| # हम महाविद्यालय में पढ़ रहे हैं, अब हम स्वतन्त्र हैं, हमें कोई टोक नहीं सकता । वस्त्र परिधान में, खान पान में, मनोरंजन में हमें न किसी का परामर्श चाहिये, न मार्गदर्शन, न निषेध । दस प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढाई को गम्भीरता से लेते हैं, शेष मजे करने के लिये महाविद्यालय में जाते हैं । महाविद्यालय में जाकर कक्षा में नहीं जाना, होटल में जाना, स्कूटर या बाइक पर बैठकर बातें करना, छेडछाड करना आम बात है। महाविद्यालयों के प्रवास कार्यक्रमों में, रंगमंच कार्यक्रमों में, स्वतन्त्रता के नाम पर स्वैरता, उच्छृखलता और स्वच्छन्दता दिखाई देती है । कला के प्रदर्शन में सुरुचि, संस्कारिता और आभिजात्य नहीं दिखाई देते हैं . टीवी कार्यक्रमों, धारावाहिकों तथा फिल्मों का प्रभाव वेशभूषा, केशभूषा, अलंकार, सौन्दर्य प्रसाधन, बोलचाल आदि में दिखाई देता है । देशभक्ति और सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखाई देते । नवरात्रि, ख्रिस्ती नूतनवर्ष, वेलेण्टाइन डे जैसे समारोहों में स्खलनों की कोई सीमा नहीं रहती । हमारे अनुभवी मनीषियों ने कह रखा है - यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वं अविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्यम् ।।अर्थात्त यौवन , धनसम्पत्ति, सत्ता और अविवेक में से एक भी यदि है तो वह अनर्थ का कारण बनता है। जहाँ चारों एकत्र हों तब तो अनर्थ की सीमा ही नहीं रहती । आज के महाविद्यालय के विद्यार्थियों में दो तो होते ही हैं। ये हैं यौवन और दूसरा है अविवेक । ठीक से संगोपन और अध्ययन नहीं होने के कारण से विवेक का विकास नहीं होता है। इसके परिणाम स्वरूप अनर्थों की परम्परा निर्मित होती है। अपने अध्यापकों के प्रति उन्हें आदर नहीं होता। अनुशासनमें रहने की वृत्ति नहीं होती । गम्भीर अध्ययन करने की न इच्छा होती है न क्षमता । उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं । | | # हम महाविद्यालय में पढ़ रहे हैं, अब हम स्वतन्त्र हैं, हमें कोई टोक नहीं सकता । वस्त्र परिधान में, खान पान में, मनोरंजन में हमें न किसी का परामर्श चाहिये, न मार्गदर्शन, न निषेध । दस प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढाई को गम्भीरता से लेते हैं, शेष मजे करने के लिये महाविद्यालय में जाते हैं । महाविद्यालय में जाकर कक्षा में नहीं जाना, होटल में जाना, स्कूटर या बाइक पर बैठकर बातें करना, छेडछाड करना आम बात है। महाविद्यालयों के प्रवास कार्यक्रमों में, रंगमंच कार्यक्रमों में, स्वतन्त्रता के नाम पर स्वैरता, उच्छृखलता और स्वच्छन्दता दिखाई देती है । कला के प्रदर्शन में सुरुचि, संस्कारिता और आभिजात्य नहीं दिखाई देते हैं . टीवी कार्यक्रमों, धारावाहिकों तथा फिल्मों का प्रभाव वेशभूषा, केशभूषा, अलंकार, सौन्दर्य प्रसाधन, बोलचाल आदि में दिखाई देता है । देशभक्ति और सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखाई देते । नवरात्रि, ख्रिस्ती नूतनवर्ष, वेलेण्टाइन डे जैसे समारोहों में स्खलनों की कोई सीमा नहीं रहती । हमारे अनुभवी मनीषियों ने कह रखा है - यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वं अविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्यम् ।।अर्थात्त यौवन , धनसम्पत्ति, सत्ता और अविवेक में से एक भी यदि है तो वह अनर्थ का कारण बनता है। जहाँ चारों एकत्र हों तब तो अनर्थ की सीमा ही नहीं रहती । आज के महाविद्यालय के विद्यार्थियों में दो तो होते ही हैं। ये हैं यौवन और दूसरा है अविवेक । ठीक से संगोपन और अध्ययन नहीं होने के कारण से विवेक का विकास नहीं होता है। इसके परिणाम स्वरूप अनर्थों की परम्परा निर्मित होती है। अपने अध्यापकों के प्रति उन्हें आदर नहीं होता। अनुशासनमें रहने की वृत्ति नहीं होती । गम्भीर अध्ययन करने की न इच्छा होती है न क्षमता । उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं । |
| # जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढ़ता है अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है। अर्थार्जन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है। साथ ही मजे करने की वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लडके नौकरी और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं । उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्त्व अधिक होता है। जितना अधिक पढती हैं और अधिक कमाई करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती जाती है। लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है। लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है। जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है। अपने विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्त्व होता है । | | # जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढ़ता है अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है। अर्थार्जन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है। साथ ही मजे करने की वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लडके नौकरी और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं । उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्त्व अधिक होता है। जितना अधिक पढती हैं और अधिक कमाई करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती जाती है। लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है। लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है। जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है। अपने विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्त्व होता है । |
− | # एक स्थिति का स्मरण आता है। घटना कुछ पुरानी है। दिल्ली से अहमदाबाद आनेवाली रेल में एक डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर दो युवतियाँ बैठी थीं। चौबीस घण्टे के सफर में सोने के लिये आठ घण्टे, खाने पीने का सामान लेने के लिये एकाध घण्टा और शौचालय में जाने हेतु एकाध घण्टा नीचे उतरीं । शेष समय वे एकदूसरी के साथ बातें ही कर रही थीं। नीचे लोग बातें कर रहे थे । १९९२ का वर्ष था और बाबरी ढाँचा गिरकर एकाध सप्ताह ही बीता था। रेल में अनपढ, ग्रामीण, थोडे पढे लिखे, महिला पुरुष सब बाबरी ध्वंस और राममन्दिर की ही चर्चा कर रहे थे. वातावरण में गर्मी, जोश. उत्तेजना आदि सब थे | + | # एक स्थिति का स्मरण आता है। घटना कुछ पुरानी है। दिल्ली से अहमदाबाद आनेवाली रेल में एक डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर दो युवतियाँ बैठी थीं। चौबीस घण्टे के सफर में सोने के लिये आठ घण्टे, खाने पीने का सामान लेने के लिये एकाध घण्टा और शौचालय में जाने हेतु एकाध घण्टा नीचे उतरीं । शेष समय वे एकदूसरी के साथ बातें ही कर रही थीं। नीचे लोग बातें कर रहे थे । १९९२ का वर्ष था और बाबरी ढाँचा गिरकर एकाध सप्ताह ही बीता था। रेल में अनपढ, ग्रामीण, थोडे पढे लिखे, महिला पुरुष सब बाबरी ध्वंस और राममन्दिर की ही चर्चा कर रहे थे. वातावरण में गर्मी, जोश. उत्तेजना आदि सब थे परन्तु अहमदाबाद की ये दो युवतियाँ सबसे बेखबर अपनीही बातों में मस्त थीं। उनकी बातें होटेल, फैशन और बॉयफ्रेण्ड तक ही सीमित थीं। न उन्हें नीचे वालों की सुध थी, न कोलाहल की, न बाबरी की न राममन्दिर की।ये दोनों मेडिकल कोलेज के अन्तिम वर्ष में अध्ययन कर रही थीं, एक वर्ष के बाद डॉक्टर बनने वाली थी, समाज के बौद्धिक वर्ग की सदस्य बननेवाली थी, किसी कार्यक्रम में मंच पर अतिथि विशेष या अध्यक्ष बनने वाली थीं। समाज के शिक्षित वर्ग का यह प्रातिनिधिक उदाहरण है। |
| + | परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं जानेवाला है तो पढने की कोई आवश्यकता नहीं । गीता, ज्ञानेश्वरी, नरसिंह महेता, तुलसीदास, कबीर, मीरा या सूरदास की रचनायें परीक्षा के सन्दर्भ में ही पठनीय हैं, परीक्षा के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती हैं, भक्ति या तत्त्वज्ञान का कोई महत्त्व नहीं है, रुचि का तो कोई प्रश्न ही नहीं ऐसी शिक्षकों की भी मानसिकता होती हैं । दस अंकों की ज्ञानेश्वरी, पचास अंकों की गीता, एक प्रश्नपत्र के कालीदास या भवभूति होते हैं । परीक्षा के परे उनका कोई महत्त्व नहीं । |