Line 1: |
Line 1: |
| + | {{One source}} |
| + | |
| ==अध्याय ७== | | ==अध्याय ७== |
| | | |
Line 384: |
Line 386: |
| की घोर उपेक्षा हो रही है । ये सब पढने लायक विषय नहीं हैं। भाषा और साहित्य की ओर भी सुझान नहीं है। भाषाशुद्धि का आग्रह समाप्त हो गया है । इसका परिणाम यह होता है कि सामाजिकता, सभ्यता, शिष्टता, संस्कारिता, सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, मानवीय गुण आदि की शिक्षा नहीं मिलती है । मनुष्य एक यान्त्रिक, पशुतुल्य, आर्थिक प्राणी बनकर रह जाता है । यान्त्रिक शिष्टाचार और सभ्यता विकसित होती है । मानवीय सम्बन्धों को स्वार्थ की प्रेरणा होती है । अर्थात् व्यक्ति अपने सुख का विचार कर दूसरों से सम्बन्ध बनाता है । अपने लिये भी वह हित का नहीं, सुख का ही विचार करता है । भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को ही पुरुषार्थ मानता है, शिक्षा का प्रयोजन भी वही है और वह प्राप्त कर सकने को यश मानता है । अधिक से अधिकतर की ओर गति को ही विकास मानता है और उसे ऐसा विकास ही चाहिये । | | की घोर उपेक्षा हो रही है । ये सब पढने लायक विषय नहीं हैं। भाषा और साहित्य की ओर भी सुझान नहीं है। भाषाशुद्धि का आग्रह समाप्त हो गया है । इसका परिणाम यह होता है कि सामाजिकता, सभ्यता, शिष्टता, संस्कारिता, सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, मानवीय गुण आदि की शिक्षा नहीं मिलती है । मनुष्य एक यान्त्रिक, पशुतुल्य, आर्थिक प्राणी बनकर रह जाता है । यान्त्रिक शिष्टाचार और सभ्यता विकसित होती है । मानवीय सम्बन्धों को स्वार्थ की प्रेरणा होती है । अर्थात् व्यक्ति अपने सुख का विचार कर दूसरों से सम्बन्ध बनाता है । अपने लिये भी वह हित का नहीं, सुख का ही विचार करता है । भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को ही पुरुषार्थ मानता है, शिक्षा का प्रयोजन भी वही है और वह प्राप्त कर सकने को यश मानता है । अधिक से अधिकतर की ओर गति को ही विकास मानता है और उसे ऐसा विकास ही चाहिये । |
| | | |
− | ७. वैश्विकता का आकर्षण | + | ===७. वैश्विकता का आकर्षण=== |
− | | |
| शिक्षा अब स्वतः प्रमाण नहीं रही है । अर्थात् शिक्षा | | शिक्षा अब स्वतः प्रमाण नहीं रही है । अर्थात् शिक्षा |
| अपने आपको अपने ही बल पर प्रमाणित नहीं करती | | | अपने आपको अपने ही बल पर प्रमाणित नहीं करती | |
| | | |
− | १०५
| + | व्यक्ति की भाषा, व्यक्ति का व्यवहार, व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके शिक्षित होने का प्रमाण है। व्यक्ति के संस्कार, सद्गुण और सत्कार्य उसके शिक्षित होने का प्रमाण है । लिखित प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती है । किसी और ने प्रमाणित करने की बाध्यता नहीं होती । परन्तु हमने इन स्वाभाविक प्रमाणपत्रों के स्थान पर कृत्रिम और औपचारिक प्रमाणों की व्यवस्था की । सच्ची शिक्षा से विमुख होने का यह प्रारम्भ हुआ । इस व्यवस लिये संस्था और प्रक्रिया दोनों की आवश्यकता थी | इसलिये परीक्षा नामक प्रक्रिया और प्रमाणित करने वाला बोर्ड नामक संस्था बनी । |
− | | |
− |
| |
− |
| |
− |
| |
| | | |
− | व्यक्ति की भाषा, व्यक्ति का व्यवहार,
| + | अब हमें शिक्षा से प्राप्त ज्ञान की नहीं अपितु परीक्षा के परिणाम स्वरूप मिलने वाले प्रमाणपत्र की आवश्यकता है क्योंकि नौकरी उससे मिलती है । ज्ञान की ही परीक्षा होती है और उसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रमाणपत्र मिलेगा यह |
− | व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके शिक्षित होने का प्रमाण है।
| |
− | व्यक्ति के संस्कार, सद्गुण और सत्कार्य उसके शिक्षित होने
| |
− | का प्रमाण है । लिखित प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं
| |
− | होती है । किसी और ने प्रमाणित करने की बाध्यता नहीं
| |
− | होती । परन्तु हमने इन स्वाभाविक प्रमाणपत्रों के स्थान पर
| |
− | कृत्रिम और औपचारिक प्रमाणों की व्यवस्था की । सच्ची
| |
− | शिक्षा से विमुख होने का यह प्रारम्भ हुआ । इस व्यवस्था
| |
− | के लिये संस्था और प्रक्रिया दोनों की आवश्यकता eft |
| |
− | इसलिये परीक्षा नामक प्रक्रिया और प्रमाणित करने वाला
| |
− | बोर्ड नामक संस्था बनी ।
| |
− | | |
− | अब हमें शिक्षा से प्राप्त ज्ञान की नहीं अपितु परीक्षा | |
− | के परिणाम स्वरूप मिलने वाले प्रमाणपत्र की आवश्यकता | |
− | है क्योंकि नौकरी उससे मिलती है । ज्ञान की ही परीक्षा | |
− | होती है और उसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रमाणपत्र मिलेगा यह | |
| स्वाभाविक क्रम है परन्तु यह सम्बन्ध विच्छेद कब हो गया | | स्वाभाविक क्रम है परन्तु यह सम्बन्ध विच्छेद कब हो गया |
− | इसका पता भी नहीं चला और वह हो गया । प्रमाणपत्र के | + | इसका पता भी नहीं चला और वह हो गया । प्रमाणपत्र के बिना भी ज्ञान होता है इसका भी विस्मरण हो गया । |
− | बिना भी ज्ञान होता है इसका भी विस्मरण हो गया । | |
| | | |
| इसे प्रमाणित करने वाली भी विविध प्रकार की | | इसे प्रमाणित करने वाली भी विविध प्रकार की |
Line 419: |
Line 400: |
| और आर्न्तर्रष्ट्रीय होती हैं । | | और आर्न्तर्रष्ट्रीय होती हैं । |
| | | |
− | अब विकास की दौड में सब को अन्तरराष्ट्रीय संस्था | + | अब विकास की दौड में सब को अन्तरराष्ट्रीय संस्था का आकर्षण हो गया है। सब को लगता है कि आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड का प्रमाणपत्र अधिक प्रतिष्ठित है । अब ज्ञान, संस्कार, चरित्र, सामाजिकता, मानवीयता आदि अर्थहीन और अप्रासंगिक बातें हो गई हैं । वैश्विकता ही विकास है । |
− | का आकर्षण हो गया है। सब को लगता है कि | |
− | आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड का प्रमाणपत्र अधिक प्रतिष्ठित है । अब | |
− | ज्ञान, संस्कार, चरित्र, सामाजिकता, मानवीयता आदि | |
− | अर्थहीन और अप्रासंगिक बातें हो गई हैं । वैश्विकता ही | |
− | विकास है । | |
| | | |
− | यह कोई उचित दिशा नहीं है । इस विषय में प्रबोधन | + | यह कोई उचित दिशा नहीं है । इस विषय में प्रबोधन की आवश्यकता है । |
− | की आवश्यकता है । | |
− | | |
− | ८. जीवनविषयक दृष्टि की विपरीतता
| |
| | | |
| + | ===८. जीवनविषयक दृष्टि की विपरीतता=== |
| जीवन को भौतिकता की दृष्टि से ही देखने का | | जीवन को भौतिकता की दृष्टि से ही देखने का |
− | प्रभाव शिक्षा पर पड रहा है । ऐसे दृष्टिकोण का बढ़ना | + | प्रभाव शिक्षा पर पड रहा है । ऐसे दृष्टिकोण का बढ़ना और सार्वत्रिक होना शिक्षा का ही परिणाम है। परन्तु अब उससे निपटना और उसमें बदल करना केवल शिक्षाक्षेत्र के बस की बात नहीं रही । अभिभावकों के सहयोग के बिना यह कार्य होना असम्भव |
− | और सार्वत्रिक होना शिक्षा का ही परिणाम है। परन्तु | + | है । इस दृष्टि से शिक्षा, जीवन, संस्कृति आदि विषयों को लेकर अभिभावक प्रबोधन की व्यापक योजना होने की आवश्यकता है । वर्तमान स्थिति ऐसी है कि अभिभावक विद्यालय के अनुकूल नहीं बनते विद्यालय अभिभावकों के अनुकूल हो ऐसा मानस अभिभावक रखते हैं । विद्यालय कभी मजबूरी में और कभी स्वाभाविक रूप में इस भूमिका को स्वीकार करते हैं क्योंकि बाजार का दृष्टिकोण सर्वत्र प्रतिष्ठित हो गया है जहाँ अभिभावक ग्राहक हैं और विद्यालय शिक्षा को बेचने वाले हैं । ग्राहकों के अनुकूल होना व्यापारी का धर्म होता है । |
− | अब उससे निपटना और उसमें बदल करना केवल | |
− | �
| |
| | | |
− | ............. page-122 .............
