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4. सरकारी तन्त्र अ-मानवीय है । यह एक व्यवस्था है । यहाँ व्यक्ति गौण है, नियम ही मुख्य है । इस व्यवस्था में नियम के आधार पर व्यवहार होता है. भावना और विवेक के आधार पर नहीं, कर्तृत्व और चरित्र के आधार पर नहीं । उदाहरण के लिये शिक्षामन्त्री शिक्षक, विद्वान अथवा शिक्षाशास्त्री ही होगा ऐसा नहीं है। यह शिक्षा मनोविज्ञान जाननेवाला होगा यह जरूरी नहीं है। वह लोगों के मतों से चुनकर देश चलानेवाली संसद या धारासभा में पहुँचा हुआ सांसद या विधायक है । यह स्वभाव से और कार्य से, विचार और अनुभव से व्यापारी भी हो सकता है, उद्योजक हो सकता है या मजदूर भी हो सकता है । उसका शिक्षा के साथ ज्ञानोपासक या ज्ञानसेवक जैसा कोई सम्बन्ध नहीं है । प्रशासनिक अधिकारी तन्त्र को चलानेवाला  है। वह शिक्षा को, चिकित्सा को, कारखानों को, खानों-खदानों को, विद्युत उत्पादन को, मजदूरों को एक ही पद्धति से चलाता है । उसे सजीव निर्जीव का, अच्छे बुरे का, सज्जन और दुर्जन का कोई भेद नहीं है । वह अन्धे की तरह ‘समदृष्टि' है, कानून अन्धे की लकडी है।
 
4. सरकारी तन्त्र अ-मानवीय है । यह एक व्यवस्था है । यहाँ व्यक्ति गौण है, नियम ही मुख्य है । इस व्यवस्था में नियम के आधार पर व्यवहार होता है. भावना और विवेक के आधार पर नहीं, कर्तृत्व और चरित्र के आधार पर नहीं । उदाहरण के लिये शिक्षामन्त्री शिक्षक, विद्वान अथवा शिक्षाशास्त्री ही होगा ऐसा नहीं है। यह शिक्षा मनोविज्ञान जाननेवाला होगा यह जरूरी नहीं है। वह लोगों के मतों से चुनकर देश चलानेवाली संसद या धारासभा में पहुँचा हुआ सांसद या विधायक है । यह स्वभाव से और कार्य से, विचार और अनुभव से व्यापारी भी हो सकता है, उद्योजक हो सकता है या मजदूर भी हो सकता है । उसका शिक्षा के साथ ज्ञानोपासक या ज्ञानसेवक जैसा कोई सम्बन्ध नहीं है । प्रशासनिक अधिकारी तन्त्र को चलानेवाला  है। वह शिक्षा को, चिकित्सा को, कारखानों को, खानों-खदानों को, विद्युत उत्पादन को, मजदूरों को एक ही पद्धति से चलाता है । उसे सजीव निर्जीव का, अच्छे बुरे का, सज्जन और दुर्जन का कोई भेद नहीं है । वह अन्धे की तरह ‘समदृष्टि' है, कानून अन्धे की लकडी है।
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इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता । भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं । यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है। कोई भी
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इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता । भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं । यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है। कोई भी यन्त्र स्वतन्त्र व्यवहार कर ही नहीं । सकता । यदि करने लगता है तो पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है। तात्पर्य यह है कि विशाल और व्यापक सरकारी तन्त्र को अ-मानवीय होना ही पड़ता है। सूझबूझ, कल्पनाशक्ति, अन्तर्दष्टि, देशकाल परिस्थिति के अनुसार स्वविवेक आदि इसमें सम्भव ही नहीं होते हैं। शिक्षा का स्वभाव इससे सर्वथा उल्टा है। उसे इन सबकी आवश्यकता होती है। परन्तु शिक्षक के हाथ में अधिकार नहीं है । अधिकार यान्त्रिक व्यवस्था के हैं। ऐसे अ-मानवीय तन्त्र में शिक्षा का विचार, शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के निर्णय, योजनायें, नीतियाँ शैक्षिक दृष्टि से, शैक्षिक पद्धति से नहीं लिये जाते हैं, लिये जाना सम्भव भी नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि विद्यालय, शिक्षक और विद्यार्थियों के होते हुए भी शिक्षा नहीं चलती।
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5. इसका अर्थ यह नहीं है कि निजी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा अच्छी चलती है। वहाँ अच्छी चलती दिखाई देती है इसके कारण वहाँ के शिक्षक नहीं हैं, वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं है
    
कानून, सुविधा, सामग्री, fem, (२) पढ़ाने न पढ़ाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त
 
कानून, सुविधा, सामग्री, fem, (२) पढ़ाने न पढ़ाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त
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