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अतः विद्यालयों में हम क्या देखते हैं? मध्यावकाश के समय में विद्यार्थी जोर जोर से चीखते रहते हैं, भागते रहते हैं, एक स्थान पर बैठते नहीं हैं । इन्हें मोबाइल के बिना चलता नहीं है, विडियो क्लीपिंग, चैटिंग, वॉट्स अप से खेल चलते ही रहते हैं । शान्ति से बैठ नहीं पाते, कुछ खाते ही रहते हैं ।
 
अतः विद्यालयों में हम क्या देखते हैं? मध्यावकाश के समय में विद्यार्थी जोर जोर से चीखते रहते हैं, भागते रहते हैं, एक स्थान पर बैठते नहीं हैं । इन्हें मोबाइल के बिना चलता नहीं है, विडियो क्लीपिंग, चैटिंग, वॉट्स अप से खेल चलते ही रहते हैं । शान्ति से बैठ नहीं पाते, कुछ खाते ही रहते हैं ।
 
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* इसके लिये स्थिर बैठना, चुप बैठना, एकाग्रता से कुछ सुनना, विचार करना, समझने का प्रयास करना, कल्पना करना असम्भव हो जाता है । विभिन्न विषयों में कुछ समझ में नहीं आता, एकाग्रता नहीं होती, रुचि नहीं होती, जिज्ञासा नहीं होती । पढाई के प्रति उनके मन में प्रेम नहीं लगता |
इसके लिये स्थिर बैठना, चुप बैठना, एकाग्रता से कुछ सुनना, विचार करना, समझने का प्रयास करना, कल्पना करना असम्भव हो जाता है । विभिन्न विषयों में कुछ समझ में नहीं आता, एकाग्रता नहीं होती, रुचि नहीं होती, जिज्ञासा नहीं होती । पढाई के प्रति उनके मन में प्रेम नहीं लगता |
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* किशोर आयु के होते होते उनका मन शृंगार की ओर खिंच  जाता है । कपडे, अलंकार, जूते, मोबाईल, सौन्दर्यप्रसाधन,  केशभूषा, टीवी आदि में इतनी अधिक रुचि निर्माण होती है कि उनकी बातें इन्हीं विषयों की होती हैं । उनकी कल्पना में यही सब कुछ होता है । टी.वी. के धारावाहिकों और फिल्मों में दीखने वाले नटनटियों का अनुकरण बोलचाल में भी होता रहता है । इनमें से मन को निकालकर अध्ययन के विषयों में लगाना इनके लिये बहुत कठिन होता है । अध्ययन उनके लिये जबरदस्ती करने वाला काम है, वे सदा इससे मुक्त होना चाहते हैं ।
 
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* उनकी वाणी असंयमी होती है । विनय उन्हें मालूम नहीं है । भगवान, आस्था, श्रद्धा, शुभ भावना आदि जगने नहीं पाते । जीवन और जगत का विचार आता नहीं । ऊपरी सतह छोड़कर कभी गहराई में जाना होता नहीं । होटेल, बाइक, फिल्मे, वसख्त्रालंकार के परे कोई दुनिया होती है इसका भान ही नहीं आता ।
किशोर आयु के होते होते उनका मन शृंगार की ओर खिंच  जाता है । कपडे, अलंकार, जूते, मोबाईल, सौन्दर्यप्रसाधन,  केशभूषा, टीवी आदि में इतनी अधिक रुचि निर्माण होती है कि उनकी बातें इन्हीं विषयों की होती हैं । उनकी कल्पना में यही सब कुछ होता है । टी.वी. के धारावाहिकों और फिल्मों में दीखने वाले नटनटियों का अनुकरण बोलचाल में भी होता रहता है । इनमें से मन को निकालकर अध्ययन के विषयों में लगाना इनके लिये बहुत कठिन होता है । अध्ययन उनके लिये जबरदस्ती करने वाला काम है, वे सदा इससे मुक्त होना चाहते हैं ।
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* महाविद्यालय में तो स्थिति अत्यन्त भयावह है । अविनय बहुत मुखर होता है। उनकी प्रत्येक हलचल में उन्माद प्रकट होता है । मजाक, मस्ती, छेडछाड, बाइक सवारी, लड़कों की लडकियों के साथ और लडकियों की लड़कों के साथ दोस्ती, खानापीना, पार्टी, विभिन्न डे मनाने की कल्पनायें यही दुनिया बन जाती है । अध्ययन बहाना है, मजे करना ही मुख्य है । महाविद्यालय है ही इसलिये ऐसा भाव बनता है ।
 