| + | इन विषयों की शैक्षिक दृष्टि से विस्तारपूर्वक चर्चा अन्यत्र स्वतन्त्र रूप से की गई है। यहाँ उसकी आवश्यकता नहीं । यहाँ अभिभावक प्रबोधन के विषय |
| + | कौन से हैं और उनकी योजना कैसे करना इसका विचार किया है । |
| | | |
− |
| + | यहाँ जिन विषयों का उल्लेख हुआ हैं उनको ठीक करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है क्योंकि ये देशव्यापी हैं, अत्यन्त प्रभावी रूप से पकड जमाये हुए हैं । सम्पूर्ण समाज कहीं न कहीं अभिभावक के रूप में ही व्यवहार करता है । सरकार भी इसका ही एक अंग है । बाजार ने इस पर पकड जमाई है । विज्ञापन मानस को प्रभावित करते हैं । |
− |
| |
− |
| |
| | | |
− | शिक्षाक्षेत्र के बस की बात नहीं रही ।
| + | परन्तु विषय गम्भीर है। जीवन की सर्वप्रकार की गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है । मनुष्यजीवन और पशुजीवन में जो अन्तर होता है वही समाप्त होता जा रहा है । इतना ही क्यों, पशु तो फिर भी प्राकृतिक जीवन जीते हैं और अनेक प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं । मनुष्य सुसंस्कृत जीवन व्यतीत करे ऐसी उससे अपेक्षा होती है परन्तु संस्कृति के शिखर से च्युत होने पर वह प्राकृत नहीं होता, विकृति के गर्त में गिरता है । मनुष्य जीवन को अपने ही द्वारा निर्मित समस्याओं के परिणाम स्वरूप विकृत हो |
− | अभिभावकों के सहयोग के बिना यह कार्य होना असम्भव
| + | जाने की स्थिति आज निर्माण हुई है । शिक्षा को लेकर अभिभावक प्रबोधन का प्रयोजन शिक्षा को और शिक्षा क माध्यम से मनुष्यजीवन को विकृति से बचाना है, विकृति के गर्त से बाहर लाना है। परिवार अभिभावक के लिये पर्यायबाची संज्ञा है अतः हम अभिभावक प्रबोधन को |
− | है । इस दृष्टि से शिक्षा, जीवन, संस्कृति आदि विषयों को | + | परिवार प्रबोधन ही कहेंगे । |
− | लेकर अभिभावक प्रबोधन की व्यापक योजना होने की
| |
− | आवश्यकता है । वर्तमान स्थिति ऐसी है कि अभिभावक
| |
− | विद्यालय के अनुकूल नहीं बनते विद्यालय अभिभावकों के
| |
− | अनुकूल हो ऐसा मानस अभिभावक रखते हैं । विद्यालय
| |
− | कभी मजबूरी में और कभी स्वाभाविक रूप में इस भूमिका
| |
− | को स्वीकार करते हैं क्योंकि बाजार का दृष्टिकोण सर्वत्र | |
− | प्रतिष्ठित हो गया है जहाँ अभिभावक ग्राहक हैं और
| |
− | विद्यालय शिक्षा को बेचने वाले हैं । ग्राहकों के अनुकूल
| |
− | होना व्यापारी का धर्म होता है ।
| |
| | | |
− | इन विषयों की शैक्षिक दृष्टि से विस्तारपूर्वक चर्चा
| + | परिवार प्रबोधन की योजना का पहला अंग है परिवार प्रबोधन का पाठ्यक्रम तैयार करना जिसके आधार पर आगे |
− | aa स्वतन्त्र रूप से की गई है। यहाँ उसकी
| + | की योजना बनेगी । पाठ्यक्रम के विषय कुछ इस प्रकार हो सकते हैं... |
− | आवश्यकता नहीं । यहाँ अभिभावक प्रबोधन के विषय
| + | # परिवार का अर्थ, परिवार का महत्त्व, सामाजिक, सांस्कृतिक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य |
− | कौन से हैं और उनकी योजना कैसे करना इसका विचार
| + | # परिवार की रचना, परिवार भावना एवं परिवार व्यवस्था |
− | किया है ।
| + | # परिवार में शिक्षा और परिवार की शिक्षा |
| + | # वसुधैव कुट्म्बकम् |
| + | # भारतीय परिवार की विशेषता |
| + | # परिवार की भारतीय और पश्चिमी संकल्पना की तुलना |
| + | # परिवार एक विद्यालय |
| + | ये तो एक भूमिका बनाने के अधारभूत विषय हैं । इसके बाद व्यावहारिक विषयों की सूची बन सकती है । |
| | | |
− | यहाँ जिन विषयों का उल्लेख हुआ हैं उनको ठीक
| |
− | करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है क्योंकि ये
| |
− | देशव्यापी हैं, अत्यन्त प्रभावी रूप से पकड जमाये हुए हैं ।
| |
− | सम्पूर्ण समाज कहीं न कहीं अभिभावक के रूप में ही
| |
− | व्यवहार करता है । सरकार भी इसका ही एक अंग है ।
| |
− | बाजार ने इस पर पकड जमाई है । विज्ञापन मानस को
| |
− | प्रभावित करते हैं ।
| |
− |
| |
− | परन्तु विषय गम्भीर है। जीवन की सर्वप्रकार की
| |
− | गुणवत्ता HI SM हो रहा है । मनुष्यजीवन और पशुजीवन
| |
− | में जो अन्तर होता है वही समाप्त होता जा रहा है । इतना
| |
− | ही क्यों, पशु तो फिर भी प्राकृतिक जीवन जीते हैं और
| |
− | अनेक प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं । मनुष्य
| |
− | सुसंस्कृत जीवन व्यतीत करे ऐसी उससे अपेक्षा होती है
| |
− | परन्तु संस्कृति के शिखर से च्युत होने पर वह प्राकृत नहीं
| |
− | होता, विकृति के गर्त में गिरता है । मनुष्य जीवन को अपने
| |
− | ही द्वारा निर्मित समस्याओं के परिणाम स्वरूप विकृत हो
| |
− | जाने की स्थिति आज निर्माण हुई है । शिक्षा को लेकर
| |
− |
| |
− | fog
| |
− |
| |
− | भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
| |
− |
| |
− |
| |
− |
| |
− | अभिभावक प्रबोधन का प्रयोजन शिक्षा को और शिक्षा के
| |
− | माध्यम से मनुष्यजीवन को विकृति से बचाना है, विकृति के
| |
− | गर्त से बाहर लाना है। परिवार अभिभावक के लिये
| |
− | पर्यायबाची संज्ञा है अतः हम अभिभावक प्रबोधन को
| |
− | परिवार प्रबोधन ही कहेंगे ।
| |
− | परिवार प्रबोधन की योजना का पहला अंग है परिवार
| |
− | प्रबोधन का पाठ्यक्रम तैयार करना जिसके आधार पर आगे
| |
− | की योजना बनेगी । पाठ्यक्रम के विषय कुछ इस प्रकार हो
| |
− | सकते हैं...
| |
− | (१) परिवार का अर्थ, परिवार का महत्त्व, सामाजिक,
| |
− | सांस्कृतिक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
| |
− | (2) परिवार की रचना, परिवार भावना एवं परिवार
| |
− | व्यवस्था
| |
− | (३) परिवार में शिक्षा और परिवार की शिक्षा
| |
− | (४) वसुधैव कुट्म्बकम्
| |
− | (५) भारतीय परिवार की विशेषता
| |
− | (६) परिवार की भारतीय और पश्चिमी संकल्पना की तुलना
| |
− | (७) परिवार एक विद्यालय
| |
− | ये तो एक भूमिका बनाने के अधारभूत विषय हैं ।
| |
− | इसके बाद व्यावहारिक विषयों की सूची बन सकती है ।
| |
| परिवार रचना हेतु आवश्यक विषय | | परिवार रचना हेतु आवश्यक विषय |
− | वरवधूचयन और विवाहसंस्कार
| |
− | समर्थ राष्ट्र हेतु समर्थ बालक को जन्म देने वाले समर्थ
| |
− | मातापिता बनने की शिक्षा
| |
− | शिशुसंगोपन और शिशुसंस्कार
| |
− | संस्कार विचार
| |
− | मातापिता और सन्तान का आपसी व्यवहार
| |
− | परिवार में सन्तानों की शिक्षा
| |
− | परिवार में विद्यार्थी जीवन और वानप्रस्थ जीवन
| |
− | दादादादी कैसे बनें
| |
− | परिवार और कुलपरम्परा
| |
− |
| |
− | 28S & दी 7 2६ 2
| |
− | �
| |
− |
| |
− | ............. page-123 .............
| |
| | | |
− | पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
| + | #वरवधूचयन और विवाहसंस्कार |
| + | #समर्थ राष्ट्र हेतु समर्थ बालक को जन्म देने वाले समर्थ मातापिता बनने की शिक्षा |
| + | #शिशुसंगोपन और शिशुसंस्कार |
| + | #संस्कार विचार |
| + | #मातापिता और सन्तान का आपसी व्यवहार |
| + | #परिवार में सन्तानों की शिक्षा |
| + | #परिवार में विद्यार्थी जीवन और वानप्रस्थ जीवन |
| + | #दादादादी कैसे बनें |
| + | #परिवार और कुलपरम्परा |
| | | |
| परिवार और समाज के अन्तर्सम्बन्ध के विषय | | परिवार और समाज के अन्तर्सम्बन्ध के विषय |
− | गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म
| |
| | | |
− | परिवार और राष्ट्र, धर्म, संस्कृति | + | #गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म |
| + | #परिवार और राष्ट्र, धर्म, संस्कृति |
| + | #परिवार एक आर्थिक इकाई |
| + | #परिवार और पर्यावरण |
| + | #इष्टदेवता, कुलदेवता, ग्रामदेवता, राष्ट्रदेवता |
| | | |
− | परिवार एक आर्थिक इकाई | + | परिवार संचालन हेतु उपयोगी विषय : ये विषय सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों आयामों में होंगे । |
| | | |
− | परिवार और पर्यावरण
| + | # आहारशास्त्र जिसमें भोजन बनाना, करना और करवाना, भोजनसामग्री की शुद्धता की परख आदि बातों का समावेश होगा । |
| + | # शुश्रूषा और परिचर्या करना जिसमें बच्चों की, वृद्धों की अतिथि की, बडों की और रुण्णों की परिचर्या और शुश्रूषा का समावेश होगा । |
| + | # गृहोपयोगी कार्य जिसमें कपडे, बर्तन, फर्नीचर, धान्य आदि अनेक बातों की सफाई का समावेश होगा । |
| + | # इन्हीं के साथ पूजा, अतिथिसत्कार, ब्रतों, vat, उत्सवों, त्योहारों आदि को मनाना, दान-यज्ञ आदि करना, ब्रत-उपवास आदि करना इन सब का समावेश होगा । |
| + | # अथर्जिन की क्षमता का विकास |
| + | # अधिजननशास्त्र |
| | | |
− | Fx wwe
| + | === परिवार और शिक्षा === |
| | | |
− | इष्टदेवता, कुलदेवता, ग्रामदेवता, राष्ट्रदेवता
| + | # शिक्षा का अर्थ और स्वरूप |
| + | # अपनी सन्तान हेतु कौनसी शिक्षा उचित है यह कैसे तय को |
