्यावरण का प्रदूषण है जो पंचमहाभूतों के प्रदूषण से अनेक गुणा घातक है ।
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==== प्रदूषण से बचने हेतु मन की शिक्षा ====
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इससे बचने की योजना बनानी चाहिये ।
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वास्तव में मन की शिक्षा इसी प्रदूषण से बचने के लिये है । हमारे अशिक्षित असंस्कृत मन के कारण ही प्रदूषण बढ़ाने वाली वस्तुओं का भरपूर प्रयोग करते करते हम प्रदूषण दूर करने के उपायों की चर्चा करते हैं।
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अतः पानी, हवा, भूमि का प्रदूषण करनेवाले डिटर्जेण्ट, प्लास्टिक, पेट्रोल, सिमेण्ट, विभिन्न रसायनों से मुक्ति के साथ
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साथ मन, वाणी, विचार, दृष्टिकोण को 2प्रदूषित करने वाले तामसी आहार उच्छृखल व्यवहार, संकुचित विचार, झूठे अहंकार आदि पर नियन्त्रण प्राप्त करने की आवश्यकता है । हमें गणित में अच्छे अंक चाहिये, हमें अपने विद्यार्थी मेडिकल आदि पाठ्यक्रमों में प्रवेश प्राप्त करें, बड़े बड़े वैज्ञानिक, उद्योजक, अधिकारी आदि हों इसकी महत्वाकांक्षा रहती है परन्तु मूल में सज्जन, विचारशील, सदाचारी, सद्बुद्धियुक्त हों इसकी ओर हमारा ध्यान नहीं रहता । व्यक्ति ऐसा कैसे बनेगा इसकी अनेक स्थानों पर अनेक सन्दर्भो में, अनेक लोगों ने बातें कही ही हैं । हम वो नहीं जानते हैं ऐसा भी नहीं है । परन्तु विद्यालय चलाने वाले संचालक, शिक्षक, अभिभावक सब सही रास्ता अपनाने से चूक जाते हैं, डरते हैं, सहम जाते हैं ।
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अतः वास्तव में साहस करने की आवश्यकता है । हमारे पास मार्गदर्शन की कमी नहीं है परन्तु मार्ग पर चलने से ही लक्ष्य नजदीक आता है और मार्ग पर चलना हमें होता है, अन्य किसी को नहीं ।
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पर्यावरण का विचार आजकल केवल प्रदूषण के सन्दर्भ
 
पर्यावरण का विचार आजकल केवल प्रदूषण के सन्दर्भ
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