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* ये युवक और युवतियाँ परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं लाते ऐसा तो नहीं है परन्तु परीक्षा में अच्छे अंक पाने का अर्थ उनमें ज्ञान है, बुद्धि है, समझ है अथवा विनय है ऐसा नहीं है । परीक्षा में अच्छे अंक, प्रगत अध्ययन में प्रवेश मिलना, पीएचडी, करना, उसके आधार पर अच्छी नौकरी मिलना, अच्छा वेतन मिलना आदि सब यान्त्रिक प्रक्रियायें हैं । उनका मन अच्छा होने या बुद्धि गहरी होने के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मन तो वेसा ही अशिक्षित और असंयमी ही रह जाता है । अब तो वे समाज के अंग हैं, गृहस्थाश्रमी हैं । इनका गृहस्थाश्रम वैसा ही असंयत, छिछला और भौतिकता की चाह रखने वाला ही होता है । कमाई कम हो या अधिक उससे कोई अन्तर नहीं आता । जीवन और जगत की समझ का विकास नहीं होता । पशुता की प्रवृत्ति ही बढती जाती है । पशु तो प्रकृति के नियमन में रहते हैं, असंयत मनुष्य विकृति की ओर ढल जाते हैं ।
उनकी वाणी असंयमी होती है । विनय उन्हें मालूम नहीं है । भगवान, आस्था, श्रद्धा, शुभ भावना आदि जगने नहीं पाते । जीवन और जगत का विचार आता नहीं । ऊपरी सतह छोड़कर कभी गहराई में जाना होता नहीं । होटेल, बाइक, फिल्मे, वसख्त्रालंकार के परे कोई दुनिया होती है इसका भान ही नहीं आता ।
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यह तो बहुत संक्षिप्त वर्णन है । तात्पर्य यह है कि मन की शिक्षा का अभाव असंस्कारी समाज बनाता है । समाज में आभिजात्य, शील, उत्कृष्टता, श्रेष्ठता, मूल्यनिष्ठा, संस्कारों का अभाव फैल जाता है । व्यक्ति का स्वतः का तो पतन होता है, सम्पूर्ण समाज ही गुणवत्ताहीन बन जाता है ।
 
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०... महाविद्यालय में तो स्थिति अत्यन्त भयावह है । अविनय बहुत मुखर होता है। उनकी प्रत्येक हलचल में उन्माद प्रकट होता है । मजाक, मस्ती, छेडछाड, बाइक सवारी, लड़कों की लडकियों के साथ और लडकियों की लड़कों के साथ दोस्ती, खानापीना, पार्टी, विभिन्न डे मनाने की कल्पनायें यही दुनिया बन जाती है । अध्ययन बहाना है, मजे करना ही मुख्य है । महाविद्यालय है ही इसलिये ऐसा भाव बनता है ।
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०... ये युवक और युवतियाँ परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं लाते ऐसा तो नहीं है परन्तु परीक्षा में अच्छे अंक पाने का अर्थ उनमें ज्ञान है, बुद्धि है, समझ है अथवा विनय है ऐसा नहीं है । परीक्षा में अच्छे अंक, प्रगत अध्ययन में प्रवेश मिलना, पीएचडी, करना, उसके आधार पर अच्छी नौकरी मिलना, अच्छा वेतन मिलना आदि सब यान्त्रिक प्रक्रियायें हैं । उनका मन अच्छा होने या बुद्धि गहरी होने के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मन तो वेसा ही अशिक्षित और असंयमी ही रह जाता है । अब तो वे समाज के अंग हैं, गृहस्थाश्रमी हैं ।
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इनका गृहस्थाश्रम वैसा ही असंयत, छिछला और भौतिकता की चाह रखने वाला ही होता है । कमाई कम हो या अधिक उससे कोई अन्तर नहीं आता । जीवन और जगत की समझ का विकास नहीं होता । पशुता की प्रवृत्ति ही बढती जाती है । पशु तो प्रकृति के नियमन में रहते हैं, असंयत मनुष्य विकृति की ओर ढल जाते हैं ।
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०... यह तो बहुत संक्षिप्त वर्णन है । तात्पर्य यह है कि मन की शिक्षा का अभाव असंस्कारी समाज बनाता है । समाज में आभिजात्य, शील, उत्कृष्टता, श्रेष्ठता, मूल्यनिष्ठा, संस्कारों का अभाव फैल जाता है । व्यक्ति का स्वतः का तो पतन होता है, सम्पूर्ण समाज ही गुणवत्ताहीन बन जाता है ।
      
इसलिये विद्यालयों में मन की शिक्षा का प्रबन्ध करना अत्यन्त आवश्यक है ।
 
इसलिये विद्यालयों में मन की शिक्षा का प्रबन्ध करना अत्यन्त आवश्यक है ।
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