| + | # शिक्षा का प्रयोजन, शिक्षा कैसे होती है |
| + | # भारतीय शिक्षा और पाश्चात्य शिक्षा की तुलना |
| + | # शिक्षित व्यक्ति के लक्षण |
| + | # राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप |
| + | # विद्यालय के प्रति परिवार का दायित्व : विद्यालय के साथ अनुकूलन, विद्यालय को सहयोग और विद्यालय का पोषण |
| + | # शास्त्रों की शिक्षा |
| + | # परिवर ट्वारा विद्यालय की सेवा : स्वरूप और पद्धति |
| | | |
− | परिवार संचालन हेतु उपयोगी विषय : a विषय
| + | इस पाठ्यक्रम में और भी विषय हो सकते हैं। आवश्यकता और सम्भावना के आधार पर अपनी अपनी सूची बनाई जा सकती है । |
− | सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों आयामों में होंगे ।
| |
| | | |
− | १... आहारशास्त्र जिसमें भोजन बनाना, करना और
| + | पाठ्यक्रम निर्माण करने के बाद सामग्री की |
− | करवाना, भोजनसामग्री की शुद्धता की परख आदि
| + | आवश्यकता रहेगी । विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अध्ययन कर अनेक प्रकार की सामग्री तैयार करनी चाहिये । जैसे कि |
− | बातों का समावेश होगा ।
| |
| | | |
− | २... शुश्रूषा और परिचर्या करना जिसमें बच्चों की, वृद्धों
| + | 1. पुस्तकें : छोटी छोटी पुस्तिकाओं से लेकर बडे ग्रन्थ |
− | की अतिथि की, बडों की और रुण्णों की परिचर्या
| |
− | और शुश्रूषा का समावेश होगा ।
| |
| | | |
− | ३... गृहोपयोगी कार्य जिसमें कपडे, बर्तन, फर्नीचर, धान्य
| + | 2. चित्र और आलेखों की प्रदर्शनी |
− | आदि अनेक बातों की सफाई का समावेश होगा ।
| |
| | | |
− | ४. इन्हीं के साथ पूजा, अतिथिसत्कार, ब्रतों, vat,
| + | 3. दृश्यश्राव्य सामग्री : सी.डी., फिल्म आदि |
− | उत्सवों, त्योहारों आदि को मनाना, दान-यज्ञ आदि
| |
− | करना, ब्रत-उपवास आदि करना इन सब का समावेश
| |
− | होगा ।
| |
| | | |
− | ५... अथर्जिन की क्षमता का विकास
| + | 4. कहानी, गीतों, प्रेरक घटनाओं का संग्रह |
| | | |
− | ६... अधिजननशास्त्र
| + | 5. खिलौने, वस्त्र, खाद्य पदार्थ, सुशोभन सामग्री, पात्रसंग्रह, स्वच्छता का सामान आदि का संग्रहालय तथा प्रदर्शनी |
| | | |
− | परिवार और शिक्षा
| + | 6. नुक्कड नाटकों के लिये छोटे छोटे नाटक |
| | | |
− | g. शिक्षा का अर्थ और स्वरूप
| + | 7. सभा सम्मेलनों के लिये भाषण, गीत आदि |
| | | |
− | २... अपनी सन्तान हेतु कौनसी शिक्षा उचित है यह कैसे
| + | 8. रेलियों के लिये गीत, फलक, नारे, सूत्र आदि |
− | तय को
| |
| | | |
− | शिक्षा का प्रयोजन, शिक्षा कैसे होती है
| + | 9. वॉट्सएप, फेसबुक आदि के लिये विडियो क्लीप्स, सन्देश, चित्र आदि |
| | | |
− | भारतीय शिक्षा और पाश्चात्य शिक्षा की तुलना
| + | 10. विद्यास्भ संस्कार, जन्मदिनोत्सव आदि मनाने में |
− | शिक्षित व्यक्ति के लक्षण
| |
− | | |
− | राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप
| |
− | | |
− | oem £ KX w
| |
− | | |
− | विद्यालय के प्रति परिवार का दायित्व : विद्यालय के
| |
− | | |
− |
| |
− |
| |
− |
| |
− | | |
− | साथ अनुकूलन, विद्यालय को
| |
− | सहयोग और विद्यालय का पोषण
| |
− | | |
− | ८. शास्त्रों की शिक्षा
| |
− | ९... परिवर ट्वारा विद्यालय की सेवा : स्वरूप और पद्धति
| |
− | | |
− | इस पाठ्यक्रम में और भी विषय हो सकते हैं।
| |
− | आवश्यकता और सम्भावना के आधार पर अपनी अपनी
| |
− | सूची बनाई जा सकती है ।
| |
− | | |
− | पाठ्यक्रम निर्माण करने के बाद सामग्री की
| |
− | आवश्यकता रहेगी । विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अध्ययन कर
| |
− | अनेक प्रकार की सामग्री तैयार करनी चाहिये । जैसे कि
| |
− | १, पुस्तकें : छोटी छोटी पुस्तिकाओं से लेकर बडे ग्रन्थ
| |
− | चित्र और आलेखों की प्रदर्शनी
| |
− | दृश्यश्राव्य सामग्री : सी.डी., फिल्म आदि
| |
− | कहानी, गीतों, प्रेरक घटनाओं का संग्रह
| |
− | खिलौने, वस्त्र, खाद्य पदार्थ, सुशोभन सामग्री,
| |
− | पात्रसंग्रह, स्वच्छता का सामान आदि का संग्रहालय
| |
− | तथा प्रदर्शनी
| |
− | नुक्कड नाटकों के लिये छोटे छोटे नाटक
| |
− | सभा सम्मेलनों के लिये भाषण, गीत आदि
| |
− | रेलियों के लिये गीत, फलक, नारे, सूत्र आदि
| |
− | वॉट्सएप, फेसबुक आदि के लिये विडियो क्लीप्स,
| |
− | सन्देश, चित्र आदि
| |
− | १०, विद्यास्भ संस्कार, जन्मदिनोत्सव आदि मनाने में
| |
| मार्गदर्शक सामग्री | | मार्गदर्शक सामग्री |
| | | |
− | ३. इन्हें सिखाने की योजना करना तथा पढ़ाने की | + | ३. इन्हें सिखाने की योजना करना तथा पढ़ाने की योजना करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है... |
− | योजना करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । इस दृष्टि से कुछ इस | |
− | प्रकार से विचार किया जा सकता है | |
− | | |
− | fx ww
| |
− | | |
− | #? 6 & =
| |
| | | |
| १, शिक्षा के सर्व स्तरों पर सामान्य पाठ्यक्रम के | | १, शिक्षा के सर्व स्तरों पर सामान्य पाठ्यक्रम के |
| अन्तर्गत इन विषयों का समावेश करना । | | अन्तर्गत इन विषयों का समावेश करना । |
| | | |
− | २... विद्यालय में जिस प्रकार प्राथमिक, माध्यमिक आदि | + | २. विद्यालय में जिस प्रकार प्राथमिक, माध्यमिक आदि |
| विभाग होते हैं उस प्रकार परिवार शिक्षा विभाग हो | | विभाग होते हैं उस प्रकार परिवार शिक्षा विभाग हो |
| सकता है । | | सकता है । |
− | �
| |
− |
| |
− | ............. page-124 .............
| |
| | | |
− |
| + | ३. इन विषयों को सिखाने के लिये |
− |
| |
− |
| |
− | | |
− | ३... इन विषयों को सिखाने के लिये | |
| शिक्षक तैयार करने हेतु शिक्षक शिक्षा भी शुरू करनी | | शिक्षक तैयार करने हेतु शिक्षक शिक्षा भी शुरू करनी |
| होगी । | | होगी । |
| | | |
− | ¥. विश्वविद्यालयों में गृहशास्तर, अधिजननशास््र जैसे
| + | ४. विश्वविद्यालयों में गृहशास्तर, अधिजननशास््र जैसे |
| विषय शुरू किये जा सकते हैं । | | विषय शुरू किये जा सकते हैं । |
| | | |
− | G. विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक संस्था एवं संगठनों में
| + | ५. विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक संस्था एवं संगठनों में |
| छोटे छोटे पाठ्यक्रम, व्याख्यानमाला, कार्यशाला | | छोटे छोटे पाठ्यक्रम, व्याख्यानमाला, कार्यशाला |
| आदि की योजना हो सकती है । | | आदि की योजना हो सकती है । |
Line 648: |
Line 519: |
| सामग्री के वितरण की योजना बन सकती है । | | सामग्री के वितरण की योजना बन सकती है । |
| | | |
− | yo. विद्यालय तथा अन्य संस्थायें प्रभातफेरियों, नुक्कड,
| + | ७. विद्यालय तथा अन्य संस्थायें प्रभातफेरियों, नुक्कड, |
| नाटकों, रेलियों का आयोजन कर सकते हैं । | | नाटकों, रेलियों का आयोजन कर सकते हैं । |
| | | |
− | ८... कीर्तनकारों और कथाकारों को इन विषयों को अपनी | + | ८. कीर्तनकारों और कथाकारों को इन विषयों को अपनी कथाओं के माध्यम से समाज तक पहुँचाने हेतु निवेदन किया जा सकता है । |
| | | |
− | कथाओं के माध्यम से समाज तक पहुँचाने हेतु
| + | ९. धारावाहिकों और फिल्मों को इन विषयों को चुनने |
− | | |
− |
| |
− | | |
− | भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
| |
− | | |
− | निवेदन किया जा सकता है ।
| |
− | | |
− | धारावाहिकों और फिल्मों को इन विषयों को चुनने | |
| का निवेदन भी किया जा सकता है । | | का निवेदन भी किया जा सकता है । |
| | | |
− | अन्तर्जाल का माध्यम भी इस विषय के प्रसार हेतु | + | १०. अन्तर्जाल का माध्यम भी इस विषय के प्रसार हेतु |
| उपयोग में आ सकता है । | | उपयोग में आ सकता है । |
| | | |
− | गृहविद्यापीठ की रचना भी होनी चाहिये । | + | ११. गृहविद्यापीठ की रचना भी होनी चाहिये । |
| + | |
| + | सामाजिकता की पर्यायोगिक शिक्षा |
| | | |
| किसी भी हालत में यह विषय सरकारी मान्यता, | | किसी भी हालत में यह विषय सरकारी मान्यता, |
Line 681: |
Line 546: |
| 8. | | 8. |
| | | |
− | सामाजिकता की प्रायोगिक शिक्षा | + | === सामाजिकता की प्रायोगिक शिक्षा === |
− | | |
− | सामाजिकता क्या है ?
| |
| | | |
| + | ==== सामाजिकता क्या है ? ==== |
| मनुष्य समाज में रहता है । समाज मनुष्य का ही होता | | मनुष्य समाज में रहता है । समाज मनुष्य का ही होता |
| है । मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों का तो केवल समूह | | है । मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों का तो केवल समूह |
Line 721: |
Line 585: |
| विकास करने हेतु सावधानीपूर्वक अनेक प्रकार से योजना | | विकास करने हेतु सावधानीपूर्वक अनेक प्रकार से योजना |
| करनी चाहिये । | | करनी चाहिये । |
− | �
| |
− |
| |
− | ............. page-125 .............
| |
− |
| |
− | पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
| |
− |
| |
− | १, देना और बॉाँट कर उपभोग करना
| |
| | | |
| + | ==== १, देना और बॉाँट कर उपभोग करना ==== |
| शिशु और प्रारम्भिक बाल अवस्था में इन गुणों के | | शिशु और प्रारम्भिक बाल अवस्था में इन गुणों के |
| संस्कार होना आवश्यक है। इस दृष्टि से गीत, खेल, | | संस्कार होना आवश्यक है। इस दृष्टि से गीत, खेल, |
Line 741: |
Line 599: |
| चलाने के कार्यों में विकसित होते हैं । | | चलाने के कार्यों में विकसित होते हैं । |
| | | |
− | २. सत्कारपूर्वक देना | + | ==== २. सत्कारपूर्वक देना ==== |
− | | |
| दूसरों को देते समय मेरे से अधिक और मेरे से अच्छी | | दूसरों को देते समय मेरे से अधिक और मेरे से अच्छी |
| वस्तु देना ही प्रेम और सम्मान का लक्षण है । मेरे पास दो | | वस्तु देना ही प्रेम और सम्मान का लक्षण है । मेरे पास दो |
Line 760: |
Line 617: |
| से अधिक देने की और देकर खुश होने की वृत्ति का | | से अधिक देने की और देकर खुश होने की वृत्ति का |
| विकास करना चाहिये । | | विकास करना चाहिये । |
− | ३. भेदों को नहीं मानना
| |
| | | |
| + | ==== ३. भेदों को नहीं मानना ==== |
| सबका स्वीकार करना असंस्कृत समाज धन, बल, | | सबका स्वीकार करना असंस्कृत समाज धन, बल, |
− | सत्ता, वर्ण, जाति आदि के भेदों से एकदूसरे को ऊँचा और | + | सत्ता, वर्ण, जाति आदि के भेदों से एकदूसरे को ऊँचा और नीचा मानने की प्रवृत्ति रखता है। |
− | | + | सुसंस्कृत समाज इन भेदों से ऊपर उठता है । भेदों से ऊपर उठना विशेष आग्रहपूर्वक सिखाना चाहिये । |
− | श्०९
| |
− | | |
− |
| |
− |
| |
− |
| |
| | | |
− | नीचा मानने की प्रवृत्ति रखता है।
| + | इस दृष्टि से गटव्यवस्था बहुत प्रभावी साधन बन सकती है । गटों की रचना में इन बातों का समावेश करना चाहिये |
− | सुसंस्कृत समाज इन भेदों से ऊपर उठता है । भेदों से ऊपर
| + | * गट के सभी विद्यार्थियों ने साथ बैठकर स्वाध्याय करना । इस दृष्टि से प्रतिदिन कुछ समय रखना चाहिये |
− | उठना विशेष आग्रहपूर्वक सिखाना चाहिये ।
| + | * स्वाध्याय में एकदूसरे की सहायता करना । |
| + | * एकदूसरे का पूर्ण परिचय प्राप्त करना । |
| + | * एकदूसरे के घर जाने का अवसर निर्माण करना । |
| + | * एक गट के विद्यार्थियों के परिवारों में भी परिचय और आत्मीयता बढ़ाना । |
| + | * इन गटों की रचना में अमीर गरीब, ऊँच नीच, जाति पाँति का भेद गल जाय ऐसी रचना करना | |
| + | * इस दृष्टि से विद्यालयीन व्यवहार में गुणों का सम्मान करने का प्रचलन बनाना चाहिये, धन, सत्ता या वर्णजाति की उच्चता का नहीं । इन आधारों पर विद्यालय से बाहर के जीवन में भी मित्रता विकसित हो सके यह देखना चाहिये । |
| | | |
− | इस दृष्टि से गटव्यवस्था बहुत प्रभावी साधन बन
| + | ==== ४. कृतज्ञता और उदारता ==== |
− | सकती है । गटों की रचना में इन बातों का समावेश करना
| + | कहीं भी किसी से कुछ सहायता प्राप्त हुई तो कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिये । आजकल कृतज्ञता बहुत कृत्रिम उपचार का विषय बन गई है । बात बात में थैन्क्यू, प्लीज और सॉरी कहने की प्रथा बन गई है । किसी बच्चे को खिडकी बन्द करने को कहा और उसने वह काम किया तो थैन्क्यू, होटेल में बैरेने पानी लाकर दिया तो थैन्क्यू, पिताजी ने खिलौना लाकर दिया तो थैन्क्यू । बात बात में थैन्क्यू कहना सिखाते हैं । इसी प्रकार से विद्यार्थी को ग्रन्थालय से कुछ लाने को कहना है तो प्लीज, प्रश्न का उत्तर देने को कहना है तो प्लीज, खडे होकर पास आने के लिये कहना है तो प्लीज । मुखर होकर सर्वत्र इन शब्दों का उच्चारण करने से वह अभिव्यक्ति सतही रह जाती है, केवल उपचार मात्र बन जाती है, भावना नहीं बनती । वास्तविक कृतज्ञता की भावना आदर, सम्मान, निःस्वार्थता, बिना स्वार्थ के सहायता, बिना स्वार्थ के दूसरों की सुरक्षा करने में प्रकट होती है । वह जीवन का स्थायी भाव बनती है। किसी का भी अपने लाभ के लिये उपयोग नहीं करने में प्रकट होती है । |
− | चाहिये :
| |
− | ०"... गट के सभी विद्यार्थियों ने साथ बैठकर स्वाध्याय
| |
− | करना । इस दृष्टि से प्रतिदिन कुछ समय रखना
| |
− | चाहिये ।
| |
− | स्वाध्याय में एकदूसरे की सहायता करना ।
| |
− | एकदूसरे का पूर्ण परिचय प्राप्त करना ।
| |
− | एकदूसरे के घर जाने का अवसर निर्माण करना ।
| |
− | एक गट के विद्यार्थियों के परिवारों में भी परिचय और
| |
− | आत्मीयता बढ़ाना ।
| |
− | इन गटों की रचना में अमीर गरीब, ऊँच नीच, जाति
| |
− | पाँति का भेद गल जाय ऐसी रचना करना |
| |
− | इस दृष्टि से विद्यालयीन व्यवहार में गुणों का सम्मान
| |
− | करने का प्रचलन बनाना चाहिये, धन, सत्ता या | |
− | वर्णजाति की उच्चता का नहीं । इन आधारों पर
| |
− | विद्यालय से बाहर के जीवन में भी मित्रता विकसित
| |
− | हो सके यह देखना चाहिये ।
| |
| | | |
− | ४. कृतज्ञता और उदारता
| + | इसी प्रकार से उदारता क्षमाशीलता में प्रकट होती है । दोष, गलतियाँ, अपराध, कृतघ्नता आदि को माफ कर देना उदारता है । परन्तु इसमें विवेक भी आवश्यक है । मेरे प्रति अपराध तो माफ करना चाहिये परन्तु किसी दुर्बल को परेशान किया तो उसे दण्ड भी देना चाहिये । दोषों और अवगुणों को दूर करने हेतु अवश्य प्रवृत्त होना चाहिये । परन्तु वह तिरस्कारपूर्वक नहीं अपितु उदारतापूर्वक, दयापूर्वक होना चाहिये । स्वकेन्द्री बनकर व्यवहार नहीं करना, दूसरे का विचार करना ही सामाजिकता है। विद्यालय की छोटी मोटी स्चनाओं में तथा व्यवहारों में यह |
− | | + | सब सिखाने की दक्षता बरतना चाहिये । यही नहीं तो गणित, भाषा, इतिहास आदि के पाठों में भी सामाजिकता अनुस्यूत होनी चाहिये । तत्त्वज्ञान को तो सामाजिकता का सन्दर्भ लेकर ही विकसित होना चाहिये । योग के प्रथम अंग यम के पाँच आयाम सामाजिकता की ही शिक्षा देते हैं और |
− | कहीं भी किसी से कुछ सहायता प्राप्त हुई तो कृतज्ञता
| + | उन्हें सार्वभौम महाव्रत कहते हैं यह ध्यान देने योग्य बात है । |
− | का अनुभव करना चाहिये । आजकल कृतज्ञता बहुत कृत्रिम
| |
− | उपचार का विषय बन गई है । बात बात में थैन्क्यू, प्लीज
| |
− | और सॉरी कहने की प्रथा बन गई है । किसी बच्चे को
| |
− | खिडकी बन्द करने को कहा और उसने वह काम किया तो
| |
− | थैन्क्यू, होटेल में बैरेने पानी लाकर दिया तो थैन्क्यू, पिताजी
| |
− | ने खिलौना लाकर दिया तो थैन्क्यू । बात बात में थैन्क्यू
| |
− | कहना सिखाते हैं । इसी प्रकार से विद्यार्थी को ग्रन्थालय से
| |
− | कुछ लाने को कहना है तो प्लीज, प्रश्न का उत्तर देने को
| |
− | कहना है तो प्लीज, खडे होकर पास आने के लिये कहना
| |
− | है तो प्लीज । मुखर होकर सर्वत्र इन शब्दों का उच्चारण
| |
− | करने से वह अभिव्यक्ति सतही रह जाती है, केवल उपचार
| |
− | �
| |
− | | |
− | ............. page-126 .............
| |
− | | |
− |
| |
− |
| |
− |
| |
− | | |
− | मात्र बन जाती है, भावना नहीं बनती ।
| |
− | वास्तविक कृतज्ञता की भावना आदर, सम्मान, निः्स्वार्थता,
| |
− | बिना स्वार्थ के सहायता, बिना स्वार्थ के दूसरों की सुरक्षा
| |
− | करने में प्रकट होती है । वह जीवन का स्थायी भाव बनती
| |
− | है। किसी का भी अपने लाभ के लिये उपयोग नहीं करने
| |
− | में प्रकट होती है ।
| |
− | | |
− | इसी प्रकार से उदारता क्षमाशीलता में प्रकट होती है । | |
− | दोष, गलतियाँ, अपराध, कृतघ्नता आदि को माफ कर देना | |
− | उदारता है । परन्तु इसमें विवेक भी आवश्यक है । मेरे प्रति | |
− | अपराध तो माफ करना चाहिये परन्तु किसी दुर्बल को | |
− | परेशान किया तो उसे दण्ड भी देना चाहिये । दोषों और | |
− | अवगुणों को दूर करने हेतु अवश्य प्रवृत्त होना चाहिये । | |
− | परन्तु वह तिरस्कारपूर्वक नहीं अपितु उदारतापूर्वक, | |
− | दयापूर्वक होना चाहिये । स्वकेन्द्री बनकर व्यवहार नहीं | |
− | करना, दूसरे का विचार करना ही सामाजिकता है। | |
− | विद्यालय की छोटी मोटी स्चनाओं में तथा व्यवहारों में यह | |
− | सब सिखाने की दक्षता बरतना चाहिये । यही नहीं तो | |
− | गणित, भाषा, इतिहास आदि के पाठों में भी सामाजिकता | |
− | अनुस्यूत होनी चाहिये । तत्त्वज्ञान को तो सामाजिकता का | |
− | सन्दर्भ लेकर ही विकसित होना चाहिये । योग के प्रथम अंग | |
− | यम के पाँच आयाम सामाजिकता की ही शिक्षा देते हैं और | |
− | उन्हें सार्वभौम महाव्रत कहते हैं यह ध्यान देने योग्य बात | |
− | है । | |
− | | |
− | ५. सामाजिक समरसता
| |
| | | |
| + | ==== ५. सामाजिक समरसता ==== |
| सामाजिकता का यह परम साध्य है । हलुवा बनता है | | सामाजिकता का यह परम साध्य है । हलुवा बनता है |
− | तब उसमें आटा, घी, गुड और पानी होते हैं, उन सबके | + | तब उसमें आटा, घी, गुड और पानी होते हैं, उन सबके गुण और विशेषतायें भी पहचाने जाते हैं, यहाँ तक कि घी गाय का है कि भैस का, आटा गेहूँ का है या मूँग का, गुड देशी है कि रासायणयुक्त यह सब पहचाना जाता है परन्तु ये चीजें एक दूसरे से अलग नहीं की जा सकतीं, किंबहुना एक दूसरे में उचित प्रक्रिया से समरस होने पर ही हलवा बनता है। विभिन्न पदार्थों को उचित मात्रा में, उचित प्रक्रिया अपनाकर समरस नहीं किया जाता तब तक कोई पदार्थ नहीं बनता, फिर वह खाद्य पदार्थ हो या और कोई । |
− | गुण और विशेषतायें भी पहचाने जाते हैं, यहाँ तक कि घी | |
− | गाय का है कि भैस का, आटा गेहूँ का है या मूँग का, गुड | |
− | देशी है कि रासायणयुक्त यह सब पहचाना जाता है परन्तु ये | |
− | चीजें एक दूसरे से अलग नहीं की जा सकतीं, किंबहुना एक | |
− | दूसरे में उचित प्रक्रिया से समरस होने पर ही हलवा बनता | |
− | है। विभिन्न पदार्थों को उचित मात्रा में, उचित प्रक्रिया | |
− | अपनाकर समरस नहीं किया जाता तब तक कोई पदार्थ नहीं | |
− | बनता, फिर वह खाद्य पदार्थ हो या और कोई । | |
− | | |
− | ११०
| |
− | | |
− | भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
| |
| | | |
− | समाज को भी एकसंध बनाने के लिये समरसता की | + | समाज को भी एकसंध बनाने के लिये समरसता की आवश्यकता होती है । समाज में भेद तो होते ही हैं । भेद गुणों और विशेषताओं को दशतते हैं । इनके मिलाप से ही सामाजिक रचनायें सुन्दर बनती हैं । इन रचनाओं में सम्मान और आत्मीयता की, सुरक्षा और सम्हाल की प्रक्रिया अपनाने से समरसता निर्माण होती है । |
− | आवश्यकता होती है । समाज में भेद तो होते ही हैं । भेद | |
− | गुणों और विशेषताओं को दशतते हैं । इनके मिलाप से ही | |
− | सामाजिक रचनायें सुन्दर बनती हैं । इन रचनाओं में सम्मान | |
− | और आत्मीयता की, सुरक्षा और सम्हाल की प्रक्रिया | |
− | अपनाने से समरसता निर्माण होती है । | |
| | | |
− | उदाहरण के लिये हमारे गाँवों में जब किसी के भी घर | + | उदाहरण के लिये हमारे गाँवों में जब किसी के भी घर में विवाह होता था तो मंडप के लिये सुधार का, मटकी के लिये कुम्हार का, वस्त्र के लिये दर्जी का, न्यौते के लिये नायी का, वाद्यों के लिये ढोली आदि का प्रथम सम्मान किया जाता था, उनके द्वारा निर्मित और प्रदत्त पदार्थ का पूजन किया जाता था, दानदक्षिणा वस्त्राभोजन से उन्हें सन्तुष्ट किया जाता था और बाद में अन्य कार्य किये जाते थे । किसी के घर मृत्यु हो तब ये ही सब अपने द्वारा निर्मित साधन लेकर उपस्थित हो जाते थे और उसके पैसे नहीं माँगते थे । समरसता हेतु अत्यन्त बुद्धिमानी से की गई ये रचनायें हैं । इसीसे भाईचारा बना रहता है, सबको अपनी उपयोगिता लगती है। अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव होता हैं । इससे ही वास्तविक सुख मिलता है । इसके चलते हिंसा कम होती है, दंगे फसाद कम होते हैं । व्यक्तिगत स्तर पर सृजनशीलता का विकास होता है और समाज वैभवशाली बनता है । |
− | में विवाह होता था तो मंडप के लिये सुधार का, मटकी के | |
− | लिये कुम्हार का, वख््र के लिये दर्जी का, न्यौते के लिये | |
− | नायी का, वाद्यों के लिये ढोली आदि का प्रथम सम्मान | |
− | किया जाता था, उनके द्वारा निर्मित और प्रदत्त पदार्थ का | |
− | पूजन किया जाता था, दानदक्षिणा वस््रभोजन से उन्हें सन्तुष्ट | |
− | किया जाता था और बाद में अन्य कार्य किये जाते थे । | |
− | किसी के घर मृत्यु हो तब ये ही सब अपने द्वारा निर्मित | |
− | साधन लेकर उपस्थित हो जाते थे और उसके पैसे नहीं | |
− | माँगते थे । समरसता हेतु अत्यन्त बुद्धिमानी से की गई ये | |
− | रचनायें हैं । इसीसे भाईचारा बना रहता है, सबको अपनी | |
− | उपयोगिता लगती है। अपने जीवन की सार्थकता का | |
− | अनुभव होता हैं । इससे ही वास्तविक सुख मिलता है । | |
− | इसके चलते हिंसा कम होती है, दंगे फसाद कम होते हैं । | |
− | व्यक्तिगत स्तर पर सृजनशीलता का विकास होता है और | |
− | समाज वैभवशाली बनता है । | |
| | | |
− | वर्तमान में हमने दीर्घदृष्टि और व्यापकदूष्टि के अभाव | + | वर्तमान में हमने दीर्घदृष्टि और व्यापकदूष्टि के अभाव में काम करने वाले और काम करवाने वाले के दो वर्ग निर्माण किये हैं और काम करनेवालों को नीचा और करवाने वालों को ऊँचा मानना शुरू किया है । साथ ही काम करने वालों के स्थान पर यन्त्रों को अपनाना शुरू किया है। परिणाम स्वरूप लोगों के पास काम करने के अवसर भी कम हो रहे हैं, काम करवाने वाले संख्या में कम ही होते हैं और अभाव और वर्गभेद बढ़ते ही जाते हैं । किस बात के लिये किसका सम्मान करें, किस बात के लिये किसकी उपयोगिता है यही प्रश्न है । सबको टिकने के लिये स्पर्धा ही करनी पड़ती है, संघर्ष ही करना पडता है । इसमें समरसता कैसे होगी ? बिना समरसता के सुख कहाँ ? सुख की आश्वस्ति के बिना संस्कृति पनप नहीं सकती । |
− | में काम करने वाले और काम करवाने वाले के दो वर्ग | |
− | निर्माण किये हैं और काम करनेवालों को नीचा और | |
− | करवाने वालों को ऊँचा मानना शुरू किया है । साथ ही | |
− | काम करने वालों के स्थान पर यन्त्रों को अपनाना शुरू | |
− | किया है। परिणाम स्वरूप लोगों के पास काम करने के | |
− | अवसर भी कम हो रहे हैं, काम करवाने वाले संख्या में कम | |
− | ही होते हैं और अभाव और वर्गभेद बढ़ते ही जाते हैं । | |
− | किस बात के लिये किसका सम्मान करें, किस बात के लिये | |
− | किसकी उपयोगिता है यही प्रश्न है । सबको टिकने के लिये | |
− | स्पर्धा ही करनी पड़ती है, संघर्ष ही करना पडता है । इसमें | |
− | समरसता कैसे होगी ? बिना समरसता के सुख कहाँ ? सुख | |
− | की आश्वस्ति के बिना संस्कृति पनप नहीं सकती । | |
− | �
| |
| | | |
− | ............. page-127 .............
| + | इस व्यवस्था को बदलने का प्रावधान शिक्षा में होना चाहिये । यह एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । अतः परीक्षा का नहीं अपितु वातावरण, व्यवस्था और व्यवहार का विषय है । सारी बातें परीक्षाकेन्द्री कर देने से समरसता |
− | | |
− | पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
| |
− | | |
− | इस व्यवस्था को बदलने का प्रावधान शिक्षा में होना | |
− | चाहिये । यह एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । अतः | |
− | परीक्षा का नहीं अपितु वातावरण, व्यवस्था और व्यवहार | |
− | का विषय है । सारी बातें परीक्षाकेन्द्री कर देने से समरसता | |
| की हानि होती है । | | की हानि होती है । |
| | | |
− | हम शिक्षा, व्यवसाय, दैनन्दिन व्यवहार को आज है | + | हम शिक्षा, व्यवसाय, दैनन्दिन व्यवहार को आज है वैसा ही रखकर समरसता निर्माण नहीं कर सकते । यह तो ऐसा ही है जैसे गरम गुण का पदार्थ खाकर शीतलता की अपेक्षा करना । |
− | वैसा ही रखकर समरसता निर्माण नहीं कर सकते । यह तो | |
− | ऐसा ही है जैसे गरम गुण का पदार्थ खाकर शीतलता की | |
− | अपेक्षा करना । | |
− | | |
− | ६. सामाजिक उत्सवों का सांस्कृतिक स्वरूप
| |
− | बनायें रखना
| |
| | | |
| + | ==== ६. सामाजिक उत्सवों का सांस्कृतिक स्वरूप बनायें रखना ==== |
| समरसता और सामूहिकता के लिये ही अनेक उत्सवों | | समरसता और सामूहिकता के लिये ही अनेक उत्सवों |
| की परस्परा बनी है । उदाहरण के लिये गुजरात में जो | | की परस्परा बनी है । उदाहरण के लिये गुजरात में जो |
Line 940: |
Line 680: |
| काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये । | | काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये । |
| | | |
− |
| + | ==== ७. गुणों और क्षमताओं का सम्मान करना ==== |
− | | + | धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन बिगडता है । विद्यालय में जो पैदल चलकर आता है, उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपडे सामान्य हैं परन्तु उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है, गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में विद्यालय आता है, बस्ता, कपडे, जुते बहुत कीमती हैं परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है । |
− | श्श्१
| |
− | | |
− |
| |
− |
| |
− |
| |
| | | |
− |
| + | जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित |
− | | + | लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य |
− | ७... गुणों और क्षमताओं का
| |
− | सम्मान करना
| |
− | धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और
| |
− | क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन
| |
− | बिगडता है । विद्यालय में जो tea चलकर आता है,
| |
− | उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपडे सामान्य हैं परन्तु
| |
− | उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है,
| |
− | गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी
| |
− | सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे
| |
− | अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में
| |
− | विद्यालय आता है, THN, HIS, Bd sed कीमती हैं
| |
− | परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है
| |
− | और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है ।
| |
− | | |
− | जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी | |
− | लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित | |
− | लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित | |
− | लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य | |
| और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय, | | और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय, |
− | बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का | + | बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना |
− | सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना | + | चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की, मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और सत्तावान लोगों की चाटुकारिता और विपन्न और सामान्य लोगों की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती है। |
− | चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की, | |
− | मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की | |
− | शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार | |
− | नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और | |
− | सत्तावान लोगों की areata ak fsa ak ares | |
− | लोगों की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती | |
− | है।
| |
− | | |
− | कई तो पूरे विद्यालय ही ऐसे होते हैं जहाँ केवल
| |
− | पैसेवालों के बच्चों का ही प्रवेश हो सकता है। कुछ
| |
− | विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसे वाले ही नहीं अपितु
| |
− | उच्च पदों पर आसीन लोग ही प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं ।
| |
− | ऐसे विद्यालय न तो ज्ञान की सेवा करते हैं न समाज की
| |
− | क्योंकि ये ऐसे लोग निर्माण करते हैं जो समाज के अपने
| |
− | जैसे नहीं हैं ऐसे लोगों को तुच्छ समझते हैं । ऐसे विद्यालयों
| |
− | में शिक्षकों का सम्मान नहीं होता, उल्टे शिक्षकों को ही
| |
− | �
| |
− | | |
− | ............. page-128 .............
| |
− | | |
− |
| |
− | | |
− | भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
| |
− | | |
− |
| |
− |
| |
− |
| |
− | | |
− | बडे लोगों के बेटों की मर्जी उठानी . को दण्ड नहीं देना हिंसा है, अहिंसा नहीं । शोषण
| |
− | पडती है । इन्हें विद्या का धाम कैसे कह सकते हैं ? ऐसे. करनवाले व्यक्ति के विरुद्ध आवाज नहीं उठाना अधर्म
| |
− | विद्यालय ज्ञान को सत्ता की दासी बना देते हैं । है। भूखे व्यक्ति को अन्न नहीं देना अधर्म है, जिज्ञासु
| |
− | व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना अधर्म है, दुर्बल की रक्षा नहीं
| |
− | करना अधर्म है परन्तु शत्रु के गट में अन्न नहीं जाने देना
| |
− | अपनत्व का व्यवहार करना यह सारे सामाजिक... धर्म है, दुष्ट व्यक्ति को ज्ञान देना अधर्म है, गुंडे की रक्षा
| |
− | सदूगुणों का मूल है । दया, दान, क्षमा, उपकार, सहयोग... करने हेतु वकीली करना अधर्म है । धर्म-अधर्म, हिंसा-
| |
− | आदि मूल्यों का जतन करना सद्गुण है । इनके अनुकूल. अहिंसा, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि का विवेक नहीं
| |
− | आचरण करना सदाचार है । परन्तु समझ यदि कम है या... किया और पक्ष लेने और विरोध करने का साहस नहीं
| |
− | स्वार्थ यदि अधिक है तो इनमें विकृति भी आती है। दिखाया तो सामाजिकता घोर संकट में पड जाती है । ऐसे
| |
− | स्वयं at cam, न्यायी, सत्यवादी आदि होना ही. में संस्कृति की रक्षा नहीं होती । असंस्कृत समाज की
| |
− | चाहिये परन्तु सत्य, धर्म, दान आदि की परख भी होनी . समृद्धि प्रथम आसुरी बन जाती है, बाद में सबका नाश
| |
− | चाहिये, इनको पहचानने का विवेक और उसके अनुरूप. करती है और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है ।
| |
− | व्यवहार करने का साहस भी होना चाहिये । अपने लिये विद्यालयों _ के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य
| |
− | इनके आचरण के साथ साथ सत्य, न्याय, ज्ञान और धर्म. गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक
| |
− | का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, seca, set सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो
| |
− | और अआज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ. समाजशाख्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता
| |
− | जो भी आवश्यक है - भी करना चाहिये । उदाहरण के... सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही
| |
− | लिये स्वयं अन्याय नहीं करेंगे यह प्रथम चरण है, किसी. अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये
| |
− | के द्वारा किये गये अन्याय को नहीं सहेंगे परन्तु समाज में .. सामाजिकता को हानि. पहुंचाने वाला. अर्थशास्त्र,
| |
− | किसी छोटे, दुर्बल या दीन व्यक्ति के प्रति बडा, बलवान... टैक्नोलोजी, वाणिज्यशाख्र, राजशास्त्र या मनोविज्ञान, खेल
| |
− | और समर्थ व्यक्ति अन्याय कर रहा है तो दीन, दुर्बल, .. आदि मान्य ही नहीं होने चाहिये । समाजशाख्र केवल
| |
− | छोटे व्यक्ति का पक्ष लेना और उसकी रक्षा करना तथा... धर्मशाख्र के अनुकूल होता है । वह धर्मशास्र का अंग है
| |
− | अन्याय करने वाले व्यक्ति का विरोध करना भी अपेक्षित. जबकि शेष सभी शास्त्रों का अंगी है। सारे शास्त्र
| |
− | है। सुपात्र, सद्गुणी व्यक्ति की प्रशंसा करनी ही चाहिये, समाजशाख््र के अविरोधी होने अपेक्षित है ।
| |
− | भले ही वह गरीब हो, परन्तु अपने लाभ के लिये समर्थ, शिक्षा धर्म सिखाती है । धर्म का एक अंग सृष्टि धर्म
| |
− | गुणहीन व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करना चाहिये । वह प्रशंसा... है और दूसरा समष्टि धर्म है । समष्टि धर्म सृष्टि धर्म के
| |
− | नहीं चाटुकारिता है । व्यक्ति भले ही विद्वान, धनवान या... अनुकूल होता है । समष्टि धर्म ही सामाजिकता है । अतः
| |
− | सत्तावान हो, यदि वह अधर्म और अन्यायपूर्ण व्यवहार. शिक्षा का मुख्य कार्य ही सामाजिकता सिखाना है ।
| |
− | करता है तो उसकी मित्रता नहीं करनी चाहिये, भले ही सामाजिकता सिखाने के लिये विद्यालयों की वर्तमान
| |
− | वह हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता हो । विद्वान. रीतिनीति में बहुत परिवर्तन करना होगा यह सत्य हैं, परन्तु
| |
− | व्यक्ति यदि धनवान की चाटुकारिता करता है तो वह ज्ञान... ऐसा परिवर्तन किये बिना शिक्षा का स्वरूप भारतीय नहीं
| |
− | की अवमानना करता है यही समझना चाहिये । धर्माचार्थ. बन सकता । भारतीयकरण केवल सिद्धान्त में नहीं होता,
| |
− | यदि सत्तावान व्यक्ति के अनुकूल बनने का प्रयास करता. सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत करने से होता है ।
| |
− | है तो वह धर्म का अनादर करता है । आततायी व्यक्ति
| |
− | | |
− | ८. सत्य, धर्म, ज्ञान, सेवा न्याय आदि की परख होना
| |
− | | |
− | श्१२
| |
− | �
| |
− | | |
− | ............. page-129 .............
| |
− | | |
− | पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
| |
− | | |
− | छात्रों का विकास केवल विद्यालय में ही नहीं
| |
− | होता, विद्यालय के बाहर, घर में भी होता है, इस दृष्टि से
| |
− | मातापिता को निम्न लिखित बातों में विद्यालय ने क्या
| |
− | मार्गदर्शन करना चाहिये ?
| |
| | | |
− | १, भोजन, २. निद्रा, ३. व्यायाम, ४. गृहजीवन,
| + | कई तो पूरे विद्यालय ही ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसेवालों के बच्चों का ही प्रवेश हो सकता है। कुछ विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसे वाले ही नहीं अपितु उच्च पदों पर आसीन लोग ही प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं । ऐसे विद्यालय न तो ज्ञान की सेवा करते हैं न समाज की क्योंकि ये ऐसे लोग निर्माण करते हैं जो समाज के अपने जैसे नहीं हैं ऐसे लोगों को तुच्छ समझते हैं । ऐसे विद्यालयों में शिक्षकों का सम्मान नहीं होता, उल्टे शिक्षकों को ही बडे लोगों के बेटों की मर्जी उठानी पड़ती है। इन्हे विद्या का धाम कैसे सकते है ? ऐसे विद्यालय ज्ञान को सत्ता की दासी बना देते है। |
− | ५. सामाजिक जीवन, ६. सेवाकार्य, ७. श्रमकार्य,
| |
− | ८. योगाभ्यास, ९. सांस्कृतिक कार्य, १०. उपासना,
| |
− | ११. अभ्यास, १२. स्वाध्याय, १३. कौशल विकास,
| |
− | १४. शौक, १५. मित्र परिवार, es. दिनचर्या,
| |
− | १७, मानसिकता, १८. जीवनदृष्टि, १९, कुल परम्परा
| |
| | | |
− | छात्र का विकास तो सब चाहते है, मातापिता भी
| + | ==== ८. सत्य, धर्म, ज्ञान, सेवा न्याय आदि की परख होना ==== |
− | बालक के विकास की इच्छा करते है । विकास के कुल
| + | अपनत्व का व्यवहार करना यह सारे सामाजिक सद्गुणों का मूल है। दया, दान, क्षमा, उपकार, सहयोग आदि मूल्यों का जतन करना सद्गुण है। इनके अनुकूल आचरण करना सदाचार है। परन्तु समझ यदि कम है या स्वार्थ यदि अधिक है तो इनमे विकृति भी आती है। स्वयं तो दयावान, न्यायी, सत्यवादी आदि होना ही चाहिए, इनको पहचानने का विवेक और उसके अनुरूप व्यवहार करने का साहस भी होना चाहिए। अपने लिए इनके आचरण के साथ साथ, न्याय, ज्ञान और धर्म का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, असत्य, अधर्म और अज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ जो भी आवश्यक है - भी करना चाहिये । उदाहरण के लिये स्वयं अन्याय नहीं करेंगे यह प्रथम चरण है, किसी के द्वारा किये गये अन्याय को नहीं सहेंगे परन्तु समाज में किसी छोटे, दुर्बल या दीन व्यक्ति के प्रति बडा, बलवान और समर्थ व्यक्ति अन्याय कर रहा है तो दीन, दुर्बल, छोटे व्यक्ति का पक्ष लेना और उसकी रक्षा करना तथा अन्याय करने वाले व्यक्ति का विरोध करना भी अपेक्षित है। सुपात्र, सद्गुणी व्यक्ति की प्रशंसा करनी ही चाहिये, भले ही वह गरीब हो, परन्तु अपने लाभ के लिये समर्थ, गुणहीन व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करना चाहिये । वह प्रशंसा नहीं चाटुकारिता है। व्यक्ति भले ही विद्वान, धनवान या सत्तावान हो, यदि वह अधर्म और अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है तो उसकी मित्रता नहीं करनी चाहिये, भले ही वह हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता हो । विद्वान व्यक्ति यदि धनवान की चाटुकारिता करता है तो वह ज्ञान की अवमानना करता है यही समझना चाहिये । धर्माचार्य यदि सत्तावान व्यक्ति के अनुकूल बनने का प्रयास करता है तो वह धर्म का अनादर करता है। आततायी व्यक्ति को दण्ड नहीं देना हिंसा है, अहिंसा नहीं। शोषण करनवाले व्यक्ति के विरुद्ध आवाज नहीं उठाना अधर्म है। भूखे व्यक्ति को अन्न नहीं देना अधर्म है, जिज्ञासु व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना अधर्म है, दुर्बल की रक्षा नहीं करना अधर्म है परन्तु शत्रु के गट में अन्न नहीं जाने देना धर्म है, दुष्ट व्यक्ति को ज्ञान देना अधर्म है, गुंडे की रक्षा करने हेतु वकीली करना अधर्म है। धर्म-अधर्म, हिंसाअहिंसा, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि का विवेक नहीं किया और पक्ष लेने और विरोध करने का साहस नहीं दिखाया तो सामाजिकता घोर संकट में पड़ जाती है। ऐसे में संस्कृति की रक्षा नहीं होती। असंस्कृत समाज की समृद्धि प्रथम आसुरी बन जाती है, बाद में सबका नाश करती है और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है। |
− | १९ महत्त्वपूर्ण बिन््दुओं पर शिक्षक, मातापिता, दादादादी
| |
− | और अन्य लोगों के साथ जो वार्तालाप हुआ उनका | |
− | अभिप्राय ऐसा रहा ।
| |
| | | |
− | शिक्षकोने बताया यह सारे बिन्दु उनके पढाई के
| + | विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये सामाजिकता को हानि पहुंचाने वाला अर्थशास्त्र, टैक्नोलोजी, वाणिज्यशास्त्र, राजशास्त्र या मनोविज्ञान, खेल आदि मान्य ही नहीं होने चाहिये । समाजशास्त्र केवल धर्मशास्त्र के अनुकूल होता है । वह धर्मशास्त्र का अंग है जबकि शेष सभी शास्त्रों का अंगी है। सारे शास्त्र समाजशास्त्र के अविरोधी होने अपेक्षित है। |
− | कोर्स के बाहर है, अतिरिक्त है । यह सब बातें करवाना
| |
− | मातापिता का कर्तव्य है । इतना सब पढ़ाने के लिये समय
| |
− | ही नहीं बचता क्योंकि पूरे वर्ष कोर्स, परीक्षा कार्यक्रम यह
| |
− | सारे तंत्र से फुरसत ही नहीं मिलती ।
| |
| | | |
− | बडे बुजुर्ग लोगों को उन बिन्दुओं मे तथ्य समझमें
| + | शिक्षा धर्म सिखाती है । धर्म का एक अंग सृष्टि धर्म है और दूसरा समष्टि धर्म है। समष्टि धर्म सृष्टि धर्म के अनुकूल होता है । समष्टि धर्म ही सामाजिकता है। अतः शिक्षा का मुख्य कार्य ही सामाजिकता सिखाना है। |
− | आता है परंतु आजकल की पिढी सुनती समझती ही नहीं
| |
− | अतः वे हतबल थे । | |
| | | |
− | मातापिता अच्छा भोजन, व्यायाम, Aare,
| + | सामाजिकता सिखाने के लिये विद्यालयों की वर्तमान रीतिनीति में बहुत परिवर्तन करना होगा यह सत्य हैं, परन्तु ऐसा परिवर्तन किये बिना शिक्षा का स्वरूप भारतीय नहीं बन सकता । भारतीयकरण केवल सिद्धान्त में नहीं होता, सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत करने से होता है। |
− | योगाभ्यास, उपासना आदि का महत्व तो जानते है परंतु
| |
− | बच्चे सुनते नहीं, करते नही या तो विद्यालय की पढ़ाई में
| |
− | उनका यह सब होता नहीं है । केवल होमवर्क हम पुरा
| |
− | करवाते है । यह सब बातों की तरफ ध्यान देने के लिए
| |
− | हमे घर मे फुरसद नहीं मिलती दोनों नोकरी करते हैं
| |
− | इसलिये । इसी संबंध में कोई अच्छा क्लास होगा तो
| |
− | एडमिशन दिलवा देने के लिये वे तैयार है ।
| |
| | | |
− | घर में छात्रविकास | + | === घर में छात्रविकास === |
| + | छात्रों का विकास केवल विद्यालय में ही नहीं होता, विद्यालय के बाहर, घर में भी होता है, इस दृष्टि से मातापिता को निम्न लिखित बातों में विद्यालय ने क्या मार्गदर्शन करना चाहिये ? |
| | | |
− | $83
| + | १. भोजन, २. निद्रा, ३. व्यायाम, ४. गृहजीवन, ५. सामाजिक जीवन, ६. सेवाकार्य, ७. श्रमकार्य, ८. योगाभ्यास, ९. सांस्कृतिक कार्य, १०. उपासना, ११. अभ्यास, १२. स्वाध्याय, १३. कौशल विकास, १४. शौक, १५. मित्र परिवार, १६. दिनचर्या, १७. मानसिकता, १८. जीवनदृष्टि, १९. कुल परम्परा |
| | | |
− |
| + | छात्र का विकास तो सब चाहते है, मातापिता भी बालक के विकास की इच्छा करते है । विकास के कुल १९ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर शिक्षक, मातापिता, दादादादी और अन्य लोगों के साथ जो वार्तालाप हुआ उनका अभिप्राय ऐसा रहा । |
− |
| |
| | | |
− | अभिमत
| + | शिक्षकोने बताया यह सारे बिन्दु उनके पढाई के कोर्स के बाहर है, अतिरिक्त है । यह सब बातें करवाना मातापिता का कर्तव्य है । इतना सब पढाने के लिये समय ही नहीं बचता क्योंकि पूरे वर्ष कोर्स, परीक्षा कार्यक्रम यह सारे तंत्र से फुरसत ही नहीं मिलती । |
| | | |
− | प्रश्नावली के ७९ बिंदु विकास मे अत्यंत उपयुक्त है ।
| + | बडे बुजुर्ग लोगों को उन बिन्दुओं मे तथ्य समझमें आता है परंतु आजकल की पिढी सुनती समझती ही नहीं अतः वे हतबल थे । |
− | परंतु इस संबंध में मार्गदर्शन करने हेतू शिक्षको के पास ही | |
− | कोई मार्ग नहीं है ।
| |
| | | |
− | विद्यालय में अभिभावक एसे विषय चुनने के लिये
| + | मातापिता अच्छा भोजन, व्यायाम, सेवाकार्य, योगाभ्यास, उपासना आदि का महत्व तो जानते है परंतु बच्चे सुनते नहीं, करते नही या तो विद्यालय की पढाई में उनका यह सब होता नहीं है । केवल होमवर्क हम पुरा करवाते है। यह सब बातों की तरफ ध्यान देने के लिए हमे घर मे फुरसद नही मिलती दोनों नोकरी करते हैं इसलिये । इसी संबंध में कोई अच्छा क्लास होगा तो एडमिशन दिलवा देने के लिये वे तैयार है । |
− | आते नहीं हैं । जीवनदृष्टि, भोजन, व्यायाम आदि विषयों में
| |
− | शिक्षक, अभिभावक भी आज पाश्चात्य शैली का शिकार
| |
− | बने हैं अतः वे मार्गदर्शन तो करेंगे परंतु उनको साकार रूप
| |
− | नहीं देते हैं । बच्चों का मित्र परिवार उन्हे गलत मार्ग पर ही | |
− | ले जाता है । अतः वह विकास का मार्ग उन्हे मान्य नहीं ।
| |
− | घर में माता, पिता संतानो के अपने अपने व्यक्तिगत मित्र | |
− | होते हैं । ये सब घर के मित्र होते तो विकास अवश्य करते
| |
− | । श्रम करने से पढाई मे रुकावट आती है, थकान आती है,
| |
− | पढाई कम होती है ऐसी भ्रामक मान्यताओं से अभिभावक
| |
− | के लिये है । शिक्षक यह दायित्व लेने समर्थ भी नहीं तैयार | |
− | भी नहीं ।
| |
| | | |
− | घर में छात्रविकास
| + | ==== अभिमत ==== |
| + | प्रश्नावली के ७९ बिंदु विकास मे अत्यंत उपयुक्त है । परंतु इस संबंध में मार्गदर्शन करने हेतू शिक्षको के पास ही कोई मार्ग नहीं है। |
| | | |
− | वर्तमान समय की पक्की धारणा बन गई है कि पढ़ाई
| + | विद्यालय में अभिभावक एसे विषय चुनने के लिये आते नहीं हैं । जीवनदृष्टि, भोजन, व्यायाम आदि विषयों में शिक्षक, अभिभावक भी आज पाश्चात्य शैली का शिकार बने हैं अतः वे मार्गदर्शन तो करेंगे परंतु उनको साकार रूप नहीं देते हैं । बच्चों का मित्र परिवार उन्हे गलत मार्ग पर ही _ले जाता है । अतः वह विकास का मार्ग उन्हे मान्य नहीं । घर में माता, पिता संतानो के अपने अपने व्यक्तिगत मित्र होते हैं । ये सब घर के मित्र होते तो विकास अवश्य करते । श्रम करने से पढाई मे रुकावट आती है, थकान आती है, पढाई कम होती है ऐसी भ्रामक मान्यताओं से अभिभावक के लिये है । शिक्षक यह दायित्व लेने समर्थ भी नहीं तैयार भी नहीं । |
− | केवल विद्यालय में ही होती है । विद्यालय के अलावा घर
| |
− | में या किसी अन्य स्थान पर जो होता है उसे पढ़ाई नहीं | |
− | कहा जाता । साथ ही जीवन में मुख्य कोई कार्य है तो वह
| |
− | पढ़ाई ही है । यदि पढ़ाई नहीं है तो मनोरंजन है । विद्यालय
| |
− | की पढ़ाई से अधिक महत्त्वपूर्ण और कुछ नहीं है ।
| |
| | | |
− | पढ़ाई के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा विद्यालय के | + | ==== घर में छात्रविकास ==== |
− | कक्षाकक्ष में जो होता है उसमें ही सीमित है । उसी काम
| + | वर्तमान समय की पक्की धारणा बन गई है कि पढ़ाई केवल विद्यालय में ही होती है। विद्यालय के अलावा घर में या किसी अन्य स्थान पर जो होता है उसे पढ़ाई नहीं कहा जाता । साथ ही जीवन में मुख्य कोई कार्य है तो वह पढ़ाई ही है । यदि पढ़ाई नहीं है तो मनोरंजन है । विद्यालय की पढ़ाई से अधिक महत्त्वपूर्ण और कुछ नहीं है। |
− | को अधिक से अधिक aren में हमें हमारी
| |
− | पढ़ाई विषयक धारणा बदलने की आवश्यकता है । शिक्षा | |
− | केवल विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों तक सीमित
| |
− | नहीं होती है । विध रना यही अच्छी पढ़ाई का लक्षण है । | |
− | इसलिये विद्यालय में जो पढ़ाया जाता है वही कार्य घर
| |
− | जाकर भी करने को कहा जाता है. जिसे गृहकार्य कहा
| |
− | जाता है । परन्तु जीवन का गणित इतना सीधासादा नहीं
| |
− | �
| |
| | | |
− | ............. page-130 .............
| + | पढ़ाई के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा विद्यालय के कक्षाकक्ष में जो होता है उसमें ही सीमित है। उसी काम को अधिक से अधिक कआस्ताव में हमें हमारी पढ़ाईविषयक धारणा बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा केवल विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों तक सीमित नहीं होती है। विध रना यही अच्छी पढ़ाई का लक्षण है । इसलिये विद्यालय में जो पढ़ाया जाता है वही कार्य घर जाकर भी करने को कहा जाता है जिसे गृहकार्य कहा जाता है। परन्तु जीवन का गणित इतना सीधासादा नहीं है। विद्यालय की पढ़ाई ही सबकुछ नहीं होती, अन्य अनेक कामकाज ऐसे होते हैं जो विद्यालय की पढ़ाई से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे सब विद्यालय में पढ़ाए नहीं जाते । उनकी पढ़ाई घर में ही होती |
| | | |
− |
| + | वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का एक अंश ही होता है। घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है। हम यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी भरपाई नहीं की जाती। |
| | | |
− | @ | विद्यालय की पढ़ाई ही सबकुछ
| + | घर की पढ़ाई के अभाव में घर में विद्यालय की पढ़ाई पर ही जोर दिया जाता है। विद्यालय के द्वारा दिया गया गृहकार्य तो होता ही है, ऊपर से अनेक प्रकार की अन्य गतिविधियों के लिए भी आग्रह किया जाता है। विभिन्न प्रकार के कोचिंग और ट्यूशन की भरमार होती है, यहाँ तक कि छुट्टियों में चित्रकाम, तैराकी आदि सीखने का आग्रह किया जाता है। संक्षेप में पढ़ने की दुनिया घर से बाहर ही होती है। |
− | नहीं होती, अन्य अनेक कामकाज ऐसे होते हैं जो विद्यालय
| |
− | की पढ़ाई से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे सब | |
− | विद्यालय में पढ़ाए नहीं जाते । उनकी पढ़ाई घर में ही होती
| |
− | a |
| |
| | | |
− | वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने | + | वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का एक अंश ही होता है। घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है। हम यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी भरपाई नहीं की जाती। |
− | वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का | |
− | एक अंश ही होता है । घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में | |
− | विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है । हम | |
− | यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की | |
− | पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं | |
− | होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी | |
− | भरपाई नहीं की जाती । | |
− | | |
− | घर की पढ़ाई के अभाव में घर में विद्यालय की पढ़ाई
| |
− | पर ही ज़ोर दिया जाता है । विद्यालय के ट्वारा दिया गया
| |
− | गृहकार्य तो होता ही है, ऊपर से अनेक प्रकार की अन्य
| |
− | गतिविधियों के लिए भी आग्रह किया जाता है । विभिन्न
| |
− | प्रकार के कोचिंग और स्यूशन की भरमार होती है, यहाँ
| |
− | तक कि छुट्टियों में चित्रकाम, तैराकी आदि सीखने का
| |
− | आग्रह किया जाता है । संक्षेप में पढ़ने की दुनिया घर से
| |
− | बाहर ही होती है ।
| |
− | | |
− | सत्य तो यह है कि घर की भी एक दुनिया होती है
| |
− | जो विद्यालय के समान महत्त्वपूर्ण होती है । घर के ही
| |
− | अनेक काम होते हैं जो सीखने होते हैं। वे भी बाल,
| |
− | किशोर और तरुण आयु में ही सीखे जाते हैं ।
| |
− | | |
− | घर में उसे छात्र नहीं कहा जाता है। वह पुत्र,
| |
− | भाई, पौत्र आदि भूमिका में रहता है । इन्हीं भूमिकाओं
| |
− | को लेकर उसे अनेक बातें सीखनी होती हैं । वह अपने
| |
− | दादा - दादी का पौत्र है तो उसे उनकी सेवा करनी है ।
| |
− | इस सन्दर्भ में उसे अनेक छोटे बड़े काम सीखने होते हैं ।
| |
− | उनकी सेवा करते करते वह उनके अनेक अनुभव सुनता
| |
− | है जिससे उसे ज्ञान प्राप्त होता है । वह अपने मातापिता
| |
− | का पुत्र है। उस रूप में उसे उनके कामों में सहयोगी
| |
− | बनना होता है । यह भी उसे सीखना ही है । वह अपने
| |
− | भाईयबहनों का भाई होता है । इस भूमिका में उसे उनके
| |
− | | |
− |
| |
− | | |
− | Ske
| |
− | | |
− | भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
| |
− | | |
− |
| |
− |
| |
− |
| |
− | | |
− | साथ खेलना औए सीखना सिखाना होता है। घर में
| |
− | अतिथि आते हैं । उसे अतिथिसत्कार करना सीखना होता
| |
− | है । घर में अनेक उत्सव मनाए जाते हैं । उनके विषय में
| |
− | जानना होता है ।
| |
− | | |
− | विद्यालय में जीवन का बहुत अल्प समय जाना
| |
− | होता है । सम्पूर्ण जीवन घर में ही जीना होता है। इस
| |
− | दृष्टि से जीवनविकास के महत्त्वपूर्ण आयामों की शिक्षा घर
| |
− | में होती है। भोजन, निद्रा, व्यायाम आदि शरीर को
| |
− | स्वस्थ रखने की बातें घर में सीखी जाती हैं । केवल
| |
− | खाना और सोना ही नहीं होता है तो भोजन बनाना और
| |
− | परोसना तथा बिस्तर लगाना और समेटना भी होता है ।
| |
− | उनसे संबंधित कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना,घर के
| |
− | लिए आवश्यक सामान की खरीदी करना आदि अनेक
| |
− | बातें सीखनी होती हैं ।
| |
− | | |
− | मातापिता के काम में सहयोग करते करते स्वयं की
| |
− | ज़िम्मेचलाना है । विद्यालय में ऐसी कोई ज़िम्मेदारी नहीं
| |
− | होती । पढ़ाई का काल पूर्ण होने पर वह विद्यालय छोड़
| |
− | देता है परन्तु घर में तो वह आजीवन रहता है । इसलिये
| |
− | घर चलाना सीखना बहुत महत्त्वपूर्ण है । दारी से इन कामों
| |
− | को करना सीखा जाता है । यह सीखना इसलिये आवश्यक
| |
− | होता है क्योंकि भविष्य में उसे यही घर का स्वामी बनना
| |
− | होता है ।
| |
− | | |
− | सभ्य और सुसंस्कृत जीवन जीने के लिए पैसे कमाना
| |
− | ही पर्याप्त नहीं होता । जीवनव्यवहार की अनेक बातें
| |
− | अच्छी तरह से करनी होती हैं । ये सब उसे सीखनी होती
| |
− | हैं ।
| |
− | | |
− | यह सब सिखाने वाले मातापिता और अन्य सदस्य
| |
− | होते हैं । वह जीवनमूल्य सीखता है, कुलपरम्परा ग्रहण
| |
− | करता है । समाजसेवा सीखता है । सबसे महत्त्वपूर्ण बात
| |
− | यह है कि वह जीवन का दृष्टिकोण भी घर में ही सीखता
| |
− | a |
| |
− | | |
− | आज इस विषय की सर्वथा विस्मृति हुई है। उसे
| |
− | पुन: स्मरण में लाने हेतु योजनापूर्वक प्रयास करने की
| |
− | आवश्यकता है । शिक्षाक्षेत्र के सौजन्य लोगों को इस ओर
| |
− | ध्यान देने की आवश्यकता है ।
| |
− | | |
− |
| |
− | �
| |
− | | |
− | ............. page-131 .............
| |
− | | |
− | पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
| |
− | | |
− | ८८
| |
− | | |
− |
| |
− | | |
− |
| |
− | | |
− | LE
| |
− | LLYBOEBES
| |
− | LABS
| |
− | | |
− |
| |
− | | |
− |
| |
− | | |
− | पर्व ३
| |
− | विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
| |
− | | |
− | शैक्षिक व्यवस्थाओं की छोटी छोटी बातों का भी जब भारतीय जीवनदृष्टि
| |
− | के प्रकाश में विचार करते हैं तब ध्यान में आता है कि शिक्षा के पश्चिमीकरण
| |
− | की पैठ कितनी अन्दर तक गई है । जडवादी, अनात्मवादी दृष्टि ने छोटी छोटी
| |
− | बातों का स्वरूप बदल दिया है । शिक्षा का भारतीयकरण करने हेतु हमें भी
| |
− | गहराई में जाकर परिवर्तन करना होगा । ऐसा परिवर्तन सरल तो नहीं होगा ।
| |
− | वह केवल बाहरी स्वरूप का परिवर्तन नहीं होगा । इन व्यवस्थाओं के पीछे
| |
− | जो मानस है उसका परिवर्तन किये बिना बाहरी परिवर्तन सम्भव नहीं है । अतः
| |
− | छोटी से छोटी बातों का पुनर्विचार करने का प्रयास इस पर्व में किया गया है ।
| |
− | इसके पूर्व के पर्व में विद्यालय और परिवार का सम्बन्ध बताया गया था |
| |
− | भोजन और पानी, गणवेश और बस्ता, वाहन और अन्य सुविधाओं का विचार
| |
− | विद्यालय और परिवार दोनों मिलकर करेंगे तभी परिवर्तन सम्भव होगा, तभी
| |
− | वह सार्थक भी होगा । शिक्षा की समस्त प्रक्रियाओं में दोनों कितने अनिवार्य
| |
− | रूप से जुडे हुए हैं यही बताने का प्रयास इसमें किया गया है ।
| |
− | | |
− | खण्ड खण्ड में विचार करने से शिक्षा कितनी यान्त्रिक और निर्रर्थक बन
| |
− | जाती है । और संश्लेष्ट रूप में देखने से छोटी बातें भी कितनी महत्त्वपूर्ण बन
| |
− | जाती हैं यह भी इस चर्चा का निष्कर्ष है ।
| |
− | | |
− |
| |
− | | |
− |
| |
− | | |
− | ११५
| |
− | | |
− |
| |
− | | |
− |
| |
− | �
| |
− | | |
− | ............. page-132 .............
| |
− | | |
− |
| |
− | | |
− | Ro.
| |
− | 8.
| |
− | x.
| |
| | | |
− | अनुक्रमणिका
| + | घर की पढाई के अभाव में घर में विद्यालय की पढाई पर ही ज़ोर दिया जाता है। विद्यालय के द्वारा दिया गया गृहकार्य तो होता ही है, ऊपर से अनेक प्रकार की अन्य गतिविधियों के लिए भी आग्रह किया जाता है। विभिन्न प्रकार के कोचिंग और ट्यूशन की भरमार होती है, यहाँ तक कि छुट्टियों में चित्रकाम, तैराकी आदि सीखने का आग्रह किया जाता है। संक्षेप में पढ़ने की दुनिया घर से बाहर ही होती है। |
| | | |
− | विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ | + | सत्य तो यह है कि घर की भी एक दुनिया होती है जो विद्यालय के समान महत्त्वपूर्ण होती है। घर के ही अनेक काम होते हैं जो सीखने होते हैं। वे भी बाल, किशोर और तरुण आयु में ही सीखे जाते हैं। |
| | | |
− | छात्र के शैक्षिक कार्य | + | घर में उसे छात्र नहीं कहा जाता है। वह पुत्र, भाई, पौत्र आदि भूमिका में रहता है। इन्हीं भूमिकाओं को लेकर उसे अनेक बातें सीखनी होती हैं। वह अपने दादा - दादी का पौत्र है तो उसे उनकी सेवा करनी है। इस सन्दर्भ में उसे अनेक छोटे बड़े काम सीखने होते हैं। उनकी सेवा करते करते वह उनके अनेक अनुभव सुनता है जिससे उसे ज्ञान प्राप्त होता है। वह अपने मातापिता का पत्र है। उस रूप में उसे उनके कामों में सहयोगी बनना होता है। यह भी उसे सीखना ही है। वह अपने भाईयबहनों का भाई होता है। इस भूमिका में उसे उनके साथ खेलना औए सीखना सिखाना होता है। घर में अतिथि आते हैं। उसे अतिथिसत्कार करना सीखना होता है। घर में अनेक उत्सव मनाए जाते हैं। उनके विषय में जानना होता है। |
| | | |
− | विद्यालय में भोजन एवं जल व्यवस्था | + | विद्यालय में जीवन का बहुत अल्प समय जाना होता है। सम्पूर्ण जीवन घर में ही जीना होता है। इस दृष्टि से जीवनविकास के महत्त्वपूर्ण आयामों की शिक्षा घर में होती है। भोजन, निद्रा, व्यायाम आदि शरीर को स्वस्थ रखने की बातें घर में सीखी जाती हैं। केवल खाना और सोना ही नहीं होता है तो भोजन बनाना और परोसना तथा बिस्तर लगाना और समेटना भी होता है। उनसे संबंधित कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना,घर के लिए आवश्यक सामान की खरीदी करना आदि अनेक बातें सीखनी होती हैं। |
− | विद्यालय का समाज में स्थान
| |
| | | |
− | विद्यालय में अध्ययन विचार | + | मातापिता के काम में सहयोग करते करते स्वयं की ज़िम्मेचलाना है। विद्यालय में ऐसी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती। पढ़ाई का काल पूर्ण होने पर वह विद्यालय छोड़ देता है परन्तु घर में तो वह आजीवन रहता है। इसलिये घर चलाना सीखना बहुत महत्त्वपूर्ण है । दारी से इन कामों को करना सीखा जाता है । यह सीखना इसलिये आवश्यक होता है क्योंकि भविष्य में उसे यही घर का स्वामी बनना होता है। |
| | | |
− | श्१श्द
| + | सभ्य और सुसंस्कृत जीवन जीने के लिए पैसे कमाना ही पर्याप्त नहीं होता। जीवनव्यवहार की अनेक बातें अच्छी तरह से करनी होती हैं। ये सब उसे सीखनी होती है। |
| | | |
− | भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
| + | यह सब सिखाने वाले मातापिता और अन्य सदस्य होते हैं। वह जीवनमूल्य सीखता है, कुलपरम्परा ग्रहण करता है। समाजसेवा सीखता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह जीवन का दृष्टिकोण भी घर में ही सीखता है। |
| | | |
− | श१७
| + | आज इस विषय की सर्वथा विस्मृति हुई है। उसे पुनः स्मरण में लाने हेतु योजनापूर्वक प्रयास करने की आवश्यकता है। शिक्षाक्षेत्र के सौजन्य लोगों को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है । |
− | शु४६०
| |
− | R&R
| |
− | cx
| |
| | | |
− | श्९६
| + | ==References== |
− | �
| + | <references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |
| + | [[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला)]] |
| + | [[Category:Education Series]] |
| + | [[Category:भारतीय शिक्षा : भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]] |